Jo Ghar Funke Apna - 31 books and stories free download online pdf in Hindi

जो घर फूंके अपना - 31 - गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में

जो घर फूंके अपना

31

गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में

लीना का स्थान जब कोमरेड वोरोशिलोव ने लिया तो हम सभी का ख्याल था कि यह केवल उस दिन के लिए एक अस्थायी व्यवस्था थी. पर फैक्टरी जाने पर हमारे संपर्क अधिकारी ने बताया कि हम जब तक वहां रुकेंगे वोरोशिलोव ही हमारे साथ रहेंगे. लीना ने किसी व्यक्तिगत काम से एक सप्ताह की छुट्टी ले ली थी. उस अधिकारी की बात का अंग्रेज़ी में अनुवाद करते हुए वोरोशिलोव ने अपना नाम आने पर हमें बड़े प्यार से अपने निकोटिन से पीले पड़ गए दांत दिखाए और सर को हल्का सा झुकाकर अपनी गोल्फ कैप को क्षण भर के लिए हटाकर उसके नीचे की अपनी गंजी खोपड़ी दिखाते हुए ऐसे अभिवादन किया जैसे किसी सर्कस में अपना खेल दिखाने जा रहे हों. वे मझोले कद के, गोल मटोल, मुस्कुराते हुए चेहरे वाले उन लोगों में थे जिनके चेहरे पर स्थायी रूप से बहुत मैत्रीपूर्ण भाव रहता है. उनके अभिवादन का जवाब बजाय उन्हें देने के गुप्ता, मुकर्जी और कपूर (जो तीनों अविवाहित थे) ने मेरी तरफ देखकर नज़रों ही नज़रों में कपूर की शब्दावली मूक शब्दों में फेंकी-“बैंचो,कर दिया न सत्यानास ! बड़ा रूसी भाषा का विद्वान् बनता था !”. चौथे थे स्क्वाड्रन लीडर बिस्वास जो निस्पृह और पूर्णतः तटस्थ लगे. वे हम सबसे सीनियर थे,शादी शुदा और एक बहुत प्यारे से चार साल के बच्चे के पिता थे. लीना हो या कोइ और रूसी सुन्दरी, उनके चेहरे पर सदा भगवान् बुद्ध जैसी शांत सौम्य तटस्थता दिखती थी जिसकी वाख्या सब लोग फर्क फर्क ढंग से करते थे. कपूर का कहना था कि इस उदासीनता का कारण महज़ कंजूसी थी. लड़कियों के चक्कर में जो रूबल खर्च होंगे उतने में तो “देत्स्कीय मीर” (बच्चों के सामान खिलौनों आदि की मिन्स्क में सबसे बड़ी दूकान) से बहुत से खिलौने आ जायेंगे. एक उम्र आती है जब आदमी को अपने खिलौनों को भूलकर अपने बच्चों के खिलौनों का ध्यान रखना पड़ता है. गुप्ता का कहना था कौन आदमी है जिसे बुढापे में भी अपनी पसंद के खिलौनों से कभी कभी खेलने का मन नहीं करता है. गुप्ता को विश्वास था कि हमारे महात्मा बुद्ध केवल डरपोक थे और उन्हें हम लोगों पर ज़रा भी विश्वास नहीं था. कम से कम वैसा नहीं जैसा स्वयं उसे था. दिल्ली में आखिर उसकी मंगेतर भी तो थी पर उसे हम सब पर पूरा भरोसा था कि रूस में थोड़ी बहुत की गयी ताक झाँक को हम उसकी मंगेतर तक नहीं पहुंचाएंगे. ऐसा कहते हुए वह बहुत जोर से हम लोगों से पूछता था “ है कि नहीं?” और इस तरह लगातार अपने आपको आश्वस्त रखता चलता था कि वापस जाकर हम उसका भांडा नहीं फोड़ेंगे. जो भी हो, लीना की जगह वोरोशिलोव को सबने जल्दी ही स्वीकार कर लिया. मुझे छोड़कर. मैं लीना को उस यात्रा में तो क्या, आज तक पूरी तरह भुला नहीं पाया हूँ. गुस्सा भी आता है उसपर. आजकल की लडकियां होतीं तो वास्तव में मैं अनजाने में लीना से जिस चीज़ की तारीफ़ कर रहा था उसे वे एक साधारण कोम्प्लिमेंट समझ कर सहज रूप से स्वीकार कर लेतीं. बल्कि अपनी तरफ से पहल करके अगर वास्तव में ऐसा कोई सुन्दर और नया अधोवस्त्र पहना होता तो हिपस्टर जींस पहन कर साथ चलते समय एक कदम आगे बढ़कर कमान की तरह गोल होकर आगे झुक जातीं, रास्ते से कोई भी चमकीला कंकड़ पत्थर उठाते हुए कहतीं “हाय,कितना सुन्दर है ना?” और फिर तब तक झुकी रहतीं जबतक कि मैं भी पूरे उत्साह से कह न देता “हाँ, सब कुछ बहुत सुन्दर है. और हाँ पत्थर कई सारे हैं. एक एक कर सबको उठाती रहो. ”

