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दुध का दरिया एक वरदान बना अभिशाप - 2

खिलखिलाती हुई हंसी अभी भी रणविजय की धड़कन बढ़ा रही थी 'हां बस 2 दिन बाद वापस आ रही हुँ।"
और कब वह लड़की रणविजय की आंखों से ओझल हो गई पता ही नहीं चला।
"अरे !यार कहां गई वह लड़की अभी तो यही थी।"

तू कब से लड़कियां देखने लग गया ,कॉलेज में तो किसी को ढंग से हाय हलो भी नहीं बोला ,और यहां कौन सी तुझे ऐसे जन्नत की हूर मिल गई जो इतना परेशान हो रहा है।"
मानव भी लगभग छोड़ते हुए बोला।

"देख मजाक मत कर यार ,बाकी सब लड़कियां अलग थी! मगर यह ,कुछ बात तो है जो बस आंखें उस पर से हट ही नहीं रही , तू दोस्त है ना मेरा चल काम पर लग और ढूंढ उसे।"
मानव और रणविजय पूरे मॉल में उस लड़की को ढूंढते रहते हैं ,काफी मशक्कत के बाद एक कॉफी शॉप के बाहर वह लड़की दिखाई देती है।
"ओ हाय थैंक यू सो मच तुमने मेरी हेल्प की"। रणविजय उसी टेबल पर बैठते हुए बोला।
लड़की हैरानी से उसे देखने लगी।
"शायद तुमने मुझे पहचाना नहीं ,वह अभी कुछ देर पहले एक्सीलेटर पर! कुछ याद आया ।"
रणविजय याद दिलाते हुए बोला।
"हां याद आया !तो अब क्या ।"लड़की ने एक सवाल किया॥
"नहीं मैं तो बस ऐसे ही तुम्हें थैंक्यू बोलना चाहता था। रणविजय बात को संभालते हुए बोला"
"लुक मिस्टर लड़कों की क्या हरकतें हैं ,मैं जानती हूं ,सो प्लीज !वैसे भी मुझे कहीं जाना है।"....
लड़की उठकर मॉल के बाहर चली गई।
" क्या यार तेरी किस्मत ही खराब है, एक लड़की मिली वह भी चली गई ।"
मानव मुस्कुराते हुए बोला ।
"तू दोस्त नहीं दोस्त के नाम पर धब्बा है, मेरे लिए थोड़ी फील्डिंग नहीं कर सकता था ,चल अब।"
दोनों कार लेकर वहां से निकलने लगे तभी फिर वही लड़की दिखाई दी शायद ऑटो या टैक्सी का वेट कर रही थी।

"हाय!
कहां जाना है आपको शायद मैं कुछ मदद कर सकूं।" रणविजय ने निहायत शरीफ तरीके से कहा।

"जी बिल्कुल नहीं ,मैं टैक्सी लेकर चली जाऊंगी। इतना कहकर वह लड़की अपना पर्स देखने लगी "अरे मेरा पर्स कहां गया अभी तो मेरे पास ही था और सारे पैसे उसी को थे।" लड़की के चेहरे से परेशानी साफ झलक रही थी॥

"देखिए आप परेशान मत होइए, मुझे बताइए मैं छोड़ देता हूं आपको ,आप मुझ पर विश्वास कर सकती है।"

