Bandh Khidkiya - 25 books and stories free download online pdf in Hindi

बंद खिड़कियाँ - 25

अध्याय 25

सरोजिनी के अंदर आने को महसूस कर पलट कर आराम से उठा। उसकी आंखों में क्रोध से मार डालने वाला एक जुनून को देखकर भी सरोजिनी को कोई डर नहीं लगा | इस पर उसे स्वयं आश्चर्य भी हुआ।

उसने सीधे उसे देखा। उसकी हिम्मत को देखकर वह भी चौंक गया और उसकी चाल में संकोच दिखाई दिया। फिर अपने आप को संभाल कर अकड़ के साथ उसके गाल पर एक जोरदार चांटा मारा।

दहशत के बाबजूद भी बिना डरे अपने को संभाल कर खड़ी रही। अचानक उसे वह निम्न से भी निम्नतर दिखाई दिया।

"इतना साहस, मेरे सामने आकर खड़ी हुई हो? यह बच्चा किसका है? चुपचाप बोल दो, नहीं तो तुझे मार डालूंगा,। उसका बाप कौन है?"

"आप ही हो !"

"इतने अहंकार से बोल रही हो‌?"

उसने फिर से चाटा मारा। उसका सिर चकराने लगा।

"अहंकार नहीं। सच ही तो बोल रही हूं!"

"क्या सच है? रत्नम के आने के बाद तुम मेरे साथ नहीं सोई!"

"ऐसा है इसे आप बाहर बोलो तो क्या हो जाएगा?"

"तुम्हारा अपमान गली-गली में लोग हंसेंगे!"

"नहीं आपका ही अपमान होगा गली-गली लोग हसेंगे!"

एक क्षण वह स्तंभित होकर खड़ा रहा।

"ओहो, जो करना था वह कर के मुझे डरा रही है? तुम्हारे पेट में है उसे मैं बढने दूंगा ऐसा सोच रही है क्या?"

"बढ़ने दोगे" एक पक्के इरादे के साथ बोली। "अपने परिवार के सामने आप के सम्मान को बचाना है तो इसे बढ़ने देना होगा। आपके ऊपर गलती नहीं है तो रेहन के रूप में इसे बढ़ने देना पड़ेगा।"

"तुम्हारी इतनी हिम्मत ? किसने दिया इसे ?" उसने फिर से चाटा मारा। "मेरा बच्चा नहीं है मालूम होने पर भी उसे मेरा है मैं बोलूंगा ऐसा उम्मीद कर रही है!"

"हां, नहीं तो तुम्हारी अम्मा टूट जाएगी। नहीं तो आपका सम्मान चला जाएगा। बाहर वाले लोग भी आपको हीनता से देखेंगे। आप मुंह बंद करके रहोगे तो इस घर के सम्मान को बचाओगे। मरने तक मैं भी इस बारे में मुंह नहीं खोलूंगी यह सत्य है।"

उसके धैर्य और हिम्मत को देखकर वह स्तंभित हो खड़ा रह गया। फिर, "वह कौन है?" दांत पीसता हुआ पूछा।

वह दरवाजे के पास सरकते हुए सौम्यता से मुस्कुराई।

"उसे तुम्हें जानने की जरूरत नहीं। मैं ही उसे भूल गई।"

दूसरे ही क्षण बिना आवाज के दरवाजे को खोलकर बाहर निकल गई.....

सरोजिनी ने सिर उठाकर देखा। पक्षी के कलरव के बिना चारों तरफ भारी सा लग रहा था।

इस समय सोचे तो भी उस दिन सरोजिनी में जो हिम्मत आई उसे सोच कर भी आश्चर्य होता है। कहाँ से आई वह हिम्मत ?

