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पश्चाताप भाग -7

पश्चाताप भाग -7

नामकरण संस्कार के पश्चात अब पूरा घर शादी की तैयारियों मे लग गया | पैसो के लेनी - देनी,व्यवहार से लेकर शादी की सारी व्यवस्था तक जिम्मेदारी पूर्णिमा और भाई मुकुल पर ही थी | खैर, मीनू को घर बार अच्छा मिल गया था , लेन - देन की भी कोई बात न थी | घर वाले भी सज्जन स्वभाव के थे | लड़का मीनू के कालेज मे साथ पढ़ता था | वहीं दोनो की दोस्ती हुई थी ,जो बाद मे प्यार मे बदल गई | लड़के को लोअर पी सी एस के एग्जाम मे छठी रैंक प्राप्त हुई थी | नौकरी लगने के सप्ताह भर बाद ही लड़के वाले खुद ही मीनू के घर रिश्ता लेकर आये थे | हॉलाकि मीनू के पिता जी ने उन्हें अपनी आर्थिक स्थिति से अवगत करा किसी भी प्रकार से लेन -देन मे अपनी असमर्थता व्यक्त की ,जिसे उन्होने यह कहते हुए "हम यहाँ केवल आपकी बेटी लेने आये हैं, बेटियाँ माँ बाप के जिगर का टुकड़ा होती हैं, जिसने अपने जिगर का टुकड़ा दे दिया , वह और भला क्या देगा ? आप चिन्ता न करे हमारे लायक कोई काम हो तो अवश्य बताईयेगा |" मुकुल और पूर्णिमा ने मिलकर शादी की सारी जिम्मेदारियाँ बहुत ही अच्छे से निभाई, शादी का सारा खर्चा भी मुकुल के ही जिम्मे था | दो साल पहले ही बैंक मैनेजर के पद पर नौकरी मिली थी उसे, घर का सारा खर्च मुकुल की तनख्वाह से ही पूरा होता था | आखीर वह दिन भी आ गया जब बरात घर के दरवाजे पर थी | सब कुछ बड़े अच्छे से निपट गया | मीनू के जाने के बाद, मुकुल अपने काम मे व्यस्त हो गया | पिता जी का सारा समय बाहर हमउम्र लोगो मे ही गुजरता | अब पूर्णिमा घर पर दोनो बच्चों के साथ अकेली हो गई , घर का काम निपटाने के बाद वह रोज शाम को अपने घर की छत पर बच्चों के साथ टहलने चढ जाया करती | तभी एक दिन उसके ऊपर अचानक कोई चीज आकर गिरी, देखा तो एक गुलाबी रंग का कागज जिसे मुट्ठी मे भीचकर बालनुमा बना दिया गया था, पूर्णिमा ने उसे उठाकर देखा तो उपर एक मुस्कुराती आकृति के साथ लिखा था, "मुस्कुराओ" | आस-पास नजर घुमाई किन्तु कोई न दिखा | यह सिलसिला लगभग रोज चलता रहा | खुद को असहज महसूस कर उसने छत पर जाना बन्द कर दिया | कई दिन बीत गये अचानक एक दिन पूर्णिमा के पिता जी के साथ एक लगभग अट्ठाईस वर्षीय युवक उनका थैला पकड़े घर मे दाखिल हुआ | पूर्णिमा के पिता जी ने आवज मारते हुए "पूर्णी! पूर्णा! " पूर्णिमा किचन से बाहर आती है, तभी वह युवक थैला रखते हुए "अच्छा अंकल मैं चलता हूँ! |" अरे नही नही! ऐसे कैसे चाय पीकर जाना! पूर्णिमा के पिता जी ने कहा | संकोच भरे ऊपरी मन से, अरे नही अंकल ! इसकी आवश्यकता नही शायद दूसरी बार चाय के लिए आग्रह का इन्तजार कर रहा था कि मन की मुराद पूरी हो गई | नही बेटा! बिना चाय पिये नही जाने दूँगा आपको! |" पूर्णिमा के पिताजी उस युवक का परिचय पूर्णिमा से करवाते हुए "बेटा ये एक मल्टीनेशनल कम्पनी मे सॉफ्टवेयर इन्जीनियर है इनकी पोस्टिंग अभी हाल ही मे हुई है | ये हमारे साथ वाले मकान मे किराये पर रहते है | उस युवक की नजर लगातार पूर्णिमा पर ही थी , यह भाँपते हुए असहजता का अनुभव करती वह वहाँ से उठ जैसे ही चलने को करती है ,कि वह युवक बोल पड़ता है " आप मुझे रोज छत पर दिखती थी, आप कभी प्रसन्न दिखाई नही दिये! | " पूर्णिमा बिना कोई जवाब दिये अन्दर चली जाती हैं | तभी पूर्णिमा के पिता जी वेदनापूर्ण लम्बी साँस लेते हुए ,हम्म !