कुछ सोचकर लड़की उसकी कार में बैठ गई।

"हाय माय नेम इज रणविजय और यह मेरा दोस्त मानव"।
"हाय मैं कनक"
"आप यहां की तो नहीं लगती "।रणविजय ने बातों को आगे बढ़ाते हुए कहा।
"क्यों मुंबई की लड़कियों के सर पर सींग होते हैं क्या"
कनक ने बात को काटना चाहा ।
"अरे नहीं बस ऐसे ही" रणविजय चुपचाप गाड़ी चलाने लगा, साथ ही साइड मिरर से उसकी निगाहें पीछे भी टिकी हुई थी।
तभी कनक का फोन बजा -"हां हेलो ओके ठीक है।"
फोन रख कर कनक ने पूछा-" क्या आपको पता है यहां सबसे अच्छा मार्केट कौन सा है।"
"जी बिल्कुल पर डिपेंड करता है आपको चाहिए क्या उसी के अकॉर्डिंग मार्केट है।"
"मुझे एक नया फोन चाहिए अपने पापा के लिए ,क्या बता सकते हैं सबसे बेहतर कहां मिलेगा।"
"हां बिल्कुल क्यों नहीं ।"और वह तीनों एक शोरूम के आगे आकर रुके!!
शॉप का मालिक रणविजय को भलीभांति जानता था। एक एक बढ़िया सी डील में एक बेहतरीन फोन कनक को मिल गया॥
"थैंक यू सो मच रणविजय ,मैंने आपको कितना कुछ कहा और फिर भी आपने मेरी मदद की थैंक यू।"
"अरे कोई बात नहीं।"
अब तक हां हूं और उन दोनों को देखते हुए परेशान हो उठा मानव ,,झल्ला कर बोला -"अरे यार कब से तुम दोनों के साथ घूम रहा हूं ,मगर लग रहा है जैसे तुम दोनों अकेले ही हो ,मेरी तो कोई वैल्यू ही नहीं है।"
इसी बात पर तीनों खिल खिलाकर हंस दिए।

"सॉरी मैंने तुम दोनों ,मेरा मतलब है आप दोनों को गलत समझा,एक्चुअली मैं वाकई में यहां पर नई हूं ,बस ऐसे ही घूमने आई थी सोचा कुछ शॉपिंग भी कर लूं ,मगर उसी वक्त मेरा पर्स.. और फिर आप दोनों टकरा गए॥
"अरे कोई बात नहीं और तुम हमें तुम कह सकती हो क्योंकि शायद अब हम दोस्त हैं है ना।" रणविजय खुश होते हुए बोला।
"बिल्कुल, थैंक्स तुम दोनों को और हां क्या तुम दोनों मुझे घर छोड़ सकते हो मैं अपनी एक सहेली के साथ रहती हूं।।"
बातों बातों में रास्ता कट गया और और कनक का घर आ गया।
"अच्छा कल का क्या प्रोग्राम है कनक तुम्हारा।"
मानव ने पूछा।
"कल मैं और मेरी फ्रेंड ने घूमने का प्रोग्राम बनाया है आज उसे ऑफिस जाना पड़ा तो अकेली ही आ गई थी ।"
"कनक तुम्हारा नंबर मिल सकता है कुछ काम है तुम्हें तो"॥
और इसी तरह बातों बातों में रणविजय ने कनक का नंबर ले लिया॥
रात को एक बार रणविजय ने कॉल भी किया दो-चार इधर-उधर उधर की बातें हुई॥
आने वाली सुबह कुछ अलग सी लगी रणविजय को!!
मां ने नाश्ते के लिए आवाज लगाई-" आजा बेटा नाश्ता ठंडा हो रहा है!"

सब डायनिंग टेबल पर बैठे हुए गरमा गरम नाश्ते का मजा ले रहे थे और रणविजय किन्ही अलग ही ख्यालों में खोया हुआ था ।
यह देखकर बहन निहारिका उसे छेड़ने लगी।" क्या बात है भाई आज कुछ खोए खोए से हो।"
"तु बाज नहीं आएगी अपनी हरकतों से ,चुपचाप खा ले।"

तभी ठाकुर सूर्यभान ने कहा -"देखो मैं तुम सब से कुछ कहना चाहता हूं! कुछ है ऐसा जो हमारे परिवार के लिए सही नहीं है ,मगर मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं सब कुछ सही हो जाए और इसके लिए मुझे कुछ दिनों के लिए कहीं जाना है ।तुम सब अपना ध्यान रखना और हां एक जरूरी बात कोई मुंबई छोड़कर कहीं बाहर नहीं जाएगा ।जब तक मैं वापस ना आ जाऊं ,और दोनों बच्चों को मुंबई से बाहर मत जाने देना इस बात का ख्याल रहे ,आने वाले कुछ दिन इस परिवार के लिए शायद थोड़े मुश्किल होने वाले हैं ।"

