Ye kaisi raah - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

ये कैसी राह - 6

भाग 6

इधर गांव में कांता और रामू किसी तरह अपनी गृहस्थी चला रहे थे। केशव पढ़ने में बहुत अच्छा तो नही था पर ठीक ठाक जरूर था। अपनी हर कक्षा में पास जरूर हो जाता था।

धीरे धीरे कर के वो दसवी के बाद बारहवीं में पहुंच गया। परीक्षा हो गई थी। अब बस परिणाम का इंतजार था।

आज केशव का बारहवीं का रिजल्ट घोषित हुआ था और वो पास हो गया था। कान्ता बेहद खुश थी। माधव घर की जिम्मेदारियों को निभाने में पढ़ ना सका था। राघव का मन पढ़ाई में नहीं लगता था। पूरे घर की आशा अब बस केशव पर ही टिकी थी। खुद रामू बस पांचवी पास थे। आज जब बेटा बारहवीं पास कर गया तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था। रामदेव का सीना आज गर्व से चौड़ा हो गया था। वो केशव का गुड़ से मुह मिठा कराते हुए बोले,

"बेटा…! दीनबंधु साहब आए हैं। उनका हाथ हर सुख दुख में हमारे साथ रहा है। जा …चरण छू आ उनके और आशीर्वाद ले ले। वो बड़े आदमी है। हमसे ज्यादा अक्लमंद है। वो सही रास्ता दिखाएंगे और ये भी बताएंगे आगे क्या करना ठीक रहेगा..?"

केशव बेहद मिष्टभाषी और गंभीर था। अपनी बोलचाल से सब को अपनी तरफ आकर्षित कर लेता और जो काम ना भी होने वाला होता वह भी करवा लेता।

”ठीक है बाबूजी।"

कहते हुए जाने वो दीनबंधु बाबू के घर जाने लिए उठ गया।

केशव सीधा दीनबंधु जी के यहां पहुचा। जैसा की गांवों में अक्सर होता है किसी बड़े आदमी के आने पर पूरा गांव दुआ सलाम के लिए जुट जाता है उनके स्वागत में दरबार लगाने। बिलकुल ऐसा ही माहौल था। बीच में दीनबंधु बाबू बैठे थे और उनको घेरे आसपास सब गांव वाले बैठे थे और तरह-तरह की बातें उनसे जानना चाह रहे थे। केशव सीधा उनके पास गया चरण स्पर्श किया और वहीं पास में खड़ा हो गया। दीनबंधु जी ने आशीर्वाद स्वरूप केशव के सर पे हाथ रक्खा और बोले,

"खुश रहो बेटा केशव..! और केशव कैसे हो बेटा..?" दीनबंधु जी ने केशव से पूछा।

केशव बोला,

"जी चाचा जी..! ठीक हूं । बस आज ही मेरे बारहवीं का रिजल्ट आया तो मैंने सोचा कि चलकर आपका आशीर्वाद ले लूं।"

दीनबंधु बाबू उसकी पीठ थपथपाते हुए बोले, "शाबाश बेटा..! शाबाश..! ऐसे ही मन लगाकर पढ़ते रहो"

दिन बंधु जी ने केशव को प्रोत्साहित करते हुए कहा।

केशव के मन में कई दुविधा थी। इस बात को ले कर की अब वो आगे क्या करे..? अपने मन की शंका की जवाब की आशा में वो बोला,

"मैं पास हो गया वो तो ठीक है चाचा जी। घर की स्थिति तो आपसे छुपी नहीं है। अब इससे ज्यादा तो बाबूजी मुझे पढ़ा नहीं पाएंगे। पर चाचा जी ..! अब मैं आगे क्या करूं..? मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है..? बारहवीं तो मैंने पास कर ली है। अब और क्या करूं.?" केशव अपनी परेशानी दीन बंधु जी को बताता है।

दीन बंधु जी ने केशव को दिलासा देते हुए कहा,

"ठीक है केशव मुझे कुछ वक्त दो। मैं सोच कर बताता हूं की तुम्हारे लिए क्या अच्छा होगा।"

