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विश्वासघात(सीजन-२)--भाग(१)

मनोरमा.... मनोरमा! कहां हो भाई! धर्मवीर ने अपनी पत्नी को पुकारते हुए कहा।।
अभी आती हूं जी! जरा सी सांस तो ले लिया करो,बस पुकारते ही जा रहे हो और तुम ऐसे बेवक्त़ कैसे आ धमके,मनोरमा बोली।।
सांसें तो हमारी आपको देखकर बंद हो जातीं हैं,श्रीमती जी! धर्मवीर बोला।।
देखो जी ! मैं मज़ाक के मूड में बिल्कुल भी नहीं हूं,अभी बहुत से काम पड़े हैं मुझे ,जो बोलना है जल्दी बोलो, मनोरमा बोली।।
मैं तो ये कह रहा था कि आज बहुत बड़ा कोनट्रैक्ट मिला है,अगर वो सही समय पर पूरा हो गया तो हम लोगों के वारे-न्यारे हो जाएंगे, धर्मवीर बोला।।
अच्छा! भगवान आपको यूं ही आगे बढ़ाए,आप दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करो, मैं पहले भगवान के पास माथा टेक आऊं, फिर आपसे बात करती हूं, मनोरमा बोली।।
तुम भी क्या घड़ी घड़ी भगवान को परेशान करती रहती हो? धर्मवीर बोला।।
ना जी! मैं उन्हें परेशान नहीं करती ,बस जो उन्होंने हमारे ऊपर कृपा बरसा रखी है उसका धन्यवाद करने के लिए ही उनके चरणों में अपना माथा टेकती हूं, मनोरमा बोली।।
तुम्हारे जैसी सती स्त्री को पाकर तो जैसे मेरे भाग्य ही खुल गए हैं,तुम मेरे जीवन में ना आती तो ना जाने मेरा क्या होता? धर्मवीर बोला।।
मैं ना आती तो कोई और आता,सारी उम्र क्वांरे थोड़े ही बैठें रहते, मनोरमा बोली।।
लेकिन तुम जैसी समझदार ,सुशील और सुन्दर ना मिलती, धर्मवीर बोला।।
अच्छा.... अच्छा....चलो हटो भी,माथा टेक कर आती हूं,फिर बात करती हूं,तुम्हारा क्या है,तुम तो ऐसे ही बातों की फुलझडियां छोड़ते रहते हो,अभी स्कूल से बच्चे हुए आते होंगें आते ही खाना मांगेंगे,अभी भात और रोटी बनाना रह गए हैं,मनोरमा बोली।।
और इतना कहकर मनोरमा माथा टेकने चली चली गई,कुछ देर में एक और मोटर बगलें के गेट पर रूकी,ड्राइवर बच्चों को स्कूल से घर लेकर पहुंच गया था, बहुत पुराना ड्राइवर है,वो धर्मवीर के पिता की मोटर चलाया करता था,उसे सालों बीत गए हैं इस घर में रहते हुए ,उसने धर्मवीर को अपनी आंखों के सामने ही इतना बड़ा होते हुए देखा है,वो मनोरमा को बहुरानी और धर्मवीर को लल्ला कहकर पुकारता है।।
मनोरमा और धर्मवीर भी उसे अपने पिता की तरह ही सम्मान देते हैं, धर्मवीर के माता-पिता नहीं है और ना ही कोई और है जिसे वो अपना कह सकें।।
मनोरमा का परिवार तो बहुत बड़ा है लेकिन उसने धर्मवीर से प्रेम-विवाह किया था, इसलिए उसके मायके वालों ने उससे मुंह मोड़ लिया है, मनोरमा और धर्मवीर के दो बच्चे हैं बेटी का नाम लाज है जिसकी उम्र नौ साल है और बेटे का नाम करन है जिसकी उम्र सात साल है।।
