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कबीर के राम तत्व विवेचना

कबीर के राम तत्व विवेचना

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राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस। बरषत वारिद-बूँद गहि, चाहत चढ़न अकास॥

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राम-

नाम का आश्रय लिए बिना जो लोग मोक्ष की आशा करते हैं अथवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चारों परमार्थों को प्राप्त करना चाहते हैं वे मानो बरसते हुए बादलों की बूँदों को पकड़ कर  आकाश में चढ़ जाना चाहते हैं। भाव यह है कि जिस प्रकार पानी की बूँदों को पकड़ कर कोई भी आकाश में नहीं चढ़ सकता वैसे ही राम नाम के बिना कोई भी परमार्थ को प्राप्त नहीं कर सकता।

वह सिद्ध है और एक सिद्ध शासक होगा। उसके पास करुणा, न्याय की भावना और साहस है , और वह इंसानों के बीच कोई भेद नहीं करता है - बूढ़ा या जवान, राजकुमार या किसान; वह सबके प्रति समान विचार रखता है। साहस, वीरता और सभी गुणों में - उसके बराबर कोई नहीं।


राम कबीर और तुलसी दोनों के इष्ट हैं. इनके रामों की तुलना हुई है. असमानता की ज़्यादा हुई है, समानता की कम. निराकार निर्गुण मत वाले संतों का विश्व-बोध अलग है. वे जैसे सबकुछ छोड़ते जाते हुए सीधे परम सत्ता के पास पहुँचना चाहते हैं. बहुत निषेध के बाद उनकी विधेयात्मकता शुरू होती है। निषेध सगुण भक्तों के यहाँ भी है किन्तु अपेक्षाकृत कम है। कबीर में भक्ति के अलावा कुंडलिनी योग भी काफी है। उनके यहां भक्ति और कुंडलिनी योग का अनुपात क्या है – इस विषय में उल्लेखनीय बात यह ज़रूर है कि वे कुंडलिनी योग के प्रसंग में राम का उल्लेख नहीं करते हैं। कबीर अपने राम का निर्माण मौलिक रूप से विभिन्न घटकों के संयोजन में करते हैं। कबीर के राम का निर्माण जिन घटकों से हुआ है उनमें सबसे प्रमुख काल है। काल पूरे भक्ति काव्य में समाहित है। तुलसीदास के राम का कोदंड काल है। किन्तु काल की जितनी निर्णायक एवं व्यापक भूमिका कबीर के यहाँ है किसी अन्य कवि के यहां नहीं। मेरा मतलब भक्त कवि के यहाँ। कबीर के काल पर बात करते हुए मुझे वाल्मीकि रामायण का एक प्रसंग उल्लेखनीय लगता है। राम के पास काल तापस वेष में आया। काल तापस अपने तेज से प्रज्जवलित होते और अपनी प्रखरों किरणों से दग्ध करते हुए से जान पड़ते थे।

संत कबीर ने अपनी वाणी में निर्गुण राम की परिकल्पना पर जोर दिया है। उनके राम निर्गुण राम हैं और वह परम ईश्वर है। निर्गुण राम निरंजन है, माया से रहित है। वह स्वाश्वत है, ना उसका जन्म होता है और ना उसकी मृत्यु होती है।
 
ज्वलान्तमेव तेजोभिः प्रदहन्तमिवांशुभः
काल ने कहा – मैं पूर्वकाल में माया द्वारा आपसे उत्पन्न किया गया था। इसलिए आपका पुत्र हूँ। मैं सर्वसंहारिकारी काल हूँ।
 
मायासम्भावितो वीर काल सर्वसमाहरः
आप लोक में मनुष्य के पुत्र के रूप में आए हैं। आपकी आयु पूरी हो गई है, यह काल है। अब आप लौट चलिए।

कबीर के काव्रू की अन्र्तचेतना प्रेम-तत्व में ही निहित है। प्रेम-तत्व के जीवन के आध्यात्मिक  में विविध आयाम देते हुए काव्य भी भाषा में अभिव्यक्त करना इन महान कवियाँ का लक्ष्य रहा है।

