Aaina Sach Nahi Bolta - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

आइना सच नही बोलता - 7

हिंदी कथाकड़ी

“आइना सच नहीं बोलता “

भाग- 7

लेखिका -आशा पाण्डेय

सूत्रधार -नीलिमा शर्मा निविया

लेखिका आशा पाण्डेय

जन्म:- २७ फरवरी १९७४

शिक्षा:- B.A

लिखने की रूचि बचपन से,शादी के बाद कुछ साल का अंतराल,फेसबुक पर कुछ सालों से फिर से लिखने की कोशिश जारी।

काव्या और 100 क़दम साझा कविता संग्रह प्रकाशित, यू ट्यूब सखी टाक पे सक्रिय ,

पार्श्व स्वर कविता और कहानियों में दोस्तों के जिसके ज़रिये दिल को सुकून और नये श्रोताओं से जुड़ने का मौका ...

Email id:- ashapandey1974@gmail.com

“आइना सच नही बोलता “

कुछ ही महीनों में नंदिनी अच्छी तरह से समझने लगी है दीपक के व्यवहार के उतार चढ़ाव। उसे सहज स्वीकारने में अब भी मन को ही समय लगता है। सहज हो भी नहीं सकता। इसे आदत बनने में अभी कुछ और वक़्त लगे..!क्या पता वो कभी भी सहज न हो पाए..! ऐसी मनःस्थिति लिए वो अन्तरंग क्षणों में भी कभी कभी जडवत हो उठती। प्रेम,प्रेम ही है या दीपक की भूख..!ये सवाल उसे मथते रहते। कभी -कभी नंदिनी को लगता जैसे दिन के उजाले में दीपक कोई और है रुखा सा कठोर अजनबी और रात के अँधेरे में मद्धम सा ,बहुत अपना सा कोई शायर हो जैसे जो अपनी सासों से अपनी उंगलियो से नंदिनी के तन और मन पे ग़ज़ल लिखने की कोशिश करता हो जैसे पर उन अंतरंग पलों में भी नंदिनी अपनी जड़ता खत्म करने की सोचती भी तो डर जाती जाने दीपक को कैसा लगे या वो क्या कह दे! और वो पल जो दोनों का होना था एक का ही होता और इसपे भी दीपक की खीज बढ़ती जारही थी नंदिनी के प्रति ।

दिन का एक लम्बा अंतराल अपने पल्लू से बांधे वो एक कमरे से दूसरे कमरे में भटकती, घर संवारने की इच्छा जागती फिर दुबक जाती.. 'क्या पता दीपक कुछ फिर न सुना दे..' अभी उसी दिन उसने टीवी ट्राली के नीचे म्यूजिक सिस्टम बड़े शौक से रखा, किताबों को उनके आकर के क्रम से बुक शेल्फ में जमाया और पड़ोस के मनी प्लांट की एक-दो डाल एक पुरानी बोतल में सजा कर खाने की मेज़ पर रख दिया था।

दो प्राणियों का घर ! सारा दिन अकेले काट लो बस।! दो बोल सुनने को बेचैन.. और नंदिनी जब तक चाय की प्याली लेकर लौटी, दीपक के तेवर चढ़ चुके थे, " घर आकर भी आराम नहीं मुझे..! तुमसे किसने कहा था मेरी चीज़ों से छेड़छाड़ करो..? ये किताबें बड़ी छोटी नहीं सब्जेक्ट के हिसाब से लगी हुयी थी.. तुम्हें फेर-बदल ज़रुरत ही क्या थी ?

और ये दो इलेक्ट्रॉनिक चीज़ें एक के ऊपर एक.. दोनों की मैग्नेटिक फील्ड आपस में.. रहने देती न.. मैं जितना भी भुलाना चाहूँ.. तुम खुद याद दिला देती हो कितनी गंवार हो...! " अब तक नंदिनी के होश फाख्ता .. मन रुआंसा.. कैसे भी करके वो मनी प्लांट को बोतल समेत गायब कर देना चाहती थी। लेकिन तब तक दीपक ने अपनी सारी चिड़चिड़ाहट के साथ उसे उठा कर बालकनी में दे पटका और उसे गुस्से से घूरता अपने दोनों हाथ जोड़े बोला, "अपना गाँव वहीँ छोड़ आओ देवी। मुझे बक्श दो ! " दुःख और अपमान से नंदिनी कट के रह गयी।

