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जो घर फूंके अपना - 26 - कम खर्च बालानशीन

जो घर फूंके अपना

26

कम खर्च बालानशीन

रूस में हमारे ठहरने का प्रबंध पांचसितारा होटलों में होता था और अलग से दैनिक भत्ता मिलता था जो खाने के लिए पर्याप्त से अधिक होता था. प्रवास की अवधि पूर्वनिर्धारित अवधि से लम्बी खीचने पर ये भत्ता हमें वहीं भारतीय दूतावास में नकद मिल जाता था. पर डटकर खाने में ही सारी विदेशी मुद्रा खर्च कर देते तो खरीदारी कहाँ से होती. इसका इलाज होता था सस्ते से सस्ता जलपान करके. सोवियत पांचसितारा होटलों की एक विशेषता ये थी कि उनमे हर फ्लोर पर एक सेल्फ-सर्विस कैफेटेरिया होती थी जिनमे जलपान और पेय उन्ही मानक दरों पर मिलते थे जिनपर फूटपाथ पर मिलते. किन्तु शानदार स्टाइल में बढ़िया खाने के लिए होटल में दो तीन शानदार पर बहुत महंगे रेस्तौरेंट होते थे. हम सुबह का नाश्ता कैफेटेरिया में निपटाते और दिन का खाना वायुयान फैक्टरी की कैंटीन में. दिन भर कंजूसी बरतने के बाद रात तक भूख काफी लग जाती थी पर विदेशी मुद्रा भी इतनी बचती थी कि हर शाम महंगे रेस्तौरेंट में जश्न मनाते हुए बिताई जा सके. ये सब नुस्खे स्क्वाड्रन के हमारे सीनियर्स जो कई बार सोवियत रूस हो आये थे सिखाते थे. पर हमें वहाँ की दिनचर्या बताते हुए जब बात रेस्तौरेंट में गुजारी हुई, देर रात तक खिंच जाने वाली शाम के सीन तक पहुँचती थी तो उनके चेहरों पर यदि अविवाहित हुए तो एक शरारत भरी मुस्कान आ जाती थी. यदि वे विवाहित हुए तो एक छोटी सी उदासी उनके चेहरे पर तैर जाती थी जैसे बरसाती धूप में हरी घास पर बादल के एक टुकड़े की परछाईं हो. फिर वे तुरंत सहज होकर कहते थे “छड़े लोगों के लिए अच्छी जगह है, जाओ मज़े कर के आना. ” असल में सीधी सी बात ये थी कि रूस कभी साम्राज्यवादी शक्ति नहीं रहा था. उसकी विशाल सीमाओं के अन्दर सफ़ेद चमड़ी वाली यूरोपीय जातियों के अतिरिक्त कजाक, तारतार, ताजिकी, मंगोल, उज़बेक आदि अनेक प्रजातियों और नस्लों के नागरिक बिना किसी भेदभाव के रहते थे. अतः भूरी और काली चमड़ी वाले भारतीयों और अफ्रीकियों के लिए उनके मन में किसी प्रकार का दुराग्रह नहीं था. साम्यवादी व्यवस्था में तो वैसे भी ऐसी भावनाओं के लिए जगह नहीं थी, फिर भारत-रूस मैत्री उन दिनों पंडित नेहरू की विदेशनीति के फलस्वरूप कुलांचें भर रही थी, जिसे इंदिरा गांधी ने भारत-रूस सैन्य- संधि का स्वरुप देकर और मज़बूत कर दिया था. मार्शल बुल्गानिन और ख्रुश्चेव को अपनी भारत यात्रा में अपार स्नेह मिल चुका था. भारतीय फिल्मे रूस में बेहद लोकप्रिय हो रही थीं. अकेले राजकपूर और नर्गिस की फ़िल्मी जोड़ी ने रूसी जनता का दिल ऐसे जीत लिया था कि सोवियत रूस के शहरों में बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सभी को “मेरा जूता है जापानी,ये पतलून इंग्लिस्तानी,सर पर लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी “ गुनगुनाते हुए सुना जा सकता था. सोने में सुहागा यह था कि मास्को के अतिरिक्त हमारा अधिकाँश समय बेलोरूस प्रांत की राजधानी मिन्स्क शहर में बीतता था जहाँ टी यू 124 विमान का कारखाना था. मिन्स्क पोलैंड की सीमा से लगा हुआ था. रूस के इस भाग को द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मन सेनाओं ने नेस्त्-नाबूद कर दिया था. मिन्स्कवालों ने जर्मनों को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए महायुद्ध में बारह साल से ऊपर और बयासी साल से नीचे के सभी नागरिकों को झोंक दिया था. विश्वयुद्ध के लगभग पच्चीस साल बाद अब उस जवान शहर में सबसे अधिक आयु के लोग तीस पैंतीस साल के थे और शहर की जनसंख्या में स्त्रियों का अनुपात पुरुषों की अपेक्षा कईगुना था.