आँसू की एक परत उनकी आँखो मे हल्की सी लालिमा भर गई | आगे कुछ न बोल सके | वह युवक आँखो मे प्रश्न लिए उत्तर मिलने की आशा से देर तक उन्ही को देखता रहा | चाय की कप मेज पर रखते हुए, अच्छा अंकल अब चलता हूँ! ठीक है बेटा! किसी चीज का आवश्यकता हो तो बेधड़क अपना घर समझ कर आ जाना | ठीक है अंकल! आप लोग बहुत अच्छे इन्सान! | उस दिन के बाद से अक्सर उस युवक का पूर्णमा के घर आना -जाना लगा रहता , हॉलाकि पूर्णिमा को उसका घर आना पसन्द नही था, किन्तु पिता जी की उपस्थिति मे न चाहते हुए भी उसे बर्दाश्त करना पड़ता | किसी -किसी दिन तो कई बार किसी न किसी बहाने से चक्कर लगा लेता | पूर्णिमा के घर पर उसने अपनी स्थिति घर के एक सदस्य के रूप मे बना ली थी | घर मे दाखिल होने के लिए अब उसे किसी खास औपचारिकता की भी आवश्यकता भी न पड़ती | पूर्णिमा को यह आभास होने लगा जैसे कि वह उससे बात करने की कोशिश कर रहा है, किन्तु उसे अनौचित्य लगते हुए, वह हमेशा इससे बचती रही | आखिर एक दिन वह साहस का सीमा को लांघकर घर पर पूर्णिमा को अकेली देख प्रवेश कर जाता है | पूर्णिमा उसे देख थोड़ा भयभीत सी "आप यहाँ कैसे? घर पर पापा, भाई नही है!, |पूर्णिमा मै तुम्हारे पापा या भाई ये मिलने नही आया | मै तुम्ही से मिलने आया हूँ !| पूर्णिमा सकपकाते हुए क्यों?
तुम डर क्यों रही हो! मै कोई राक्षस थोड़े न हूँ ,जो तुम्हें खा जाऊँगा! हुम्म! इतना बुरा दिखता हूँ क्या मै! | पूर्णिमा सबकुछ शान्त खड़ी असहजता से सुन रही थी | मै सिर्फ आपसे एक सवाल करने आया हूँ , पूर्णिमा आश्चर्य से उस युवक की तरफ देखता हुई, आप मुस्कुराते क्या नहीं??
मैने आपसे इतनी बार कहा आप नही मानी इसीलिए तो
मुझे यहाँ आना पड़ा ! | अबतक पूर्णिमा को समझ मे आ चुका था कि छत पर वह कागज के टुकड़े फेंकने वाला कोई और नही बल्कि यही महाशय थे | उस युवक ने अपना परिचय देते हुए, मेरा नाम शशिकान्त है!, मै इन्दौर से हूँ ! , मल्टीनेशनल कम्पनी मे सॉफ्टवेयर इन्जीनियर के पद पर कार्यरत हूँ ! हाल ही मे मेरी यहाँ पोस्टिंग हुई हैं !| मेरे पिताजी बचपन मे ही गुजर गये थे | मेरी एक माँ और बड़े भैय्या है, घर के सभी महत्वपूर्ण फैसले मै ही लेता हूँ !|
अब आप जब तक मुस्कुराओगे नही मै यहाँ से हिलने वाला नही | उसका यह हठ आखीर पूर्णिमा के चेहरे पर मुस्कान की एक रेखा खींच ही गया | हुम्म !! अब जरा आईने मे जाकर देखना, कितना खूबसूरत चेहरा इसे उदासी से ढक रख्खा है आपने | आज घर पर अंकल नही हैं तो ! चाय मिलने से रही ! खैर, आपकी मुस्कान का शहद काफी है मेरे लिए! एक बात याद रखियेगा पूर्णिमा जी ! जब भी यहाँ आऊँगा अगर आप मुस्कुराये नही ! यहीं विराजमान रहूँगा !| उस युवक के जाने के बाद पूर्णिमा के कानो मे उसी की बाते गूँजती रही | एक बार फिर वह आईने के सामने खड़ी होकर मुस्कुराने की कोशिश करने लगी, कि तभी अपनी स्थिति का आभास होते ही पुनः उस चेहरे को उदासी ने ढक लिया | क्रमशः.