मानवता एवं समता के प्रबल समर्थक थे।  कबीर के स्वभाव, उनकी वाणी, उनके व्यक्तित्व, उनके उपदेश, उनकी साधना, उनके फक्कड़पन, उनके साईं प्रेम तथा उसे प्राप्त करने की शर्त आदि का यथार्थ चित्रण किया है। 
 
भयंकर भावी भ्रातृवियोग के दृश्य को दृष्टिपथ में लेने वाले काल के उस वचन पर विचार करके श्रीराम के मन में बड़ा दुख हुआ। उनका मुंह नीचे को झुक गया और वे कुछ बोल न सके। तत्पश्चात् काल के वचनों पर बुद्धिपूर्वक सोच-विचार करके कहा यशस्वी राघव इस निर्णय पर पहुँचे कि अब यह सब कुछ भी न रहेगा और वे चुप हो गए।
 
ततो बुद्ध या विनिश्चित्य काल वाक्यानि राघवः
 
नैत दस्तीते निश्चित्य तृष्णीमासी न्यहायशाः

कबीर के अनुसार योग के लिए आवश्यक तत्व ज्ञान है। कबीर ने हमेशा अपने दोहों और साखियों के माध्यम से ज्ञान को महत्व दिया है। कबीर ने ईश्वर प्राप्ति का मार्ग भी ज्ञान को ही बताया है। कबीर के अनुसार योग भी ईश्वर प्राप्ति के मार्ग का एक साधन है और सच्च योगी बनने के लिए ज्ञान होना आवश्यक है।
काल कबीर के राम द्वारा ही माया से उत्पन्न किया गया है वह सर्वसंहार कर है किन्तु बहु राम के पास ब्रह्मा का आदेश लेकर नहीं जा सकता। काल के आने पर मातृवियोग से कबीर के राम का मुंह नहीं लटक सकता। क्योंकि कबीर के राम किसी के पुत्र रूप में मनुष्य नहीं बने।
 
पवन जान्हिं आकास चाहिगें चंद जाहिगें स्कारारे
 
हम नाहीं तुम नाहीं रे भाई राम रहै भरपूरा रे।
 
राम के अलावा कहीं कोई बचाव नहीं।
 
जलने वाल भी मुआ मुआ जलावन हार
 
हा हा करता भी मुआ कासों करौं पुकार।

कबीर राम को अपने शरीर के भीतर बताते हैं –‘मोकों कहाँ ढूँढ़े बंदे, मैं तो तेरे पास में’। वे राम को सबके भीतर बताकर एक साथ दो काम लेते हैं –

 मनुष्य ईश्वर को पाने के लिए तरह-तरह के क्रिया-कर्म करता है, परन्तु उसे ईश्वर के दर्शन नहीं होते हैं। कबीर के अनुसार स्वयं निराकार ब्रह्म मनुष्य से कहते हैं कि हे मनुष्य ! तुम मुझे ढूँढ़ने के लिए कहाँ-कहाँ भटक रहे हो। मैं किसी मंदिरमस्जिद में तुम्हें नहीं मिलूँगा, और न किसी तीर्थस्थान पर। मैं किसी बाह्याडंबर से भी नहीं मिल सकता। योगी और बैरागी बनकर भी तुम मुझे नहीं पा सकते हो। जो मुझे सच्चे मन से खोजता है, उसे मैं तुरंत मिल जाता हूँ क्योंकि मैं तो प्रत्येक प्राणी की हर साँस में बसा हूँ। अतः अन्यत्र भटकने के बदले अपने मन में खोजो-

(क) भक्ति में मूर्तिपूजा, बाह्याचार और पंडित रूपी बिचौलिए से व्यक्ति बचा रहे। 

(ख)चूँकि सभी के भीतर एक ही भगवान् हैं, इसलिए सभी मानव समान हैं।

कबीर सचेत कवि हैं। उन्हें पता है कि अवतारवाद की ओर ज्यों ही फिसले कि वर्णाश्रम का राक्षस दौड़ा चला आएगा। इसलिए वे बार-बार कहते हैं कि वे निर्गुण राम की भक्ति कर रहे हैं।

