Taapuon par picnic - 64 books and stories free download online pdf in Hindi

टापुओं पर पिकनिक - 64

फ़ोन रखते ही साजिद की आंखें चमकने लगीं।
उसने बेकरी के भीतर से आवाज़ देकर एक लड़के को बुलाया।
- अताउल्ला कहां है?
- मैं क्या जानूं बॉस, वो तो महीनों से मिला ही नहीं है मुझे। घर भी नहीं आता। कोई काम था क्या आपको? लड़के ने सवालों की झड़ी लगा दी।
साजिद बोला- तू जानता है कि वो कर क्या रहा है आजकल?
- क्यों? उसे बुलाना है क्या वापस?
- नहीं बुलाना तो नहीं है, पर तू एक काम कर।
- क्या, बोलो।
- वो शायद वनगांव के पास हाईवे पर टीडी ट्रांसपोर्ट में काम कर रहा है। तू उससे मिल कर आ।
- क्या कहना है बॉस?
- कुछ नहीं। तू कल दिनभर उसके साथ रहना। उससे कहना, तू मिलने ही आया है उससे... कहना, तेरी छुट्टी थी तो टाइमपास करने चला आया।
- क्या हुआ बॉस, कुछ लोचा हो गया क्या? क्या लफ़ड़ा कर दिया उसने? लड़का कुछ संशय से बोला।
साजिद ने हाथ के इशारे से उसे अपने करीब बुलाया और दोनों हाथ से उसका मुंह नीचे अपने मुंह के पास झुका कर उसके कान में कुछ फुसफुसाने लगा।
- समझ गया न!
- बिल्कुल। समझ गया साब। फ़िक्र मत करो।
- किसी को कुछ पता नहीं चलना चाहिए, कोई गड़बड़ हुई तो सबसे पहले तेरी मारूंगा।
लड़का हंसने लगा। बोला- कोई गड़बड़ नहीं होगी।
साजिद को अपने एक कर्मचारी से इस तरह घुल - मिल कर बात करते देख कर कुछ लोग जो हाथ का काम रोक कर इधर देखने लगे थे, सब फ़िर से अपने- अपने काम में लग गए। लड़का भी भीतर अपने काम पर चला गया।
असल में साजिद को अपने किसी भरोसेमंद आदमी से ये पता चला था कि आगोश का पुराना ड्राइवर सुल्तान और अताउल्ला दोनों किसी ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करते हैं और वहां की गाड़ियों पर चलते हैं। अताउल्ला कहने को तो सुल्तान का खलासी बना हुआ है पर उन दोनों की ही आमदनी लाखों में है।
साजिद ये भी जानता ही था कि ये दोनों आगोश के पिता, डॉक्टर साहब के मुलाजिम हैं और उनके विश्वस्त आदमियों के रूप में उनके साथ काम कर रहे हैं।
साजिद के यहां काम करने वाला ये लड़का अताउल्ला का पुराना दोस्त भी था जो उसके यहां रहने के समय उससे खूब घुला - मिला था।
साजिद उसे ही अताउल्ला के पास केवल ये देखने के लिए भेज रहा था कि अताउल्ला और सुल्तान कौन सी गाड़ियों पर कहां आने - जाने की ड्यूटी करते हैं ताकि उसे कुछ डॉक्टर साहब के कारोबार का अंदाज़ लग सके।
आख़िर उनकी इतनी कमाई का ज़रिया क्या था? आर्यन के जाने के बाद से साजिद और आगोश बहुत करीब आ गए थे और आगोश अपनी सब शंका- कुशंका साजिद से बांटता ही रहता था।
आगोश जापान पहुंच गया था।
उससे हुई बातचीत से साजिद को ये भी खबर मिल गई थी कि मधुरिमा ने एक प्यारी सी गुड़िया को जन्म दे दिया है।
जब साजिद ने ये खबर मनप्रीत को दी तो उसे ये जानकर अचंभा हुआ कि मनप्रीत के पास तो पहले से ही मधुरिमा की पल- पल की खबर थी। बल्कि मनप्रीत ने तो साजिद को ये बताकर चौंका दिया कि मधुरिमा ने अपनी बिटिया का नाम तनिष्मा रखा है जो कि मनप्रीत का ही सुझाया हुआ है।
साजिद सोच रहा था इन लड़कियों को देखो, वैसे तो कोई छोटी सी बात भी इनके पेट में पचती नहीं है, और अब गुपचुप तरीके से एक पूरी की पूरी दुनिया अपने मन के भीतर किसी गोपनीय कौने में छिपाए बैठी हैं।
मधुरिमा के मम्मी- पापा को अब तक ये मालूम नहीं चला था कि उनकी बेटी ने विवाह तो कर ही लिया है बल्कि उन्हें नाना- नानी भी बना डाला है। बेचारे, यहां यही सोच- सोच कर खुश होते रहते थे कि मधुरिमा जल्दी ही विदेश से कोई बड़ी डिग्री लेकर यहां लौटेगी और तब धूमधाम से वो उसका विवाह करेंगे।
एक दिन वास्तुशास्त्र के सब नियमों के राई- रत्ती अनुपालन से बने उनके इस शानदार मकान के द्वार पर भी शहनाइयां बजेंगी।
बेचारे भोले- भाले पंछी ये कहां जानते थे कि उनके सपनों की शहनाइयां तो किसी और दरवाज़े पर कब की बज चुकीं।
लेकिन आफ़त आई बेचारे साजिद की।
आज उसका कान पकड़ कर मनप्रीत ने ज़ोर से मरोड़ डाला। साजिद को भी पहली बार पता चला कि उसने किसी मज़बूत पंजाबन, सरदारनी से पंगा लिया है।
मनप्रीत ने उसे साफ़- साफ़ कह दिया कि या तो आज वो अभी की अभी उनकी शादी की तारीख़ तय करे, या फिर मनप्रीत से मिलने का इरादा छोड़ दे।
- ओ हो, कान तो छोड़ो... लाल कर दिया। साजिद गिड़गिड़ाया।
- अभी तो कान ही लाल हुआ है, अब देखो तुम्हारा क्या- क्या लाल करती हूं अगर तुम कल सुबह अब्बू- अम्मी को हमारे घर लेकर नहीं आए। मनप्रीत ने किसी ज़िद्दी बच्ची की तरह अल्हड़ता से कहा।
मनप्रीत फ़िर बोली- और सुनो, ये लो!
