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दह--शत - 4

दह--शत

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

एपीसोड -4

एक दिन अनुभा नहाकर सूर्यमंत्र पढ़ते हुए सूरज को जल चढ़ा रही है केवल अपने आउटहाऊस के दरवाज़े पर खड़ा बहुत ध्यान से उसे देख रहा है उसकी पूजा समाप्त होने पर कहता है, “ आँटी ! आप पानी क्यों बर्बाद कर रही हो? गामड़ा में तो पानी नहीं है तो आप पानी क्यों डोल (गिरा) रही हो? ”

वह उसकी बात से झेंप जाती है सूरज को जल चढ़ाना बंद कर देती है। पर्यावरण जागरण के अध्यायों ने आज बाई के बेटे को भी पानी की बर्बादी की चिंता लगा दी है। फिर भी इन तीन वर्षो में अनुभा देखती है पढ़ाई के सिवाय दूसरी बातें सीखने जानने के लिए उनके पास मौके ही कहाँ है?

कोकिला से बातें करना चाहो या नहीं वह कुछ न कुछ सुनाती रहती है, “ वह पाँच नंबर बंगले में ऑफ़िसर मेमसाब रहती थीं न !”

“ हाँ, वह एकाउन्ट ऑफ़िसर थीं। ”

“ हाँ, वही मद्रासन, वो जो माथे पर बड़ी बिंदी लगाती थीं। वो तो ऑफिस चली जाती थी। उनका सारा घर मैं सम्भालती थी। मेरे पास चाबी रहती थी। साहब तो ‘रिटेर’ हो गये थे। उनकी देखभाल मैं ही करती थी। ”

ये बात वह अनेक बार सुन चुकी थी वह एक दिन चिढ़कर बोली, “ तुझे कोई भी अपने घर की चाबी दे या न दे लेकिन मैं तुझे क्या किसी को भी अपने घर की चाबी नहीं दे सकती। ”

वह खिसिया गई, “ मैं आपसे चाबी थोड़े ही माँग रही हूँ। वो मेमसाब मुझ पर कितना विश्वास करती थीं। ”

“ कोकिला ! तुझे ये बताना भूल गई तेरी बेटी ढिंगली पीछे कचरा इकट्ठा करके उसका ढेर बनाकर, बच्चों को इकट्ठा करके माचिस से आग जलाने का खेल खेलती है। कहीं आग न लग जाये, उसे डाँट देना। ”

“ ऐ ऽ ऽ सा ! आज उसके पापा को शाम को आने दो तब सिकायत करूँगी। इसकी तो पिटाई करवाऊँगी।”

“ पिटाई विटाई मत करवाना। उसे समझा देना। ”

तीसरे दिन ही वह बाथरूम में है बाहर से ढिंगली की आवाज़ आ रही है, “ आँटी... आँटी। ”

वह चिढ़ जाती है जब भी पीछे खेलते बच्चों से लड़ाई होगी ढिंगली ऐसे ही चिल्लाती है। वह आराम से बाथरूम से निकलती है। एक बच्चा उसके पीछे का दरवाजा खटखटा रहा है, “ आँटी ! आँटी ! ढिंगली जल गई। ”

जब तक वह बाहर आती है। सामने के घर की बाई ने पानी डालकर उसकी आग बुझा दी। तब तक घबराई हुई कोकिला भी आ गई। वह ढिंगली को ले जाकर अपने कमरे में लिटा देती है। कमरे में घुस आये बच्चों से कहती है, “ तुम लोग बाद में आना। ”

कोकिला एक छोटी डायरी ढूँढ़कर एक फोन नंबर उसे देती है, “ आँटी ! काँतिभाई को बुला दो। ”

काँतिभाई ऑटो लेकर आता है। ढिंगली को उसमें लिटाकर अस्पताल ले जाते हैं। गनीमत थी उसने सूती फ्रोक ही पहन रखी थी।

शाम को अस्पताल से लौटकर कोकिला चबूतरे पर बैठकर अनुभा के सामने रोने लगती है, “ पता नहीं ढिंगली कैसे ठीक होगी? ”

“ तुम चिंता मत करो ज़रूरत पड़ी तो मैं डॉक्टर से मिलूँगी। ”

“ उसका अक्खा (सारा) पेट जल गया है। पता नहीं उसे मासिक आयेगा या नहीं। ” कोकिला हिचकी भरकर ज़ोर से रोने गलती है।

वह उसका सिर सहलाने लगती है, “ कोकिला चिन्ता मत कर। ”

“ चिंता न करूँ? यदि मासिक नहीं आया तो? हूँ.... हूँ.... हूँ....। ”

वह अनुभा के समझाने पर खाना बनाने लगती है । अनुभा कुछ रुपये उसे दे देती है । वह ज़रूरी सामान दो थैलों में भरकर चल देती है । बाहर का फाटक खोलती है लेकिन पलटकर अपने घर के दरवाजे पर खड़ी अनुभा के सामने आकर रोने लगती है, “ ढिंगली का मासिक नहीं आया तो उस की शादी नहीं होगी, यदि शादी नहीं हुई तो जिंदगी कैसे निकलेगी ? हूँ...हूँ...हूँ...।”