वो दिन और आज का दिन, नंदिनी ने गृहणी के धर्म को अपना लिया है और सारे अरमान और अधिकार भूलने लगी. अहम् से बढ़कर क्या और फिर उस जैसी के साथ शायद यही ठीक है।

अब आदत होती जा रही है तन्हाई की। सुबह रसोई की भागदौड़ के बाद दीपक को विदा कर बालकनी पर जा टिकती और महानगर को आँखों से पीती, मन से नापती। वहां से ऊबती तो वापस घर में आ पड़ती। उसे पता है घर का कौन कौन सा कोना उसे एक नौकरानी की हैसियत से छूना है और कहाँ वो थोड़ी बहुत अपनी मर्ज़ी चला सकती है। अब तो वो उन किताबों को उन पे लिखे अफसानों को भी जैसे भूल सी गई है जो कभी उसके लिए सास लेने के लिये ताज़ी हवा का झोका थे ,याद कभी-कभी आती है अकेले में वो अमृता प्रीतम की किताबें जिन्हें देख नई आई उसकी भाभी शाक्षी ने कहा था 'इतना न सहेजो इन्हें इनके साथ नहीं जीना और न ये साथ लेजा पाओगी आप ' काश नंदिनी साथ कुछ किताब ही लाइ होती ये अकेलापन कुछ तो कम होता। फिर वही शाम और उसका इंतज़ार और एक अनजाना भय, " सब ठीक से गुज़र जाये ,मेरे ईश्वर ! "

एक दिन सुबह से ही बगल वाले फ्लैट में कुछ हलचल सी महसूस हुई। नंदिनी उत्सुक हो बालकनी तक चली आई। ' कोई तो आया ' सोच ही रही थी, तभी दरवाज़े की घंटी बजी। सामने मुस्कुराती हुई एक महिला खड़ी थी हाथ में पानी की बोतल लिए।

"आई नीड सम वॉटर ". नंदिनी ने मुस्कुरा कर उन्हें भीतर बुलाया और बोतल भर कर ले आई।

"आपको बौदर हुआ... सॉरी ! "

"नहीं- नहीं "एक अपरिचित से संवाद.. इतने दिनों से अकेली नंदिनी संकोच से गड़ गयी। कानों में दीपक आ कर जैसे कहने लगा हो ' गंवार.. गंवार '. दरवाज़ा बंद किया तो पैर अब भी काँप रहे थे।

"हद्द हो गयी ", खुद को झिड़कती नंदिनी सोचने लगी।

'" लो मुझे बंगला नहीं आती और इन्हें ठीक से हिंदी नहीं.. अब क्या फिर वही सूनापन ?"

शाम को बाज़ार जाने को निकली तो मिसेज़ बनर्जी मुस्कुराती फिर सामने पड़ गई। नंदिनी ने मुस्कुराहट से ही जवाब दिया और जाने लगी तो उनकी आवाज़ ने उसे थाम लिया।

"तुम्हारा आँख और स्माइल बहुत सुन्दर है, एक सुन्दर सा नाम भी होगा न तुम्हारा ? मैं शोमा हूँ , शोमा बनर्जी ।' शर्मा गई नंदिनी और उन्हें नाम बताया। उसे ख़ुशी हुई कि शोमा को हिंदी तो आती है। बड़े मन से रात दीपक को उसने नए पड़ोसियों के बारे में बताया तो दीपक ने कहा," चलो अच्छा है उन्हें हिंदी आती हैं, नहीं तो उन्हें साइन लेंग्वेज़ इस्तेमाल करनी पड़ती!" और जोर से हंस पड़ा। अब तो नंदिनी की आदत हो गई थी। चुपचाप अपने काम निपटाने लगी।

अगले दिन रविवार था। दीपक नंदिनी को शहर घुमाने ले गया. उस रोज़ उस ने हल्के नारंगी रंग का सूट पहना था, जिसका दुपट्टा गहरा नारंगी था। डूबते सूरज की रौशनी उसके चेहरे को दीप्त कर रही थी। कानों से मोती की लड़ी झूल रही थी। हाथों और गले में भी मोती के हल्के जेवर थे। दीपक ने उसे देखा और चुप सा हो गया था। वह खुश हो उठी थी लेकिन इज़हार नहीं किया। ख़ुशी के पल कब अवसाद में बदल जाए उससे अच्छा है चुप ही रहो। इस चुप को उसने अपनी ढाल बना ली थी। पति के साथ ने खूबसूरती को दुगना कर दिया।

