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इंतज़ार... की हद्द - 1

हरिदास ध्यान से समाचार सुन रहा होता है, विदेश की, ख़बर की आवाज़ सुनकर कुसुम सब्जी काटना छोड़, खिड़की से ख़बर पर कान गड़ा लेती है। ख़बर सुनते- सुनते वह अचानक पूजा घर की तरफ दौड़ती है, उसकी आँखों में ढ़ेर सारी चमक आस लिए अनेक अभिलाषाएं चंद मिनटों में जन्म ले लेती हैं, और सीधे पूजा घर के दरवाज़े पर ही रूकती है।
"अम्मा, अम्मा सरकार, ने विदेश में फसे लोगों के आगमन का समय बढ़ा दिया है। " कुसुम खुशी के मारे बोल नहीं पा रही होती है।
रामप्यारी देवी (अम्मा ) पूजा की घंटी रोक के, बात को गौर से पूछने लगती है
,का सच में..? "
"हा अम्मा सच में। "
कुसुम फूले ना समायी, वह अवधेश की पसंदीदा सामान मंगा लेती हैै, घर को कितना सजाये अभी कुछ दिन पहले वाले अभियान में आने की उम्मीद से सब सजाया तो था। पर फिर भी वह ऐसे सज़ा रही थी की जैसे इस बार अवधेश (कुसुम का पति ) आ ही जायेगा। ये कुसुम के साथ पहली दफ़ा नहीं हुआ था, हर छ: महीनों पर जब जब अवधेश कहता कि वह छुट्टी की अर्जी डाला है पास हो जायेगी। उसकी छुट्टी तब-तब कुसुम के मन में आस की ज्योति जल उठती और फिर वो नहीं आता, अपने ही आंसुओं में उसका आस बुझ जाता, पर हर बार एक नयी उम्मीद पाल लेती वह इसी उम्मीद में ही तो उसने 4 सालों का समय काट दिया था।
शादी के एक माह के बाद ही अवधेश चला गया अपने देश से दूर..सात समुन्दर पार दो वक्त के भोजन और अच्छे जीवन शैली का हवाला दें कर। बेचारी कुसुम ने तो अभी अपने पति का पूरा मुखड़ा भी नहीं देखा था।
अवधेश जब पहली मर्तबा उससे उसका नाम पूछा था तो वह
कू..शुम.." कह कर नज़र उठाए तो थी पर उसकी नज़र उसकी ठुड्डी वाले घाव से ऊपर ना जा सकी और नज़रे झुक गयी लाज से।
गांव में रहने वाली कुसुम ज्यादा पढ़ी लिखी तो नहीं थी मगर उसका मासूम चेहरा साफ दिल किसी का भी मन मोह ले सकता था। सो अवधेश भी उसके इस सूरत पर मुग्ध हो गया था।
हसीं ठिठोली में जब गांव की नन्दें कहती की भैया की कथई आँखे भौजी के मुख पर देखो कैसी लाली लायी देखो तो। "
तब कुसुम लाज से
"का... जीजी"
कह कर वहा से चली जाती। पर वह चली तो जाती पर उसकी आंखे तब तब अपने पति की कथई आंखे देखें लेने को ललचा जाती। पर जब उसका पति सामने आता तों कभी भी नज़र उठा कर देख नहीं पाती अगर कभी नज़र हिम्मत से उठ भी जाती तो उसके ठुड्डी के घाव से ऊपर नहीं नहीं जाती जाते हार जाती वंही चोट पर। यह देख अवधेश मुस्कुरा देता जो उसके चोट के वृत्त को बढ़ा देता और वह उसे छेड़ने को उससे उसका नाम पूछता।
वह नज़र झुकाये ही कुसुम बोलती उसी मधुर स्नेह भरी आवाज़ में
"कू..शुम.."
कुसुम का अपना नाम बताना जैसे पुरे घर में की सुगंधित कर जाता।
वह हस कर वहाँ से चला जाता उसके मुँह से बढ़ा अच्छा लगता था उसी के नाम का गलत बोल, अवधेश कई बार कु..शुम उसी के लहज़े में दोहराता और चला जाता।
एक माह का दिन होता ही कितना है, उंगलियों पर गिने चुने दिन। उसमें से कितने दिन तो बुआ दीदी को घर पहुंचे और जाने से पहले हाल लेने में गुज़र गया और दो रोज़ पहले मामा जी आये अपने साथ ले कर चले गये वह जिस दिन जाना था उससे एक शाम पहले आया। कुसुम ने सारी तैयारियां कर रखी थी, बस एक बार अवधेश को देखना भर रह गया था।