ऐसे ही मनोरमा और धर्मवीर सहाय की जिंदगी चल रही है,वो दोनों हमेशा ही कोई ना कोई दान पुण्य का काम करते रहते हैं, गरीबों को खाना खिलाना तथा अनाथालय में दान करते रहते हैं, धर्मवीर के पिता शिवमंगल सहाय ने बहुत मेहनत करके बहुत बड़ा व्यापार खड़ा कर दिया है,जिसे अब धर्मवीर सहाय सम्भालता है, दवाइयों की एजेन्सीज है और कुछ कपड़ों की मिलें हैं,शहर से बाहर काफ़ी खेत हैं, जहां धर्मवीर ने एक फ़ार्म हाऊस बना रखा है,उसकी देखभाल के लिए कुछ नौकर रख रखे हैं,जब कभी धर्मवीर का मन शहर की आवोहवा से ऊब जाता है तो वो वहां अपने परिवार के संग छुट्टियां मनाने चला जाता है,उसका फ़ार्म हाऊस है भी बहुत ही सुन्दर जगह में, खेतों के किनारे बड़ी और गहरी नहर भी बहती है जिससे फ़ार्म हाउस की सुन्दरता देखते ही बनती है, धर्मवीर और मनोरमा को किसी चीज़ की कमी नहीं है, बच्चे कान्वेंट स्कूल में पढ़ते हैं,सब मज़े से चल रहा है,उनका जीवन बहुत ही खुशहाल हैं।।
तभी अनवर जो कि उनके पुराने और बुजुर्ग ड्राइवर का नाम है वो बोला.....
लीजिए, बहुरानी! मैं बच्चों को स्कूल से ले आया....
तभी धर्मवीर बाहर आकर बोला....
तुम लोंग स्कूल से आ गए बच्चों,कैसा रहा आज का दिन?
पापा! बहुत ही बढ़िया था,मुझे मैडम ने पोएम सुनाने को कहा तो मैंने बिना रूके एक ही सांस में सुना दी,फिर मैडम ने मुझे चाकलेट दी,लाज चहकते हुए बोली।।
और तुम साहबजादे! आज स्कूल में कौन सा कारनामा करके आए हो जो तुम्हारे चेहरे पर बारह बज रहे हैं, धर्मवीर ने छोटे बेटे करन से पूछा....
पापा! इसका तो रोज़ का ही है,आज फिर इसने एक बच्चे को बेंच से धक्का दे दिया और उसके पेट में घूंसे मार मारकर उसे अधमरा कर दिया, फिर क्या था ? सर ने पचास उठक बैठक लगवाए,तब से मुंह फूला हुआ है,लाज बोली।।
दीदी! तुम अपना देखो,मेरी चिंता मत करो,करन बिगड़ते हुए बोला।।
करन बेटा! वो तुम्हारी बड़ी दीदी है,उससे ऐसे बात नहीं करते,अनवर ने कहा।।
आपको कुछ पता नहीं है अनवर चाचा! ये ऐसे ही मेरी शिकायत लगाती रहती है,करन बोला।।
कितनी बार कहा तुमसे,अनवर चाचा को दादा जी कहकर पुकारा करो,अन्दर से मनोरमा आती हुई बोली।।
मां तुम भी इन्हें अनवर चाचा कहती हो और पापा भी अनवर चाचा कहते हैं तो हम लोगों को क्यों मना करती हो? लाज ने पूछा।।
वो इसलिए कि ये तुम्हारे दादा जी के हमउम्र हैं, मनोरमा ने जवाब दिया।।
अब ये हमउम्र क्या होता है? करन ने पूछा।।
रहने दो बहुरानी! इन दोनों के साथ माथापच्ची करना मुमकिन नहीं,इन दोनों को अन्दर ले जाकर खाना वाना खिलाइए,अनवर चाचा बोले।।
जी आप सही कहते हैं,चलो तुम दोनों भीतर चलो और अनवर चाचा मैं आपका खाना लेकर भी सर्वेंट क्वाटर में आती हूं, मनोरमा बोली।।