अस्पताल जाती कोकिला की बात सुन अनुभा हतप्रभ है । इस वर्ग की औरत की क्या सबसे बड़ी चिन्ता यही होती है ? पाँच वर्ष पहले उस के आऊट हाउस में दक्षाबेन रहती थी । उसकी गोल-मटोल बेटी दो वर्ष की थी । उस का पति एक होटल में यूरोपियन कुक था इसलिए अकड़ा रहता था । उसके घर में खाने-पीने की चीज़ों यहाँ तक कि होटल से उड़ाये चीज़ के डिब्बों की भरमार रहती थी । उसकी गेहूँए रंग की गदबदी बच्ची अनुभा के घर का खिलौना थी ।

एक दिन अनुभा सुबह नाश्ता बना रही थी। दक्षा रसोई की खिड़की की सलाखें पकड़ कर खड़ी हो गई, “ टक्कू के काना नहीं है। ”

“ क्या? ” अनुभा का ध्यान फ्राइंगपेन पर था।

“टक्कू के ‘काना’ नहीं है। ” दक्षा का स्वर रुआँसा हो गया था।

अनुभा ने उसकी तरफ़ सिर घुमाकर देखा-उसकी आँखें भी गीली थीं।

वह गैस धीमी करके खिड़की के पास चली आई, “ तू क्या कह रही है? ”

“ टक्कू के काना नहीं है। ”

अब उसका सिर घुम गया गुजराती में ‘ काना ’ शब्द का अर्थ है ‘छेद’। उसका मन थरथरा उठा।

“ उसका पप्पा समझा रहा है कि सब लड़कियाँ ऐसे ही पैदा होती हैं। बड़ी होने पर काना बनता है।”

“क्या ? ऐसा थोड़े ही होता है। ”

“ हाँ, मैं कै रही हूँ कि इसके ‘ काना ’ नहीं है, कौन इससे सादी बनायेगा, इसका पेट कैसे भरेगा? ”

पूरी बात समझ उसने समझाया, “ मैं अपनी डॉक्टर दोस्त से बात करती हूँ। ” उसने भी काँपते हाथों से अपनी मित्र शुभा का फोन डायल किया। अनुभा भी ये पहली बार सुन रही थी। उसने पूरी बात डॉक्टर को समझाकर कहा, “ ये बच्ची हमारे घर में ही पैदा हुई है। हमें बहुत प्यारी है। मैं भी बहूत परेशान हूँ। ”

फोन पर डॉक्टर की धीरज भरी आवाज़ आई, “ बच्ची छोटी उम्र की है इसलिए चिंता न करें। इट्स रेअर केस। जब ये बारह तेरह वर्ष की होगी तब पता लगेगा कि ये ‘डिफ़ेक्ट’ बाहर का है या अंदरूनी। बाई को बोलिए अभी चिंता न करें। ”

दो तीन महिने बाद टक्कू दो तीन सीढ़ियों से गिर गई, पैर झटक-झटक कर रोने लगी। दक्षाबेन उसे गोद में उठाकर घर के अंदर ले गई टॉफ़ी से उसे बहलाने लगी। टक्कू ने टॉफ़ी फेंक दी। उसका पैर झटककर रोना जारी था। दक्षाबेन उसे रोता छोड़, अनुभा के पास खुशी से दौड़ती आई, “काना खुल गया, काना खुल गया ।”

डॉक्टर शुभा ने फोन पर उसे समझाया, “कोई झिल्ली होगी जो गिरने के झटके से फटकर खुल गई है । ‘पेन रिलीवर क्रीम’ लगाने से दर्द बंद हो जाएगा । ”

ये बात उसने दक्षा को समझाई व घर में रखी एक क्रीम की ट्यूब उसे दे दी । दक्षा के चेहरे पर एक निश्चिंतता यहाँ से वहाँ बिछी हुई थी कि टक्कू की ज़िन्दगी अब आराम से निकल जायेगी ।

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तीज के दिन ऑफिसर्स क्लब का सारा परिसर जैसे लाल, पीले, सफ़ेद फूलों की महक व सेंट से नहा उठा है । बाहर लॉन में बने झूले को अशोक के पत्तों व फूलों से सजाया है । हॉल की देहरी के आगे रंग-बिरंगी रंगोली बनाई गई है । वहीं दरवाजे पर दो महिलाओं की ड्यूटी है, जो हर आने वाली महिला या लड़की से कूपन लेकर एक गिफ़्ट पैकेट व एक गजरा देती हैं । वे इसे अपने जूड़े या चोटी या कटे बालों में हेअर पिन से सजाकर हॉल को महकाने अंदर चली जाती हैं । अंदर एक से एक खूबसूरत हल्के, गहरे रंग के जरी, गोटे या सितारे टँके लहँगों की बहार है, हीरे, मोती व सोने के कलात्मक गहनों की बहार है । एक-एक सुकोमल बाहें भर-भर चूडियाँ छनकाती बातें कर रहीं है । कुछ नवयुवतियाँ काले, लाल, पीले, आदिवासी लहँगे व सफ़ेद गिलट के भारी आदिवासी गहने पहने, फुर्ती से इधर से उधरकाम सम्भालती घूम रही हैं। उतनी ही फुर्ती से घूम रही हैं आई लाइनर लगी उनकी काली कजरारी अँखियां ।