वह शाम बेड पर बैठा था, कुसुम सामान रख रही थी। वह कुसुम को पास बुलाया और बोला अपना नाम बताना।
कुसुम यूँ ही नज़रे झुकाये बिना किसी सवाल के ही वह उसका नाम क्यों पूछता रहता, मासूमीयत भरे लिहाज़ से बोलती
"कू..शुम "

"कूशुम नहीं कुसुम" वह उसके चेहरे को ऊपर करता हुआ कहता हैं।
"ये क्या तुम्हारी आंखे क्यों भरी है "
अवधेश की बात सुन कर रोने लगती है,
वह उसे चुप कराता है पर कुसुम किसी छोटे बालक की भाती जैसे खिलौने की जिद्द पकड़े रोये, रोये जा रही थी। रोये भी क्यों ना, नये घर में कुसुम के घर में अभी किसी से उतना बात भी तो नहीं होता, उसने तो अवधेश तक से स्पष्टता से बात नहीं की थी, पर था ही नहीं कोई घर पर उसके पास हो।
वह खुद ही 5 मिनट में चुप हो जाती है। पहली बार देखा था कुसुम ने अपनी पति की वो भूरी काली आँखों से अलग आंखे कथई आंखे और उसके पास ही एक छोटा सा चोट का निशान।
वह पूछ लेती है कि उसे इतनी चोटे कैसे लगी?
अवधेश हस कर ज़बाब देता है
" दाढ़ी पर जो देख रही हो ना, वह तो हमारा खानदानी हैं, सब भाई बहनो का है, यहां तक हमारे पापा, चाचा को भी है और जो आंख के पास है, उसका हाल मत पूछो, एक बार हमारी बड़ी दी हमको मार रही थी हम बच के बाहर भागे जा के नाला स्नान कर लिए, बस लग गयी चोट।

