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जो घर फूंके अपना - 39 - फिल्म कैसी है? ट्रेलर बतायेगा

जो घर फूंके अपना

39

फिल्म कैसी है? ट्रेलर बतायेगा

बहुत हो गयी अर्दली गाथा, चलिये वापस पालम के अपने मेस में चलते हैं. वह एक रविवार का दिन था. ज्योति के साथ बुद्धजयंती पार्क में बिताए हुए वे कुछ क्षण उस रविवार को मुझे बार बार याद आ रहे थे और गणित के प्रति मेरा गुस्सा बढा रहे थे. स्वयं मेरे आईने के अतिरिक्त मेरे चेहरे के भाव जो सबसे अच्छी तरह पढ़ सकता था वह था मेरा अर्दली हरिराम. पिछले कई दिनों से वह मुझे उदास और अनमना देख रहा था. मैं अपने कमरे के बाहर छोटे से लॉन के टुकड़े में आराम कुर्सी पर बैठकर शून्य में देखता हुआ सोच रहा था कि बाकी का दिन बिताने के लिए कोइ पिक्चर देखना ठीक रहेगा या कनोट प्लेस में दूर से ही सही लड़कियों को देखकर आँखें सेकना और अंत में बोर होकर किसी रेस्तरां में कुछ खा पी कर मेस के अपने सूने कमरे में वापस आ जाना बेहतर होगा. वैसे मेस में बिलियर्ड, टेबल टेनिस सरीखे बहुत से मनोरंजन के साधन तो थे पर मेरे अन्तरंग दोस्तों में से एक भी उस दिन वहाँ नहीं था. मेरी सूरत से बोरियत और अकेलापन इतना साफ़ टपक रहे थे कि हरिराम को लोहा गरम देखकर हथौडा मारने का यह अच्छा मौका लगा. मेरी बगल में रखी अच्छी भली साफ़ सुथरी तिपाई पर ख्वाहमख्वाह झाडन मारते हुए बोला “साहेब,आज गुप्ता साहेब के न रहने से अकेले पड़ गए हो, कहीं घूमफिर क्यूँ नहीं आते?”

मैंने मायूसी से कहा “अब अकेले कहाँ घूम आऊँ ? गुप्ता साहेब के तो ठाठ हैं, अपनी मंगेतर के साथ किसी रेस्टारेंट में मज़े से बैठे होंगे. ”

हरिराम को जैसे किले की दीवार में सेंध लगाने की सही जगह मिल गयी. चहक कर बोला “कर लेने दो साहेब जी मज़े उनको भी. कुछ दिन की ही तो बात है,फिर तो जैसा बता रहे थे शादी करने वाले हैं. तब सारी मौज मस्ती धरी रह जायेगी. आपको तो उनसे हमदर्दी होनी चाहिए. ”

मैंने कहा “अरे इसमें हमदर्दी की क्या बात है,मैं जैसे अकेले बैठ कर बोर हो रहा हूँ वैसे उन्हें तो नहीं बैठना पड़ेगा. और मेस के इस बेस्वाद खाने से छुट्टी मिलेगी सो अलग. ”

वह हंस पड़ा. बोला “साहेब जी, दूर के ढोल सुहावने होते हैं. आजकल कौन सी मेमसाहेब खाना पकाना जानती हैं? वो अपने खन्ना साहेब शादी करके मेस छोड़ते-छोड़ते बोल गए कि हरिराम अब मेस के खाने से मुक्ति मिली,किसी दिन घर आओ तो तुम्हे भी मेम साहेब के हाथ का खाना खिलाऊंगा. तो साहेब एक दिन मैं उनके घर सलाम करने चला गया. बेचारे बहुत खिसिया कर बोले “ हरिराम,ये रुपये पकड़ो और ज़रा सदर बाज़ार से बढ़िया खाना पैक करा कर लाओ अपने लिए भी और हम दोनों के लिए भी. ”

मैंने कहा “साहेब,आपको तो मैडम के हाथ का बना खाना खाने और खिलाने की हसरत थी “ तो बोले “अरे भाई, ये तो बाद में पता चला कि जो खाना उनके हाथ का बना समझता था वो उनकी मम्मी और रसोइया दोनों मिल कर पकाते थे. अब तुम्हे मैडम के हाथ का ही खाना है तो उन्हें तो एक ही चीज़ बनाने आती है. बोलो, उबाले हुए खाओगे या फ्रायड. अगर ओम्लेट माँगा तो मुझे बनाना पड़ेगा. ”