इस तरह के वर्णन सुनकर हमारा जवान खून क्यूँ न और गर्म होता? पर ये भी पता था कि मिन्स्क में सर्दियों में तापक्रम शून्य से बीस–तीस डिग्री नीचे रहता है. रात शाम के चार बजते बजते उतर आती है. सूरज दिनमे बेमन से अपनी ड्यूटी करने के लिए ग्यारह बजे आकर रजिस्टर में हस्ताक्षर करके प्रायः सीट पर अपना कोट टांगकर बदली और कुहरे के साथ गप्पें मारने चला जाता है और फिर शाम को चार बजे चुपके से सीट पर से अपना कोट उतारकर अगले दिन तक के लिए गायब हो जाता है. रूस में भी अन्य तमाम पाश्चात्य देशों की तरह सैनिकों का रात में होटल सिनेमा और दूकानों में भी वर्दी पहन कर जाने का प्रचलन है पर हमारे नियमों के अनुसार ये संभव नहीं था. वजह कुछ भी हो, भारतीय सेनाओं का चलन यही है कि तुम्हारी वर्दी को देखकर जो सल्यूट मारने को विवश हो वर्दी उसी के सामने पहनो,जो स्वतंत्र भारत में तुम्हारी आर्थिक हैसियत और तद्जन्य सामाजिक स्थिति को समझता हो उसके सामने अपने फौजी होने का पर्दाफ़ाश न ही करो तो अच्छा रहेगा. यही चलन हमें विदेश में भी सादे कपडे पहनने को मजबूर करता था यद्यपि वहां वर्दी की इज्ज़त देख कर मन करता था कि हम भी वर्दी में ही क्यूँ न घूमे. लेकिन मन चलाने से क्या होता.

वायुसेना को धन्यवाद कि कम से कम वर्दी हमारे पास गर्म थी. ”कोट परका”और ओवरकोट भी लेह जैसे ‘हाई आल्टीच्यूड बेस’ में नियुक्ति होने या विदेशयात्रा के लिए मुफ्त में मिल जाते थे. पर हम जवान कुंवारे फौजी अफसरों को इसकी चिंता कहीं अधिक थी कि भारतीयों से मैत्री करने को सदा -आतुर उन मिन्स्क और मास्को की कन्याओं के सामने, संग साथ में कौन से सिविल गर्म कपडे पहनेंगे. इस बात की विशेष ताकीद हमारे फ्लाईट कमांडर साहेब (सेकंड इन कमांड )ने भी की. जाने से पन्द्रह दिन पहले ‘क्र्यू ’के पाँचों सदस्यों को आवश्यक सरकारी निर्देश देने के बाद अन्य सुझाव देते हुए उन्होंने कहा था कि रूस में ऑफ -ड्यूटी समय में पहनने के लिए हमें गर्म ओवरकोट आदि का अपने व्यक्तिगत कपड़ों के साथ प्रबंध कर लेना चाहिए. फिर वे ठंढी सांस लेते हुए बोले थे “अच्छी किस्म का गर्म ओवर-कोट ढाई तीन हज़ार से कम का क्या मिलेगा (ये 1972 की बात है )पर तुम पांच में से चार तो अविवाहित हो, तुम्हे क्या? दिक्कत तो हम शादी शुदा लोगों को होती है जिन्हें इन सब के अतिरिक्त वहाँ से बीबी के लिए गिफ्ट्स लेकर आने के लिए भी प्रबंध करना होता है. ”