जी बहुरानी बहुत अच्छा, तब तक मैं भी ड्राइवर की वर्दी उतारकर हाथ मुंह धो लेता हूं और इतना कहकर अनवर चाचा चले गए।।
वहीं बगीचे में ही धर्मवीर ने दो तीन सर्वेंट क्वाटर बनवा रखें हैं, जिसमें एक में माली रहता है,दूसरे में लच्छों और श्याम रहतें हैं जो कि घर के नौकर हैं और तीसरे में अनवर चाचा, क्योंकि सब दूर दूर के गांवों से यहां काम करने आएं हैं इसलिए इन सबके रहने के लिए सर्वेंट क्वाटर की सुविधा दी गई है, चूंकि अनवर चाचा बहुत पुराने और बुजुर्ग हैं तो मनोरमा ही उनका खाना पका दिया करती है लेकिन जब अनवर काका को कभी मांस मच्छी खाने का मन होता है तो वो अपने क्वाटर में खुद पका लिया करतें हैं, क्योंकि धर्मवीर का परिवार शुद्ध शाकाहारी हैं।।
उधर धर्मवीर ने मनोरमा से कहा____
श्रीमती जी! जल्दी से खाना परोसिए,मुझे वापस दफ्तर जाना है।।
अभी तक तो बड़े आराम से बैठे थे,अब रोटियां सेंकने लगी तो पानी सा बरसा रहें हों,ठहरो पहले रोटियां सेंककर अनवर चाचा को खाना पहुंचा आऊं, फिर आपके लिए और बच्चों के लिए हुए रोटियां सेंकती हूं, मनोरमा बोली।।
जो हुकुम श्रीमती जी !आपके हुक्म की तामील होगी, धर्मवीर बोला।।
जी! मैं कोई हुक्म नहीं दे रही हूं,वो बुजुर्ग हैं तो पहले खाना उन्हें ही मिलना चाहिए, मनोरमा बोली।।
जी बिल्कुल, ठीक है जब तक हम सलाद से काम चलाते हैं,धर्मवीर बोला।।
और भी बहुत कुछ आपकी पसंद का बनाया है,जरा टेबल पर रखें बर्तनों का ढ़क्कन खोल कर देख लीजिए, मनोरमा बोली।।
अरे,वाह! आज तुमने कढ़ी-पकौड़ी बनाई है और साथ में भरवां परवल भी,आज तो खाने का मज़ा ही आ जाएगा, धर्मवीर बोला।।
इस तरह सबने दोपहर का भोजन किया, रोजमर्रा की तरह उस दिन भी दिनचर्या ऐसी ही रही......
रात का वक़्त था,सब सो रहे थे,तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई......
दस्तक सुनकर पहले मनोरमा जागी और उसने धर्मवीर को जगाते हुए कहा.....
देखो जी! उठो शायद दरवाज़े पर कोई है,
अगर कोई होता तो घंटी बजाता, दरवाज़े पर दस्तक क्यों देता? धर्मवीर बोला।।
नहीं ,कोई तो है,मनोरमा फिर बोली।।
और इस बार उस शख़्स ने फिर से दरवाज़े पर दस्तक दी.....
इस बार दस्तक धर्मवीर ने भी सुनी और वो मनोरमा से बोला....
मैं जाकर दरवाज़े पर देखता हूं भला इतनी रात गए कौन आया है?
जी! मुझे तो डर लग रहा है, मनोरमा बोली।।
इसमें डरने की क्या बात है? मैं हूं ना! धर्मवीर बोला।।
तभी धर्मवीर ने जाकर दरवाज़ा खोला, दरवाज़ा खोलते ही धर्मवीर गुस्से से चीख पड़ा.....
तुम!और यहां,तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? मुझे अपनी शक्ल दिखाने की।।
धर्मवीर की आवाज सुनकर मनोरमा भी दरवाज़े की ओर भागी.....
उसने देखा कि वो तो विश्वनाथ सिंह था, धर्मवीर का मित्र.....