"नाले में गिर गये "
कुसुम दो पल कोई उसके जाने के गम कोई भूल कर खूब हसने लगी।

"अरे इतने पर हस रही रहो.. तुम्हें पता है। मेरी दीदी ने फिर मेरे कपड़े निकाल कर मुझे घर से बाहर ही नहलाया माना की मैं बच्चा था पर इतनी तो समझ थी मुझे मोहल्ले के कई लोग हमको देख रहे थे, मैं शर्म से 2 दिन घर से बाहर ही नहीं निकला। कुसुम हसं रही थी, बड़ी मासूमियत से।
वो फिर हस कर रुक जाती है।
अवधेश पूछता है, कुसुम तुमको यहाँ अच्छा लगता है ना, कोई परेशानी कोई दिक्क़त, तुम इतनी चुप-चुप क्यों रहती हो।
कुसुम दबे स्वर में बोलती हैै, " नहीं जी हमको कोवनो दिक्क़त नहीं हैै। बस... कह कर रुक जाती है, कुसुम।
"क्या कुसुम बोलो..? बिना संकोच के तुम बोल सकती हो" अवधेश उसे यकीन दिलाते हुये बोलता है।
"ऊ... ऊ हमको रात में अकेले डर लगता है, वहाँ भी हम माँ के पास ही सोते थे, यहाँ तो हमरे लिए और नया है।"
कुसुम थोड़े दबे स्वर में ही बोलती हैै।
"बस इतनी सी बात, कोई बात नहीं। मैं अम्मा से बोल दूंगा तुम यहाँ भी उन्हीं के पास सो जाना।
कुसुम का खुशी का ठिकाना ना रहा। सभी ने शाम को उससे वीडियो कॉलिंग पर बात की। सालों बाद अपने परिवार से बात कर सभी का दिल मृदुल हो गया, आंखें भर आई। अब तो सप्ताह में कभी कभार बात हो जाती थी। पर क्या वीडियो कॉलिंग पर बात कुसुम और उसके परिवार को उसकी कमी पूरी कर देगी। एक माँ- बाप को उसका बेटा और पत्नी को उसके पति की कमी नहीं खलेगी। ये काल उससे पूछे जा रहे अनगिनत प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकते। जब भी कुसुम उससे पूछे की तो वह वही पूरा राग अलाप देता बस आने वाला हूँ। ये बस अभी फ्लाइट में नहीं बदलता।
तीन साल से ऊपर हो गये अब तो कुसुम के मायके वालों का सब्र टूट रहा था, उनको अपने ऊपर ही क्रोध आने लगा की उन्होंने उसके लिए कैसे लड़के का वरन किया। उन्होंने कुसुम को बुलाने की ज़िद्द पकड़ ली। पर कुसुम हर बार टाल दे रही थी, इस बार तो भैया को चौखट से खाली भेज दी, वो ज़िद्द ले कर बैठे थे की तुझको ले कर ही जायँगे।
वो कहती वो उनके साथ ही आएगी, कहीं वो चली गयी इसी बीच आ गए तब, हम कैसे उनका स्वागत-सत्कार करेंगे।
जब कई दिनों तक उसका फ़ोन नहीं आता तो वो ये भ्रम पाल लेती की वो रास्ते में होगा, और सुन जाये की कोई परदेश से आया है तो रात तक नज़र दरवाज़े पर ही टिकाये रहती।
उसका बहाना खत्म नहीं हो रहा था, ना कुसुम का इंतज़ार, 4 साल खत्म होने को आ गये थे।
एक दिन ऐसे ही उदास समय को ओढ़े वह आँगन में बैठी थी, उसकी सास ने उसे बुला कर आँखों में आँसू और गला भरे कहाँ, " बहू तुम अपने मायके चली जाती कब तक... तुम दूसरी शादी कर लेना बिटिया। "
कुसुम को जैसे बिजली लग गयी, अम्मा हमसे कोई अपराध हो गया है, आप आप अइसा कह रही हैं। हमका माफ कर दीजिये पर अम्मा अइसा सज़ा मत दीजिये।" उसकी आँखों से अश्रु बह रहे थे।
अम्मा कुसुम के सर पर हाथ फेरते हुई ये हाथ किसी सास क द्वारा रखा गया प्रतीत नहीं होता। इसमें इतना प्रेम इतना वातसल्य भरा था जैसे यशोदा मैया अपने गोपाल को दुलार रही हो। वो भरे गले से ही बोली, "अपराध तुमसे नहीं हमरी किस्मत का दोष हैं बिटिया, जो तुम जैसे बहूँ को अइसा बोलना पड़ रहा हैं, पर हम का करें अब बर्दाश्त नहीं होता। नज़र कमजोड़ हो चली हैं, पर इन बूढ़ी आँखों ने लम्बा जबाना देखा हैं लोगों को बनते बदलते देखा हैं, तुम तो उर्मिला जैसा राह देख रही , हमरी सेवा कर रही। तुम भले कुछ ना कहो पर हम देखते हैं तुम्हरे आंख में ऊ दर्द, ऊ इंतज़ार जो हर सूरज उगने के साथ ही सुरु हो जाता हैं कब अवधेश आएगा, खत्म रात के अंधकार में तुम्हरे आंसू करते हैं। पता नहीं क्या हैं क्या नहीं हैं, इससे पहले तो ऊ इतना बखत कभी नहीं रह परदेश। "
