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रहस्यों से भरा ब्रह्माण्ड - 3 - 6

रहस्यों से भरा ब्रह्माण्ड

अध्याय 3

खण्ड 6

लोगों के लिए हम्जा केवल जीवित ही नहीं था बल्कि उस शापित जंगल से सुरक्षित जीवित निकला एक लोता दैवीय पुरुष बन गया था।

नरसिम्हा अपने भाई से बहुत देर तक लिपट कर रोता रहा। किन्तु हम्जा की उस पर कोई प्रतिक्रिया ना थी मानो जंगल ने उसके भीतर की भावनाओं को नष्ट कर दिया, उसके भीतर बहुत कुछ परिवर्तित हो चुका था। नरसिम्हा अलग होते ही अपने भाई से नाराजगी जताते हुए अनेकों प्रश्न करता है। मगर हम्जा किसी का भी उत्तर दिए बिना अपने घोड़े की तरफ वापिस मुड़ा और उस लटकती पोटली को खोल कर ले आया। जिसमें युवक को किसी शिशु के होने का भ्रम था और आश्चर्यजनक रूप से उसमें एक कोमल और सुंदर तीन माह का शिशु गहरी नींद में सोया हुआ था। जिसको किसी वस्तु की भांति अपने भाई को बड़ी कठोरता से पकड़ाते हुए हम्जा बोला " आज से मेरी संतान तुम्हारी हुई। मुझे आशा है इसका पालन पोषण तुम अच्छे से करोगे। और इस बात का कभी भी इसको पता नहीं चलने दोगे के मैं इस अभागे का सगा पिता हूँ।

इससे पहले नरसिम्हा कुछ पूछता हम्जा ने उसको अपने विश्राम करने की व्यवस्था करवाने का आदेश दिया, क्योंकि वो बेहद थक चुका था।

अब नरसिम्हा में भी कुछ और पूछने का साहस न रहा। उसको भी लगा हम्जा एक लंबी अवधि तक संकटों से घिरा रहा होगा इस समय उसका विश्राम करना आवश्यक है।

कुछ सेवकों द्वारा हम्जा को एक कक्ष में भेज दिया गया, उन पांचों डाकुओं को बंधी बना कर उस युवक के हाथों कैद खाने में डलवा दिया गया। जब उन पांचों डाकुओं ने देखा कि हम्जा चला गया, तो उस युवक को मानसिक प्रताड़ना देने लगे, वो चाहते थे क्रोध वश वो युवक कोई गलती करें और उनको बंधिग्रह से भागने का अवसर प्राप्त हो।

बन्द होते ही उनमें से एक डाकू युवक की तरफ देख कर बोला " वैसे मस्त माल थी कमिनी रात भर नींद नहीं आएगी उसकी याद में।

युवक अपनी आँखों में क्रोध अग्नि को भर उसको घूरता है।

तभी दूसरा डाकू बोला " वैसे मजा तो उसको भी खूब आया पर शर्म के मारे कुछ बोल ना पाई।

इन पापियों की नीचता सारे बंधन लांघ चूंकि थी। वो ये भी नहीं सोच रहे थे जिसके बारे में वो अपशब्द निकाल रहे है। वो अब इस लोक में जीवित भी नहीं है। इस अंतिम शब्द प्रहार ने युवक को उनका वध करने के लिए प्रेरित कर दिया। और वो अपनी तलवार खिंच कर जैसे ही उनके पास बड़ा।

युवक के साथ आए सिपाही ने युवक को रोक लिया। और बड़े ही विनम्र भाव से बोला " जाने दो मित्र इन दुष्टों में और हम में एक बड़ा अंतर है। सभ्यता और अनुशासन का और हमारे देश और इसके कानून के प्रति ही हमारी निष्ठा हमें सभ्य समाज का अटूट अंग बनाती है। ये नीच तुम्हें उकसा कर तुम्हारे जरिए भागने की योजना बना रहे है। क्योंकि ये आने वाले कल से भयभीत है। तुम अधिक से अधिक उनको अभी मार कर कुछ क्षणों की पीड़ा दोगे। किन्तु इन्हें अभी जीवित छोड़ कर आने वाले कल के भय से हर क्षण झटपटा कर कष्ट भोगने पर विवश कर दोगे।

