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जो घर फूंके अपना - 52 - चक्कर पर चक्कर, पेंच में पेंच

जो घर फूंके अपना

52

चक्कर पर चक्कर, पेंच में पेंच

इस बार लक्षण अच्छे थे. प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में कोई फेर बदल नहीं हुआ. नियत दिन हमने पालम हवाई अड्डे से संध्या को चार बजे उड़ान भरी. इलाहाबाद में बमरौली हवाई अड्डे पर हमने शाम को पांच बजने में पांच मिनट पर लैंड किया. इलाहाबाद के छोटे रनवे और टैक्सीट्रैक के कारण भूमि पर विमान को तीन चार मिनट ही चलना पडा. अपनी स्क्वाड्रन की समय की घोर पाबंदी की परंपरा के अनुसार सेकेण्ड की सुई ने चार बजकर उन्सठ मिनट पैंतालीस सेकेण्ड दिखाए और ‘पार्किंग बे’ में रुकने के साथ ही हमारे ‘पुष्पक’ नाम वाले टी यू 124 विमान के दोनों जेट इंजनो का भीषण रव समाप्त हो गया. ठीक पंद्रह सेकेण्ड बाद अर्थात ठीक पांच बजे विमान का अगला दरवाज़ा खोल दिया गया. इसके बाद प्रधान मंत्री की अगवानी की औपचारिकताएं पूरी हुईं और लगभग बीस पच्चीस मिनट की गहमागहमी के बाद हम चालकदल के सदस्य भी सर्किट हाउस के लिए चल पड़े जहां हमें ठहरना था. जाने से पहले हैदराबाद वाली उड़ान की याद करते हुए मैंने इसका विशेष ध्यान रखा कि अपना आई डी कार्ड साथ ले जाना न भूलूँ!

सर्किट हाउस पहुंचकर मैंने ध्यान रखा कि उसके मैनेजर से सामना न होने पाए. क्या पता उस शोभा वाले प्रकरण के बाद उसके पिता और भाई सर्किट हाउस में आये हों और मेरे बारे में कुछ पूछताछ की हो. सौभाग्य से वह कहीं दिखा नहीं. स्थानीय प्रशासन से क्र्यू के उपयोग के लिए दो श्वेत एम्बेसडर कारें मिली हुई थीं. सर्किट हाउस में फ्रेश होकर सिविल कपड़ों में चेंज करके मैं पौने सात बजे सिविल लाइंस के एल चीको रेस्तरां के लिए निकल पडा. आदत के मुताबिक़ मैं वहाँ भी समय की अतिशय पाबंदी के साथ ठीक सात बजे पहुंचा था पर इसके लिए तय्यार था कि जिनसे मिलना था वे लोग थोड़ी बहुत देर से ही आयेंगे. रेस्तरां के अन्दर दो चार लोग ही थे. मैंने एक टेबुल पर चार लोगों के बैठने की व्यवस्था के साथ “ रिज़र्व्ड “ की पट्टी रखी देखी तो समझ गया कि ये छाया, उसके माँ बाप और मेरे लिए ही सुरक्षित की गयी होगी. फिर उस आरक्षित जगह से हटकर एक कोने में एक अन्य टेबुल के साथ लगे सोफे पर आसीन हो गया. जगह मैंने ऐसी चुनी थी कि रेस्तरां में प्रवेश करते हुए किसी भी व्यक्ति को मैं आसानी से देख सकूं. यही बात आनेवालों पर भी लागू होती थी. वे भी मुझे आसानी से देख सकते थे. मैं तो इन लोगों को पहचानता नहीं था पर उनके पास मेरी फोटो थी. मुझे पहचान कर स्वयं ही पास आ जायेंगे.