केशव को डर था कि कहीं दीन बंधु जी वापस दिल्ली ना लौट जाए। अगर चले गए तो फिर उनसे मिलने दिल्ली ही जाना होगा। वो चाहता था उसके बाबूजी की तरह उसकी भी नौकरी दीनबंधु बाबू लगवा दें। इस लिए अगले दिन सुबह ही पुनः केशव दीन बंधु जी के घर पहुंच गया। दीनबंधु बाबू के पास चरण स्पर्श करने के पश्चात बैठ गया।

वो झिझकते हुए बोला,

"चाचा जी….! मुझे कोई भी छोटी मोटी नौकरी पर रखवा दीजिए। मैं सब कर लूंगा। आप तो बड़े अधिकारी हैं।"

दीनबंधु बाबू केशव की ओर देखते हुए बोले,

"हां ..! बेटा केशव ..! मैंने कल से तुम्हारे लायक काम सोच रहा हूं। तुम्हारे घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है इस कारण तुम अब आगे अपनी पढ़ाई जारी नही रख सकते।"

कुछ देर चुप रहने के बाद अचानक से वो बोले,

"ये तुमने अच्छा याद दिलाया बेटा…! कोई दूसरी नौकरी क्यों.? तुम्हे रामू भईया वाली ही नौकरी मिल सकती है।"

दीन बंधु बाबू की बात का अर्थ केशव की समझ में नही आ रहा था। वो समझ नही पा रहा था की आखिर भला उसे कैसे सिंचाई विभाग में नौकरी में नौकरी मिल सकती है..?

केशव को अपनी कही बात समझ में न आता देख दीन बंधु बाबू उसे समझाते हुए बोले,

"बेटा..! ऐसा है कि हमारे विभाग में पिता की मृत्यु या कुछ हो जाने पर पुत्र को पिता के स्थान पर परिवार के भरण पोषण के लिए नौकरी मिलन जाती है।"

आश्चर्य से केशव बोला,

"चाचा जी..! क्या सच में ऐसा संभव है। अगर संभव हो इससे अच्छी कोई बात नहीं हो सकती।"

और इसके बाद उनके पैरों को पकड़ कर बोला, "कृपया चाचा जी..! ऐसा करवा दीजिए मैं जिंदगी भर आपका एहसान नहीं भूलूंगा। मेरे साथ घर की भी दशा कुछ सुधर जायेगी।"

केशव भरे गले से बोला।

दीनबंधु बाबू ने उसे उठाकर गले लगा लिया और कहा, "बेटा..! इसमें अहसान की कोई बात नहीं। मैं प्रयास करूंगा और आगे जो प्रभु चाहे वही होगा।"

पूरी मदद का आश्वाशन दे कर दीन बंधु बाबू ने केशव को घर वापस भेज दिया।

फिर वापस केशव घर चला आया। सब घर में उसी की राह ताक रहे थे। जैसे ही केशव आया कांता ने उत्सुकता से पूछा,

"क्या हुआ केशव..? क्या कहा दीन बंधु बाबू ने.?" मां के सवाल का जवाब प्रसन्नता पूर्वक देते हुए मां से बताने लगा,

"मां ..! चाचा जी ने बोला है कि तुम्हें पिताजी की जगह नौकरी मिल जाएगी। मां.! अब हमारे दुख के दिन दूर हो जाएंगे दीनबंधु चाचा ने वादा किया है कि पिताजी की नौकरी मुझे मिल जाएगी और इसमें हमारी पूरी मदद करेंगे।"