सिपाही की बातें युवक को समझ आ गई और उसने भी उनको अभी अनदेखा कर दिया।

अगले दिन तक राजा हम्जा राणा के जीवित होने की सूचना दोनों राज्य में आग की भांति फेल गई। और महल के बाहर उनसे मिलने आये हर तबके के शुभ चिंतकों की भीड़ जमा हो गई। मगर हम्जा ने किसी से भी मिलने से साफ इनकार कर दिया।

वही नरसिम्हा ने उनके प्रजा जनों में अपने बड़े भाई का प्रेम देख कर उनका दिल रखने के लिये ये बोल कर उन्हें वापिस भेज दिया। की अभी बड़े भाई साहब का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। राज वैध ने उनको कुछ दिन विश्राम करने का निवेदन किया है। आप सबसे मेरी विनती है। ईश्वर से अपने प्रिय राजा हम्जा के लिए प्राथना करें ताकि वो जल्द से जल्द स्वस्थ हो कर आपसे मिले।

इस बात को सुन लोगों को राजा से न मिलने का दुख तो हुआ। मगर साथ में उनके स्वस्थ को लेकर लोगों में चिंता भी हुई और लोग अपने अपने घर चले गए।

वही अपने कक्ष में लेटा हम्जा जब भी आँखों को बंद कर सोने की कोशिश करता है। तो उसके कानों में ख़ौफ़नाक चीखें और आँखों के सामने कुछ दर्दनाक दृश्य किसी चलचित्र की भांति आने शुरू हो जाते है। कभी किसी स्त्री का हम्जा पर खंजर से वार करना तो कभी उसी स्त्री की गोद से अपने साथ लाए बालक को छीनने का दृश्य उसके सामने बार बार आते रहते है। जिसके चलते हम्जा एक दर्द भरी चीख निकाल कर अपने दोनों कानों पर हाथ रख कर पागलों की तरह फुट-फुट कर रोता है।

जब कोई व्यक्ति अपने मनोभावों को छिपाने में निपुण हो और किसी हादसे से ऐसे व्यक्ति के मनोभाव भी अनियंत्रित हो जाए तो सोचिए वो हादसा कितना भयंकर भय भीत कर देने वाला होगा। जिसने पर्वत जैसे कठोर हृदय बन चुके हम्जा को भी बालकों की तरह फुट-फुट कर रोने पर विवश कर दिया।

थोड़ी ही देर में हम्जा खुद को संभाल कर पुर्न कठोर रूप धारण कर सैनिकों को बुलवा कर आदेश देता है। कि दोनों राज्यों में घोषणा करवाओ कल प्राप्त काल राम लीला मैदान में उन पांचों डाकुओं को उनके घीनोने अपराधों के लिए सब के सामने दंडित किया जाएगा और प्रत्येक घर से कम से कम एक सदस्य का होना अनिवार्य है। इसका विरोध करने वाले पर राजा द्वारा सख्त करवाई होगी।

हम्जा की बात सुन सैनिकों ने उनके आदेश अनुसार ही किया और अगली सुबह लोगों की भारी तादाद राम लीला मैदान में एकत्रित हुईं।

सभी ने सोचा था अधिक से अधिक उनको कुछ कोड़े लगा कर देश निकाला मिलेगा या आजीवन कारावास। और एक तरह से लोगों के लिए ये दंड उचित भी था। किंतु अन्य दिनों से विपरीत जो भयंकर दंड उन डाकुओं को मिला उसने सब की अंतरात्मा तक को भयभीत कर दिया। इतना भयानक दण्ड वो भी हम्जा के मुख से सुनना लोगों के लिये असम्भव सा था।

सबसे पहले उन सभी की चमड़ी नोकीले तेज धार चाकू से जगह- जगह से कटवाई जिसके चलते डाकुओं को अपार पीड़ा हुई। उनमें से कुछ तो कष्ट सहन न कर पाने के कारण अचेत तक हो गए मगर हम्जा ने उनको एक विशेष जड़ी बूटी सुंघा कर उनकी चेतना शक्ति फिर से लौटाई ताकि वो और भी कष्ट भोगे।

