Mamta ki Pariksha - 112 books and stories free download online pdf in Hindi

ममता की परीक्षा - 112



शाम का धुंधलका फैलने लगा था। बरामदे में बैठी साधना और रमा बेचैनी से चहलकदमी करती कभी कभार उस बंद दरवाजे की तरफ देख लेतीं जिनसे होकर वह डॉक्टर अंदर गया था। दोनों उस पल का इंतजार कर रही थीं, जब दरवाजा खुले और वह डॉक्टर उन्हें आकर बताये कि 'चिंता की कोई बात नहीं, अब जूही खतरे से बाहर है।'

अस्पताल का यह कमरा इमारत की दूसरी मंजिल पर स्थित था। बरामदे से बाहर का दृश्य स्पष्ट नजर आ रहा था। सड़कों पर वही रोज की व्यस्तता, लोगों का भारी शोरगुल, गाड़ियों की आवाजाही के बीच पैदल भागते हुए लोग भी नजर आ रहे थे। सड़कें दूधिया रोशनी से नहा उठी थीं।

बरामदे में भी भरपूर रोशनी फैली हुई थी लेकिन रमा को पता नहीं क्यों ऐसा महसूस हो रहा था जैसे यह सब दिखावा मात्र हो, क्षणिक ही हो, और अचानक सड़कों पर घुप्प अँधेरा छा गया।

हालाँकि गाड़ियों की तेज हेडलाइट अँधेरे में चमक रही थीं लेकिन अँधेरे का मुकाबला करने में असफल साबित हो रही थीं। वजह थी अचानक बिजली का चले जाना।
अस्पताल के बरामदे में व पूरे अस्पताल में कोई फर्क नहीं पड़ा था। यहाँ रोशनी का साम्राज्य बरकरार था। बाहर घुप्प अँधेरा देखकर रमा का मन विचलित हो गया।
ये बाहर फैला अँधेरा उसके जीवन में फैले अँधेरे को कहीं और अधिक न गहरा कर दे। उसका मन आशंकित हो ही रहा था कि तभी उस कमरे का दरवाजा खुला जिस पर इनकी बराबर नजर बनी हुई थी।

रमा ने देखा, वही डॉक्टर उनकी तरफ बढ़ा आ रहा था। उसके नजदीक आते ही साधना और रमा दोनों उससे अधीरता से एक ही साथ पूछ बैठीं, "अब कैसी है जूही डॉक्टर साहब ?"

उनकी तरफ ध्यान से देखते हुए डॉक्टर ने संजीदगी से जवाब दिया, "आइ एम सॉरी ...! हम बहुत प्रयास करके भी जूही को नहीं बचा सके।... दवाई का इन्फेक्शन पूरे शरीर में फैल चुका था।"

रमा को लगा जैसे उसके कानों के नजदीक ही कोई बम विस्फोट हुआ हो ..डॉक्टर के मुँह से निकले आगे के शब्द उसे सुनाई ही नहीं पड़े। उसके कहे शब्द जो वह सुन पाई ' ...जूही को नहीं बचा सके' बार बार उसके कानों में गूँज कर शोर मचाते रहे। उसने देखा, डॉक्टर ने साधना से कुछ बात किया और फ़िर अपने कक्ष में समाता चला गया।

औपचारिकताएँ पूरी करते कई घंटे बीत गए और जब उन्हें जूही का शव सौंपा गया रात बारह से अधिक का समय हो चुका था।

इस बीच साधना ने रमा को जूही की आँखें वगैरह दान करने की सलाह दी थी। तब खुद को सँभाल चुकी रमा ने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया था, "इस मामले में सिर्फ जूही ही नहीं मैं भी बड़ी अभागी निकली। जब डॉक्टर ने नकारात्मक रिपोर्ट आने की आशंका जताई थी मैंने डॉक्टर से उसी वक्त बात की थी इस बारे में। मैं भी यही चाहती थी कि जूही न रही तो क्या, कम से कम उसका कोई अंग किसी के शरीर में तो जिंदा रहेगा और उसकी मौजूदगी महसूस होती रहेगी, लेकिन डॉक्टर ने मना कर दिया। उसने स्पष्ट कहा था कि HIV पीड़ित व्यक्ति के शरीर से किसी भी अंग का प्रत्यारोपण दूसरे के शरीर को भी एड्स पीड़ित बना देगा इसलिए स्वस्थ शरीर के अंग ही स्वीकार किये जाते हैं प्रत्यारोपण के लिए और मेरी यह इच्छा भी धरी की धरी रह गई।"
सुबह आश्रम की सभी महिलाओं सहित आसपास के निवासी भी भारी संख्या में जूही की अंतिम यात्रा में शामिल हुए। सभी परंपराओं और मान्यताओं को धता बताते हुए रमा व साधना स्वयं श्मशान तक पहुँची और अंततः रमा ने ही अपने हाथों से जूही के निश्चेष्ट पड़े शव को मुखाग्नि दी तथा सभी विधि विधान स्वयं पूर्ण किये।

