Mulpunji - 4 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

मूलपूंजी - अंतिम भाग

...टीटीई ने पूरे फाइल को उलट-पलट कर देखा। वह ग्रामीण सच कह रहा था। उसकी बेटी को ब्रेन ट्यूमर था, जो कैंसर का शक्ल अख़्तियार कर चुका था और उसकी सर्जरी में लाखों रुपए खर्च होने वाले थे, जिसका एस्टिमेट डॉक्टर ने अपने प्रेसक्रिप्शन पर लिखकर दिया था।
फाइल देखकर टीटीई ने ग्रामीण को वापस कर दिया। फिर एक जवान को सन्दूक की जांच करने के लिए कहा ताकि पता चल सके कि कहीं उसके साथ कोई छेड़छाड़ तो नहीं की गई है। सन्दूक पर ताला जड़ा था और उसे तोड़ने की भी कोई कोशिश नहीं की गई थी। टीटीई ने सन्दूक को उसके असली मालिक प्रकाश लाल को सौंप देने के लिए कहा। फिर ग्रामीण दंपत्ति को हिदायत देकर छोड़ दिया। साथ ही अपने एक डॉक्टर मित्र का नंबर देकर उनसे मिलने की बात कही, जो गरीबों मरीजों की इलाज में आर्थिक मदद करते हैं।
उधर सन्दूक पाकर वृद्ध प्रकाश लाल और बारह वर्षीय रौशन की जान में जान आयी थी।
“बाबा, एकबार सन्दूक खोलकर देखेंगे नहीं कि भीतर सबकुछ सही-सलामत है या नहीं?” – टीटीई लक्ष्मण ने प्रकाश लाल से कहा और उसने सहमति में सिर हिला दिया। फिर सारे रास्ते संदूक को अपने गोद से नहीं उतारा।
टीटीई भी वापस अपने सीट पर आ गया। हालांकि उसके मन में एक अजीब-सी कौतुहल थी संदूक के भीतर झांकने की। वो देखना चाहता था कि आखिर उस बुढे ने ऐसा क्या कमाया जो उस छोटे से संदूक में समा गया और जिसके गुम होने से उसके प्राण-पखेरू पर बन आये थे।
इसी उधेडबून में फिर रात के बाकी घंटे गुजरे। जहाँ एक तरफ टीटीई लक्ष्मण उस संदूक के भीतर रखे वृद्ध प्रकाश लाल के जीवनभर की मूलपूंजी को देखने की उत्सुकता मिटा नहीं पाया, वहीं दूसरी तरफ प्रकाश लाल ने अपनी पूरी यात्रा संदूक को गोद में रखकर पूरी की।
सुबह के छह बजे।
ट्रेन बनारस स्टेशन पर पहुंचने वाली थी। अपने सीट पर बैठा टीटीई लक्ष्मण उंघ रहा था। तभी कुछ यात्री उतरने के लिए अपने सीट से निकल ट्रेन के दरवाजे की तरफ बढने लगे। टीटीई की नज़र यात्रियों के बीच हाथों में संदूक थामे प्रकाश लाल और रौशन पर भी पडी। टीटीई भी उठा और उनकी तरफ बढ गया। सभी दरवाजे के पास खडे थे और स्टेशन के आने का इंतज़ार कर रहे थे। बनारस स्टेशन आने में अभी भी कुछ समय बाकी था। टीटीई लक्ष्मण की निगाहें प्रकाश लाल और उनके सीने से लगे संदूक पर टिकी थी। अब उससे रहा न गया और आगे बढकर पुछ ही लिया।
“बाबा, क्या मैं इस संदूक के भीतर रखे उस कीमती सामान को देख सकता हूँ जो आपकी जान से भी ज्यादा कीमती है।” – टीटीई लक्ष्मण ने निवेदन स्वरूप कहा।
पूरी यात्रा में पहली बार प्रकाश लाल के आंखों में चमक दिखी और अपनी जेब से चाभी निकाल उसने संदूक पर लगे ताले को खोल दिया।
संदूक के भीतर झांक टीटीई लक्ष्मण की आंखें फैल गई। “बाबा, ये क्या है?” - उसने पुछा।
अपनी मूलपूंजी पर प्यार भरा हाथ फेर प्रकाश लाल ने साथ खडे रौशन की तरफ देखा, जिसकी आंखें संदूक के भीतर ही गडी थी। संदूक के भीतर एक कलश रखा था जिसका मुंह कपडे से ढंका हुआ था।
“ये मेरे इकलौते बेटे और इस बच्चे रौशन के पिता की अस्थियां हैं जिन्हे मैं मां गंगा की चरणों में समर्पित करने जा रहा हूँ।” – प्रकाश लाल ने रुंध गले से कहा फिर पास खडे रौशन के सिर पर हाथ फेरा जैसे उसे हिम्मत दे रहा हो कि घबराना मत अभी मैं ज़िंदा हूँ।
टीटीई लक्ष्मण निशब्द खडा था। उसके मुंह से फिर कोई शब्द न फुटे। अबतक ट्रेन भी बनारस स्टेशन पर लग चुकी थी। एक हाथ से संदूक सम्भाले और दूजे से अपने पोते रौशन की अंगुलियां थामे जीवन की मूलपूंजी को संदूक में बटोरे वृद्ध प्रकाश लाल ट्रेन से उतरा और स्टेशन के निकास की तरफ बढता दिखा। भारी मन से टीटीई लक्ष्मण आंखों से ओझल होने तक उन्हे देखता रहा।
तभी उसकी नज़र प्लेट्फॉर्म के दूसरी तरफ यात्रियों की भीड में आगे बढ रहे उन हताश ग्रामीण दम्पत्ति पर पडी, जिन्होने अपनी बिटिया की इलाज के खातिर प्रकाश लाल की मूलपूंजी में सेंध लगाने की कोशिश थी। एक-दूसरे का हाथ थामे वे दोनों भी स्टेशन से बाहर की तरफ जाते दिखे। ग्रामीण के हाथों में अभी भी अपनी बेटी की इलाज वाली फाइल झूल रही थी मानो चीख-चीखकर कह रही हो कि “हार अभी जीता नहीं, जीत अभी हारी नहीं।” तभी सिग्नल हुई और ट्रेन अपने अगले पडाव की तरफ बढ गई।


समाप्त