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संघर्ष - 1

संघर्ष




पार्ट 1



शुरू में तो विश्वास ही नहीं हुआ और बेहद आश्चर्यचकित थी मैं, फिर एक अनकही नफ़रत से मेरा सर्वांग झुलस उठा। क्षोभ हुआ कि ऐसे कायर और निर्दयी पुरुष की आज तक, मैं इतनी इज्जत कैसे करती रही हूँ? तो क्या आदमी को पहचानने कि मुझमें कोई क्षमता ही नहीं है? बस ऊपरी कलेवर देखकर प्रभावित हो जाती हूँ?

अभी तक तो मैं स्वयं को भाग्यशाली मानती रही थी पर अपने ससुराल वालों का यह स्वरूप आज पहली बार मेरे समक्ष आया था। परेशान थी कि किस तरह के लोग हैं ये? अभी तक अठारहवीं शताब्दी में ही जी रहे हैं या आधुनिकता की हवा को बस उतना ही आत्मसात करते हैं जितने से स्वयं अपनी स्वार्थपूर्ति होती हो? फिर डर सा लगा, जो ज्योति दी के साथ हुआ, मेरे साथ भी तो हो सकता है क्योंकि मेरी और उनकी हैसियत में ज़रा सा भी फर्क नहीं है| पर नहीं, इस तरह सोच कर मैं स्वयं को कमज़ोर नहीं करूँगी। मुझे अपने ऊपर पूरा विश्वास है कि मैं किसी तरह की जोर-जबरदस्ती बर्दाश्त करने वालों में से तो नहीं ही हूँ।

पर वह ज्योति दी... कौन है वह? कैसी हैं? क्यों इतनी कायर हैं कि अन्याय के आगे सिर झुका बैठीं? इस पूरे प्रकरण में उनकी क्या गलती थी, कि पूरी जिंदगी को बोझ की तरह ढोने की सजा स्वीकार कर ली? नियति का लेखा लिखने का अधिकार तो केवल ईश्वर के पास है न, ज्योति दी ने अपनी नियति इंसानों को लिखने की इजाजत क्यों दे दी? और अगर सचमुच दोष ज्योति दी और उनके भाग्य का है तो उनके लिए सजा निर्धारित करने वालों के अंतर में यह अपराध भाव क्यों, कि अपने कृत्य को सबसे छिपाना पड़ रहा है? क्यों मुझसे और मेरे मम्मी-पापा से रोहित भैया के बारे में झूठ बोला गया? क्यों नहीं मेरी शादी के पहले उन्होंने हमें अपने परिवार के बारे में सब कुछ बताया? क्यों नहीं सोचा कि कभी न कभी तो मुझे पता चल ही जाएगा, फिर इन लोगों पर विश्वास कैसे कायम रह सकेगा? कैसे मान लूँ कि रोहित भैया की तरह, अपने पति मोहित के बारे में भी कुछ अनचाहा नहीं ही सुनाई पड़ेगा कभी? और अब जो भरोसा ही टूट गया, इस घर में रहूँगी कैसे? क्या यह नीचता की पराकाष्ठा नहीं कि रोहित भैया सारी बातें गुप्त रख, फिर से कुंवारे बन, शादी के लिए लड़की ढूंढने निकल पड़े हैं? तो क्या सचमुच इन्हें अपने कृत्य पर कोई अफ़सोस तक नहीं है?

इंटरनेट के माध्यम से हमारी शादी तय हुई थी अतः हम उनके परिवार के बारे में बस उतना ही जानते थे, जितना उन्होंने स्वयं बताना चाहा। मोहित हर तरह से योग्य थे, और उनका छोटा सा पढ़ा-लिखा परिवार था, फिर भी मेरे घर में एक बार यह बात उठी जरूर थी कि बड़ा भाई अभी तक कुँवारा क्यों बैठा है? पहले छोटे भाई की शादी क्यों की जा रही है? पूछने पर उन लोगों ने बताया कि अभी रोहित कोई कोर्स कर रहे हैं जिसके पूरा हो जाने पर ही वह शादी-विवाह के बारे में सोचेंगे, और क्योंकि मोहित अपनी पढ़ाई पूरी करके जॉब कर रहे हैं अतः उनका विवाह पहले कर देने का निर्णय ले लिया गया है। वैसे भी दोनों भाइयों की उम्र में बस दो ही चार वर्षों का तो अंतर था| उन लोगों का बाकी सब कुछ इतना आकर्षक था कि किसी छोटी-मोटी चीज़ को तूल देने का सवाल नहीं उठा, अतः वह बात वहीँ आई-गई हो गई और यथा समय धूमधाम से मेरा विवाह हो गया।