तभी विश्वनाथ ने धर्मवीर के सवाल का जवाब देते हुए कहा____
ऐसा ना कहो मित्र! मैं अब कहां जाउंगा?मुझ पर जो ग़बन का दाग लग चुका है,वो बदनामी मुझे चैन से जीने नहीं दे रही है,कोई भी मेरा अपना मेरा मुंह नहीं देखना चाहता, यहां तक कि मेरे परिवार ने ही मुझसे मुंह मोड़ लिया है,मेरे मां बाप तो मेरी शक्ल भी नहीं देखना चाहते,अगर तुमने भी आसरा ना दिया तो कहां जाऊंगा, मैं तुम्हारा कुसूरवार हूं,तुमने अपनी कम्पनी में मुझे काम दिया,मुझे इज्ज़त बख्शी और मैंने भी तुम्हारी कम्पनी में ग़बन करके तुम्हें दगा दे दी,मुझे माफ़ कर दो दोस्त!मैं अपनी करनी पर बहुत शर्मिन्दा हूं और फिर मैं पांच साल तक उसकी कड़ी सजा भुगत चुका हूं, मैं तुमसे भीख मांगता हूं,मुझे माफ़ कर दो,आइन्दा फिर कभी शिकायत का मौका ना दूंगा।।
लेकिन मैं तुम्हारी बात पर कैसे भरोसा करूं? धर्मवीर ने कहा।।
सच कहा! मित्र! मैं भरोसे के लायक नहीं हूं, लेकिन दूसरा मौका देकर तो देखो,अब तुम्हारे साथ कभी भी दग़ा नहीं करूंगा,ऐसा मैं वादा करता हूं, विश्वनाथ बोला।।
ठीक है तो भीतर आओ, धर्मवीर बोला।।
बहुत भूख लगी है, पहले कुछ खाने को ला दो मनोरमा भाभी!जेल से छूटकर ना जाने कितने दिनों से भूखा प्यासा भटक रहा हूं, विश्वनाथ बोला।।
ठीक है आप बैठिए, मैं अभी कुछ खाने को लाती हूं, मनोरमा इतना कहकर रसोई की ओर बढ़ गई।।
थोड़ी ही देर में बातें करते करते दोनों दोस्तों के बीच के गिले शिकवे दूर हो गए,थोड़ी देर में मनोरमा खाना लेकर पहुंच गई, विश्वनाथ ने पेट भर कर खाना खाया और बोला____
मित्र! बहुत नींद आ रही है अगर घर के किसी कोने में मेरे सोने का इंतजाम हो जाता तो और तुम फिक्र मत करो, मैं यही कहीं फर्श पर एक चादर बिछाकर रात काट लूंगा।।
नहीं मित्र! कैसी बातें करते हो? मुझे ये देखकर बहुत प्रसन्नता हुई कि तुम्हें अपनी गलती का पछतावा है, तुम्हारे लिए इस घर के दरवाज़े हमेशा खुलें हैं और तुम जाकर मेहमानों वाले कमरें में सो जाओ, धर्मवीर बोला।।
ठीक है मित्र! तुम जैसा उचित समझो और विश्वनाथ सोने चला गया, चूंकि वो पहले भी इस घर में आता रहता था इसलिए वो घर के एक एक कोने से वाकिफ था।।
मनोरमा और धर्मवीर भी सोने के लिए अपने बेडरूम में आ गए,
मनोरमा का मन शंका से भरा हुआ था,उसे अब विश्वनाथ पर भरोसा नहीं था और अपनी शंका को जाहिर करते हुए वो धर्मवीर से बोली____
क्यों जी! क्या फिर से विश्वनाथ पर भरोसा करना ठीक होगा?
तुम तो खामखां में शक़ करती हो,देखा नहीं वो अपनी गलती पर कितना शर्मिन्दा था, धर्मवीर बोला।।
आप कहते हैं तो ठीक है लेकिन आपको याद है ना! जेल जाते वक़्त उसने आपको धमकी दी थी कि मैं तुझे देख लूंगा,मनोरमा बोली।।
वो उस समय गुस्से में था, इसलिए शायद बोल गया होगा, धर्मवीर बोला।।
लेकिन फिर भी, मेरा तो जी डर रहा है, मनोरमा बोली।।
अरे घबराओ मत,सो जाओ,इस मसले पर सुबह बातें करेंगे, धर्मवीर बोला।।
और इतना कहकर धर्मवीर सो गया लेकिन मनोरमा रातभर सो ना सकी।।


क्रमशः....

सरोज वर्मा.....