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मानस के राम (रामकथा) - 6







मानस के राम
भाग 6



भगवान परशुराम का आगमन


भगवान परशुराम महेंद्र पर्वत पर बैठ कर ध्यान कर रहे थे। उस भीषण गर्जना को सुन कर उनका ध्यान टूट गया। वह समझ गए कि किसी ने भगवान शिव के धनुष पिनाक को भंग कर दिया है। वह दिव्य धनुष भगवान शिव ने उन्हें दिया जिसे उन्होंने राजा जनक को दिया था। परशुराम बहुत क्रोधित हुए। उनके पास पलक झपकते ही कहीं भी आने जाने की शक्ति थी। क्रोध से भरे परशुराम स्वयंवर स्थल पर प्रकट हुए। सभी अपने स्थान पर उठ खड़े हुए। राजा जनक ने आगे बढ़ कर उनके चरण छुए। विश्वामित्र और दोनों राजकुमारों ने भी उन्हें प्रणाम किया। परशराम बहुत क्रोध में थे। वह गरजते हुए बोले,
"किस दुष्ट ने भगवान शिव के धनुष को तोड़ा है। वह सहस्त्रबाहु के समान मेरा शत्रु है।"
भगवान राम ने आगे बढ़ कर उनके चरण छुए और विनम्र स्वर में बोले,
"ऋषि श्रेष्ठ शिव जी के धनुष को तोड़ने वाला यह आपका दास ही है।"
परशुराम का क्रोध शांत नहीं हुआ वह बोले,
"सेवक सेवा करते हैं। हानि नहीं करते। "
लक्ष्मण को बहुत जल्दी क्रोध आता था। वे बोले क्रोध में बोले,
"ना जाने कितने धनुष हमने बचपन में खेल खेल में तोड़े हैं। एक पुराने धनुष के लिए आप का यह क्रोध उचित नहीं है।"
उनकी इस बात पर परशुराम और क्रोधित हो गए। अपना फरसा लेकर लक्ष्मण को मारने को उद्धत हो गए। विश्वामित्र उन्हें शांत करने को उठे। वह बोले,
"ऋषि जन बालकों की धृष्टता को क्षमा कर देते हैं। अतः आप भी लक्ष्मण की इस भूल को माफ़ कर दीजिये।"
राम ने भी हाथ जोड़कर अनुनय किया,
"दोष मेरा है अतः आप मुझे दंड दीजिये मेरे छोटे भाई की भूल के लिए मैं आपसे माफ़ी मांगता हूँ। "
राम के इस विनयपूर्ण व्यवहार से परशुराम कुछ शांत हुए। विश्वामित्र ने कहा,
"आप जिन्हें साधारण राजकुमार समझ रहे हैं वो अत्यंत पराक्रमी हैं। भगवान विष्णु के अवतार हैं। "
यह बात सुनकर परशुराम पूरी तरह शांत हो गए। राजा जनक ने उन्हें बताया कि राम का विवाह उनकी पुत्री सीता से होने वाला है। राम तथा सीता ने परशुराम के चरण छुए । परशुराम ने उन्हें आशीर्वाद दिया और वहाँ से चले गए।