"क्या बात है बाबूजी कोई परेशानी है मुझे बताइए ।"
रणविजय के पिता ने कहा ।।
"नहीं बेटा कुछ है, जो मुझे वही जाकर करना है !मगर तुम सब मुंबई छोड़कर नहीं जाओगे इस बात का वादा करो ।"
यह कहकर ठाकुर सूर्यभान अपने सफर पर निकल जाते हैं।
,
उसके बाद रणविजय भी तैयार होकर मानव के साथ निकल जाता है
कहते है कभी-कभी जो दिल से चाहो तो मिल जाता है रणविजय के साथ भी वही हुआ रास्ते में खड़ी हुई कल आकर फिर से किसी टैक्सी का इंतजार कर रही थी
-" हाय कनक बैठो मैं छोड़ देता हूं।" मानव कनक को देखते हुए बोला॥
रणविजय के तो जैसे दिल की मुराद पूरी हो गई।

"तुम्हारी वह दोस्त आने वाली थी ना ,क्या हुआ?" मानव ने बात से आगे बढ़ाई !!
"हां यार तैयार होकर निकलने ही वाले थे, मगर एंड वक्त उसके ऑफिस से फोन आ गया और उसे जाना पड़ा और फिर मैं अकेली ही आ गई ,क्योंकि मुझे आज शाम को वापस जाना भी है।।"

"क्या तुम आज शाम को ही वापस चली जाओगी "।रणविजय मायूस होते हुए बोला।

"हां कुछ काम था वह पूरा हो गया मुंबई भी देख ली, अब बस शाम को जाना है पापा वेट कर रहे होंगे मेरा।"

"एक-दो दिन और रुक जाती ,काफी कुछ है मुंबई में देखने के लिए ।"रणविजय ने एक और कोशिश की।

"वह तो है मगर अब ज्यादा नहीं रुक सकती वहां पर भी काम है और फिर पापा अकेले हैं।"

"अच्छा चलो कुछ खाते हैं, तुम्हें मुंबई की सबसे फेवरेट डिश खिलाते हैं ।"मानव ने बात को संभालते हुए कहा।
अगले ही पल तीनों रेस्टोरेंट में महाराष्ट्रीयन फूड का लुफ्त उठा रहे थे।

"तो कहां घूमना है तुम्हें बताओ ।"रणविजय ने पूछा

"तुम यहीं के हो ,तुम्हें पता होना चाहिए यहां की सबसे अच्छी जगहों के बारे में , तुम हमारे गांव आओगे तो मैं तुम्हें वहां की अच्छी-अच्छी जगह घूम आऊंगी, अभी तुम्हारे शहर में हूं तो ,बताओ कहां ले जा रहे हो मुझे?"

तो चलो आज तुम्हें जन्नत दिखाते हैं ॥तीनों चल पड़े मुंबई दर्शन के लिए वक्त कब निकल गया पता ही नहीं चला ।
तभी एक जगह घूमते हुए सपेरे की आवाज कनक के कानों में पड़ी ,कनक अपना संतुलन खो बैठी।तकरीबन गिरते हुए बची।
अपने आप को किसी तरह संभालते हुए कनक बोली -"चलो रणविजय जल्दी से चलते हैं यहां से, मेरी तबीयत ठीक नहीं है ।"कनक के माथे पर पसीने की बूंदे साफ झलक रही थी॥
दिन बीत चुका था और कनक वापस जाने की तैयारी कर रही थी -"अच्छा सुनो रणविजय तुम आओगे कभी मेरे गांव आना जरूर।"
"पक्का जरूर आऊंगा ,मगर पहले तुम यह तो बताओ कि कहां से हो, 2 दिन तुम्हारे साथ कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला! मगर तुमने बताया नहीं तुम किस जगह से हो।"

"अरे मैं भी ना कितनी पागल हूं ,मेरे गांव का नाम' नाहरगढ़' है ,जरूर आना ।"
ट्रेन में चढ़ती हुई कनक ट्रेन बढ़ने के साथ आंखों से ओझल हो चुकी थी और नाहरगढ़ का नाम रणविजय के दिलों दिमाग पर छाने लगा था।

नाहरगढ़ नाहरगढ़ कहीं तो सुना है मैंने यह नाम, पर कहां। तभी रणविजय के दिमाग की बत्ती जली ।
हां दादाजी की किताब में.....


आखिर क्या है नाहरगढ़ में ,,जानने के लिए पढ़िए कहानी का अगला भाग