Raat ke 11baje - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

रात के ११बजे - भाग - ४

होती थी। उस समय वह मन्दिर में इसे ऊंचे स्वर में गाया करती थी। आज वह मन ही मन ईश्वर से वही प्रार्थना कर रही थी।

इतनी कृपा दिखाना हे प्रभु कभी न हो अभिमान।

मस्तक ऊंचा रहे मान से ऐसे हों सब काम।

रहें समर्पित करें देषहित, देना यह आशीष।

विनत भाव से प्रभु चरणों में झुका रहे यह शीश।

करें दुख में सुख का अहसास रहे तन-मन में यह आभास।

धर्म से कर्म, कर्म से सृजन, सृजन में हो समाज उत्थान।

चलूं जब इस दुनियां का छोड़ ध्यान में रहे तुम्हारा नाम।

दर्शन के बाद जब मानसी ऊपर आई तो गौरव की तकलीफ देखते हुए उसने आगे का प्रोग्राम कैन्सिल कर दिया और गौरव को लेकर होटल आ गई। होटल में उसने उसे डाक्टर द्वारा दी गई दर्द और नींद की गोली खिला दी। इससे उसे दर्द में भी आराम लगा और उसे नींद भी आ गई। कुछ देर में वह सो गया। मानसी बाहर आकर बरामदे में बैठ गई। वह वहां रखी पत्रिका के पन्ने पलटती रही फिर होटल के बाहर के प्राकृतिक दृश्यो को देखते-देखते अपने खयालों में खो गई।

राकेश की मीटिंग कुछ जल्दी खत्म हो गई थी। वह कुछ पहले ही वापिस आ गया था। आने पर मानसी ने उसे गौरव के विषय में बताया तो राकेश कमरे में उसे देखने पहुँचा। वह सो रहा था। राकेश ने उसे नहीं जगाया। वह फिर बाहर आकर मानसी के साथ ही बैठ गया। उसने मानसी से पूछा तो उसने बताया- मैं तो बाथरुम में नहा रही थी तभी मैंने जोर की कुर्सी गिरने की और गौरव की आवाज सुनी। मुझे लगा कि पता नहीं क्या हो गया। मैं जल्दी-जल्दी नहाकर बाहर आई। तब तक वेटर इन्हें कमरे में बिस्तर पर लिटा चुके थे। इनको बहुत दर्द था। इनकी हालत देखकर मैं जल्दी से तैयार हुई और इन्हें अस्पताल ले जाने के लिये बाहर निकली। मैंने वेटर को बुलाकर इनकी मदद करके इन्हें बाहर टैक्सी तक पहुँचाने को कहा। जब मैं कमरे के बाहर निकली तो मैंने वहां देखा जहां ये गिरे थे। वह कुर्सी अभी भी वहीं थी। उसकी एक टांग टूट चुकी थी। उसे उठाकर वेटर ने किनारे भर कर दिया था। वे वेटर जिस प्रकार मुस्करा रहे थे वह मुझे अजीब लग रहा था। अब मुझे उनकी मुस्कराहट का राज समझ में आया। गौरव मुझे नहाते हुए देखने की कोशिश में ही गिरा है। सब कुछ सुनकर राकेश को पहले तो गौरव की हरकत पर गुस्सा आया पर मानसी के चेहरे को देखकर वह मुस्करा उठा।

मानसी ने पूछा- आपकी मीटिंग कैसी रही?

अच्छी रही। सभी निर्णय एक मत से तय हो गए इसीलिये जल्दी आ गया।

आपने भोजन कर लिया है?

अभी नहीं किया।

तो फिर खाना बुलवा लूं?

क्या तुम्हें भूख लगी है?

नहीं ! नाश्ता कर लिया था। वह भी कुछ भारी ही था।

फिर गौरव को भी उठ जाने दो। एक साथ खाएंगे। मैंने भी वहां नाश्ता कर लिया था। वह भी भारी था। कल से तुम्हारे अतीत को जानने के बाद मेरा मन कुछ विचलित सा है। मैं सोचता रहा। मेरे मन में एक ही बात आती है कि जो बीत गया सो बीत गया किन्तु तुम्हारा भविष्य वैसा न रहे जैसा तुम्हारा भूतकाल रहा। तुम अपने बल पर समाज में सम्मान पूर्वक जियो यही मेरी कामना है। किन्तु यह इतना सहज भी नहीं है। इसके लिये जो भी करना है तुम्हीं को करना है और क्या करना है यह भी तुम्हीं को तय करना है। इतना जरुर है कि मैं हर कदम पर एक सच्चे हितैषी के रूप में तुम्हारे साथ हूँ।