ससुराल में शुरू से ही रोहित भैया के धीर-गंभीर स्वभाव ने मुझे बहुत प्रभावित किया। काफी कम बोलते थे, पर जब भी बोलते, हर किसी को अपनी और आकर्षित कर लेने की अद्भुत क्षमता थी उनके अंदर| हर कदम मानों नपा-तुला रखते, हर बात तथ्यपरक होती और उनके हर स्टाइल से एक तरह का अभिजात्य टपकता था। उनकी पैनी दृष्टि, होंठों पर सजी स्मित और मोहक व्यक्तित्व... सचमुच सबसे अलग थे वह| उनके उस गरिमामय व्यक्तित्व से पूरी तरह अभिभूत थी मैं।

केवल मैं ही नहीं, मेरी प्रिय सहेली थी कली, जो मेरी शादी की हर रस्म में हमेशा आगे-पीछे ही घूमती रही थी, कितनी प्रभावित हो गई थी रोहित भैया के व्यक्तित्व से| पहले तो मैंने यूँ ही उसे छेड़ने के लिए कहा था कि एक दिन मैं तुझे उनकी बीवी बनाकर अपने घर ले आऊँगी फिर बाद में लगा इसमें बुराई भी क्या है, बल्कि इससे अच्छी बात तो दूसरी हो ही नहीं सकती| कली हर तरह से योग्य थी और यदि मेरी प्यारी सहेली, मेरी जेठानी बनकर इस अनजाने शहर में, हर समय मेरे साथ रहे तो बात ही क्या? मौका देख कर मैंने यह बात अपनी सास के सम्मुख रखी थी और उन्होंने तुरंत इस रिश्ते में रुचि भी दिखाई थी। मुझे डर तो रोहित भैया से था कि वह शायद अभी शादी के लिये तैयार नहीं होंगे... कि पता नहीं कितने समय तक उनकी पढ़ाई-लिखाई चलनी है पर आश्चर्यजनक रूप से वह भी शादी के लिए बिल्कुल तैयार हो गए। अपने अंदर के इस छोटे से संदेह को मैंने अपने पति मोहित के समक्ष रखा भी था पर उन्होंने तो बात मज़ाक में ही टाल दी थी... तुम्हारी सहेली है ही इतनी सुंदर! भैया क्या, तुम अगर मुझसे उसकी बात चलाओ, तो मैं भी तुरंत तैयार हो जाऊँगा|