वह हिम्मत नहीं। जो परिपूर्ण हैं उसको ना हिला सकने वाला सामर्थ्य है। विरोधी की कमजोरी का फायदा उठाकर उस स्थिति को साधन बनाने वाला सामर्थ्य कहो या चतुराई..... इस चतुराई की वजह से ही पेट के बच्चे को वह बचा पाई। "जमीन के लिए वारिस देने वाली महारानी" ऐसा सास और दुनिया वालों ने सम्मान देने लायक होने से ही उस घर में उसका आगे रहना संभव हुआ। 

जंबूलिंगम अपना बदला लेने में बिल्कुल नहीं चूका। उसे हमेशा दूसरों के सामने अपमानित करता रहा। उसे मारा। रत्नम को माफ कर घर लेकर आ गया। सरोजिनी सब अपमानों को मुंह बंद करके सह रही थी कि इस दोगलेपन को तो उसे सहना ही पड़ेगा | ऐसा एक वैराग्य के साथ इस तरह के एक कठिनाई वाले समय में दिनकर को उसने देखा। उसके पूर्ण गर्भवती अवस्था को देख उसकी आंखों में दया और फिक्र को देखकर उसके चेहरे पर जो खुशी और निर्मलता दिखाई दी उसे जंबूलिंगम ने देख लिया होगा.... 

धीरे-धीरे दिनकर वहां से गायब हो गया। दूसरे प्रदेश में जाने लायक उसे मजबूर किया.... अपने घर-बार, खेती-बाड़ी और बच्चे के खोंने का आघात.... उस घर में बच्चे को पैदा कर उसे बड़ा करने में उसे अपने विचित्र साहस को सोच जो कष्ट पाया उस पर उसे गर्व था। अब आराम से सोचते समय लगता है उसमें कोई गर्व की बात नहीं थी। एक आदमी के पौरुष को बचाने के लिए एक साधन के रूप में वह बदल गई थी | ये बात अब उसे अपने बच्चे को बचाने के लिए साधन बनी यह उसे समझ में आया । इस रक्षात्मक कदम के लिए उसे अपने स्वभाव के प्रतिकूल आचरण करने की जरूरत पड़ी! जम्बूलिंगम की भाषा में दैविय शक्ति की ओढनी को ओढ़ कर घूम रही थी।

अपमानजनक जिंदगी! सही जिंदगी थी क्या वह!

आज अरुणा को इस तरह का अपमान नहीं झेलना पड़ेगा। करने की जरूरत भी नहीं।

"दादी! साड़ी नहीं बदली क्या? 11:00 बजने वाले हैं। थोड़ा पहले जाएं तभी बात कर सकते हैं!"

अरुणा की आवाज सुन वह उठी। अचानक शरीर और मन में एक थकावट आई। बाहर जाना है क्या ऐसा एक आलस भी आया। नहीं आऊंगी ऐसा बोलूं तो अरुणा को कैसा लगेगा ऐसा सोच उसने अपने कमरे में जाकर साड़ी बदल ली। आईने में अपने को देखते समय फिर से वह प्रश्न गूंजने लगा।

"आपको अभी भी कोई दुख नहीं है सरोजिनी अम्मा?"

"दुख है" वह दुखी होकर बोली।

"परंतु आप सोच रहे हो उस कारण से नहीं। आपका और मेरा एक दिन का जो रिश्ता हुआ वही सच्चा था ऐसा लगता है। बाकी सब तो मेरा बदला भेष.....

लड़की पैदा हो तो शिक्षित भी ना हो और उसके जाने की दूसरा जगह भी नहीं हो तो उसे कई तरह के भेष बदलना ही पड़ता है, कितनी तरह के अपमानों को सहना पड़ता है। उस भेष को और अपमानों को सोच कर दुख होता है। मेरी वजह से उस बेचारे को कष्ट उठाने पडें

इसे सोच कर उसे बहुत दुख होता है.....

छी ! कितना घटिया जीवन है मेरा?

उसने अपने मन के दुखों को जोर से दबाकर बंद किया। दिए हुए वचन को निभा दिया। यह रहस्य मेरे साथ ही जाएगा...

वह कुर्सी पर बैठकर अरुणा का इंतजार कर रही थी। अरुणा के आने में देरी है उसे लगा। कुर्सी पर बैठकर उसने आंखें बंद कर ली।

"वह एक बेवकूफ है। अपने पास जो कीमती चीज है उसको ना पहचानने वाला...."

"रोइए मत! आप रोए तो मैं सहन नहीं कर सकता!"

"आप एक असाधारण औरत है सरोजिनी अम्मा....!"

"मैं साधारण लड़की हूं। आपके सहवास में असाधारण हो गई...."

उसे हँसू ऐसे लगा।

"दादी ! दादी ! सो गई क्या?"

उसने सकपका कर आंखें खोली।

सामने अरुणा चमचमाती हुई खड़ी थी। उसके चेहरे पर बहुत उत्साह दिखाई दे रहा था।

"हां, थोड़ी झपकी आ गई लगता है। चलें ?" वह बोली। "तुमने ही देर कर दी !"