 

     कबीर की भक्ति में सामाजिक वेदना निहित है। वे भगवान् से प्रेम करते हैं, चौसर खेलते हैं, पर उनकी सामाजिक वेदना उभरकर सामने आ ही जाती है –‘चार बरन घर एक है रे भाँति-भाँति के लोग’। कबीर राम से प्रेम करते-करते भटकते हैं। इस भटकन में वर्णाश्रम व्यवस्था का दर्द है। तुलसी भी राम की भक्ति करते-करते भटकते हैं, पर उनकी भटकन में वर्णाश्रम की स्थापना है। कबीर को राम के प्रेम से वेद-महिमा-मंडित सामाजिक व्यवस्था भटकाती है। तुलसी को कबीर भटकाते हैं। कबीर की भटकन में एक बड़ा उद्देश्य है। तुलसी की भटकन में राम के साथ एक छल है। वे कथा राम की करते हैं और बात वर्णाश्रम की स्थापना की करते हैं। यह छल नहीं तो और क्या...? छल करने वाला भगवान् का सच्चा प्रेमी कैसे हो सकता है? घनानंद ने लिखा है –“अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।” तुलसी में राम के प्रति समर्पण की भावना तब झलकती है जब वे कहते हैं कि उनमें कवि का गुण नहीं है, राम का गुणगान करना ही सब कुछ है –

 

“कवित्त विवेक एक नहीं मोरे।
सत्य कहऊँ लिखि कागद कोरे।।”
 

पर इस समर्पण पर संदेह तब होता है जब वे बीच-बीच में कबीर जैसे निर्गुण भक्तों को गलियाने की जगह निकाल लेते हैं। कबीर अपने राम के माध्यम से मानव में आध्यात्मिक उत्कर्ष नहीं चाहते हैं। उनके लिए महत्वपूर्ण है समाज में मनुष्यत्व का जागरण। सत्य के दो रूप बतलाए गए हैं – पारमार्थिक रूप और व्यावहारिक रूप। पारमार्थिक सत्य में व्यक्ति-व्यक्ति में भेद नहीं होता है, पर व्यावहारिक सत्य में यह भेद जरूरी है। कबीर पारमार्थिक सत्य और व्यावहारिक सत्य में एकता की बात करते हैं और समतामूलक मानवीय समाज की माँग करते हैं। मराठी कवि शरणकुमार लिम्बाले की कविता है –

 कबीर ने भक्तिपरक दोहों में ईश्वर के प्रति विरह-वेदना को प्रकट किया है। वे कहते हैं कि अपने ईश्वर से बिछड़ने पर जीव (आत्मा) को कहीं भी सुख की प्राप्ति नहीं होती है। न तो उसे दिन में चैन पड़ता है और न ही रात को आराम; न उसे धूप में सुख मिलता है और न ही छाँव में। “बासुरि सुख, नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहिं।

“मस्जिद से अजान की आवाज़ आई

सब मुसलमान मस्जिद चले गए।

गिरजे की घंटियाँ बजीं

सब ईसाई गिरजे में चले गए।

मंदिर से घंटे की आवाज़ आई।

आधे लोग मंदिर में चले गए,

आधे बाहर ही रहे।”

 

आधे लोग बाहर क्यों रह गए, कबीर की मूल समस्या यही है। अगर भगवान् सचमुच सबके लिए हैं तो यह भेद क्यों? कबीर को यही प्रश्न उलझाता है, सताता है। वे उस भक्ति को ही झूठा मानते हैं जो आधे लोगों को मंदिर में घुसने नहीं देती। जो भगवान् मानव-मानव में भेद करे वह सचमुच में भगवान् है क्या...?वह पत्थर की मूर्ति के सिवा कुछ नहीं। कबीर का व्यंग्य सामाजिक वेदना के चलते यहाँ कितना तीखा हो गया है –

 

“पाहन पूजै हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार।

चाकी क्यों नहीं पूजिए पीस खाए संसार।।”  