दर्शक दीर्घा की स्त्रियाँ भी अपना भरपूर श्रृंगार करके आई है। लाल, गुलाबी लिपस्टिक लगे होठों के बीच झाँकती धवल पंक्तियों की दमक बिखरी हुई है । हॉल के एक हिस्से को मंच की तरह फूलों से व वंदनवार से सजाया गया है । दोनों तरफ रखे हैं पीले व लाल रंग से रंगे मंगल कलश । सबसे ऊपर वाले कलश में अशोक पत्तों के बीच नारियल सजा है ।

कार्यक्रम का आरंभ तीज के एक गीत से होता है । उसके बाद प्रस्तुत किए जाते हैं रंगारंग नृत्य कभी एकल, कभी समूह, कजरी कभी गिद्धा । मीनल द्वारा निदेशित, फैशन परेड इस दिन का हिट कार्यक्रम है । बीच-बीच में क्विज़ कॉन्टेस्ट होता है जिस में सभी के धार्मिक ज्ञान का परीक्षण होता है । कुछ और इनाम है जैसे सबसे लम्बी बिन्दी वाली महिला, सबसे अधिक चूड़ियाँ पहनने वाली महिला, ऊपर से नीचे तक हर चीज़ का मेचिंग रंग पहनने वाली महिला ।

साँस्कृतिक कार्यक्रम के बाद सचिव की आवाज़ माइक पर गूँजती है, “मैं अपनी अध्यक्ष मिसिज गुप्ता से अनुरोध करती हूँ वह झूला झूलने की परम्परा का आरम्भ करें ।”

श्रीमती गुप्ता के फूलों से सजे झूले पर बैठते ही फ़ोटोग्राफर्स के फ्लेश बैक चमक उठते हैं ।

नीता समिधा के कानों में फुसफुसाती है, “याद है ? ‘लंडन बेस्ड’ अपनी अध्यक्षा, श्रीमती कपूर जब तीज पर सजी धजी झूले पर बैठी थीं तो परी लग रह थीं ।”

“.....वो चीफ़ विजिलेंस ऑफिसर ठाकुर की बीवी याद है ? थी तो सिनियर केम्ब्रिज पास लेकिन बला की खूबसूरत थी । लाल बॉर्डर की सफ़ेद सिल्क साड़ी में वह सोने से लदी थी । उस ने सोने की पायल पहनकर जो डांस किया कि बस हाँ, क्या सीन था ।”

नाश्ते की प्लेट हाथ में लेते ही कविता जैसे समिधा के लिए कृतज्ञता से बिछी जा रही हैं, “अगर आप मुझे फॉर्स नहीं करती तो मैं महिला समिति, कभी ‘ज्वाइन’ नहीं करती, न ही तीज में इतना मज़ा आता ।”

“एक वर्ष तो तुमने ऐसे ही बर्बाद कर दिया ।”

“मैं भी क्या करूँ, कुछ न कुछ परिवार के झंझट रहे ।”

“नीता व अनुभा तुम्हें अपने ‘डांस गृप’ में नहीं लेना चाह रही थीं लेकिन मैंने ज़बरदस्ती तुम्हें गृप में रखवा ही दिया ।”

“आप को मैं जितने थैंक्स दूँ उतने ही कम हैं ।”

उनका नृत्य भी इतना पसंद किया जाता है जब ज़ोनल बॉस की पत्नी का स्वागत समारोह होता है तो उन्हें भी ये नृत्य करना होता है । नीता सचिव से आनाकानी करती है, समय की कमी का बहाना बनाती है । अध्यक्ष समिधा को स्वयं फोन कर लगभग आदेश सा देती हैं । इन सरकारी या अर्द्ध सरकारी तंत्रों में प्रमुख या उन की पत्नी के आदेश को कोई टालता नहीं है ।

नीता इस अनुशासन से बेहद खुश होती है । वह समिधा को बताती रहती हैं, “जरा बाहर की एन.जी.ओ. में महिला संगठनों में जाकर देखो । यहाँ काम कोई नहीं करना चाहता, बस मंचो पर फोटो खिंचाना चाहते हैं । ऐसी ‘डिक्टेटरशिप’ इन संगठनों में क्या पूरे देश में लग जाये तो पूरा देश सुधर जाये ।”

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नीलम कुलश्रेष्ठ

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