मैं खुश थी कि कली के घर में आ जाने से मेरी जिंदगी में भी कुछ परिवर्तन आएगा... कि अपनी एकरस दिनचर्या से उकताने लगी थी मैं| कहाँ तो अपनी पढ़ाई और कॉलेज के हर प्रोग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के कारण शादी से पहले मैं दिनभर बेहद व्यस्त रहती, अक्सर ही ढेर सारी सहेलियों, परिचितों या रिश्तेदारों से घिरी होती पर जब से यहाँ आई हूँ, अकेलेपन के एक अजीब से अहसास से जकड़ी हुई हूँ। यूँ सब कुछ तो है... प्यार-मोहब्बत, रिश्तों की गर्माहट, किसी चीज़ की कमी तो नहीं, पर जाने क्यों यह परिवार पूरे समाज से ही कटा-कटा सा नज़र आता है मुझे| न कोई मिलने हमारे घर आता है, न हम लोग ही किसी से मिलते जुलते हैं। बस मोहित ही अक्सर अपने ऑफिस से लौटने के बाद मेरे बाज़ार के सभी काम करवाते, सिनेमा या होटल ले जाते, वरना तो बाकी सभी लोग जरूरी काम से लौटकर घर में ही रहना पसंद करते थे। बीच वाले कमरे में सारा दिन एक टेलीविज़न चलता रहता, जिसके सामने कुछ समय बैठने के पश्चात सब लोग अपने-अपने कमरों में समय बिताते। इतने दिनों में मैंने भी यह समझ लिया था कि अगर यहाँ सब की नज़र में अच्छी बहू बने रहना है, तो मुझे भी इस अदृश्य सीमा रेखा को पार करने का कोई प्रयत्न नहीं करना चाहिए। पर क्या करती कि अकेले रहते-रहते दम घुटा जा रहा था मेरा... महसूस होता जाने कितने समय से मैंने इन चार-पाँच लोगों के अतिरिक्त किसी और का चेहरा तक नहीं देखा है। रिश्तेदार, दोस्त, पड़ोसी, कोई नहीं| कुछ समय अकेले, बिना मोहित के, कहीं आने-जाने, कुछ लोगों से मिलने बतियाने को तरसने लगी थी मैं... कुछ आगे पढ़ लूँ या कोई जॉब ले लूँ.. पर अपने घर के लोगों को नाराज़ करने की जरा भी इच्छा नहीं थी|

ठीक है, बाहर नहीं निकलती, पर घर से तो कुछ व्यापार शुरू कर सकती हूँ न? बाद में कली के आ जाने पर फिर हम दोनों मिलकर अपने काम को आगे बढ़ाएँगे... पर तभी पता चला कि मैं गर्भवती हूँ। इस सूचना से घर में तो मानो उत्सव का सा माहौल बन गया। ससुर ढेरों मिठाइयाँ ले आए, सास ने मेरी खास देखभाल शुरू कर दी, मोहित की आँखों में ऐसा गर्व चमक रहा था मानो उन्होंने कुछ ऐसा कर लिया हो जो पहले कभी हुआ ही नहीं| उधर रोहित भैया की खुशी का भी कोई ठिकाना नहीं था, बस मैं ही सब की तरह खुश नहीं हो पा रही थी। मुझे तो बस एक डर सा ही लगा हुआ था कि कहीं और भी ज्यादा घर में कैद होने तो नहीं जा रही हूँ मैं?

उस दिन लैंड लाइन पर एक फ़ोन आया, जिसे इत्तेफाक़ से मैंने ही उठा लिया था। किसी ने अपना नाम ज्योति बताया और रो-रोकर सूचना दी कि उनकी माँ का देहांत हो गया है। मैने जब यह बात अपनी सास को बताई तो उनका चेहरा एकदम से सफेद हो गया पर जल्दी ही अपने मनोभावों को छिपा, उन्होंने बात आई-गई कर दी। शाम को मैंने मोहित से भी पूछा कि ज्योति कौन हैं? पर उन्होंने भी अनभिज्ञता ही जता दी।

कोई कितनी भी कोशिश करे, शायद ऐसी बातें कभी नहीं ही छुपतीं... कि घर की दाई से एक दिन मुझे रोहित भैया की पहली शादी के बारे में पता चल ही गया। पता चला इस घर की पहली बहू ज्योति दी के बारे में... उनकी निरीहता के बारे में... उन्हें धक्के देकर घर से निकाल दिए जाने के बारे में... मेरे ममतामयी सास-ससुर का वह जुल्म... और सबसे बढ़कर रोहित भैया का इस गलत काम में अपने माँ- बाप का सहयोग करना... अविश्वसनीय था यह सब कुछ, पर विश्वास करना ही पड़ा क्योंकि अब सारी कड़ियाँ एक-दूसरे के साथ जुड़ने जो लगी थीं। अब समझ में आया बिल्कुल अन्जान परिवार से मुझे लाने का अर्थ! अंजान शहर की कली में रोहित भैया के रुचि लेने का अर्थ! और मैं? मैं क्या इनके इन नापाक इरादों को पूरा करने का माध्यम बनती जा रही थी।

क्रमशः

मौलिक एवं स्वरचित

श्रुत कीर्ति अग्रवाल
shrutipatna6@gmail.com