राम और सीता का विवाह

राजा जनक ने राम के स्वयंवर की शर्त जीत लेने की खुशखबरी तुरंत अयोध्या भेजी। जिस समय दूत जनक की पत्रिका लेकर अयोध्या पहुँचा महाराजा दशरथ अपने दरबार में बैठे थे। दूत ने उन्हें प्रणाम कर राजा जनक का संदेश सुनाया,
"आपके राजकुमार राम तथा लक्ष्मण ब्रह्मर्षि विश्वमित्र के साथ मिथिला नगरी में पधारे थे। उस समय मेरी पुत्री सीता का स्वयंवर आयोजित किया गया था। आपके ज्येष्ठ पुत्र राम ने स्वयंवर की शर्त पूरी कर दी है। अतः मेरी पुत्री सीता का विवाह आपके पुत्र राम के साथ तय हुआ है। आपसे अनुरोध है कि आप अपने गुरुओं एवं परिजनों के साथ मिथिला पधारने का कष्ट करें।"
जब से विश्वमित्र राम एवं लक्ष्मण को लेकर गए थे महाराज दशरथ बहुत चिंतित थे। परंतु यह समाचार सुन कर वह बहुत प्रसन्न हुए। दरबार में खुशी की लहर दौड़ गई। महाराज दशरथ के मंत्रिगण बहुत प्रसन्न हुए। मिथिला से आए हुए दूध का उचित सत्कार करने के पश्चात उसे भेंट आदि देकर विदा कर दिया।‌
महाराज दशरथ यह शुभ समाचार देखकर अंतःपुर पहुंँचे। उन्होंने अपनी तीनों रानियों को यह समाचार सुनाया। समाचार सुनकर वह सभी बहुत प्रसन्न हुईं। महाराज दशरथ ने गुरु वशिष्ठ, वामदेव आदि से सलाह करके मिथिला प्रस्थान करने की तैयारियों की आज्ञा दी। महाराज की आज्ञा पाकर मंत्रीगण बारात लेकर जाने की तैयारियां करने लगे।
अगले दिन सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। महाराज दशरथ अपने दल बल के साथ मिथिला की तरफ चल दिए। जब महाराज दशरथ का दल अपने ऋषि मुनियों एवं परिजनों के साथ मिथिला पहुंँचा तो महाराज तो राजा दशरथ ने उनका भव्य स्वागत किया। उनका स्वागत करने के बाद आई हुई बारात को सुविधा पूर्ण भवनों में ठहराया गया। यहाँ प्रत्येक बाराती की सुविधा का पूरा ध्यान रखा जा रहा था।
महाराज दशरथ विश्वमित्र से मिले। विश्वामित्र ने उन्हें राम तथा लक्ष्मण की वीरता के किस्से सुनाए। उन्हें बताया कि किस प्रकार दोनों राजकुमारों ने उनके यज्ञ की रक्षा की। राम ने किस तरह शिव के धनुष पिनाक की प्रत्यंचा चढ़ाने की कोशिश की जिसकी वजह से वह टूट गया। अपने पुत्रों की प्रशंसा सुनकर महाराज दशरथ गदगद हो गए।
राजा जनक के छोटे भाई कुशध्वज जो संकाश्यपुरी में राज करते थे अपनी भतीजी के विवाह का समाचार सुनकर मिथिला आ गए। उनके आने पर राजा जनक ने अपने गुरु शतानंद जी से विनती की कि वह सही रीति व विधि विधान के साथ सीता के विवाह की तैयारियां आरंभ करें। शतानंद जी महाराज दशरथ से मिले और उन्हें अपने चारों राजकुमारों तथा गुरुजनों के साथ राजा जनक के भवन में पधारने का निमंत्रण दिया।
महाराज दशरथ गुरु वशिष्ठ एवं वामदेव के साथ विवाह के शुभ मुहूर्त के बारे में वार्तालाप करने राजा जनक के भवन पहुंँचे। रीति के अनुसार पहले महर्षि वशिष्ठ ने रघुवंश की वंशावली के बारे में राजा जनक और उनके गुरु एवं छोटे भाई को बताया। उसके बाद राजा जनक ने अपनी वंशावली के बारे में महाराज दशरथ को बताया। इसके बाद राजा जनक बोले,
"मेरी पुत्री सीता का विवाह राम से होने पर हम दोनों ही कुलों का गौरव बहुत बढ़ जाएगा। परंतु मेरी एक और इच्छा है। मैं अपनी छोटी पुत्री उर्मिला का विवाह लक्ष्मण के साथ करना चाहता हूँ।"
महाराज दशरथ और उनके गुरुजनों को यह बात अच्छी लगी। उसी समय विश्वामित्र ने सुझाव दिया कि और भी उचित होगा यदि महाराज दशरथ के शेष दो पुत्रों भरत एवं शत्रुघ्न का विवाह राजा जनक के अनुज कुशध्वज की पुत्रियों मांडवी एवं श्रुतिकीर्ति से करा दिया जाए। राजा जनक ने कहां,
"यह तो हमारी कुल के लिए सौभाग्य की बात है।"
सभी इस बात के लिए राजी हो गए। महर्षि वशिष्ठ वामदेव एवं सदानंद ने विवाह के शुभ मुहूर्त की गणना की। उसके बाद विवाह की तैयारियां आरंभ हो गईं‌। वैदिक रीति के अनुसार विवाह के मंडप बनाए गए। उन्हें नाना प्रकार के सुगंधित फूलों एवं मणियों से सजाया गया। विवाह की वेदियां बनाई गईं। उनके पास स्वर्ण पात्रों में घी, धूप, केसर, शहद, दही आदि सामग्रियां रखी गईं। पुरोहितों के बैठने के लिए कुश के आसन बिछाए गए।
सारी तैयारी संपन्न हो जाने के बाद महर्षि वशिष्ठ एवं अन्य पुरोहितों ने विवाह की विधि आरंभ की। मंत्रोच्चार के साथ हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित की गई। गुरु वशिष्ट के आदेश पर राजा जनक की पत्नी सुनयना अपनी पुत्री को विवाह की वेदी पर तक लेकर आईं। उस समय सीता का रूप देवी लक्ष्मी के समान लग रहा था‌। राम भी विवाह की बेदी पर आकर विराजित हुए। ऐसा लग रहा था जैसे साक्षात नारायण विवाह वेदी पर श्री लक्ष्मी जी के साथ विराजित हों‌। वैदिक विधि विधान के साथ राम तथा सीता का विवाह संपन्न हुआ।
तत्पश्चात लक्ष्मण और उर्मिला का विवाह हुआ। राजा जनक के भाई कुशध्वज की पुत्री मांडवी का भरत के साथ और शत्रुघ्न का श्रुतिकीर्ति के साथ विवाह कराया गया।
विवाह के पश्चात महर्षि विश्वामित्र ने राम तथा लक्ष्मण को महाराज दशरथ को सौंपा और राजा जनक और दशरथ से विदा लेकर हिमालय की ओर प्रस्थान किया।
महाराज दशरथ भी चारों राजकुमार और पुत्रवधुओं के साथ अयोध्या लौट आये। अयोध्या में उनका भव्य स्वागत हुआ। सारे अयोध्यावासी अपने राजकुमारों के विवाह के अवसर पर बहुत खुश थे। घर घर में मंगल गीत गाये गए। सभी ओर हर्षोल्लास का वातावरण था। महाराज दशरथ ने भी दिल खोल कर दान दिया।
चारों राजकुमार अपनी पत्नियों के साथ सुखपूर्वक रहने लगे। राम का स्वाभाव बहुत ही सरल और शांत था। वो छोटे बड़े सभी से प्रेम करते थे। महल के परिचारकों से विनम्रता से बात करते थे। कभी किसी का अपमान नहीं करते थे। प्रजा के सुख दुख का ध्यान रखते थे। प्रजा में वह बहुत लोकप्रिय थे। सभी उन्हें भावी राजा के रूप में देखते थे। तीनो भाई भी उन्हें बहुत सम्मान देते थे और उनकी हर आज्ञा का पालन करते थे। इस प्रकार सुखपूर्वक रहते हुए बारह वर्ष बीत गए।