मैं तुमसे एक बात और कहना चाहता हूँ कि तुमने जिस भोलेपन और निश्छलता के साथ सब कूछ मुझे बता दिया उस तरह से किसी और को मत बताना। यह दुनियां बड़ी अजीब है। इसकी तासीर बड़ी विचित्र है। यह औरों के कष्ट से सुखी होती है और औरों के सुख में दुखी हो जाती है। अपनी व्यथा को कथा मत बनाओ। इसे दुनियां को मत सुनाओ। कोई तुम्हारी पीड़ा को नहीं बांटेगा। स्वयं को मजबूर नहीं मजबूत बनाओ। अपनी आत्मशक्ति और आत्मविश्वास को संचित करो। फिर विचार करो, समय को पहचानो। परिश्रम का कोई विकल्प नहीं होता। परिश्रम करोगी तो ये दुख के पल भी बीत जाएंगे। तब सफलता अवश्य मिलेगी। तब दूसरे लोग भी तुमसे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ने लगेंगे।

जीवन में धन की उपयोगिता तभी है जब उसका दुरूपयोग न हो। गरीबी व अमीरी दोनों की प्रचुरता कष्टदायक हो सकती है। गरीबी देती है अभावों को जन्म और अत्यधिक अमीरी दुर्व्यसन पैदा करती है। इसीलिये हमारे धर्मग्रन्थ कहते हैं- सांईं इतना दीजिये जामें कुटुम समाय, मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।

ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना की है और उसकी इस सृष्टि में उसकी सबसे सर्वश्रेष्ठ कृति मानव है। मानव में सृजन और विकास की अद्भुत क्षमता है। हममें दूरदृष्टि हो, हमारा इरादा पक्का हो, हममें साहस हो और ईमानदारी से काम करने का जज्बा हो तो सफलता हमारे कदम चूमती है। जहां धर्म और कर्म होते हैं सुख भी वहीं होता है। यह सही है कि सृजन के साथ ही विनाश भी रहता है। जहां लय और ताल होते हैं वहीं स्वरों में मधुरता होती है। जहां हरियाली होती है वहां सौन्दर्य होता है। राकेश भावुकता में बह रहा था। वह कहता जा रहा था और मानसी किसी मूर्ति के समान एक टक उसे देखते हुए सुन रही थी। वह कह रहा था- जहां झरने और पर्वत हैं वहां सौन्दर्य होता है। जहां जल होता है वहां जीवन होता है। जहां सच्ची चाहत होती है वहीं प्राप्ति भी निश्चित ही होती है। जहां ईश्वर साथ होता है वहां भाग्य भी साथ निभाता है। जहां परिश्रम और प्रयास होता है वहां ईश्वर की मदद भी होती है। आवश्यकता केवल ईमानदारी से और पूरे मनोयोग से परिश्रम करने की होती है।

यह एक कटु सत्य है कि असफलताओं का इतिहास नहीं होता और न ही इन्हें कोई याद करता है। ये विस्मृतियों के गर्त में समा जाती हैं। यदि हम विचार करें तो पाएंगे कि असफलता ही सफलता की जननी है। यही हमारी त्रुटियों को दिखाकर हमें सही राह की ओर मोड़ देती हैं। तभी हमें सफलता प्राप्त होकर हमारी आगे की पीढ़ियों को भी समृद्धता प्राप्त होती है।

मानसी से इस लय में और इस लहजे में आज से पहले किसी ने बात नहीं की थी। वह भाव-विभोर हो गई थी। उसकी आंखें सजल हो चुकीं थीं। राकेश उसके पास आ गया। उसने अपने रूमाल से उसकी आंखों से उसके गालों पर ढुलके हुए खारे पानी को पोंछते हुए कहा- हिम्मत रखो और साहस से काम लो। मैं हर कदम पर तुम्हारे साथ हूँ। राकेश का स्पर्श मिलते ही मानसी जैसे तन्द्रा से जागी हो। उसने अपने हाथों से अपने आंसू पोंछने का प्रयास किया।

राकेश ने स्थितियों को सहज बनाने के मकसद से जानते हुए भी उससे पूछा- गौरव कैसे घायल हो गया। वह आखिर कर क्या रहा था।

उसने मुस्कराते हुए कहा- आप सब समझते हैं। फिर मुझे क्यों परेशान कर रहे हैं। तभी कमरे से गौरव की आवाज आयी। वह मानसी को पुकार रहा था। उसकी आवाज सुनकर राकेश और मानसी दोनों भीतर गये। राकेश को देखते ही गौरव ने पूछा- तुम कब आ गए?