- ये क्या है?
- खोल कर देखो?
- अरे बाबा, खोल कर ही तो देख रहा हूं अब तक... बता दो न क्या है? कहते हुए साजिद ने वो बेहद आकर्षक सा पैकेट खोल डाला।
उसमें एक हल्के बदामी रंग का सुन्दर सा पठान सूट था। साजिद की बांछें खिल गईं। उसे उलट- पलट कर देखने लगा।
फ़िर कुछ मुस्कराया और बोला- क्या मैं पूछ सकता हूं कि ये ख़ूबसूरत तोहफ़ा किस ख़ुशी में?
- ये तोहफ़ा नहीं है, बल्कि वर्दी है वर्दी... यानी यूनिफॉर्म। मतलब, कल जब अम्मी- अब्बू को मेरे पापा- मम्मी से मिलाने मेरे घर लाओ तो यही पहन कर आना है... मनप्रीत ने किसी स्ट्रिक्ट टीचर की तरह रोब से कहा।
साजिद को भी मज़ाक सूझा। बोला- ओह नो, मेरा वो सूट तो बेकार गया जो मैंने दो दिन पहले ही इस मौक़े के लिए ख़रीदा था।
- सच? मनप्रीत ख़ुशी से उछलने लगी। तो तुमने अपने घरवालों से इस बारे में बात कर भी ली! मुझे बताया क्यों नहीं?
- मैडम, मैं इस दिन का ही इंतजार कर रहा था। कल छुट्टी भी है न सबकी। कल तैयार रहना, लेकिन...
- लेकिन क्या? मनप्रीत कुछ सहमी।
- लेकिन ये तो बताओ कि तुम मेरे लिए ये ड्रेस क्यों लाई हो? सच- सच बताओ, वैसे मैं यही पहनूंगा, कोई सूट- वूट नहीं ख़रीदा, मैं तो मज़ाक कर रहा था... पर ये क्यों? कोई ख़ास वजह?
- अरे यार, ख़ास वज़ह यही है कि इन कपड़ों को पहनने से ऐसा लगता है कि कोई फ़र्क नहीं है मुस्लिम और पंजाबी में...दोनों एक से तो दिखते हैं!
ये सुनते ही साजिद गंभीर हो गया। उसके चेहरे का रंग फीका पड़ गया।
मनप्रीत ने भी उसकी उलझन भांप ली। बोली- क्या हुआ?
साजिद उसी गंभीरता से बोला- सच- सच बताना मनप्रीत, कहीं सचमुच ये धर्म- जात की कोई बात तो बीच में नहीं आयेगी न... मैं बहुत डरता हूं इससे! मैंने तो इस तरह कभी सोचा ही नहीं... क्या ये सब सोचा जाएगा? तुम्हारे दिमाग़ में ये आया कैसे! बताओ मुझे, ये क्या होता है? तुमने तो मुझे पूरा देखा है, मैंने भी तुम्हें पूरा देखा है... क्या फ़र्क है हममें ऐसा, जो हमें मिलने नहीं देगा? अगर हम अलग जाति या धर्म के हैं तो क्या हम अपराधी हैं? ... फ़िर अगर ऐसा ही है तो ये समाज, ये देश, ये नेता हमें अलग- अलग पिंजरों में बांट कर "जू" के जानवरों की तरह अलग -अलग क्यों नहीं रखते??? क्यों हमें एक साथ पढ़ने बैठाया जाता है। क्यों कहा जाता है कि हम सब एक हैं... धोखा देने के लिए??? साजिद बुरी तरह उत्तेजित हो गया।
मनप्रीत घबरा कर उसे देखने लगी।