बैठने के साथ ही वेटर सर पर आकर सवार हो गया. मैं उससे कहने ही वाला था कि आर्डर थोड़ी देर में दूंगा कि वज्रपात हो गया. न मालूम कहाँ से आकर ऐन उसी समय अशोक सक्सेना एक लडकी के साथ रेस्तरां के अन्दर घुसा. वही अशोक सक्सेना जो पहले हैदराबाद में मिला था, फिर दिल्ली में मिला और अब सर्वव्यापी भगवान् की तरह अचानक यहाँ भी प्रकट हो गया था. एक तो मैंने ही परम मूर्खतापूर्वक ऐसी सीट चुनी थी कि रेस्तरां में अन्दर घुसने वाले हर व्यक्ति की नज़र मुझपर पडती ही. ऊपर से ये कमबख्त वेटर भी ऐसे क्षण पर प्रकट हुआ था कि मैं उससे बात करने के चक्कर में जल्दी से मुंह दूसरी तरफ फेर कर इन दोनों मुसीबतों को एवोयड नहीं कर पाया. ये माना कि मैं कोई चोरी नहीं कर रहा था न ही इनसे डरने की कोई वजह थी. यह भी स्पष्ट हो चुका था कि सक्सेना पुलिस अधिकारी होने के नाते हैदराबाद वाली उस घटना की कोई जांच नहीं कर रहा था जिसे घटे हुए इतने दिन बीत चुके थे. अब यदि उससे सामना हो भी गया तो कौन सी मुसीबत आ जाती. पर मौक़ा नाज़ुक था. जीवन में जितनी बार मैंने किसी लडकी को देखना दिखाना चाहा कोई न कोई विघ्न आ ही पडा था. उसपर से मैं यूँ ही नर्वस था. इन दोनों के सामने ही यदि छाया और उसके अभिभावक आ गए तो मेरा तमाशा बनकर ही रहेगा.

मन की परतों के अन्दर बहुत कुछ और छुपा हुआ था जिसे मैं बाद में अपनी उस क्षण की परेशानी के सबब के रूप मे समझ पाया. असल में सक्सेना के साथ और कोई नहीं उसकी वही मौसेरी बहन रत्ना थी जिससे दिल्ली में उसी के साथ वोल्गा रेस्तरां में मुलाक़ात हुई थी. ये रत्ना ही थी जिस से मैं एक ही मुलाक़ात में इतना अभिभूत हो गया था कि उस रात वह मेरे सपने में भी आयी थी. इतनी सुन्दर, हंसमुख और सहज लगी थी वह कि उस एक छोटी सी मुलाक़ात में ही मैं चारो खाने चित्त हो गया था. वाह रे दुर्भाग्य, जिस लडकी पर पहली बार दिल आया उसने साफ़ घोषित कर रखा था कि उसे तो आई ए एस लड़के ही पसंद थे. उसके मौसेरे भाई ने भी रत्ना के साथ मेरी शादी हो सकने की किसी संभावना का संकेत नहीं दिया था. फिर भी ! इस ‘फिर भी” के आगे मैं कुछ सोच नहीं पाता था. पिता जी ने मेरे ही आग्रह पर मेरे लिए किसी और लडकी को पसंद कर रखा था और मैंने उनसे सीधे हाँ भर रखी थी यद्यपि इसकी कोई गारंटी न थी कि वह भी मुझे पसंद कर लेगी. यदि न किया तो? मन कहता था बुरा न होगा. क्या पता मुझसे मिलने के बाद रत्ना का मन आई ए एस त्यागकर आई ए एफ अर्थात भारतीय वायु सेना की तरफ झुक गया हो. पर यह सब कोरी कल्पना की उड़ान है ये मैं जानता था. मगर “फिर भी”. ----. अब उसी “ फिर भी” का समूल नाश कर देने के लिए ये कमबख्त अशोक सक्सेना यहाँ इलाहाबाद में ठीक उसी समय प्रकट हो गया था जब मैं किसी और लडकी को देखने आया था. वह भी रत्ना को साथ लेकर. यहाँ इन दोनों को मेरे साथ देखकर वह अनजान लडकी छाया जिसे देखने मैं आया था मुझे नकार देगी तो कोई आश्चर्य न होगा. उधर यहाँ मेरे आने का प्रयोजन जानने के बाद रत्ना ही मुझे कोई मौक़ा देगी इसकी संभावना भी शून्य थी. इधर कुआं उधर खाई के इस माहौल में, अब वक्त आ गया था कि कम से कम रत्ना के सन्दर्भ में उस“ फिर भी “ को मैं पूरी तरह से भुला दूं और कोशिश करूँ कि छाया के ऊपर रत्ना की छाया भी न पड़े.