कबीर की कठोरता में वह ‘अकारण दंड’ है, जो पग-पग पर उन्हें अपमानित करता है। वे अपनी सामाजिक स्थिति के चलते ही हिन्दू-मुस्लिम धर्मान्धता पर प्रहार करने में सफल हुए हैं। द्विवेदी जी ने लिखा है –“वे दरिद्र और दलित थे इसलिए अंत तक वे इस श्रेणी के प्रति की गई उपेक्षा को भूल न सके। उनकी नस-नस में इस अकारण दंड के विरुद्ध विद्रोह का भाव भरा था।”[3]    तुलसी ने कबीर के राम का खूब विरोध किया है। कबीर के ‘दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना....’ के जवाब में वे लिखते हैं –

 

“तुम्ह जो कहा राम कोउ आना।

जेहि श्रुति गाब धरहिं मुनि ध्याना।।”

 

कबीर की कविता में राम रचे-बसे हैं। तुलसी के लिए राम से भी बड़ा है राम का भक्त। फिर तुलसी कबीर का विरोध क्यों करते हैं? क्या कबीर राम के भक्त नहीं हैं? उनसे बड़ा राम का भक्त कौन हो सकता है –‘कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ’। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है –“उनके (तुलसी) अनुसार सार्थक कविता वही है जो राम से संबंधित हो। रामोन्मुखता तुलसी का सबसे बड़ा जीवन मूल्य है।”[4] कबीर भी रामोन्मुख हैं, फिर भी तुलसी के अनुसार वे ‘अधम नर’ हैं। कहा जा सकता है कि तुलसी ने निर्गुण राम का विरोध किया है। पर गौर से परखा जाए तो इस विरोध का कारण उनकी निर्गुण भक्ति नहीं है। चूँकि कबीर निर्गुण राम को अपनाते हुए वर्णाश्रम-व्यवस्था पर प्रहार करते हैं, इसलिए तुलसी उनका विरोध करते हैं। यह कहा जाता है कि वाल्मीकि से लेकर तुलसी तक राम का जो रूप चित्रित किया गया है, उसमें जो बात समान है, वह है राम के जीवन की अविरल संघर्ष परम्परा। क्या कबीर के राम कम संघर्षशील हैं? सच तो यह है कि वाल्मीकि से लेकर तुलसी तक के राम का जो संघर्ष दिखाया गया है, वह काल्पनिक जगत् का है। कबीर राम के सहारे वास्तविक जगत् से टकराते हैं, लड़ते हैं –

तुलसी ने अपने महाकाव्य में राम के विभिन्न रूप जैसे कि आदर्श मानव, आदर्श राजा, आदर्श पति, आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श वीर, आदर्श पिता को चित्रित किया हैं । तुलसी के “ रामचरितमानस ” और राम का प्रभाव मैथिलीशरण गुप्त के “साकेत ” और राम पर पड़ा है । तुलसी के राम परब्रह्म, विष्णु के अवतार और मर्यादा पुरूषोत्तम है ।
 
इस सर्वसंहारक के कारण संसार मिथ्या है, असत्या है, नश्वर है। यह सब नश्वरता भक्ति का बहुत बड़ा तर्क है। असत से सत की ओर जाने का। जो नहीं रह जाएगा उसको छोड़कर जो हमेशा बना रहेगा – उसी का हो जाने का रास्ता श्रेयस्कर है। काल माजीर है तो राम पिंजरा है जिसमें उनका पाला हुआ सुग्गा कबीर रहता है
 
जय मंजार कहा करै। तूं पिंजर हौ सुग्गा तोर।
कबीर की भक्ति में मृत्यु से कंभासक बिम्ब है। आप विचार करें – चलती चक्की के बिम्ब पर आकाश और पृथ्वी दो पाट हैं – ये अहर्निशि चलते रहते हैं। इनके बीच जो कुछ है सब नष्ट हो रहा है। इन नष्ट होने की प्रक्रिया पर कबीर का ध्यान केन्द्रित रहता है। वे घूम फिरकर मृत्यु की बात अक्सर करते हैं। धार्मिक, राजनीतिक, एकेडेमिक प्रतिष्ठानों का तिरस्कार ने काल के आधार पर करते हैं।
जौ पंडित तुम जोतिष जानौं विद्या व्याकरना
तंतः यंत सब ओसध जानौं अंत तक मरना।
ऐसा लगता है कि सांसारिक सफलता पर इतराने वाले सभी लोगों को कबीर काल-बोध से संतुलित करना चाहते हैं।

