Jo Ghar Funke Apna - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

जो घर फूंके अपना - 12 - मेरे सपनों की रानी, तू न आई, तो अब मैं ही आता हूँ

जो घर फूंके अपना

12

मेरे सपनों की रानी, तू न आई, तो अब मैं ही आता हूँ

सैद्धांतिक रूप से विवाह करने की हामी मुझसे लेने के बाद पिता जी ने भांप लिया कि मैं यह काम उनके जिम्मे नहीं छोड़ना चाहता था. अतः जीजा जी को इसकी ज़िम्मेदारी सौंप दी गई. जीजा जी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में अधिकारी थे अतः विशेष कार्यव्यस्तता के सताये हुए नहीं थे. भारत की जड़ें खोद देने के लिए सरकार के पी डब्ल्यू डी और नहर विभाग आदि ही काफी थे. पुरातत्व विभाग के पास कहीं नयी खुदाई करने के लिए कोई बजट नहीं था. जो कुछ वस्तुएं अँगरेज़ शासक ज़मीन से खोदकर विभाग के संग्रहालयों में रख गए थे उन्ही को सुरक्षित रख पाना विभाग की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी थी. एकाध बार तो ऐसा भी हुआ था कि दो तीन हज़ार साल पहले की टेराकोटा (पकाई मिट्टी) की चिलम जो नालंदा या कौशाम्बी की खुदाई में मिली थी और अब विभाग के संग्रहालयों में सुरक्षित थी उसे किसी नशेड़ी कर्मचारी ने गांजे का सुट्टा लगाने के लिए चुपके से इस्तेमाल कर लिया था. किसी और ने मोहनजोदाडो और हड़प्पा कालीन पकी मिट्टी के खिलौनों को अपने रोते हुए बच्चों को चुपाने के लिए बहुत मुफीद पाया था. ज़मीन के नीचे सैकड़ों टन सोना छिपे होने की घोषणा करने वाले किसी स्वप्नदृष्टा साधू महात्मा का अविर्भाव तब तक नहीं हुआ था जो पुरातत्व विभाग के लिए कोई काम दिलवा देता. अतः जीजा जी के पास पूरी फुर्सत थी कि वे नालंदा, बोधगया जैसी सुनसान जगहों में अपने कार्यालय में बैठकर मेरी शादी के लिए पत्र व्यवहार में उस सरकारी स्टेशनरी का कुछ प्रयोग तो कर डालें जो बिना प्रयोग में आये, रखे-रखे स्वयं ऐतिहासिक नमूना बन जाती. संयोगवश मेरे भाई साहेब भी इतिहास के विद्वान् और म्यूजियोलोजी (संग्रहालय शास्त्र) के पी एच डी थे. भारत के सर्वाधिक प्रख्यात संग्रहालयों में से एक के उप निदेशक थे. संग्रहालय का पुराना भवन उसमे संग्रहीत अजीबोग़रीब और बहुमूल्य कलात्मक वस्तुओं के लिए बहुत छोटा पड़ चुका था और उसकी जगह एक भव्य नए भवन का निर्माण चल रहा था. भाई साहेब आये दिन अपने संग्रहालय में आने वाले देश विदेश की जानी मानी हस्तिओं के स्वागत के प्रबंध में इतना व्यस्त रहते थे कि अबतक कला और म्यूजियोलोजी दोनों ही के बारे में उन्हें सब पढ़ा लिखा भूल जाना चाहिए था. उस पर से उस प्रख्यात संग्रहालय के निर्माणाधीन भव्य भवन में निदेशक का कार्यालय कक्ष उपनिदेशक के कार्यालय कक्ष से छः गुना बड़ा होने के बजाय केवल दो या ढाई गुना बड़ा क्यों हो इस गहन समस्या को लेकर उनकी अपने बॉस से तना तनी चल रही थी. ऐसे में मेरे विवाह को लेकर उनके ऊपर और बोझ लादना उचित नहीं होता. अतः जीजा जी को ही ये ज़िम्मेदारी देना ठीक जान पड़ा. योजना ये बनी कि जीजा जी हिन्दुस्तान टाइम्स में वैवाहिक विज्ञापन दे दें. यह उस ज़माने में इस बीमारी की रामबाण औषधि माना जाता था. प्रारम्भिक पत्राचार के बाद सारी पत्रावली व तस्वीरें वे मेरे पास भेज देंगे और मैं अपनी पसंद की लडकी चुन पाऊंगा. पिताजी ने योजनानुसार जीजा जी के ऊपर यह महान दायित्व लाद दिया.