राम के राज्याभिषेक की घोषणा

महाराज दशरथ अनुभव कर रहे थे कि अब वह समय आ गया है जब वह अपना राजपाट राम को सौंप कर अपनी रानियों के साथ वानप्रस्थ आश्रम में चले जाएं। उन्होंने गुरुजनों महर्षि वशिष्ठ वामदेव सुमंत आदि मंत्रीगणों को को बुलाकर अपने मन की इच्छा उनके सामने व्यक्त की। उन्होंने कहा,
"अब मैं वृद्धावस्था में प्रवेश कर गया हूँ। अतः मेरे लिए उचित होगा कि मैं अपना राज्य अपने ज्येष्ठ पुत्र राम को सौंप दूँ।"
सभी ने उनकी बात का अनुमोदन किया। गुरु वशिष्ट ने कहा,
"राजन तुमने बहुत उचित निर्णय लिया है। राम प्रजा में बहुत लोकप्रिय है। सभी उसे अपने भावी राजा के रूप में देखते हैं। अतः उसका युवराज चुना जाना एकदम उचित निर्णय है।"
गुरुजनों के परामर्श से महाराज दशरथ ने प्रजा के बीच में यह घोषणा कर दी कि अयोध्या का भावी राजा राम होगा। यह समाचार सुनकर प्रजा में हर्षोल्लास छा गया। एक बार फिर प्रजा खुशियों से नगर की विधियों में नाचने लगी। सभी अपने अपने प्रिय राम को राजा बने देखना चाहते थे।
राम के राजा बनने की खबर से महक में भी चारों तरफ खुशियां ही खुशियां बिखर गई थीं‌। सुमित्रा और कैकेई इस बात से बहुत प्रसन्न थीं कि राम अयोध्या का राजा बनने वाला है। कैकई जो राम से बहुत प्रेम करती थी इस अवसर पर बहुत अधिक दान पुण्य कर रही थी।
भरत शत्रुघ्न को लेकर अपने ननिहाल कैकेय प्रदेश गए हुए थे।
सब राम के राजा बनने से खुश थे। परंतु कैकई की दासी मंथरा को राम का राजा बनना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था। वह कैकेई के विवाह के पश्चात थी उसके साथ अयोध्या आई थी। वह कैकेई की मुंह लगी थी।