Pahle kadam ka Ujala - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

पहले कदम का उजाला - 13

वो चार दिन***

अगली सुबह सोचा था, कोई नया ही हंगामा देखने को मिलेगा! जिंदगी कब क्या दिखा दे कुछ पता ही नहीं? सुबह आँख खुली अभी घर के काम की शुरूआत ही हुई थी।

कल जो मैं सारे उपहार मैं छोड़ आई थी वह लेकर कंपनी वाले आ गये। वो आंखें, जिनसे मुझे एक नई कड़वाहट की उम्मीद थी, वो अब सामान के साथ व्यस्त हो गईं। उपहारों से लगभग आधा कमरा भर गया था।

जिसमें कपड़े, माइक्रोवेव, न जाने कितनी चीजें पड़ी थीं। मेरी सास और पति वह सब देखने में व्यस्त हो गये। मुझसे बिना पूछे यह तय होने लगा कि क्या इस घर में रहेगा और क्या मेरी ननद को देना है।

हमेशा की तरह मेरे पति की मौन पूर्ण सहमति इसमें शामिल थी। हम माँ-बेटी इस सब में दखल देना नहीं चाहती थी। वैसे भी दख़ल का एक ही मतलब था ’एक बड़ा तूफान!’

मैं, अपने मित्रों से बात कर रही थी। रोली हाथ में एक बहुत बड़ा पैकेट लेकर आई और बोली- “मां देखो, कितना सुंदर लहंगा मिला है तुम्हें! यह तुम रख लो और यह सिल्क की साड़ियां तुम्हें बहुत पसंद है ना! बाकी सारे सामान का दादी और पापा को जो करना है कर लेने दो!”

लहंगा देख कर मैंने कहा- “अब इसका क्या करूंगी? साड़ियां बहुत सुंदर है!”

-“अभी तुम इसको भी रखो! बाकी बाद में देखते हैं!” रोली लहंगा देकर चली गई मगर मैं इस लहंगे को देखकर बहुत पीछे चली गई।

मेरी शादी का लहंगा, जो मुझे पहनना था, जिसकी मैचिंग की चूड़ियां और नकली गहने किराए से हम लेकर आए थे, वह मेरी ननद ने पहन लिया। मुझे ननद ने वरमाला से चार घंटे पहले बताया गया अब तुम्हें लाल वाला नहीं, यह गुलाबी वाला सस्ता सा लहंगा पहनना है। जिसका मैचिंग मेरे पास कुछ भी नहीं था। मजबूरन मैंने अपनी ही एक लाल साड़ी पहनी थी।

शादी के समय किसी लड़की का लहंगा ही बदल दिया जाए ऐसा तो शायद कभी नहीं होता होगा! हमारे घर से मेरे माता-पिता द्वारा दिए गए दहेज में कोई कमी रहने के कारण मेरी ननद ने अपमान का बदला इस तरह लिया था। जो अनूठा था। जिसने मुझे इस घर में आने से पहले ही दहला दिया था।

आज शादी के इतने साल बाद लहंगे का क्या करना? रोली की बात को मैं कभी मना नहीं कर पाती तो मैंने लहंगा और साड़ी उठाकर अलमारी में रख दिये। मेरे उपहारों ने हमारा घर भर दिया था। साथ ही मेरे सास और पति के मुंह भी बंद कर दिए थे। अगले तीन दिन लोगों से मिलते-मिलते कब बीत गए पता ही नहीं चला।

आज सुबह अंकल-आंटी की बहुत याद आ थी। इतने में फोन की घण्टी बजी, यह आंटी का फोन था। दिल के तार जुड़े हो तो लाइन ऐसे ही मिल जाती है। आज आंटी से बात करते-करते मेरे आँसू गिरने लगे।

मैंने आंटी से कहा “आज आपको मेरे पास होना था। आपकी कोई भी सेवा नहीं कर पाई। हमेशा आपसे लेती ही रही मैंने दिया क्या?”

“अरे, पागल तू देने की हालत में थी ही कब? तू तो जीने की हालत में भी नहीं थी। तेरी हिम्मत देख कर कई बार तेरे अंकल कहते थे ‘ये औरत है या एक साधु? इसके मन की ताकत बहुत बड़ी है। जो किसी आम इंसान में हो ही नहीं सकती है। लड़कियाँ पार्टी और गहनों के लिए जीना मुश्किल कर देती है।

तुझे तो इन नालायकों ने पेट भर रोटी भी नहीं दी। अरमानों की बात करने का तो तुझे ज़िन्दगी ने वक़्त ही नहीं दिया। इन हालात में जीना भी आसान नहीं होता है। पर तूने तो रोली को सफल बनाया और आज तू भी बहुत ऊपर पहुँच गई। ये हमारी भी जीत है। अपने बच्चों की सफलता से बड़ा कुछ भी नहीं होता है बेटा!”

“आंटी, इस सबमें आपका हिस्सा बहुत बड़ा है। हम अकेले कुछ नहीं!”

“बेटा, तू भी हमारी स्वाति जैसी ही है। तेरी कल की सफलता और हिम्मत ने हमें कितना रुलाया…” कैसा जुड़ाव है? दोनों तरफ आँसू ही बह रहे थे। शब्द अपना काम करना नहीं चाहते थे। वो आँखों के सागर में डूब गए थे। सागर के बाहर जीवन की ज़रूरतें मेरा इंतजार कर रही थी। आंटी से बात पूरी हुई तो घर के कुछ काम निबटाये।

अचानक मुझे याद आया, अरे, मुझे तो मन्दिर जाना है। ईश्वर से बात करनी है। उन्हें बहुत सारा धन्यवाद देना है। काकी से भी मिलना है। काकी को याद करते ही एक हूक सी उठी, जिसे मैंने किसी तरह कोशिश करके दबा दिया।