उसके बाद एक-एक कर उनको खोलते तेल में डाला गया। जब एक डाकू खोलते तेल में डाला जाता तो अगली बारी वाला डाकू ये देख कर भयंकर मानसिक पीड़ा से गुजरता और शारीरिक पीड़ा से कई गुना अधिक मानसिक पीड़ा होती है। जो वहाँ उपस्थित प्रत्येक नागरिक भोग रहा था। जब उनमें से कुछ नागरिक इस उत्पीड़न को देखने की क्षमता के ना होने के कारण वहाँ से जाने लगें तो हम्जा ने उन्हें कठोर चेतावनी देते हुए वही पर रुकने के लिए विवश कर दिया।

जिसकी कल्पना मात्र से मनुष्य का हृदय दहल जाता है। उसको अपने सामने होते हुए देखने के लिए हम्जा ने लोगों को विवश कर उनमें अत्यंत भय पैदा कर दिया।

और शायद यही हम्जा भी चाहता था लोगों में इतना भय भर देना की कोई कल्पना में भी अपराध ना करें।

इस अमानवीय दंड क्रिया को कर हम्जा अपने कक्ष में विश्राम कर रहा था तभी इस बात को सुन बड़े ही दुखी भाव के साथ नरसिम्हा कक्ष में प्रवेश करता है। और बोला " क्षमा करें भाई साहब लेकिन आपको कोई अधिकार नहीं की हमारे पूर्वजों द्वारा बनाए संविधान और नियम के विपरीत जा कर आप अपनी अमानवीय नीति अपनाए।

हम्जा तेश में आ कर बोला " मैं उन मानवीय नीतियों को नहीं मानता जिसके चलते अमानवीय अपराधियों का जन्म हो। धिक्कार है। ऐसी नीतियों पर जिसके कारण निर्दोषों की हत्या करने वाले राक्षस जीवित घूमते रहे।

नरसिम्हा भावुक होकर बोला " भाई साहब वो जीवन किस काम का जिसको सदैव भय के साये में जिया जाए। यदि निर्दोषों की रक्षा के लिए उनको मानसिक कष्ट देकर भय से बांधे रखना हो तो क्या उनका जीवन किसी ऐसे पशु के समान नहीं हो जाएगा जिसे पिंजरे में उसकी सुरक्षा के नाम पर कैद किया गया हो।

एक सच्चा राजा प्रजा जनों में अपना भय पैदा नहीं करता बल्कि अपने प्रति प्रेम आदर और सम्मान पैदा करता है। तभी वो प्रजा प्रिय सच्चा राजा बनता है।

ये अंतिम बातें हम्जा को उसके अतीत में ले गई। जहाँ उसके मस्तिष्क के किसी कोने में वो एक सुंदरी को ये शब्द बोलते सुनता है।

" एक सच्चा राजा प्रजा जनों में अपना भय पैदा नहीं करता बल्कि अपने प्रति प्रेम आदर और सम्मान पैदा करता है।

इस बात को याद कर अब हम्जा खुद को और अधिक ना सम्हाल पाया और जंगल से वापिस आने के बाद पहली बार वो अपने भाई से हाथ जोड़ कर क्षमा मांगता है।

नरसिम्हा को भी उसके भाई की आंखों से पछतावे के मोती छलकते दिखाई देते है। और वो भी भावुक हो कर अपने बड़े भाई के गले लग जाता है। हम्जा भी अबकी बार अपने मनोभावों को दबा ना पाया और अपने भाई से चिपक कर रोने लगा।

नरसिम्हा बोला " जब तक आप अपने ऊपर टूटे दुखों का वर्णन नहीं करेंगे तब तक ये आपको भीतर से खाता रहेगा। आप एक बार विश्वास तो करो। ताकि आपका भी मन हल्का हो।

और इन बातों को सुन हम्जा अपनी आप बीती बताना शुरू करता है।

तुम्हें याद होगा किस प्रकार हमारे बाल युग में पिता द्वारा उस जंगल में ना जानें के लिए हमें बार बार कठोर चेतावनी दी जाती थी। मगर उनकी हर चेतावनी हमारे भीतर उलटा प्रभाव डालती और हमारे भीतर जंगल को देखने की जिज्ञासा को और भी अधिक बड़ा जाती थी।