जब तुम सो रहे थे। अब दर्द कैसा है? पैर में ही है या आंखों के रास्ते दिल में समा गया है? गौरव झेंप गया। मानसी के होठों पर भी मुस्कराहट तैर गई। उसकी झेंप उसके भीतर के चोर की चुगली कर रही थी। राकेश ने मानसी से कहा- अब भोजन बुलवा लो? मानसी ने फोन का रिसीवर उठाकर भोजन का आर्डर दे दिया।

भोजन के बाद राकेश ने गौरव को आराम करने की हिदायत दी। उसने मानसी से कहा कि सुबह तुम छोटे महादेव के दर्शनों को नहीं जा पाईं थीं। चलो तुम्हें दर्शन करा लाऊं। तुम्हारे माध्यम से मुझे भी शिव के दर्शनों का सौभाग्य मिल जाएगा। वे कमरे से निकल पड़े।

टैक्सी बढ़ती जा रही थी। सागौन के ऊंचे-ऊंचे वृक्ष पीछे छूटते जा रहे थे। सड़क के एक ओर ऊंची-ऊंची भूरी-भूरी पहाड़ियां थीं तो दूसरी ओर गहरी खाइयां। इनके बीच सर्प सी बलखाती सड़क पर चलती टैक्सी कभी दायें और कभी बायें मुड़ती हुई आगे बढ़ती जा रही थी। जब थोड़ा शोरगुल कानों में पड़ा और टैक्सी रूकी तो दोनों ही चौके थे। दोनों ही विपरीत दरवाजों से टैक्सी से बाहर आ गए।

सूरज पश्चिम में अपने विश्राम सदन की ओर जा रहा था। प्रकाश कुछ-कुछ कम होने लगा था। गुफा के भीतर टपकती हुई बूंदों के बीच बैठे शिव ऐसे लग रहे थे जैसे कोई योगी अपनी तपस्या में लीन हो। दोनों ही इस दिव्य वातावरण में मंत्रमुग्ध से शिव के इस रुप के आगे नतमस्तक हो गए। उनका अंतरमन कामना विहीन हो गया। वे इस संसार और अपने अस्तित्व को कुछ क्षणों के लिये भूल बैठे। जब तन्द्रा भंग हुई तो वे प्रभु के चरणों में प्रणाम करते हुए गुफा से बाहर आ गए। अंधेरा घिरने लगा था। हवा में ठण्डक बढ़ती जा रही दोनों को ही होटल वापिस पहुँचने की जल्दी थी। वे टैक्सी में बैठे और रवाना हो गए। रास्ते में कुछ हल्की-फुल्की बातचीत चलती रही। होटल वापिस आकर उन्होंने देखा कि गौरव जाग उठा था और गर्म कपड़े पहनकर बरामदे में बैठा हुआ था।

तीनों कमरे के भीतर आ गए। राकेश ने होटल के वेटर को बुलाया और अपने लिये व्हिस्की का आर्डर दिया गौरव हमेशा ही बियर पीता था इसलिये उसके लिये बियर और मानसी के लिये साफ्ट ड्रिंक मंगवाई गई। राकेश और मानसी ने हाथ मुंह धोकर जब तक हल्के और गर्म कपड़े पहने तब तक सारा सामान आ चुका था।

गौरव लेटे-लेटे ही अखबार के पन्नों में खोया हुआ था। राकेश ने उससे पूछा- भाई जी आज क्या कोई खास खबर है ? बड़े मन लगाकर पेपर में डूबे हो ?

खास खबर क्या होगी ? वही बलात्कर, वही हत्या, वही अत्याचार और राजनीति की टांग खिच्चौअल। इसके अलावा अखबारों में रहता ही क्या है ? अखबारों में सिर्फ चमकदार शहरों की दागदार दास्तानें होतीं हैं। कहने को देश को आजाद हुए 64 साल हो गए। देश में प्रजातंत्र है, लेकिन अखबारों के पन्नों पर नेताओं, अफसरों, पुलिस, व्यापारी और अपराधियों का कब्जा है। गांव-देहात आज भी उपेक्षित हैं। वहां आज भी जंगल राज चल रहा है।

उत्तर प्रदेश में आगरा के पास एक गांव के पनघट पर एक गरीब महिला जो किसी पिछड़ी जाति की थी, प्यासी खड़ी थी। मैं उसे चुपचाप देख रहा था। उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि वह कुएं से पानी निकाल कर पी ले। उस गांव में गांव के जमींदार का राज्य चलता था। वह सवर्ण था और पिछड़ी जातियों को उस कुएं से पानी लेना वर्जित था।