"अम्मा आप ई का कह रही हैं" कुसुम उनकी बात को रोकते हुये कहती हैं।
"हा बिटिया तुम कर लो दूसरी शादी। हमरी व्यथा अलग ही हैं, बड़ा बेटा बहू को ले हम सब से नाता तोड़ गया, पर सह लेते थे हम पर इ हैं की इसे बहू की ही फ़िक्र नहीं हैं, अब इ दर्द नहीं बर्दास्त होता। " अम्मा रोये जा रही।
संकटों का पहाड़ कुसुम पर ही नहीं टूटा था वेदना की मार अम्मा पर भी पड़ी थी। बस फर्क यहीं था अम्मा के पास उसकी बेटियां और भी पूरा परिवार था। कुसुम को बस एक अर्द्ध चंद्रकार चोट का सहारा। कुसुम अपने आँसुओं को रोकती हुई अपनी सांस को ढांढ़स बंधाती है।
पर जब शान्त अपने कमरे में जाती है तो वह अम्मा की बात सोच-सोच के घबड़ा रही होती,
कहीं सच में हमारे वो कोई और किसी को तो ना पसंद करने लगे है। सब शुभ तो होगा ना। उसके मन में अनेक द्वंद होने लगे। एक मन कहता ऐसा तो नहीं, एक मन इस बातों का खंडन करता है, एक आधार देता एक निराधार करता। कुसुम का मन क्यों ना विचलित हो, लोगों की बातों ने तो सीता मैया के मन में संदेह डाल दिया था, ये तो भोली-भाली कुसुम है।
एक दिन इसी बीच खबर सुनी की एक महामारी ने पुरे विश्व को अपने पंजे में जकड़ रखा है और देश-विदेश से प्रवासी अपने मूल स्थान को पलायन कर रहे हैं। पहले तो उसका मन बहत घबराया डर और चिंता से वो कुम्हला गयी। जब अवधेश बोला की वो अच्छी जगह है, ऐसा कुछ नहीं होगा यों थोड़ी राहत की सांस ली। पर उसके मन में एक आस का पुष्प पुष्पित होने लगा काश अवधेश को भी अपने गांव की सुध आ जाये। ना जाने कई लगता की इस बार वह आ ही जायेगा।
पर अवधेश ने कहाँ कि, छुट्टी अभी इंडियन को नहीं मिल रहीं। अब क्या फिर बंद हो गयी फ्लाइटस। कुसुम ने अपना हर सम्भव प्रयास किया। अब तो भक्ति और पूजा पाठ यहां तक की उसने व्रत उपवास तक का दामन थाम लिया की, कैसे ना कैसे उसके पति घर वापस आ जाये।
हर बार एक किरण जागती और बुझ जाती। 2 महीने बाद शुरु किया सरकार ने भारतीयों को बुलाना। वह फिर मन सज़ा बैठी अवधेश के आने का। जब अवधेश से पूछी तो वो बोला अभी तो स्टूडेंट और दूसरे लोगों को ले जाया जा रहा हैं काश ये समय सीमा बढ़ा दी जाती तो, मैं आ जाता। तब से कुसुम मन ही मन कहती कि, ये दिन बढ़ जाये।
जब आज सुनी की ये समय बढ़ा दिया गया दूसरा चरण चालू हो गया।उसके खुशी का ठिकाना ना रहा जैसे की उसने आने को हामी भर दी हो। बस वो आ ही गया हो ऐसा लग रहा था उसे
मासूमियत की हद्द है उसमें वो हर बार एक छोटे से प्रकाश की किरण को सूरज समझ बैठती है। भूल जाती है, ऐसे कितने वादे टूटे, घड़िया टूटी, सपने रूठें नींदे रूठी यहाँ तक की सब अपने तक रूठ गये। पर जो एक पल को भी ना टूटा था वो था इसका विश्वास... जो कभी खत्म ना हुआ वो था कुसुम का इंतज़ार। पता नहीं ये इंतज़ार कब खत्म होगा... होगा, भी की नहीं। पर कुसुम इस इंतजार को जिन्दा रखेगी जब तक वो है... ।

TRISHA R S... ✍️

कंटिन्यू इन पार्ट 2....

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