दीन बंधु जी के घर में कुछ निर्माण हो रहा था इसलिए वो कुछ दिन और रूक गए। फिर काम समाप्त होने पर वो वापस दिल्ली जाने लगे तो फिर केशव को भी अपने साथ ले गए। दीनबंधु जी की ऊंची पहुंच और केशव के लगन से नौकरी मिलने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई। लगभग साल भर की दौड़-धूप के बाद केशव की नियुक्ति सिंचाई विभाग में हो गई। अपनी आंखों में कई सुनहरे ख्वाब सजाए पहली नियुक्ति पर केशव जसरा आ गया और लगन से नौकरी करने लगा। किस्मत में उसका ऐसा साथ दिया कि उसके नियुक्ति ऐसी जगह पर हुई जहां ऊपरी कमाई दिल खोलकर मिलती थी। नहर की सफाई का पैसा आता था। कांता बेहद खुश थी। केशव की नौकरी लगने से अब घर की परिस्थितियां बदल रही थी एक छोटी सी दुकान राघव को भी खुलवा दी गई थी और माधव भी अब घर ही आ गया था। घर में खुशियां आने लगी। कांता ने धीरे-धीरे करके पहले माधव की फिर केशव और राघव की भी शादी करवा दी। जो घर झोपड़ी था अब वहां पर पक्का मकान खड़ा हो गया और कांता भी आराम की जिंदगी बिताने लगी। घर में तीन तीन बहुएं उसकी सेवा टहल करने के लिए थी।

समय ने करवट लिया कुछ वर्षों पश्चात केशव का तबादला उसी शहर में हो गया जहां सत्यानंद जी महाराज का आश्रम था। दोनों ही एक दूसरे से अनजान थे। सरयू नदी किनारे बने आश्रम पर केशव की निगाह पड़ जाती थी, जब वो कभी छुट्टियों में स्नान करने जाता था। वहां उसके सहकर्मी भी जाते थे।

जब शहर में अकेले रहने और खाने-पीने में दिक्कत हुई कुछ समय पश्चात वह अपनी पत्नी को भी अपने साथ ले गया और दोनों उसी शहर में किराए का मकान लेकर रहने लगे। केशव के साथ साथ काम करने वाले सहकर्मी ने कहा,

"केशव जहां हम जाते है स्नान करने, वहीं पर मेरे घर के पास एक बाबा जी का आश्रम है। बहुत ही अच्छा माहौल है। चलो…! हम तुमको भी मिलवाते हैं। कार्यक्रम तय हो गया।

एक रविवार को सबने घूमने का प्रोग्राम बनाया और सरयू के तट पर गए। वहां पर सत्यानंद महाराज भी स्नान पूजन के लिए आए हुए थे।

वो भी देखने के लिए इकट्ठे हो गए।

इसे किस्मत कहिए या भाग्य का लेखा …सत्यानंद महाराज पूजन समाप्त कर लौटने लगे थे और सारे लोग रास्ते में झुक झुक कर उनके चरण छू रहे थे।

उसी समय केशव भी उनके सामने से गुजरा और जब देखा कि सारे लोग चरण छू रहे हैं तो वह भी उनकी तरफ मुड़ आया और उनके चरण छूने लगा हल्की सी स्मृति अपने चाचा की उसके मन में थी उसके मन में ऐसा लगा जैसे उसने इन्हें कहीं देखा है। सत्तू के आंखो के बगल एक बड़ा सा मस्सा था। जिसे केशव अक्सर छुआ करता था। सोते वक्त तो बिना उस मस्से को सहलाए दो ही नही पाता था। अल्पाऊ होने पर भी उसमे दिल में अपने सत्तू चाचा का वो मस्सा कही जड़ हो गया था। चरण स्पर्श कर के खड़े होते वक्त वही मस्सा महाराज जी के चेहरे पर दिख गया। इतनी पुरानी बात हो जाने पर भी केशव के मनो मस्तिष्क में वही दृश्य कौध गया जब वो ऐसे ही किसी मस्से से खेला करता था।

केशव उस दिन तो भीड़ की वजह से कुछ भी बात नही कर पाया।

पर अब उसका मन अशांत हो गया था। बार बार यही जिज्ञासा हो रही थी कि कही ये महाराज ही मेरे चाचा तो नही।

जब उत्सुकता सहन नही हुई तो वो ड्यूटी खत्म कर दूसरे ही दिन फिर से आश्रम पहुंच गया।

