Mamta ki Pariksha - 133 books and stories free download online pdf in Hindi

ममता की परीक्षा - 133



साधना का हाथ थामे हुए गोपाल की आँखों से आँसुओं का सैलाब सा फूट पड़ा।

निर्विकार सी नजर आनेवाली साधना भी कब तक अपनी भावनाओं पर काबू रखती ?
गोपाल के आँसुओं को देखकर उसका दिल तड़प उठा।

इससे पहले कि उसकी आँखों से भी गंगा जमुना बहने लगतीं वह तेजी से झुक गई थी गोपाल के पैरों में।
उसके पैरों को स्पर्श करते हुए वह खुद पर भरसक काबू पाने का प्रयास कर रही थी कि तभी अपने कदमों में झुकी हुई साधना को गोपाल ने दोनों कंधे पकड़कर उठाया और अपने सीने से लगा लिया।
साधना ने भी कोई प्रतिरोध नहीं किया और उसके कंधे पर सर रखकर फूटफूट कर रो पड़ी।
दोनों जी भर रोकर मन की भड़ास निकाल लेना चाहते थे। दोनों के पास कहने के लिए बहुत सी बातें थीं लेकिन यह मानव स्वभाव है कि जब कहने को बहुत कुछ होता है तो अक्सर वह खामोश हो जाता है। गोपाल और साधना भी मानव मन की उसी अवस्था से गुजर रहे थे। दोनों के लरजते होंठ मानो कुछ कहने का प्रयास करते पर बोल कंठ से फूटने की बजाय आँखों से आँसुओं की नई धार फूट पड़ती और होंठ खामोश रह जाते।
दोनों निगाहों के जरिये ही एक दूसरे को दिलासा दिलाते रहे, बातें करते रहे। जी हाँ, बातें करते रहे क्यूँकि मौन की भी एक भाषा होती है और जब दो सच्चे प्रेमी मिलते हैं तो वह बिना कुछ कहे निगाहों से ही एक दूसरे के मन की थाह ले लेते हैं, बात कर लेते हैं।

दोनों का करुण रुदन देखकर जमनादास की आँखें भी डबडबा आई थीं, साथ ही साधना को गोपाल के साथ देखकर उनको असीम सुख की अनुभूति हो रही थी। जाने अंजाने इन दोनों की जुदाई की वजह भी तो वही था सो अब उन दोनों को मिलते देखकर उसका खुश होना स्वभाविक ही था, लेकिन अभी चंद मिनटों पहले ही साधना के चेहरे पर उभरे भाव अभी भी उसके दिमाग में उथलपुथल मचाये हुए थे।
रह रहकर साधना का निर्विकार चेहरा उसकी आँखों के सामने नाच जाता और इसी के साथ उसके मन में शंका घर कर जाती कि आखिर क्या चल रहा है साधना के दिलोदिमाग में ?.. फिलहाल अपने विचारों को झटका देकर वह साधना और गोपाल को वर्तमान में मिलते देखने का आनंद लेना चाहता था।

कुछ मिनट यूँ ही गुजर गए।
अचानक जैसे साधना को कुछ याद आया हो, वह धीरे से गोपाल से परे हटकर अपनी कुर्सी की तरफ बढ़ गई। जाने से पहले उसने गोपाल और जमनादास को सामने पड़ी कुर्सियों पर बैठने का इशारा कर दिया था।

गोपाल ने भरसक कोशिश की थी साधना का हाथ थामे रखने की, लेकिन बड़े आराम से उससे हाथ छुड़ाकर साधना अपनी कुर्सी पर बैठ गई।
उसकी आँखों से झरझर आँसू बह रहे थे और वह एकटक गोपाल को देखे जा रही थी, मानो उससे आँखों ही आँखों में अपने पच्चीस सालों के वनवास के बारे में जवाब तलब कर रही हो।
गोपाल अधिक देर तक उसकी नजरों का सामना न कर सका। ऐसा लगा मानो, उसने साधना के मन की बात समझ ली हो, अपराध बोध से ग्रस्त मेज की दूसरी तरफ बैठे उसके दोनों हाथ जुड़ते चले गए और मुँह से बोल के बदले आँखों से गंगा जमुना बहने लगी।