मैंने कहा “ हरिराम,तुम्हारे ख्यालात बहुत पुराने हैं. आजकल शादी करने का ये अर्थ नहीं कि खाना बनाने के लिए एक मुफ्त की नौकरानी घर में ला रहे हैं. खाना तो मेस में भी मिलता है. ये दूसरी बात है कि घर के खाने में जो प्यार मिला रहता है उससे खाने का स्वाद ही कुछ और हो जाता है. ”

संभव है कि मेरी आज की पाठिकाओं में से कुछ मेरे घर के सामने मोर्चा लेकर आ जाएँ और मेरे ऊपर नारी शोषण का आरोप लगाते हुए नारे लगाने लगें कि मैं अन्दर ही अन्दर स्त्रियों को क्रीतदास समझने वाला मनुवादी हूँ जो घर के खाने को प्यार और स्वाद का मुखौटा पहनाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहता है. तो इतना साफ़ कर दूँ कि यह कहानी आज से चार साढ़े चार दशक पहले की है. उस समय लोग किशोरकुमार के स्वर में गाये हुए गीत “ज़रुरत है, ज़रुरत है,ज़रुरत है, इक श्रीमती की, कलावती की, सेवा करे जो पती—ई--- की’ वाले गीत को बाथरूम में गाते हुए अचानक ये सोचकर घबरा नहीं जाते थे कि कहीं महिला मंच की कोई आयोजिका सुन ना ले. पत्नियों को पता होता था कि पति के ह्रदय पर राज कराने वाला रास्ता पतियों के पेट से होकर गुज़रता है. उनके अपने पेट के इर्द गिर्द होकर पुरुष ह्रदय तक पहुँचानेवाले अन्य रास्तों का पता खुले आम बताने का साहस तो तब से पूरे चालीस वर्षों के बाद केवल ओमकारा फिल्म में खुद एक नारी पात्र एक बिंदास संवाद में कर पायी. पर ये ज़रूर है कि उन दिनों पत्नी के हाथ का खाना आर्थिक तंगदस्ती की घोषणा सा लगता था. मध्य वर्ग से थोड़ी ऊंची हैसियत होते ही घरों में पत्नियों के हाथ का बना खाना लुप्त हो जाता था. घरेलू नौकर तब इतने दुर्लभ नहीं थे. नौकर के बनाये खाने में तडका लगा देने या सलाद इत्यादि से भोजन पर गार्निश की वार्निश लगा देने मात्र से ही पत्नी को खाना बनाने का पूरा श्रेय दे दिया जाता था. इतनी सीमित उम्मीद के साथ ही मैंने भी घर के खाने के स्वाद का ज़िक्र किया था.

बहरहाल, मेरे उलाहने के उत्तर में हरिराम बात संभालते हुए बोला “नहीं सर जी, मेरा मतलब ये नहीं था. मैं तो सिर्फ ये कह रहा था कि आप साहेब लोग शादी करने से पहले लड़की को हर पहलू से घुमा फिरा कर इतना ठोंकते बजाते हो कि कोई कमी न रह जाए. पर उम्मीदे ज़रुरत से ज़्यादा होने पर ही नाउम्मीदी की नौबत आती है. ”

“असलियत क्या हमेशा बुरी ही होती है?” मैंने उसकी बात बीच में काटते हुए कहा, “क्या शादी के बाद सबको निराशा ही हाथ लगती है? क्या इसी डर से आँखे बंद करके किसी भी लडकी से शादी कर लेनी चाहिए?”

हरिराम के चेहरे पर पछतावे की लकीरें दिखने लगीं कि नाहक क्यूँ इस बहस में फंसा. बोला “अब साहेब जी, हम गरीब लोग तो यही जाने हैं कि चाहे किसी से ब्याह कर लो, दो बातें कभी नहीं बदलेंगी. एक तो हर मरद औरत को साथ रहते-रहते आपस में मोहब्बत हो ही जावे है. दूसरी ये कि अपने मरद पर हुकूमत करने की हसरत हर औरत के दिल में होवे है. बड़े- बड़े तीसमार खान भी आखीर में सीधे होकर बीबी के आगे घुटने टेक देवे हैं. भगवान ने जो दे दी उसे खुशी -खुशी कबूल कर लो तो हर औरत स्वर्ग से उतरी परी लगे है. ”

मैं हरिराम से इस विषय पर लम्बी चर्चा नहीं करना चाहता था. स्वयं उसके चेहरे पर भी ‘कुछ जियादा बोल गया, माफ़ करना’ वाला भाव आ चुका था. मैं चाहता तो था कि पृथ्वीराज कपूर के अंदाज़ में मुगलेआज़म की तरह “तख्लिया” बोल कर उसे दफा करूँ पर अभिनय के क्षेत्र में अपने हाथ तंग होने की मजबूरी थी. अतः पैर लम्बे किये और अपनी आँखों के सामने उस दिन का अखबार फैला लिया. अफसरों के साथ हरिराम ने इतने दिन घास नहीं खोदी थी. वह बिना कुछ और बोले चुपचाप वहाँ से सरक लिया. फिर भी मेरे सोचने के लिए वह काफी मसाला छोड़ गया.