आश्रम में कई दिनों तक शोक का माहौल बना रहा। रमा अब एकदम गुमसुम सी हो गई थी। उसने आश्रम की किसी भी गतिविधि में भाग लेना लगभग बंद कर दिया था। धीरे धीरे आश्रम की पूरी जिम्मेदारी साधना के कंधे पर आ गई।

एक दोपहर साधना स्कूल से आकर अपने दफ्तर के कमरे में बैठी ही थी कि रमा ने उसे बुलाने के लिए चपरासी को भेज दिया। साधना तुरंत ही रमा से मिलने उनके कमरे में जा पहुँची। मेज के पीछे अपनी कुर्सी पर बैठी रमा काफी गंभीर नजर आ रही थीं, साथ ही पहले से थोड़ी कमजोर भी।

साधना को बैठने का इशारा करते हुए उन्होंने कहा, "कुछ दिनों से मेरा मन काफी अशांत चल रहा था। कई सारी चिंताओं को पीछे छोड़कर अब मैं अपनी जिंदगी के उस पड़ाव पर पहुँच गई हूँ जहाँ मुझे कोई चिंता नहीं होनी चाहिए, लेकिन हो भी क्यों नहीं ? समाज से परित्यक्त दबी कुचली बेसहारा महिलाओं को सहारा देने के उद्देश्य से संचालित इस आश्रम के सुचारू संचालन की चिंता तो रहेगी ही न ? मेरी अनुपस्थिति में आश्रम का संचालन तुम बखूबी कर रही हो। किसी को कोई शिकायत नहीं। तुम पूरी तरह से समर्पित हो इस आश्रम और यहाँ के निवासियों के लिए, सो काफी सोचने समझने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि अब समय आ गया है कि तुम्हें इस आश्रम के संचालन की पूरी जिम्मेदारी कानूनी रूप से दे दी जाय। मैंने अपने वकील से बात कर ली है और वसीयत बनवा ली है जिसमें मेरी सभी चल अचल संपत्ति की एकमात्र उत्तराधिकारी तुम ही रहोगी। यह भी लिखा है कि यह वसीयत मेरे जीते जी तत्काल प्रभाव से ही लागू समझी जायेगी। कल बैंक जाकर मैनेजर से कहकर फॉर्म लेते आना। अब खाता और चेकबुक भी तुम्हारे ही नाम से होना चाहिए।"

कहने के बाद रमा कुछ समय के लिए रुकी। इस बीच साधना कुछ कहने के लिए कसमसाई कि तभी अपने हाथ के इशारे से उसे रोकती हुई रमा बोल पड़ी, "ना ना, साधना ! तुम कुछ नहीं कहोगी। अब तुम सिर्फ करोगी, और वही करोगी जो मैंने कहा है। मुझे पूरा विश्वास है कि तुम इस आश्रम का दायित्व मुझसे भी बेहतर तरीके से सँभाल लोगी। अब इससे इंकार करके मेरा दिल नहीं दुखाना। मैं बरदाश्त नहीं कर पाऊँगी।"

"आंटी ! मैं आपकी बात काटने के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकती। बस इतना कहना चाहती हूँ कि मैं तो आपके साथ हूँ ही। उसके लिए इतना सारा कुछ करने की क्या जरूरत ? आप अब आराम कीजिये। आपके आशीर्वाद से मैं सब कुछ कर लूँगी लेकिन आप अभी यह सब कुछ मेरे नाम कर देने वाली वसीयत रद्द करवा दीजिये। आप जैसी स्नेहमयी व ममतामयी महिला के चरणों में मुझे जगह मिल गई, मुझे और कुछ नहीं चाहिए।"

साधना ने फिर भी अपने मन की बात कह दी, लेकिन रमा भला कब माननेवाली थीं ? धीरे धीरे सारी औपचारिकताएं पूरी हो गईं और एक दिन रमा ने अपने दफ्तर के सामने लगा बोर्ड जिसपर उनका नाम लिखा था 'संचालिका - रमा भंडारी ' हटाकर उसकी जगह दूसरा बोर्ड लगवा दिया जिसपर लिखा था 'संचालिका --साधना गोपाल अग्रवाल '