छुट्टी समाप्त होने पर मैं वापस अपनी वायुसेना की दुनिया में आ गया पर जीजा जी की मेहनत कोई विशेष रंग नहीं लाई. विज्ञापन दिया गया था कि “छः फुटे, छब्बीस वर्षीय, सुदर्शन, एयर फ़ोर्स में फ़्लाइंग ब्रांच में कार्यरत, चार अंकों में वेतन पानेवाले ( चार अंक 1970 के !) अफसर के लिए उपयुक्त कन्या चाहिए. ( तब कुंवारी कन्या कहना अभद्रता मानी जाती थी. लोग अपने भोलेपन में ये मान कर चलते थे कि कन्या विवाह योग्य है तो कुंवारी ही होगी. ) जांत-पांत-दहेज़ की कोई मांग नहीं. “ उन दिनों विज्ञापन में केवल बॉक्स नंबर दिया जाता था, यह छुपाने के लिए कि लड़के या लडकी को और कोई पूछने वाला नहीं है. नाम पता, फोन नंबर आदि गुप्त रहते थे. अतिरिक्त नकचढ़े लड़के वाले यह भी स्पष्ट करते थे कि विज्ञापन केवल बेहतर चुनाव के लिए दिया गया है. अर्थात अन्यथा तो लड़कियों के झुण्ड के झुण्ड टूटे पड़ रहे हैं. जात पांत के बंधन से मुक्त होने पर भी, या शायद उसी के कारण, मेरे वाले विज्ञापन के उत्तर में आशा से बहुत कम पत्र आये थे. जो आये उन सभी में लड़के की जन्मकुंडली की मांग की गयी थी ताकि इस फ़ौजी लड़के के आयुष्मान होने के सम्बन्ध में ठीक से गणना की जा सके. जो भी हो एक महीने के बाद विज्ञापन दोबारा दिया गया. पर इस बार “वायुसेना में फ़्लाइंग ब्रांच में कार्यरत“ शब्द दबा दिए गए. इस बार बहुत से पत्र आये. पर लड़का आखीर करता क्या है इस बात को बहुत देर तक गुप्त नहीं रखा जा सकता था. राज़ जैसे ही खोला गया अधिकाँश चिड़ियाँ फुर्र! जिन बची खुची लड़कियों से पत्राचार बढ़ पाया था उनमे से चार पांच के पत्र मय फोटोग्राफ के जीजा जी ने मेरे पास अग्रेषित कर दिये. मुझे विशेष मज़ा तो नहीं आया पर जीजा जी के आरंभिक उत्साह पर ठंडा पानी पड़ चुका था इसलिए उन्होंने समझाया कि ये चार पांच लडकियां अच्छे परिवारों की थीं, सुशिक्षित थीं, स्मार्ट भी थीं. मुझे उनको देख तो लेना ही चाहिए. कई बार प्रत्यक्ष मुलाक़ात बहुत से छिपे हुए गुण-दोष सामने ला देती है. फिर आज की तरह उन दिनों लडकियां देखना इतनी बुरी बात नहीं समझी जाती थी. वैसे आज के ज़माने से उन दिनों की बार बार तुलना करना बहुत बुद्धिमत्ता का काम नहीं लगता. मुझे तो अक्सर संदेह होता है कि शादी से पहले ही आजकल लड़के लडकियां इतना कुछ एक दूसरे को दिखा चुका होते हैं कि कुछ और देखने दिखाने के लिए बचता ही कहाँ होगा. बस दिक्कत ये होती होगी कि अनौपचारिक रूप से बहुत कुछ दिखाया हो किसी एक को और औपचारिक रूप से देखने के लिए कोई दूसरा ही आ पहुंचे. आश्चर्य तो तब होता है जब ठाठ से सहजीवन ( लिविंग इन ) का आनंद उठाती हुई कन्याओं को अचानक महीनों/सालों बाद ध्यान आता है कि उनके साथ जो कुछ हुआ है उसे बलात्कार की संज्ञा दी जानी चाहिए और इस नए नाम पर मुहर लगवाने के लिए अदालत की शरण में जाना चाहिए. अगर बात वहाँ तक न पहुँची हो तो भी शादी के लिए देख कर अगर किसी लडकी को देख कर ना कहने की नौबत आई तो आज की महिलाशक्ति से भरपूर कन्या लड़के को अदालत में ठीक से देख लेने की धमकी दे तो आश्चर्य क्या. बहरहाल कम से कम लडकी को औपचारिक रूप से देखने वालों के लिए तब अच्छे दिन चल रहे थे. अतः मैंने भी जीजाजी के छांटे हुए सबसे अच्छे प्रस्तावों में से एक को ‘देखने‘ के लिए हामी भर दी. यह स्पष्ट कर दूं कि चार पांच में से केवल एक को देखने का निर्णय इसलिए लिया था कि कई लड़कियों को देखूँगा तो जिन्हें ‘देखने‘ के बाद मना करूंगा उनके कोमल मन को ठेस लगेगी और आत्मसम्मान आहत होगा. लडकी मैं केवल तभी देखना चाहता था जब उसके पक्ष में मन लगभग पूरी तरह बन चुका हो और देखना मात्र अंतिम औपचारिकता हो. फिर वह भी चाहे तो अपने वीटो का अधिकार स्वछन्द रूप से इस्तेमाल कर सके. यह भी सोचा कि अगर एक बार भी लडकी देखना गलत है तो बेचारे फौजियों का ब्याह होगा कैसे जब वे अपने घर परिवार से बहुत दूर नियुक्त हों और लडकी पूर्व परिचित न हो.

