Nishchhal aatma ki prem-pipasa - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 4

निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... (४)

पूज्य पिताजी ने अपने एक लेख 'मरणोत्तर जीवन' में लिखा है--"मनुष्य-शरीर में आत्मा की सत्ता सभी स्वीकार करते हैं। शरीर मरणशील है, आत्मा अमर। मृत्यु के बाद शरीर को नष्ट होता हुआ--जलाकर, गाड़कर या अपचय के द्वारा--सभी देखते हैं, लेकिन आत्मा का क्या होता है? वह कहाँ जाती है? क्या करती है? शरीर के नष्ट होने के बाद उसका अधिवास कहाँ होता है? क्या इस जगत से उसका सम्बन्ध बना रहता है? क्या वह व्यक्ति-विशेष का ही प्रतिनिधित्व करती है? ये और इससे सम्बद्ध अन्य अनेक प्रश्न स्वभावतः मानव-मन में उठते रहते हैं। लेकिन आज के युग में उसका सुनिश्चित, तर्क-संगत, वैज्ञानिक उत्तर नहीं मिल पाता। इसलिए मनुष्य का मन ऊहापोह में पड़ा रहता है। उसकी खोज, उसके चिंतन का क्रम चलता रहता है।
हमारे पुराणों में मरणोत्तर जीवन का बड़ा विशद और संशय-रहित विवरण मिलता है। लेकिन आज के आदमी के लिए उसकी विशदता और संशयहीनता ही अविश्वास का कारण बनती है। उसका कहना है कि स्वयं मरे बिना मरणोत्तर जीवन की बात कैसे जानी जा सकती है और मरने के बाद उसे लिपिबद्ध कैसे किया जा सकता है? इसलिए पुराणों का विवरण कोरी कल्पना मात्र है।"
आत्मा की सत्ता के विवाद में मैं नहीं पड़ना चाहूंगा। वैसे भी अनुभूत सत्य को प्रमाण की अपेक्षा नहीं होती। मरणोत्तर जीवन को जानने की अभीप्सा निरंतर बनी रही और जीवन अपनी राह चलता रहा।
मैंने १९७४ में पटना विश्वविद्यालय से स्नातक, वाणिज्य की उपाधि प्राप्त की और पूज्य पिताजी के पास दिल्ली चला आया। सन १९७५ में मैंने अपनी पहली नौकरी के लिए दिल्ली से कानपुर के लिए प्रस्थान किया। उत्तर भारत की एक प्रतिनिधि टेक्सटाइल कंपनी (स्वदेशी कॉटन मिल्स) में मुझे नियुक्ति मिली थी, पद था--लेखा-सहायक का। पिताजी ने एक पत्र मुझे चलते वक़्त दिया था श्रीलेखा विद्यार्थी के नाम। वह हुतात्मा गणेशशंकर विद्यार्थी की पौत्री थीं। पत्र-लेखक स्व. मार्तण्ड उपाध्यायजी थे। मार्तण्ड बाबूजी पिताजी की युवावस्था के दिनों के मित्र तो थे ही, कालान्तर में वह पिताजी के समधी भी बने थे। मेरी बड़ी बहन का विवाह उन्हीं के कनिष्ठ पुत्र से हुआ था। पुराने दिनों में ('प्रताप' के ज़माने में) पिताजी का भी प्रगाढ़ सम्बन्ध और पत्राचार गणेशशंकरजी से रहा था, किन्तु उनके अवसान के बाद वह सम्बन्ध-संपर्क विच्छिन्न हो गया था। मार्तण्ड बाबूजी का उनके परिवार की नयी पीढ़ी से संपर्क बना रहा। वह बहुत स्नेही, प्यार बाँटने वाले उदारमना भद्रपुरुष थे। उन्होंने स्वयं प्रवृत्त होकर श्रीलेखाजी के नाम वह पत्र लिखा था, ताकि कानपुर में यदि मुझे कोई परेशानी हो, तो उससे मेरी रक्षा हो सके।