प्रति उत्तर में बाल युग की किसी स्मृति को याद कर नरसिम्हा एक शरारती हँसी हंस कर अपनी सहमति देता है।

आगे हम्जा बोला " किन्तु जंगल के भीतर जाने के बाद ही मुझे उसके भयानक अंधकार का पता चला, एक समय तो ऐसा भी आया कि मेरे भीतर अनंत निराशा ने घर कर लिया और मुझे लगने लगा मेरा पूरा जीवन इस जंगल में ही कट जाएगा।

नरसिम्हा हम्जा की बात काटते हुए बोला " मैंने आपको अपनी आँखों से मृत देखा था इस बात ने अभी तक मेरे मन में एक फ़ांस सी चुभो रखी है। अब जब बातें हो ही रही थी तो मुझसे ये बोले बिना ना रहा गया बाकी बीच में टोकने के लिये क्षमा चाहता हूँ।

नरसिम्हा के प्रश्न का उत्तर देते हुए हम्जा बोला" मैं ये तो नहीं जानता तुमने किस प्रकार मुझे मरते देखा परंतु उस जंगल में रह कर इतना तो जान चुका हूँ। कि जो भी तुमने देखा था वो एक छलावा था जो उस जंगल की नकारात्मक शक्तियों का एक मायाजाल था ताकि तुम भ्रमित हो कर मान लो कि मैं मर गया और फिर मेरा पीछा ना करो।

खेर जब मैं उस घुड़सवार का पीछा कर रहा था उस समय मैं जंगल में भूल वश नहीं बल्कि जानते बुझते घुसा था। मैंने उसका पीछा करते समय इतना तो समझ लिया था कि वो घुड़सवारी में निपुण है। साथ ही चतुर भी, जिसे बिना कोई योजना के पकड़ना असम्भव है। तो जब हम एक घुमाओ दार रास्ते पर आ गए। तो मैंने उस रास्ते से उतर झाड़ियों से हो कर उसको पकड़ने का निर्णय लिया ताकि उसको आसानी से पकड़ सकूँ मगर मेरी ये चालाकी मुझ पर ही भारी पड़ गई।

जल्दी बाजी में मैं दलदल में जा धंसा, अचानक गिरने से मेरे घोड़े ने एक जोरदार चीख निकाली जिसे उस घुड़सवार ने सुन लिया वो क्षण भर के लिए रुका फिर आगे बढ़ गया। मैं जानता था यदि जल्द ही कुछ ना किया गया तो मेरा मरना तय है। इसलिए चारों तरफ नज़रों को दौड़ा कर उस दलदल से बच निकलने का कोई उपाय सोचने लगा। तभी वो घुड़ सवार मुझे वापिस आता दिखा, पास आने पर मैंने उसके हाथों में एक मजबूत बैल देखी जिस देखते ही मैं समझ गया कि मुझे मुसीबत में देख वो मेरी सहायता के लिए बेल लेने ही गया था उसको पास से देखने पर मुझे ये भी समझ आ गया कि ये कोई पुरुष नहीं बल्कि महिला है। उसने बैल का एक सिरह एक मोटे वृक्ष से बांध दिया और उसका दूसरा सिरा मेरी और फेंक कर वहाँ से निकल गया। ताकि मैं उसको कोई हानि न पहुँचा सकूँ। इससे दो बात साफ हो गई थी। पहली वो एक । सद्भावना रखने वाली स्त्री थी दूसरी उसको मुझ पर रत्ती भर का भी विश्वास नहीं था नहीं तो वो मेरे प्राणों की रक्षा कर मुझसे मिलने के लिए अवश्य रुकती। उसके इस उपकार ने उससे मिलने की मेरी इच्छा शक्ति को और भी अधिक कर दिया और साथ में इस बात की भी ग्लानि होने लगी के वो मेरे ही भय के कारण इस जंगल में घुसी थी। यदि उसके साथ कुछ भी गलत हुआ तो उसका पाप मेरे सर है।

मैंने ठान ली उस घुड़सवार को सही और सुरक्षित इस जंगल से निकाले बिना मैं घर वापिस नहीं जाऊंगा।

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