जीजा जी के परिश्रम का नतीजा था कि लडकी देखने का निर्णय तो ले लिया गया पर इसे व्यावहारिक जामा पहनाना कठिन था. लम्बी वार्षिक छुट्टी से लौटकर फिर जल्दी छुट्टी मांगना दुष्कर था. बस एक सुविधा थी- यह लडकी दिल्ली में थी. मुझे गौहाटी से दिल्ली की उड़ान भरने का अवसर महीने में कम से कम एक बार मिल जाता था. अतः मैंने जीजाजी को और उन्होंने लडकी वालों को सूचित कर दिया कि एकाध महीने में मैं दिल्ली जाऊंगा. पंद्रह दिनों के बाद ही जीजाजी का ट्रंक काल आया कि लडकी वाले इस कार्य को जल्दी निपटाना चाहते हैं पर मैं कोई निश्चित तिथि देने में असमर्थ था. हमारी फ़्लाइंग ट्रिप अचानक ही बनती थी अतः यह दिक्कत भी थी कि प्रोग्राम जब भी बनेगा मेरा अकेले का ही बनेगा. घर से माँ या पिताजी या भाई बहनों का साथ जाने का कार्यक्रम नहीं बन पायेगा. पर इस लडकी के बारे में उन सबकी राय अनुकूल थी. बात बस मेरे देखने और हामी भरने पर टिकी थी.

दिल्ली जाने के जिस अवसर की मैं अधीरता से प्रतीक्षा कर रहा था लगभग एक महीने के बाद आया. जैसा कि सामान्य था प्रोग्राम केवल एक दिन पहले निश्चित हुआ. इतना समय भी नहीं मिल पाया कि मैं कम से कम लडकी वालों को फोन करके पूर्व सूचना दे दूं. पर दिल्ली में दो दिन रुकना था. सोचा जाकर अगले दिन का प्रोग्राम बना कर फोन कर दूंगा. हमारे डकोटा विमान में पाईलट, को- पाईलट और नेवीगेटर का तीन सदस्यीय एयर क्र्यू होता था. मेरे दो अन्य सहयोगियों मे से एक, फ्लाईट लेफ्टिनेंट चौहान से, मेरी बहुत घनिष्ठता थी. वे मुझसे दो साल सीनियर थे. शर्माते शर्माते मैंने उनसे आग्रह किया कि इस कठिन घड़ी में मेरा साथ दें. वे खुशी से मान गए- साथ चलने को भी और इस अभियान को गुप्त रखने को भी.

दिल्ली पहुंचकर चौहान ने मेरी तरफ से लडकी के पिता से फोन पर बात की. मुझे स्वयं बात करने में संकोच हो रहा था. उन्होंने अगली शाम चाय पर आने का निमंत्रण दे दिया और डिफेन्स कोलोनी में अपने घर का रास्ता समझा दिया. अगली शाम तक चौहान मेरी टांग खींचते तो रहे पर शाम को जब पालम एयर फ़ोर्स मेस से डिफेन्स कोलोनी जाने के लिए हम टैक्सी में बैठे तो उन्होंने बड़ी धीर गंभीर मुखमुद्रा बना ली. बड़े भाई का किरदार उन्होंने इतनी ज़िम्मेदारी के साथ निभाया कि डिफेन्स कोलोनी में टैक्सी रुकने के पहले एक बार अपने हाथ से मेरी टाई की गाँठ ठीक की और मेरे कोलर से एक अदृश्य धूल का कण भी झाड़ा. कॉलबेल के उत्तर में लडकी के पिता ने स्वयं बाहर आकर स्वागत किया. हम लोग सुरुचिपूर्ण सजावट वाले ड्राइंग रूम में बैठ गए.

क्रमशः --------