मुझे लगने लगा कि यदि शादी करने का मन बना ही लिया है तो बेकार लड़कियों को देखने दिखाने के चक्कर में क्यूँ पड़ा हुआ हूँ. अपने एक कलीग फ्लाईट लेफ्टिनेंट गौतम मिश्रा का ध्यान आया जिसने कुछ महीने पहले ही शादी की थी. गौतम भी मेरी तरह ही पूर्वी उत्तरप्रदेश का रहने वाला था. उसके पिता बलिया में वकालत करते थे और ससुराल उसकी कानपूर में थी. लड़कियों के चक्कर में भटकने वाले लोगों में उसकी गिनती कभी नहीं हुई थी. अपने विवाह में आमंत्रित करते हुए उसने बताया था कि उसकी शादी पूरी तरह अरेंज्ड मैरेज थी. होने वाली पत्नी की उसने फोटो भर ही देखी थी. शादी से पहले मिलने की ज़रुरत तक नहीं समझी. उसके परिवार,उसकी शिक्षा दीक्षा,उसके स्वभाव,उसके गुण अवगुण की छानबीन करने की सारी ज़िम्मेदारी उसने अपने माँ बाप पर छोड़ दी थी. मुझे उसकी बातों पर जब घोर आश्चर्य हुआ तो उसने बताया था कि उसका ये निर्णय उसके बड़े भाई की शादी की प्रतिक्रया थी. उसके बड़े भाई की आई आई टी,कानपुर में पढाई के दौरान एक बैचमेट से दोस्ती धीरे धीरे प्रगाढ़ प्रेम में बदल गयी थी. लडकी दिल्ली की थी. कुशाग्र तो थी ही, सुन्दर भी बहुत थी. गौतम के माता -पिता ने सहर्ष इस रिश्ते के लिए हामी भरी थी. पर दुर्भाग्यवश गौतम के परिवार के अर्ध- शहरी, अर्ध -ग्रामीण परिवेश में शुरू ही से वह दिल्ली में पली और आई आई टी में पढी लडकी अटपटापन महसूस करती रही. गौतम के भाई की माँ बाप पर अगाध श्रद्धा थी, बलिया से भी बहुत प्रेम था. कलकत्ते की एक बड़ी विदेशी कंपनी में पति पत्नी दोनों को नौकरी मिल जाने के बाद उसकी हार्दिक इच्छा थी कि हर साल वे दोनों दस पंद्रह दिन बलिया में बिताएं और उसके मा -बाप साल में कम से कम एक महीना उसके साथ कलकत्ते में बिताएं. पर उसकी पत्नी को इस प्रस्ताव से एलर्जी थी. ऐसे में उसके माँ बाप ने समझदारी का परिचय देते हुए अपने बेटे को समझाया था कि वे दोनों जहां भी रहें खुश रहें इसी में उनकी भी खुशी थी. उन्होंने अपने बेटे को पत्नी पर अपनी इच्छा लादने से मना किया और किसी तरह से उनके रिश्तों को टूटने से बचा तो लिया था,पर अपने बेटे बहू से उनकी कोई नज़दीकी नहीं बची थी. इसी दुर्भाग्यपूर्ण अनुभव के बाद गौतम ने अपनी शादी के लिए हर फैसला अपने माँ बाप पर छोड़ दिया था. उसकी सिर्फ एक अभिलाषा थी कि उसके पत्नी उसके परिवार को वह अपनापन दे सके जो उन्हें बड़ी बहू से नहीं मिल सका था.

हरिराम की बातें सुनकर मुझे गौतम के दाम्पत्य जीवन में झांकने की इच्छा हुई. सोचा गौतम की शादी में सम्मिलित नहीं हो पाया बस रस्मी तौर पर उसे बधाई दे दी थी. अब तक वह अपनी नयी नवेली पत्नी के साथ ऑफिसर्स मेस में दो तीन बार पार्टियों में मिल चुका था और बड़े प्यार और आग्रह से अपने घर बुला चुका था. मैं ही अपने स्वभाव के ढीलेपन और महिलाओं से अपनी पैदाइशी झिझक के कारण नहीं गया था. आज शाम चलूँ उसी के यहाँ और देखूं ज़रा कि पूरी तरह से उसके माँ बाप की पसंद से आयी उसकी पत्नी की उसके साथ कैसी पट रही है.

क्रमशः ---------