लीना और विक्टर (वोरोशिलोव ने आग्रह किया था कि हम उसे इसी नाम से पुकारें ) के व्यक्तित्व में इतना अंतर था जितना मास्को और मिन्स्क की सर्दियों और गर्मियों में. रूस मैं पहली बार जनवरी के महीने में गया था. सुबह नींद खुलती थी तो आधी रात जैसा अँधेरा, ज़बरदस्ती शुभ प्रभात कहने के लिए, हमारे कमरे की खिडकियों को भेदकर अन्दर घुस आता था. मन मानने को तैयार नहीं होता था कि वाकई सुबह के आठ बज चुके हैं और घंटे भर में ही लीना हमें फैक्टरी ले जाने के लिए आ जाएगी. ( लीना गयी,उसकी जगह विक्टर आये, पर मुंह अँधेरे ख्याल लीना का ही आता था ) खिड़की खोल कर चारों तरफ बिखरा हुआ हिमधवल सौन्दर्य निहारने का मन करता था पर खोलते ही तीर की तरह ठंढी हवा आकर कपड़ों के नीचे शरीर को भेद जाती और तुरंत खिड़की बंद करनी पड़ती थी. जल्दी जल्दी तैयार होकर हम फैक्टरी जाने के लिये बाहर निकलते. पर बाहर आते ही हवा में रुई के गालों की तरह उडती, झरती स्नो को बिना पत्तों वाले पेड़ों की सूखी टहनियों पर ओढी हुई सफ़ेद चादर से उठाकर अपनी मुठ्ठी में क़ैद करके एक दूसरे के ऊपर फेंकने लगते, जबतक कि हाथ की उंगलियाँ ठंढ से अकड कर दुखने ना लगतीं. लीना शैतान बच्चों के क्लास की नर्सरी टीचर की तरह बेबस होकर प्रार्थना करने लगती कि देर हो रही है, खेलना बंद करो. फैक्टरी जाते हुए रास्ते में मिन्स्क स्टेडियम में आइस-हॉकी खेलते हुए, पैरों में खंजर की तरह धारदार आइस स्केट्स पहने जवान लड़के लडकियां दिखाई पड़ते. कपूर को रोलर स्केटिंग आती थी पर एक दिन आइस स्केट्स पहन कर आजमाना चाहा तो खडा भी न हो पाया और दलबदल की शिकार किसी सरकार की तरह तुरत भहरा कर गिर पडा. पर गिरा भी तो जैसा कि हमें पूरी उम्मीद थी उसी लडकी पर गिरा जिसका सहारा लेकर खडा होने की कोशिश की थी. स्टेडियम हमारे होटल से दूर न था. अगले दिन शाम को मुझे साथ लेकर गया कि दुबारा सीखने की कोशिश करेगा पर वहां जाकर इरादा बदल दिया. उस दिन वहां सिर्फ लड़के थे, लडकी कोई न थी.

जब मैं जुलाई के महीने में अगले वर्ष गया तो वही रूस बिलकुल बदला हुआ दिखा. मास्को तो हरा भरा था ही पर मिन्स्क तो बिलकुल ही हरियाली में नहाया हुआ मिला. आसमान तो वहाँ साल में ग्यारह महीने तालिबानी क़ानून के अधीन स्त्रियों की तरह या तो चेहरे पर बादलों की नकाब डाले रहता है या फिर कुहरे और हिमपात में मुंह चुराए हुए अपने अस्तित्व को ही नकारता हुआ सा लगता है. गर्मियों में आकाश इतना उदास नहीं लगता था जितना सर्दियों में. पर ग़रीब आदमी को थोड़ा सा पैसा भी मिल जाए तो उसके चेहरे पर जो रौनक आ जाती है वैसी ही रौनक सर्दियों में अचानक किसी दिन खुले हुए नीले आसमान के चेहरे पर दिखती थी. हंसती, मुस्कराती, किसी सौन्दर्य साबुन के विज्ञापन वाली कन्या की तरह झरने में नहाई हुई, तरो ताज़ा सुबह जो सर्दियों में दस ग्यारह बजे तक अपनी शकल नहीं दिखाती थी, गर्मियों में जाने कितनी सुबह ड्यूटी पर आ जाती थी कि जब भी नींद खुले सामने हाज़िर रहती थी. अहिल्या के गौतम ऋषि को भरमाने के लिये इंद्र देवता मुर्गा बन कर आधी रात में यदि वहाँ बांग लगाते तो इतनी रोशनी होती कि मुर्गे की तरह सीना फुलाकर झूठी बांग लगाते हुए पकडे जाते.