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हियँ निर्गुन नयनन्हि सगुन, रसना राम सुनाम। मनहुँ पुरट संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम॥
हृदय में निर्गुण ब्रह्म का ध्यान, नेत्रों के सामने सगुण स्वरूप की सुंदर झांकी और जीभ से सुंदर राम-नाम का जप करना। तुलसी कहते हैं कि यह ऐसा है मानो सोने की सुंदर डिबिया में मनोहर रत्न सुशोभित हो।

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यह मरण-भय कबीर की साधना का, सदाचार का, उनकी एकता का, उनके सौन्दर्य बोध का भी महत्वपूर्ण घटक है और इन सबका कबीर के राम की निर्मिति में हाथ है, लेकिन इस विषय में एक और बात पर ध्यान जाता है जिसका संकेत पहले किया जा चुका है। आशय उनकी और निर्गुण संतों की बहुमुखी प्रवृत्तियों से है।
 
अलगाव का गहरा संबंध मृत्युबोध से है। रहना नाहि देस बिराना है, यहि नेहर दिन चारी अर्ज की भावना मूल रूप से अलगाव और अनिकेतन भी भावना है। यह भावना सगुण कवियों और भक्ति भाव में भी है लेकिन निगुर्ण संत कवियों में यह अधिक है। उसका कारण उनकी सामाजिक स्थिति है। वर्णाश्रम व्यवस्था में उनकी तिरस्कृत स्थिति उनमें अलगाव की भावना पैदा करती है। यह अलगाव उनके अंतिम या सीमांत अलगाव अनुरूप मृत्यु से जुड़ जाती है। करीब-करीब उनके समकक्ष कर देता है और फिर चूंकि मृत्यु का अलगाव सबके लिए है सिर्फ अवर्णों के लिए नहीं, इसलिए वह निर्गुण संत जुलाहे कबीर के लिए अमोघ अस्त्र बन जाता है। दरवाजे पर हाथी बंधा है। दुर्गम रास्तों पर हाथी से जाते हो लेकिन सबसे दुर्गम रास्ते पर तुम्हीं को जाना होगा। यह हाथी दरवाजे पर ही बंधा खड़ा रह जाएगा।

(1) कबीर के राम सर्व- निरपेक्ष परम तत्त्व है। (2) वे एक होते हुए भी अखिल विश्वव्यापी है। (3) वे इच्छा मात्र से सृष्टि रचना में समर्थ है।

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रैदास हमारौ राम जी, दशरथ करि सुत नाहिं। राम हमउ मांहि रहयो, बिसब कुटंबह माहिं॥
रैदास कहते हैं कि मेरे आराध्य राम दशरथ के पुत्र राम नहीं हैं। जो राम पूरे विश्व में, प्रत्येक घर−घर में समाया हुआ है, वही मेरे भीतर रमा हुआ है।

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कहा भय दरि बांधे हाथी। आवत जात का संग संघाती।
कबीर का मृत्युबोध उनके अलगाव वादी सामाजिक स्थिति से सम्बद्ध है। तुलसी के यहां अलगाव तो है किन्तु मरण बोध अपेक्षाकृत कम है। अलगाव प्रायः प्रतिष्ठान विरोधी होता है। जब आपकी स्थिति प्रतिष्ठान की अनुकूलता या संगति में नहीं होती। जरूरी नहीं कि ऐसा अलगाव वर्णक्रम-व्यवस्था या सामाजिक स्थिति से ही पैदा हो। सीधे मृत्यु, जरा रोग क्या तीव्र सर्व संहार बोध भी यह सीमांत अलगाव पैदा कर सकती है जैसा सिद्धार्थ का,
 