बहरहाल, कानपुर पहुँचकर मैंने पद-भार स्वीकार कर लिया। जूही (कानपुर) के मिल-ऑफिस में मुझे पदस्थापित किया गया था तथा मिल से सम्बद्ध एक अलग परिसर में बने स्वदेशी कॉलोनी के बैचलर्स क्वार्टर में एक कमरा मुझे दिया गया था। बैचलर्स क्वार्टर का एक मेस भी था, जिससे दो वक़्त का भोजन मुझे मिल जाता था। मैं प्रतिदिन दफ़्तर जाने लगा।
जिस दिन मैंने स्वदेशी मिल ज्वाइन किया, उसके ठीक दूसरे दिन एक अन्य युवक ने भी स्वदेशी मिल के लेखा विभाग में नौकरी पकड़ी--सुदर्शन, गौरांग, कसी हुई बलिष्ठ भुजाओंवाले और कंधे तक झूलते हिप्पी-जैसे केशोंवाले युवा! उनका नाम था--ध्रुवेन्द्रप्रताप शाही। उन्हें मेरे ही समतुल्य पद पर नियुक्त किया गया था तथा स्वदेशी कॉलोनी के बैचलर्स क्वार्टर में मेरा ही रूम-पार्टनर बनाया गया था। दफ़्तर तो वह आने लगे थे, लेकिन मेरा रूम-पार्टनर बनने में उन्होंने प्रायः दो-ढाई महीने का वक़्त लगाया। दरअसल, उनके बड़े पिता का निवास कानपुर के आर्य नगर में था, वह वहीं से साइकिल चलाकर दफ़्तर आया करते थे। पहली ही मुलाक़ात में उनके व्यक्तित्व ने मुझे आकर्षित किया था, लेकिन वह मुझे कम मिलनसार व्यक्ति लगे थे, थोड़े चुप-से, थोड़े अकड़ू। दो-ढाई महीने बाद जब वह सचमुच मेरे रूम-पार्टनर बने और उनके निकट आने का मुझे पर्याप्त अवसर मिला, तो ज्ञात हुआ कि वह एक गम्भीर व्यक्ति अवश्य हैं, लेकिन नीरस नहीं। कालान्तर में उनसे मेरी मित्रता इतनी प्रगाढ़ हुई कि आज इतने वर्षो बाद भी वह ज्यों-की-त्यों बनी हुई है।
कानपुर पहुँचने के बाद जो पहला रविवार का अवकाश मुझे मिला, उसी दिन सुबह तैयार होकर मैं मार्तण्ड बाबूजी के पत्र के साथ श्रीलेखा विद्यार्थीजी से मिलने उनके तिलक नगर आवास पर पहुंचा। एक विशाल परिसर के बीच बना वह पुरानी हवेली-सा मकान था। उनके सम्मुख पहुंचते ही मैंने मार्तण्ड बाबूजी का पत्र उन्हें दिया। पत्र पढ़कर वह बहुत प्रसन्न हुईं। वह कानपुर न्यायालय की सरकारी वकील और समाज की सम्मानित महिला थीं--अविवाहिता। उस हवेलीनुमा मकान के अग्र भाग में उनका दफ्तर था और पीछे आवास। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अपनी छोटी बहन को बुलाया, जिनका नाम मधुलेखा विद्यार्थी था। मधुलेखाजी कानपुर के एक महाविद्यालय में हिंदी की व्याख्याता थीं। वे दोनों बहनें बहुत आत्मीयता से मिलीं और मुझे देर तक अपने पास रोके रखा। दिन का खाना खिलाकर और प्रति-सप्ताह घर आने का वादा लेकर ही उन्होंने मुझे विदा किया। दोनों बहनों ने इतना स्नेह दिया कि मैं अभिभूत हो गया। उन दोनों ने मुझे अपना मुंहबोला भाई बना लिया और क्रमशः अपनत्व इतना प्रगाढ़ हुआ कि मैं प्रति शनिवार उनके घर जाता और सोमवार की सुबह सीधे दफ्तर के लिए वहाँ से निकलता। जब तक मैं कानपुर में रहा, यह सिलसिला अनवरत चलता रहा।
(क्रमशः)