अभी मैं बगलें झाँक ही रहा था कि सक्सेना और रत्ना मेरी टेबुल तक पहुँच गए. सक्सेना ने बड़े तपाक से कहा “अरे वर्मा तुम? यहाँ क्या कर रहे हो भाई? अच्छा, समझा. ज़रूर प्रधान मंत्री को लेकर आये होगे”.

कितनी तेज़ी से भाई ने मुझ से नज़दीकी स्थापित कर ली थी ! दिल्ली में मिला था तो आप कह कर संबोधित कर रहा था. आज तुम की बेतकल्लुफी पर उतर आया. अब तो ज़रूर ही चिपक लेगा. सक्सेना से पिंड छुडाने का कोई तरीका मैं सोच ही रहा था कि रत्ना ने अपनी उसी दिलकश लजीली मुस्कान के साथ कहा “ नमस्ते, अरुण जी,ये तो बहुत ही प्लेजेंट सरप्राइज़ दे दी आपने. देखिये न, भाई साहेब भी कल ही इलाहाबाद आये और आज फिर मुझे ऐसी जगह लेकर आ गए कि आपके दर्शन हो गए. व्हाट ए लकी कोइन्सिडेंस!”

ऐसी सांप छछूंदर की गति मेरी कभी नहीं हुई थी. मस्तिष्क कह रहा था ‘जल्दी से किसी तरफ दफा करो इनको यहाँ से, इसके पहले कि छाया अपने लोगों के साथ यहाँ आ जाए’. पर कोई उपाय समझ में नहीं आ रहा था. यदि कहता कि मुझसे मिलने कोई आ रहा है तो वे उसके विषय में भद्रतापूर्वक कोई कौतूहल न दिखाने पर भी इतना तो कह ही सकते थे कि ‘अच्छा उनके आने तक साथ ही बैठते हैं. ’ यदि मेरा दुर्भाग्य और जोर मारता तो शायद ये भी कह सकते थे कि ‘आने दीजिये उन्हें, हम भी मिल लेंगे. ’ यदि न भी कहते तो इलाहाबाद बहुत बड़ा शहर नहीं है, ये लोग यहीं के निवासी थे, कहीं उन लोगों से परिचय निकल आया तो?’ पर तभी दिमाग के ऊपर दिल हाबी हो गया. जब तक सक्सेना बोल रहे थे तब तक तो मस्तिष्क भी काम कर रहा था पर जैसे ही रत्ना ने अपनी जलतरंग जैसी सुरीली आवाज़ में कहा “व्हाट ए लकी कोइन्सिडेंस” कि दिमाग वार्षिक अवकाश लेकर चला गया और उसकी जगह दिल की नियुक्ति हो गयी. और ये घुसपैठिया दिल बल्लियों उछलकर ही नहीं माना, जोर से मुझसे कहला बैठा “ओह, ये तो मेरा सौभाग्य है कि आपसे मुलाक़ात हो गयी वरना मैं तो अभी तीन चार घंटे पहले दिल्ली में था और कल फिर वही रहूँगा. आज की शाम इलाहाबाद में आपके दर्शन हो जायेंगे ये तो सोचा भी न था. ” वैसे दिल से जो आवाज़ निकल रही थी असल में वह अपरिहार्य थी. अब इसके सिवा कोई चारा भी न था कि जब उन दोनों ने बहुत सहजता और आत्मीयता से मेरी टेबुल के सामने लगे सोफे पर आसन ग्रहण कर ही लिया तो मैं आगे की चिंता छोड़कर सिर्फ उस क्षण को जीते हुए, रत्ना की उस प्यारी मुस्कान को जी भर कर पी लूं और गुनगुनाऊँ “इस पार प्रिये तुम हो मधु है, उस पार न जाने क्या होगा. ”

पर अगले ही क्षण आई असली मुसीबत !

क्रमशः ------------