निच्च पज्जलितेसन कोन हासी किमानन्दो।
कबीर के राम इस अलगाव और मृत्यु बोध से संदर्भित हैं। अलगाव की व्यथा ही कबीर के अद्वितीय प्रेम-व्यथा का आधार है। वे जो इतना उद्वेलित होकर इतना व्याकुल होकर – हमम है इश्क मस्ताना हमसे दुनिया में यारो क्या है – वे इसी कारण। विकलता, सकलता का विलोम है। जो आत्मीय है उससे अलग होने पर आप सकल नहीं सिर्फ विकल होंगे।
 
हो बिरहा की लाकड़ी समझ-समझ दुंध आहुं।
कबीर के राम इस अलगाव को दूर करते हैं, मृत्यु को दूर कर अमर पद दिलाते हैं और खोया सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं या उसे अपदार्थ बना देते हैं।
 
जाति जुलाहा मति का धीर। सहज सहज गुण रमैं कबीर।
इस पंक्ति का ठीक अर्थ लगाने के लिए पंक्ति के आगे ‘यद्यपि’ लगाइए। यद्यपि जाति का जुलाहा है कबीर सहज भाव से राम के गुण में रमता है। यह अधिकार सिर्फ सवर्णों या तथाकथित उच्च वर्गीय को नहीं है।
 
कबीर दास के यहाँ द्वन्द्व मरण और अमरण का है। मरण को पछाड़ने की कबीर के यहां एक ही विधि है राम से प्रेम। उनके यहां भक्ति में राम से एकात्म हो जाने की आकांक्षा है। ऐसा एकात्म कि द्वैत का आनंद बना रहे – वही कवल में कुंआ में प्रेम रस पीवै बारम्बार वाली स्थिति। राम मृत्यु के बाद मिलेंगे इसलिए कहाँ कहीं मरण की वांछित है। कब भरि हों। कब देखिहों, पूरन परमानंद – एक और मरण वांछनीय है। जीवन-मृत्यु होना मृत्यु से पहले ही मृत्यु को अंगीकार करके मुक्ति पा लेना यही मरजीवा होना है। डूब कर मोती ले आना। साधना की सिद्धि है शरीर रहते भी शारीरिकता से मुक्त हो जाना।
 
तुम्हारे मिलन को बेली है पर पात नहीं।
बेली शरीर है और पात शारीरिकता। कबीर ने यह बात कई बार कही है – पिंड परै जिब जइहै जहां। पहलेई ही घर रक्खो तहां।
 
साधना के पक्ष में मरण और अमरता का खेल कबीर के यहाँ कई रूप धारण करता है। कबीर और तुलसी के रामों पर साथ-साथ विचार करना दोनों के रामों को अच्छी तरह समझने में सहायक है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस पर विचार किया था। उनके सूत्रों के सहारे हम जान सकते हैं। कबीर और तुलसी दोनों मानवीय भावना के आश्रय हैं, आलम्बन तो हैं ही। अन्तर यह है कि कबीर के राम के पास केवल मानव हृदय है, तुलसी के राम के हृदय और शरीर दोनों हैं। कबीर के राम जननी हैं, भरतार हैं, पिता हैं और तो और उन्हें कुत्ते पालने का भी शौक है, लेकिन सब भाव रूप में लीला रूप में नहीं। कबीर और तुलसी के रामों का यह अंतर कबीर और तुलसी की संगति में है। कबीर के राम लोकनायक नहीं। कबीर के राम लोक में समाए जरूर हैं लेकिन निराकार हैं। वे मनुष्य नहीं हो सकते थे। मनुष्य होते भी तो क्या लोकनायक होते। हरगिज नहीं। वे मनुष्य होते भी तो जुलाहा होते या जूता गांढने वाले मोची, छीपी या दरजी या शाधन कसाई। और कबीर के युग की बात छोड़िए। भारतीय साहित्य की बात हम नहीं जानते। हिन्दी में प्रबंध साहित्य का प्रथम नायक प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि का सूरदास है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही काव्य नायक होते थे क्योंकि लोकनायक भी नहीं होते थे। इस लोक नायकत्व में लोक विशिष्ट है। भक्ति आंदोलन ने इस लोक को परिवर्तित करने का प्रयास किया था कुछ ऐतिहासिक स्थितियों के चलते।
 