"सॉरी दादी, बीच में फोन आ गया था। अच्छा समाचार है। अमेरिका में पढ़ने जाने की सारी तैयारी हो गई। यहां मुझे रुपयों की मदद मिल गई हैं ऐसा अमेरिका कौंसिल से समाचार कल ही आ गया था। ऑफिस वाले ही तो मुझे भेज रहें हैं ! उस ऑफिसर ने अभी मुझे फोन करके बताया!"

अरुणा के चेहरे पर बहुत ही संतोष और खुशी दिखाई दे रही थी।

सरोजिनी के चेहरे पर भी खुशी फैल गई। अरुणा का उसने आलिंगन किया ‌।

"बहुत खुशी हुई बच्ची। जा कर आओ। अच्छा पढ़ो। स्वयं कमाकर अपने पैरों पर खड़ी हो। अपने मन पसंद से अच्छा पढ़ा लिखा सभी बातों में तुम्हारे उपयुक्त आदमी को ढूंढ कर शादी भी कर लो!"

अरुणा हंसी।

"अभी मुझे शादी की आवश्यकता नहीं है दादी"

"जबतक जरूरत नहीं है तबतक जरूरत नहीं है। तुम्हें पसंद हो ऐसा आदमी मिले तब तुम शादी के बारे में सोचना | तब तक सोचने की जरूरत भी नहीं।"

"करेक्ट!" कहकर अरुणा हंसते हुए दादी को लेकर बाहर आई। कार्तिकेय और नलिनी को बोल कर बाहर कार के पास आते समय गेट के बाहर एक ऑटो रिक्शा आकर खड़ा हुआ।

"कौन आ रहा है," संदेह से सरोजिनी खड़ी हुई।

ऑटो रिक्शा में से श्यामला उतरी। सरोजिनी को कारण मालूम ना होने पर भी धक से रह गई।

"क्यों दादी गाड़ी में नहीं बैठ रही हो क्या?" ऐसा अरुणा के पूछते ही "ठहरो वह लड़की आई है। क्या समाचार है मालूम करके फिर जाएंगे, आधे घंटे बाद"

"ओ, मैंने ध्यान नहीं दिया" कहकर अरुणा ने श्यामला को देखा।

"आइए!" कहकर मुस्कुराई।

श्यामला के चेहरे पर कोई खुशी नहीं दिखाई दे रही थी | पास में आने के बाद सरोजिनी को देख कर बोली "कल रात को नाना जी का देहांत हो गया । सुबह टेलीग्राम आया था"

सरोजिनी एकदम से स्तब्ध हो गई। बोलने के लिए जीभ ने साथ नहीं दिया।

"यहां से जाते समय अच्छे ही तो थे। खुशी-खुशी गए थे। इतनी जल्दी चले जाएंगे नहीं सोचा....."

सरोजिनी थोड़ा डगमगा कर "मैंने भी नहीं सोचा" धीमी आवाज में बोली।

"यहां से रवाना होते समय बोले थे। यदि मैं मर जाऊं समाचार आए तो तुरंत आपको और आपके बेटे को सूचना देने के लिए कहा। फोन से बताने से अच्छा सामने आकर कहना है सोच कर मैं आई....."

सरोजिनी के चेहरे पर एक असाधारण कोमलता फैल गई। बड़े प्यार से श्यामला के कंधे को पकड़ कर "बहुत धन्यवाद!" धीरे से बोली।

बाहर ऑटो रिक्शा अभी भी खड़ा था।

"मैं रवाना होती हूं। नाना के बेटा नहीं होने के कारण मेरे बेटे को ही उनका दाह-संस्कार करना है...."

जल्दी-जल्दी उसके ऑटो रिक्शा में बैठने को सरोजिनी देखती रह गई।

अजीब से ख्यालों में डूबी हुई बरामदे के कुर्सी पर बैठ गई।

उसी को तीव्र नजरों से अरुणा देख रही थी उसका ध्यान उसे अभी ही आया तो उसने गर्दन ऊंची कर "मैं खाना खाने नहीं आऊंगी बच्ची" बोली।

"मैं भी नहीं जा रही हूं दादी!" अरुणा बड़ी कोमलता से उनके कंधे को दबाती हुई बोली।

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