किसी तरह उनसे मुलाकात का प्रबंध किया और कुछ देर में उनके सामने बैठा हुआ था। महाराज जी गद्दी दर मखमली आसान पर विराजे हुए थे।

उनके चेहरे की ओर देखा कर केशव हाथ जोड़े हुए बोला,

"महाराज ..! कल जब से मैंने घाट पर देखा है। मेरा दिल बेचैन है। मुझे बार बार ऐसा क्यों लग रहा है कि मैंने आपको कहीं देखा है।"

तो सत्यानंद महाराज ने पूछा,

"पुत्र…! तुम कहां के हो…?"

जब केशव ने अपने गांव का नाम बताया तो सत्यानंद जी महाराज हक्के बक्के रह गए। पर अपने चेहरे पर आए भाव को तुरंत ही छुपा लिया। अपने चेहरे पर कोई ऐसा भावना आने दिया कि उन्हें पता चले कि वह से पहचान गए हैं। बिना पहचान बताएं ही उन्होंने केशव से कहा,

" पुत्र …! जब भी वक्त मिले आया करो तुमसे मिलकर मुझे अच्छा लगा।"

भले ही सत्यानंद महाराज ने अपना परिचय नहीं बताया था परंतु केशव के मन में कहीं न कहीं खटका था कि हो सकता है यह मेरे चाचा हो। जब भी वक्त मिलता उनके आश्रम पर जरूर जाता है और उन्हें और उन्हें सम्मान के साथ कोई ना कोई उपहार भी देता है। एक बार जब मिलने गया तो सत्यानंद जी महाराज को बुखार से पीड़ित पाया। आश्रम के सारे सेवा दार किसी अनुष्ठान के लिए बाहर गए हुए थे। वह किसी भी हालत में उन्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहता था।

जबरदस्ती वो वहीं रुक गया और फिर पत्नी को भी बुला लिया। पत्नी समेत उनकी इतनी सेवा की कि सत्यानंद महाराज द्रवित हो गए। तबियत ठीक होने पर अपना सही परिचय बता दिया।

अब तो केशव की खुशी का ठिकाना नहीं था स्वस्थ होने पर वो पत्नी को ले कर अपने कमरे पर आ गया। महाराज जी आश्रम से तो वो दोनो चले गए परंतु एक रिश्ता कायम कर गए।

अब महाराज जी को केशव के आने का इंतजार रहता। इतना चढ़ावा आता था आश्रम में कि उसका हिसाब अभी तक नही रखते थे। पर अब वो कुछ न कुछ जरूर रखते केशव को आशीर्वाद स्वरूप देने के लिए।

जब केशव छुट्टी में घर आया तो मां को बताया खुशी से कि मां…! सत्तू चाचा मिल गए हैं।

फिर उनसे मिलने की और फिर बीमार होने तक की सारी कहानी सुना डाली। परंतु कांता को कोई कुछ खास खुशी नहीं हुई इस खबर से। अपने बेटे के प्रति सत्तू के प्यार के बारे मे सुन कर उसे डर हो गया कि कहीं वह मेरे बेटे को भी अपने आश्रम में ना रख लें।

छुट्टियां खत्म होने के बाद केशव नौकरी पर वापस शहर आ गया और अवकाश के दिन आनंद जी महाराज से मिलने गया और बताया कि मैंने घर पर मां को बताया कि चाचा मिल गए हैं चाचा आप घर चलो वह नाराज हो गए अब बोले मैं किसी का चाचा नहीं हूं मुझे महाराज जी ही कहा करो। मैंने घर त्याग दिया है और अब मैं सन्यासी हूं और मेरा कोई रिश्ता नाता नहीं है।

करीब 4 वर्ष के कार्यकाल के बाद पुनः उसका तबादला घर के पास वाले शहर सोलन में हो गया और वह महाराज जी से विदा लेकर अपने शहर चलाया और उनसे बोला जब भी दिल करे आप वहां जरूर आई है मैं प्रतीक्षा करूंगा आपकी।