अवर्ण निर्गुण संत प्रधानतः अलगाव की स्थिति में होने के कारण वर्णाश्रम व्यवस्था और धार्मिक-प्रशासनिक प्रतिष्ठान से पृथक या निर्वासित होने के कारण उसकी उपेक्षा या उसका तिरस्कार तो कर सकते थे किन्तु उसके नवगठित करने की बात नहीं सोच सकते थे। अनुमानतः वे उस प्रतिष्ठान तंत्र से परिचित भी नहीं थे। वे साधना प्रक्रिया में मनोजगत को ही पुनर्गठित कर सकते थे। घर के अंदर ही समूचा बाह्य- यानी समूचा लोक पा सकते थे।
 
यदि घट अंतर बाग बगीचा, जोई जोई पिंडे सोई ब्रह्मांडे
कबीर के राम उस अर्थ में सामाजिक – ऐतिहासिक व्यक्तित्व नहीं जिस अर्थ में तुलसी के राम। कबीर के रामराज्य के संस्थापक नहीं जहाँ बौद्धिक, दैहिक, भौतिक ताप न हो। सौभाग्यवश कबीर के यहां भी रामराज का स्वप्न देखने वाला एक दोहा मिलता है
 
मैं वासा मोई किया दुरिजन काठे इरि
राम पियारे राम का नगर बस्या भरपूरि
कबीर के राम राजा न हों लोकनायक न हों लेकिन वे निर्गुण होते हुए भी सामाजिक-मानवीय गुणों के प्रतीक, स्रोत एवं समुच्चय हैं। द्विवेदीजी ने कहा था – कबीर के निर्गुण का मतलब गुणहीन नहीं, गुणातीत है। निराकार और असीम अकल्पनीय गुणों के स्रोत और 15वीं शताब्दी में मान्य मानवीय गुणों के योग प्रतीक कबीर के राम। इस पर ध्यान दें तो कबीर के राम और तुलसी के राम में एक प्रच्छन्न समानता दिखाई पड़ेगी। इस प्रच्छन्न समानता के टूटने का उपक्रम भी आचार्य द्विवेदी के ही संकेत सूत्रों के आधार पर किया जा सकता है। दोनों संतों की दुविधायें हैं। ये दुविधायें उनको समान सूत्र में जोड़ती है। कहीं ऊपर। वस्तुतः सामाजिक-ऐतिहासिक 17वीं शताब्दी के कोल नायक और भावी मानव समाज के भी लोकनायक। कबीर ने कहा कुछ नहीं रहेगा। जयका पट्टा (ऋण पत्र) लिखा रखा है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, नारद सब जायेंगे। आकाश – धरती की चक्की चला रही है, इसके बीच जो कुछ है सब नश्वर है। चंद्रमा, सूर्य, पवन, आकाश सब जायेंगे, रह जाएगा राम ही भरपूर रह जाएगा।
 
पवन जाहि आकास जाहिगे जंद जाहिगे सरारे
हम नाहीं तुम नाहीं रे भाई रामरहे भरपूरा रे।
 
जगत असत्य है राम सत्य है। सत्य अर्थात् जो रह सके। जिसमें सदैव रहने की प्रकृति या गुण हों। किसी ने कबीर से पूछा होगा कि ये सत्य राम कैसे हैं? इनके विषय में कुछ बताइए तो कबीर ने बताया मैं कुछ नहीं कह सकता। मारी कहुं तो डर लगता है, इसका कहुं तो झूठा होगा। मैंने कभी देखा नहीं अपनी आँखों से मैं राम को क्या जानूं।
मारी कहौत बहु डरौं हलका कहौं तो झूठ
मैं का जाणों रा कूं, आंखिन कबहुन दीख
यानी कभी ऐ महीकते मुन्जर नजर आ लिवासे माजज में दुविधा यह हुई तो आँखिन देखी वह नहीं रहेगा। जो रहेगा वह आँखिन कबहु न दीख कबीर ने भी एक रास्ता निकाला। राम तो नहीं मिले – यानी आँखों दिखलाई नहीं पड़े लेकिन राम जैसे मनुष्य मिले। कबीर दास के काम यही मनुष्य आए।
 