कुछ देर बाद खुद को संयत करते हुए वह बोला, "मुझे माफी मांगने का हक तो नहीं है साधना ! मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ, लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि आज से पच्चीस साल पहले जिस दिन जमनादास के साथ मैं सुजानपुर से अपने घर गया था, तब से आज तक एक पल भी चैन से नहीं रह सका हूँ मैं। देश दुनिया की नजरों में अरबों का मालिक गोपाल अग्रवाल कितना गरीब व बेबस है यह सिर्फ मैं ही जानता हूँ। मैं जानता हूँ कि मैं चाहकर भी अपनी मर्जी से एक कदम नहीं चल सकता। बीमारी के इलाज के बहाने मुझे अमेरिका ले जाकर एक तरह से वहाँ बंधक बना दिया गया और एक आवारा बदचलन औरत को मेरे गले मढ़ दिया गया जिसे पति की नहीं सिर्फ पति नाम के एक लाइसेंस की जरूरत थी।
मरना तो कई बार चाहा, लेकिन हर बार तुम्हारी यादों ने मुझे जीने को मजबूर कर दिया इस विश्वास के साथ कि कभी न कभी तुम अवश्य मिलोगी।
कुछ साल पहले भारत आकर बहुत खुश हुआ था इस उम्मीद में कि अब तुम मिल ही जाओगी, लेकिन मुझे क्या पता था कि जिंदगी अभी मेरा और इम्तिहान लेनेवाली है ?
सुशीला और उसके मक्कार बाप ने अपनी कम्पनियाँ मेरे नाम करने के बहाने धोखे से मेरी कंपनियों के शेयर भी सुशीला के नाम करवा लिया था जिसका मुझे लेशमात्र भी गम नहीं। गम तो मुझे इस बात का हो गया था कि अब मैं अपने देश में रहकर भी उसके अधीन होकर रह गया था।
यही वजह थी कि तुम्हारा पता लगाने के लिए खुद न जाकर मैंने अपने आदमियों को भेजा था जो असफल होकर वापस आ गए थे। मेरे पास तुम्हारा पता लगाने का और कोई जरिया नहीं था..
और आज देखो, मेरे उसी दोस्त ने मुझे तुमसे मिलवा दिया जिसने मुझे तुमसे अंजाने में ही सही दूर किया था।.. और अंजाने में ही भले क्यों न हुआ हो गुनाह मेरे हाथों, लेकिन मैं मानता हूँ कि मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ। अब फैसला तुम्हारे हाथ है साधना ! तुम जो भी फैसला करो मैं तुम्हारे साथ हूँ। इन निगाहों को तुम्हारे एक झलक की ही ललक थी साधना ,जो आज पूरी हो गई।" कहने के साथ ही गोपाल ने अपने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढंक लिया और जोरों से फफक पड़ा।

गोपाल के साथ ही आँखों से बह रहे गंगा जमुनी धाराओं को साधना ने भी निर्बाध बह जाने दिया.. और अब वह काफी हल्का महसूस कर रही थी। अपनी भावनाओं पर काफी हद तक काबू पाकर वह अब तक खुद को संयत कर चुकी थी, लेकिन आँखों से आँसुओं का सैलाब अभी भी जारी ही था और इसी के बीच सधे हुए स्वर में उसने कहना शुरू किया, "अच्छा या बुरा जो भी हुआ, शायद यही मेरा नसीब था जिसका दोषी वक्त के अलावा और कोई नहीं। मुझे किसीसे कोई शिकायत नहीं,... आपसे भी नहीं ! समझ नहीं पा रही आपकी बात सुनकर हँसूँ या रोऊँ। जब आप यह कहते हो कि 'अब तुम जो भी फैसला करो' तो अब आप ही बताओ, क्या फैसला करूँ मैं ? यह कहने से पहले तनिक यह भी नहीं सोचा आपने कि क्या आज कोई फैसला करने लायक मैं हूँ भी ? अब कहाँ से लाऊँ अपने वह अरमान भरे पल जो तिल तिल कर आपकी याद में, आपकी चिंता में बिताई है ? क्या आप नहीं जानते अपने समाज में किसी जवान औरत का अकेले रहना कितना मुश्किल है ?.. तब और भी जब लोग यह समझ लें कि वह बेसहारा है। कई बार हिम्मत छूट गई थी, लेकिन बस हमारे प्यार की निशानी अमर को पालपोसकर कुछ बनाने के जुनून ने मेरी जिंदगी बचाये रखा और फिर किस्मत ने मुझपर रहम खाई और रमा भंडारी नाम की इस देवी से मिलवा दिया। अगर उस दिन ये नहीं मिलतीं, तो क्या होता ...सोचकर ही कलेजा काँप उठता है..और क्या क्या बताऊँ...??" कहते कहते उसका धैर्य जवाब दे गया और एक बार फिर वह बिलख पड़ी किसी अबोध बालिका के समान।