उनकी बात में सब से ज़्यादा हमारे कोपाइलट गुप्ता ने हाँ में हाँ मिलाते हुए एक सांस में दो बार “ येस सर! येस सर !” कहा था. बात ये थी की वो बिचारा शादीशुदा लोगों से भी अधिक कठिन आर्थिक परिस्थितियों से जूझ रहा था क्यूंकि उसकी मंगेतर दिल्ली में ही थी,शादी तो जब होगी तब होगी. बिचारे की जेब मंगेतर के लिए गिफ्ट्स खरीदने,पिक्चर दिखाने,घुमाने. खिलाने में ही ढीली रहती थी.

हामी में गुप्ता की तेज़ी से ऊपर नीचे हिलती हुई गर्दन को देखकर टू आई सी साहेब ठिठके,फिर जैसे कोई भूली हुई बात याद आ गयी हो बोले “और देखो,आजकल फूटपाथ पर विदेशों से चीथड़ों के तौर पर आये हुए गर्म कपडे खूब बिक रहे हैं जिन्हें हमारे चपरासी इत्यादि खरीदते रहते हैं. तुमलोग ओफिसर्स हो,आशा है अफसरों की हैसियत और छवि को ऐसे कपडे खरीदकर धूमिल नहीं करोगे. ” गुप्ता ने इस बार गर्दन को तीन बार बाएं से दाहिने हिलाया और बोला “नो सर !नो सर !नो सर“ फिर हम लोगों ने सल्यूट ठोंका और बाहर आ गए.

बाहर आते ही गुप्ता बोला “ सर ने ये बात तो सही कही,ऐसी गई बीती तो वाकई हमारी हालत नहीं है कि सेकेण्ड हैंड कपडे खरीदें. अच्छा सुन यार, मेरे चाचाजी के एक दोस्त जो बी एच यू में संस्कृत के प्रोफेस्सर हैं मास्को यूनिवर्सिटी के इंडोलोजी विभाग द्वारा सम्मानित किये जाने के लिए रूस सरकार के अतिथि बनकर मास्को चार दिनों के लिए गए थे. कल ही लौटे हैं. दिल्ली में दो दिन रूक रहे हैं. जाने से पहले हम उनसे मिल लें तो शायद कुछ काम के सुझाव मिल जाएँ. चल आज शाम को चलते हैं. ”

तो फिर उस शाम हम लोग प्रोफेस्सर विद्यानिवास अवस्थी जी से मिलने गए. रास्ते में गुप्ता ने बताया “प्रोफेस्सर साहेब संस्कृत के पठन पाठन और शोध कार्य में इतना लींन रहते हैं कि दींन दुनिया की उन्हें कोई खबर नहीं रहती. प्यार से चाचा जी उन्हें विद्याविनाश कहते हैं, कपडे पहनने ओढने का उन्हें कोई शौक नहीं. गर्मियों में कुर्ता धोती पहनते हैं, सर्दियों में शाल ओढ़ते हैं और बहुत सर्दी होने पर कम्बल ही ओढ़ कर घर से बाहर भी आ जाते हैं. उन्होंने गरम ओवरकोट पर ज़्यादा पैसे नहीं खर्चे होंगे. चलो उनसे आइडिया लेते हैं. अफ़सोस कि वे दुबले और मंझोले कद के हैं फिर भी उनके पास ओवरकोट हुआ तो उधार ले लूंगा,मुझे शायद खींच तानकर फिट हो जाए. ” मुझे दुःख हुआ कि दिल्ली में मेरे रिश्तेदारों में जो दो लोग थे उनसे मेरा कद काठी बिलकुल नहीं मिलता था. एक तो इतने मोटे थे कि उनका ओवरकोट मेरे ऊपर गाय भैंस के ऊपर उढाई जाने वाली कथरी की तरह लगता और दूसरे मुझसे इतने छोटे थे कि उनका कोट मेरे ऊपर मलाइका अरोरा या राखी सावंत की चोली जैसा लगता. मैं गुप्ता के साथ जाने के लिए तैयार हो गया. ओवरकोट न सही कुछ ज्ञान ही मिलेगा रूस के बारे में.

क्रमशः ----------