हम अपने से, उन्हें बन-बन में ढूँढा लेकिन नहीं मिले। मिले राम सरीखे जन –
 
कबीर बन बन में फिरा कारणि अपणे राम राम सरीखे जन मिले तिन सारे सब काम।

 

रसना सांपिनी बदन बिल, जे न जपहिं हरिनाम। तुलसी प्रेम न राम सों, ताहि बिधाता बाम॥
जो श्री हरि का नाम नहीं जपते, उनकी जीभ सर्पिणी के समान केवल विषय-चर्चा रूपी विष उगलने वाली और मुख उसके बिल के समान है। जिसका राम में प्रेम नही है, उसके लिए तो विधाता वाम ही है (अर्थात् उसका भाग्य फूटा ही है)।

 

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##मैं पिछले20 वर्षो से थाइराइड,डायबेटिक,हार्ट संबंधित रोग,लीवर आदि प्रमुख बीमारियों का खानपान में परिवर्तन कर शतप्रतिशत इलाज का प्रयास कर रहा हू, सही आहार एंव न्युनतम होम्योपेथिक दवाओं से पूर्णतया बीमारी को जड़ से खत्म किया जा सकता है ऐसा मेरा यह मानना है, तथा मैने शतप्रतिश हजारो लोगों में तथा हर आयुवर्ग में सफल प्रयोग किया है, न्युनतम व्यय- प्राय हम हम जो सात्विक भोजन पर व्यय करते है उसी के अनुरूप ही व्यय है को किया जाकर हमारी दैनिक आदतों में बीमारी से लड़ने तथा ठीक होने के प्रयास मोजूद है । यह  कि आहार में प्रमुख परिवर्तन करके ही बीमारियों से लड़ा जा सकता है तथा बीमारियों से निजात पाई जा सकती है ।

लाईफ यानि की जीवन! मूल्यों और अनुशासन पर भी आश्रित ही रहना चाहिए, केवल कल्पना और ठोस प्रयास के अभाव में जीवन केवल ट्रक की लाईट के पीछे भटका बाईक सवार जो शायद रास्ता पार ही लगाये । हमेशा ईवी स्कूटर की तरह जीवन जीये, संतुलित सहज,शान्त और निरन्तर प्रतिदिन चार्ज डिस्चार्ज । पर गतन्व पर धीरे पर अवश्य पहुच निश्चित!
केवल मल्टीग्रेन का इस्तेमाल खाने में करे स्वस्थ रहे सभी प्रकार की बीमारियों को भगाये! मल्टीग्रेन में जौ,ज्वार,मक्का,बाजरा,चना,मूंग और मोठ का इस्तेमाल रितु के अनुसार लेवें इसी मल्टीग्रेन में 90प्रतिशत मोटे अनाज है एंव 10 प्रतिशत दाले है । रोटी,दलिया का उपयोग चार बार अवश्य करे । संतुलित भोजन स्वस्थ जीवन।

 

//PL USE THE BARLEY,SHORGUM,MILLET,GRAM,MAIZE LENTIL LIKE MOONG AND MOTH//

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For the last 20 years, I am trying to cure 100% of the major diseases like thyroid, diabetic, heart related diseases, liver etc. It is, and I have done 100% successful experiment in thousands of people and in every age group, the minimum expenditure - usually the expenditure we spend on sattvik the whole grain 8-9 type coarse gains- the veg food is the same as it should be done in our daily habits to fight disease and get cured. The effort exists. That only by making major changes in the diet, diseases can be fought and diseases can be overcome.

Benefits of Multigrain-Health.gov's 2015-2020 Dietary Guidelines for Americans suggests that you eat 6 ounces of grain daily and get at least half of that from whole grains,

Benefits of Multigrain - How can We are diet plan with whole grains,bean and lentils Present study was undertaken for development of gluten free processed products i.e. cookies and pasta by incorporation of gluten-free ingredients in different proportions. Gluten free raw ingredients i. e. finger millet (FM), pearl millet (PM), soya bean (SB) and ground

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