एक बार उसने हिम्मत की थी। वह इस व्यवस्था से विद्रोह करके पुलिस के दरवाजे पर न्याय मांगने गई थी। वहां उसे अपनी अस्मत तक लुटानी पड़ी। दूसरे दिन उसकी अस्मत लूटने वाले वर्दीधारी जमींदार के यहां सम्मानित किए जा रहे थे।

इस घटना के बाद वह अपनों में भी तिरस्कृत हो गई थी। सभी ने उसे छोड़ दिया था। वह अब पतित कहलाती थी। पूरे समाज में कोई नहीं था जो उसे अपना ले और उसके जीवन को संवार दे।

देश में अनेक नेता आए और चले गए। वह महिला और उस जैसी न जाने कितनी महिलाएं आज भी जहां की तहां हैं। वे प्यासी थीं और प्यास ही उनकी जीवन की नियति है। ऐसे समाज और ऐसे अखबारों में तुम किन समाचारों की बात कर रहे हो?

राकेश भाई! हमने केवल भौतिक सुख-सुविधाओं में तरक्की की है, नैतिकता की दृष्टि से हम बहुत नीचे चले गए हैं। हमारी संवेदनाएं मरती जा रहीं हैं। हमारी सभ्यता दिखावटी हो चली है और हमारी संस्कृति अपना मूल स्वरुप खोकर विकृत और वीभत्स होती चली जा रही है।

कभी हमारे यहां शादी के बाद दुल्हन को डोली में बैठाकर विदा के समय कहार कन्धों पर लेकर जाते थे। उस समय हमारा यह तथाकथित विकास नहीं हुआ था। यातायात के साधनों का नितान्त अभाव था। रास्ते भी टेढ़े-मेढ़े, जंगलों और पहाड़ों के बीच से जाते थे। राह में अगर कोई चोर डाकू भी मिल जाए तो वह उस दुल्हन का सम्मान करता था, उसे उपहार देता था, अपनी शुभकामनाएं देता था और उसे अपनी सीमाओं के बाहर तक ससम्मान सुरक्षित विदा करता था। कभी भी किसी के साथ ऐसी वारदातें नहीं होतीं थीं जैसी आज रोज राह चलते हो रही हैं।

मैं एक ऐसी महिला को जानता हूँ जो विवाह के बाद दूसरी या तीसरी विदाई में दुल्हन के रुप में कार में विदा हो कर जा रही थी। रास्ते में उस कार के ड्राइवर ने कुछ अपराधियों के साथ मिलकर उसके साथ सामूहिक बलात्कार का दुष्कर्म कर डाला। वह ससुराल पहुँचने के पहले ही पुलिस स्टेशन पहुँच गई। वहां थानेदार ने भी उससे ऐसे-ऐसे सवाल पूंछे जिनको दोहराना भी संभव नहीं है। उस थानेदार ने अपराधियों का पता लगाया और उनसे मिलकर तगड़ी रकम वसूली फिर मामले को रफादफा कर दिया।

जब वह ससुराल पहुँची तो उसके पति ने उसे स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। दुर्भाग्यवश उसे अपने पिता के घर वापिस जाना पड़ा। वह एक साहसी और समझदार महिला थी। उसने परिश्रम करके गृहउद्योग के माध्यम से अपने आप को स्वाबलंबी बनाया। उसका काम अच्छा चल पड़ा। उसने अपने जैसी अनेक महिलाओं की मदद की और उन्हें भी उनके पैरों पर खड़ा करके आत्म निर्भर बना दिया।

राकेश को सिगरेट की तलब लगी। वह गौरव से कहता है- यार तुम कार लेकर बाजार से सिगरेट ले आओ। दिन भर से होटल में पड़े हो कुछ तफरीह हो जाएगी। गौरव जाने के लिये तैयार होकर जाने लगता है। उसी समय मानसी कहती है मुझे भी बाजार से थोड़ा सा सामान लेना है। आपकी इजाजत हो तो मैं भी इनके साथ चली जाऊं। राकेश सहमति दे देता है। वे दोनों होटल की टैक्सी पर बाजार के लिये निकल पड़ते हैं। बाजार होटल से लगभग एक किलोमीटर दूर था।

राकेश बैठा व्हिस्की की चुस्कियां ले रहा था तभी उसकी नजर एक डायरी पर पड़ती है। उत्सुकतावश वह उसे उठा लेता है। जब वह उसे खोलता है तो उसे समझ में आता है कि वह मानसी की डायरी थी जो भूल से बाहर ही छूट गई थी। वह उसे रखना भूल गई थी। राकेश उसके कुछ पन्ने पलटता है तो एक पन्ने पर उसे अपना नाम दिखलाई देता है। उस पन्ने पर उसे संबोधित करके लिखा गया था। वह उसे पढ़ने लगता है।