अपनी कुर्सी से उठकर उसके नजदीक पहुँचकर उसके आँसू पोंछते हुए गोपाल बोला, "अब बस करो साधना ! मुझे सभी बातों का अहसास है। पुराने जख्मों को कुरेदने से सिवा दर्द और टिस के कुछ न मिलेगा। जो हुआ, शायद वही हमारी किस्मत में था। अब एक नई जिंदगी हमारा इंतजार कर रही है साधना ! वक्त की तेज धूप में हमारी पूरी जिंदगी भले निकल गई हो, लेकिन जिंदगी की ढलान पर सुख की छाँव में हम कुछ पल सुकून भरे तो जी लें।.. आओ साधना चलें अपने घर। मैं तुम्हें लेने आया हूँ।" कहते हुए गोपाल ने उम्मीद भरी नजरों से साधना की तरफ देखा और अपना हाथ आगे बढ़ाया उसकी तरफ।

उसके हाथों पर अपना हाथ रखते हुए साधना बोली, "मैं आपसे दूर ही कब थी गोपाल ? जब रिश्ता दो रूहों का हो तो जिस्म बेमानी हो जाते हैं। हमारा मिलना शायद कुदरत को ही मंजूर नहीं था, नहीं तो हम बिछड़ते ही क्यों ? अब हमारी राहें अलग हो चुकी हैं, हमारी जिम्मेदारियाँ अलग हो चुकी हैं..और मेरा मानना है कि अब 'बीती ताहि बिसार के' की तर्ज पर सब भूल कर हम अपने अपने रास्ते पर आगे बढ़ें। होनी को कोई नहीं रोक सकता, जो हुआ अच्छा नहीं हुआ लेकिन बावजूद इसके मैं खुश हूँ कि अमर को लेकर मैंने अपनी जिम्मेदारी निभाई और ईश्वर ने मुझे यह अवसर भी दे दिया जिससे अमर को स्वतः ही अपने सवालों का जवाब मिल गया जो वह अक्सर मुझसे पूछा करता था 'मम्मी ! मेरे पापा कौन हैं ? हमारे साथ क्यों नहीं रहते ?' मुझे लगता है अमर को अपने इन सभी सवालों के जवाब मिल गए होंगे।" कहते हुए साधना ने अमर की तरफ देखा जो सामने ही खडा था।

उसकी भी आँखें भरी हुई थीं। इससे पहले कि साधना कुछ और कहती अमर आगे बढ़कर गोपाल के पैरों में झुक गया। गोपाल ने अमर को अपने सीने से लगा लिया।

थोड़ी देर बाद साधना से मुखातिब गोपाल कह रहा था, "किस जिम्मेदारी की बात कर रही हो साधना ? माता पिता की ? जो अब रहे नहीं, या अग्रवाल इंडस्ट्रीज के नाम से फैली सैकड़ों कंपनियों की ?, जिनका मैं नाममात्र का मालिक हूँ। सुशीला और उसके कमीने माँ बाप ने सभी कंपनियों के सभी शेयर सुशीला के नाम कर दिए हैं।.. या फिर अपनी उस पत्नी की जिम्मेदारी की बात कर रही हो जिसे इस बुढ़ापे में भी अपनी अय्याशियों से फुर्सत नहीं ? मैं एक ऐसी महिला का पति हूँ जिसे पति की नहीं, सिर्फ पति नाम के एक तमगे की जरूरत है। क्या मुझे ऐसी पत्नी के प्रति जिम्मेदारी का अहसास कराना चाह रही हो ?"

क्रमशः