रमा पूरी जिम्मेदारी साधना को सौंप कर अब बिल्कुल निश्चिंत हो गई थीं। सुबह की सैर से होकर मंदिर जाना और फिर अपने कमरे में बंद हो जाना यही उनकी दिनचर्या बन गई थी। साधना आश्रम की पूरी जिम्मेदारी पूरी तत्परता व ईमानदारी से निभा रही थी। अमर आश्रम की पाठशाला से ही दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका था। साधना को उसके भविष्य की चिंता सताने लगी थी। उसकी आगे की पढ़ाई कैसे हो ? लेकिन कहते हैं न जहाँ चाह वहाँ राह ..! एक दिन चमत्कार हो ही गया।"
बताते हुए रामलाल के चेहरे पर खुशी छलक पड़ी। शेठ जमनादास जो कि ध्यान से पूरी कहानी सुन रहा था और उसकी पलकें भीगी हुई थीं अचानक रामलाल के चेहरे पर खुशी की लकीरें देखकर चकित रह गया। अमर के चेहरे पर भी मुस्कान गहरी हो गई थी।

रामलाल ने आगे संक्षेप में बताया कि गाँव की ही एक गुमशुदा लड़की की तलाश आसपास के शहरों में करने के बाद वापसी में उसकी नजर 'मोहन भंडारी महिला कल्याण आश्रम ' का बोर्ड लगे हुए एक लंबी सी इमारत पर गई। यहाँ भी पूछ लेते हैं, यही सोचकर वह उस इमारत की एक तरफ बने बड़े से गेट से दाखिल होकर दफ्तर की तरफ बढ़ा। दफ्तर के बाहर बोर्ड पर साधना का नाम पढ़कर उसका माथा ठनका, लेकिन कोई और साधना होगी यही सोचकर वह दफ्तर में दाखिल हुआ। अंदर मेज के पीछे सचमुच साधना ही थी।

आगे की कहानी बयां करते हुए उसकी खुशी उसके शब्दों से छलक रही थी। उसने आगे बताया, "जी हाँ, वह हमारी साधना ही थी..मास्टरजी की बेटी साधना, मेरी मुँहबोली बहन साधना। खुशी के मारे मैं तो वहाँ जाने का मकसद ही भूल गया था। साधना भी मुझे देखते ही दौड़कर आकर मुझसे लिपट गई थी किसी अबोध बच्ची की तरह। आँखो से गंगा जमुना बहने लगी थी। हमारी अच्छी तरह खातिरदारी करने के बाद साधना ने मुझे गाँव छोड़ने से लेकर अब तक की पूरी कहानी सुनाई जो अभी अभी मैंने आपको ज्यों की त्यों सुनाई है। उसी समय साधना ने अमर को बुलाकर मुझसे मिलवाया और मुझसे आग्रह किया कि मैं उसे अपने साथ ले जाऊँ और पड़ोस के गाँव में जहाँ बारहवीं तक की शिक्षा उपलब्ध है अमर का नाम लिखवा दूँ। साथ ही यह भी बताया कि वह पढ़ने में तेज है सो अपनी आगे की पढ़ाई का खर्चा वह खुद ही उठा लेगा। मुझे भला क्या आपत्ति हो सकती थी ? साधना ने मुझे कसम देकर बाध्य कर दिया था कि मैं उसके बारे में और अमर के बारे में भी किसी को कुछ न बताऊँ !
खैर उस दिन वह गुमशुदा लड़की तो मुझे नहीं मिली लेकिन ग्यारह वर्ष बाद मुझे मेरी मुँहबोली बहन वापस मिल गई थी। मैं बहुत खुश था। अमर मेरे साथ ही गाँव आ गया।

वादे के मुताबिक अमर का नाम पास के गाँव में ही लिखवा दिया, जहाँ से अमर ने बारहवीं की परीक्षा सबसे अधिक अंकों से उत्तीर्ण की।

साधना के निर्देश के अनुसार ही मैंने अमर को बता दिया था कि अब आगे की जिम्मेदारी उसे खुद ही उठानी होगी। साधना ने स्पष्ट कहा था कि अमर की कोई मदद नहीं करनी है। इसके पीछे उसका तर्क था कि यह आश्रम किसी की अमानत है जो उसके हाथों में है और वह मरते दम तक किसी की अमानत में खयानत की सोच भी नहीं सकती अर्थात अपने निजी फायदे के लिए वह आश्रम का एक पैसा भी खर्च नहीं कर सकती। उसकी खुद्दारी व ईमानदारी देखकर मेरी पलकें भीग गई थीं और उसके इस नेक प्रण में उसका साथ देने का निश्चय मैंने भी कर लिया।"


क्रमशः