मेरा प्यार सागर सा गहरा और त्रिवेणी सा पवित्र है। क्या आप मेरे प्यार को स्वीकार करेंगे ? मैं आपके प्रेम की प्यासी हूँ। मैं जानती हूँ कि यह आसान नहीं है लेकिन यह असंभव भी तो नहीं है। मुझे लगता है कि यदि सच्चाई और ईमानदारी की राह पर चला जाए। मन में धैर्य हो, सफलता की चाह हो, उत्साह हो और सही राह पर आगे बढ़ा जाए। विपत्तियों के ज्वार-भाटों में भी संघर्षरत रहा जाए तो विजय अवश्य मिलेगी। जीवन में सुख-समृद्धि और वैभव अवश्य आएगा। जीवन खुशियों से भर जाएगा। प्यार की खुशबू से हमारा आंगन महक उठेगा। हमारा प्यार भरा जीवन ऐसा ही होगा। .......... पढ़ते-पढ़ते राकेश व्हिस्की का एक गहरा घूंट लेता है और मुस्करा उठता है।

इधर टैक्सी होटल के बाहर निकली तो गौरव ने मानसी से कहा- राकेश आपको बहुत चाहता है।

हां! हो सकता है।

हो सकता है नहीं, वह वास्तव में चाहता है।

हाँ! कभी-कभी मुझे ऐसा लगता तो है किन्तु कहाँ मैं और कहाँ वो।

वैसे आनन्द भी आपको बहुत चाहता है। मैं तो दोनों का ही मित्र हूँ। दोनों को जानता हूँ। आनन्द आपके विषय में हमेशा बातें करता है। वह आपसे बात करना चाहता है।

मैं किसी से बात नहीं करना चाहती।

बात करने में क्या हर्ज है।

मुझे नहीं करना।

मेरी खातिर कर लीजिए।

गौरव मानसी के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही आनन्द को फोन लगा लेता है। वह उसे बताता है कि वे और मानसी बाजार जा रहे हैं। वह उसे मानसी से बात करने के लिये कहता है और फोन मानसी की ओर बढ़ा देता है। मानसी कहती है हलो!

कैसी हो?

अच्छी हूँ।

गौरव ने तुमसे मेरे बारे में कुछ कहा है ?

हाँ ! कहा तो है।

तुम मेरे विषय में क्या सोचती हो ?

मैं आपके विषय में कुछ भी नहीं सोचती।

पर मैं तो हर समय तुम्हारे ही विषय में सोचता रहता हूँ। मुझे तुम्हारे बिना अपना जीवन अधूरा लगता है। गौरव ने तो तुम्हें बताया ही होगा। तुम अगर मुझे स्वीकार कर लो तो मेरे जीवन में खुशियों की बरसात हो जाएगी। विश्वास रखो मैं तुम्हारे लिये कुछ भी करने को तैयार हूँ। मेरे रहते तुम्हारे जीवन में किसी भी प्रकार का कोई अभाव नहीं रहेगा। तुम कल्पनाओं की रानी हो तो मैं वास्तविकता का राजा हूँ। तुम रुप की रानी हो तो मैं धन का महाराजा हूँ। तुम चांद की चांदनी हो तो मैं सूरज की धूप हूँ। जीवन में सब कुछ पाया लेकिन एक दिन यह काया मिट जाना है। शेष रह जाएंगी केवल स्मृतियां।

मुझे आपसे कुछ भी नहीं चाहिए। अच्छा हो कि आप अपने आप को पल्लवी तक ही सीमित रखें। मैं आपकी इस मामले में कोई मदद नहीं कर सकती। मैंने अपने जीवन का रास्ता निश्चित कर लिया है। मेरा और आपका रास्ता अलग-अलग है। यह कहते-कहते वह फोन बन्द कर देती है और गौरव की ओर बढ़ा देती है।

वह गौरव से कहती है ऐसे लोग सच्चाई को नहीं समझ सकते। अपनी विचित्र सोच और समझ के कारण इनकी कार्यशैली भी विचित्र होती है। जो इन्हें सही रास्ता दिखलाता है उसे ये अपना दुश्मन समझते हैं। ये खुद ही फरियादी होते हैं और खुद ही न्यायाधीश हो जाते हैं।

आनन्द का फोन फिर आता है लेकिन तब तक वे बाजार पहुँच चुके थे। गौरव उससे कहता है कि तुम स्वयं बात कर चुके हो और मुझे नहीं लगता कि अब बात करने को कुछ भी शेष