लीना और विक्टर के व्यक्तित्व में रूस की सर्दी और गर्मी की तरह अंतर था. सुनहरे बालों वाली उस तन्वंगी नवयौवना से गंजे विक्टर की भला क्या प्रतिस्पर्धा. पर घोर आश्चर्य! लीना की लजाई मुस्कान के ऊपर विक्टर के उन्मुक्त कहकहे भारी पड़े. पचास पचपन की आयु वाला विक्टर इतना जवांदिल,बिंदास और उन्मुक्त निकला कि उसने हमारी मंडली का दिल जल्दी ही जीत लिया. होटल से फैक्टरी तक जाने में सारे रास्ते वह लतीफे सुनाया करता और हम सबको हंसाता रहता. रूस में सरकार की नीतियों और मार्क्सवाद का मज़ाक उड़ाने वाले लतीफे सुनाने वाले व्यक्ति को साइबेरिया की तरफ ध्वनि की रफ़्तार से पहुंचा देने का चलन था. अतः विक्टर के सारे लतीफे उस ऊंचाई से शुरू होते थे जिस तक हमारे लतीफे क्रमश:सरदार जी, सरकार, और घरवाली की पायदानों से गुज़रकर पहुँचते हैं. ऐसी ऊंचाई जहां तक शायद सारी दुनिया के लतीफे चौरासी लाख योनियाँ भुगतकर अंत में पहुंचकर मोक्ष प्राप्त करते हों. जहां आग्रह करके सुननेवाले तो शर्मीले कहलाते हैं पर सुनाने वाले बेशर्म. लाजवंती लीना यदि उसके लतीफे सुनती तो विक्टर को अश्लीलता के आरोप में साइबेरिया भिजवा देती हालांकि रूस से बाहर की दुनिया की नज़रों में साइबेरिया का निर्वासन अपने आप में एक अश्लील हरक़त थी जिसे देखकर मानवता के भोले मुख पर शर्म की लाली दौड़ जाती थी.

कपूर तो विक्टर का मुरीद बन गया. साथ में डायरी लेकर घूमने लगा कि उसके सुनाये हुए लतीफों को “बैंचो,क्या बात है!” कहते हुए दाद देकर तुरंत नोट कर सके. अंत में उन दोनों की दोस्ती इतनी परवान चढी कि कपूर ने विक्टर से दिल खोलकर पूछ ही लिया कि किसी शाम को अपनी कहानियों की किसी नायिका से मिलवाता क्यूँ नहीं. विक्टर तुरंत राजी हो गया. बोला “कहो तो आज ही एक बेहद खूबसूरत लडकी से तुम्हारी दोस्ती करवा देता हूँ. पर वह एक प्रतिष्ठित घराने से ताल्लुक रखती है,अकेले नहीं आयेगी. ’’ बात जारी रखते हुए बताया कि अगर कपूर को मंज़ूर हो तो विक्टर और उसकी पत्नी मीशा,जिससे हम मिले नहीं थे, उस लडकी नाद्या को साथ लाकर डिनर पर मिल सकते हैं. डिनर भी किसी अच्छे रेस्तौरेंट में हो जहां बढ़िया बैंड हो और डांस वांस हो सके. कपूर के मुंह में पानी भर आया. हमसे बोला ‘क्या कहते हो, रखा जाए आज ही रात का प्रोग्राम?’ पर गुप्ता को ये अपनी मंगेतर के साथ विश्वासघात सा लगा. मुझे लगा कि कपूर को ही पहल करने दूं तो ठीक रहेगा. लीना ने कोई औपचारिक शिकायत नहीं की थी पर अब नादया और मीशा के रंग ढंग देखने के बाद कोई अगला कदम उठाऊं तो ठीक रहेगा. मुकर्जी ने साफ़ मना कर दिया. उसे विक्टर कोई ख़ास पसंद नहीं था क्यूंकि उसके विचार से रूस में पंजाबियों से कोई सबसे जियादा मिलती जुलती कौम थी तो वो थी जिसमे विक्टर पैदा हुआ था. बाकी बचे बिश्वास साहेब, तो वे पहले सिर्फ मुस्कराये फिर क्षण भर के बाद बोले “ अच्छा है कि तुम अपना प्रोग्राम हमारे अपने होटल में नहीं रख रहे हो. गुड लक टू यू”

क्रमशः --------------