उस दिन नंदिनी को पहली बार दिन छोटा लगा।

अब उसकी कभी-कभी मिसेज़ बनर्जी से बात होने लगी थी। आत्मविश्वास की धनी शोमा ने उससे कहा, "ये मिसेज़ बनर्जी नहीं चलेगा। तुम हमको शोमा बोउ दी यानि भाभी कहना। " अकेलेपन में कोई अपना सा मिला था नंदिनी को। फिर भी उसने शर्मा कर बस सर हिला दिया..

अपने कमरे के एकांत में कई बार 'बोउदी-बोउदी' कहती रही और सोचती भी रही कि जैसे बोउ दी शब्द मीठा है वैसा ही उनकी बोली भी तो कितनी मीठी है। उसके चेहरे पर एक अलग ही ख़ुशी थी।

उस एक दिन दीपक एक भारी सी काली कांजीवरम साड़ी ले कर आया और बोला, "बॉस की बेटी की शादी में जाना है. जल्दी से इसे पहन कर तैयार हो जाओ। और हाँ एक डिसेंट सा हेयर स्टाइल भी.. पर तुम.. चलो तुम जुड़ा ही बांध लेना। " सहमी सी नंदिनी के स्वर गले में ही अटक रहे थे। किसी तरह से उसने कहा उसे साड़ी पहनी ही नहीं आती तो दीपक का गुस्सा भड़क उठा,

"फिर आता क्या है? मायके में सीखा ही क्या है ? हद है ! "

आँखों में आसूं और हाथ में साड़ी लिए नंदिनी ने शोमा के दरवाज़े पर दस्तक दी और शोमा बिन कहे ही सब समझ गई।

शोमा ने साड़ी हाथ में ले कर कहा," इतनी भारी साड़ी !"

" चलो मैं तुम्हें तैयार करती हूँ। आज नंदिनी सब से प्यारी लगेगी और दीपक को देख कर मुस्कुरा कर कहा सिर्फ बीवी को नहीं पति को भी आना चाहिए साड़ी पहनाना।"

शोमा ने अपनी एक लाल सिल्क की साडी गोल्डन बॉडर वाली नंदिनी को पहनाई और कानो में झुमका आखों में काजल माथे पे बड़ी सी लाल बिंदी जिसे देख एक पल को दीपक भी अपना सुध खो बैठा। लेकिन मेरी लायी काली साडी क्यों नही पहनी याद आते ही उसका चेहरा सख्त होने लगा | वो माँ ने कहा था एकबरस तक काला और सफ़ेद कपड़ा नही पहनना बस इसी लिए नही पहना कहते कहते रुक सी गयी नंदिनी |

शादी में वह सब से अलग-थलग सी चुप -चाप बैठी रही क्यों कि उसे इंग्लिश नहीं आती थी।कहीं कुछ गलत न बोल दे इसका भी डर था \ दीपक का सबसे गले मिलकर मिलना उन्मुक्त व्यवहार नंदिनी अपने खोल में सिमटती रही | लाल रंग उसके मन आज जरा भी नही सुहा रहा था | घर आते ही दीपक नंदिनी पर खीझ उतार रहा थाजोर जोर से बोलने की आवाज़ दीवारों के पार भी साफ़ सुनाई दे रही होगी उसके ख्याल में ज़रा भी न आया | |

जिसे सुन शोमा ने सब समझ लिया अगले दिन नंदिनी से पूरी बात जान कर उसने कुछ फैसला किया और नंदिनी को अपनी टूटी हुई हिंदी में जोड़ने लगी। दोपहर को शोमा ने उसे पढ़ाना शुरू किया। और साथ ही बाँग्ला साहित्य के चुने हुए उपन्यास भी पढ़ के सुनाती। 'आशा पूर्णा देवी की सबोर्नो लता ' सुन कर नंदनी जब रोने लगी तो शोमा ने कहा , "न आँसू नहीं मुस्कान लाओ ! ज़िन्दगी में कुछ करो पढ़ाई सिर्फ डिग्री नहीं सोच है और अपने जीवन में उस सोच को लाओ !"

नंदिनी दोपहर को शोमा के पास पढ़ती और उस पुरानी नन्दिनी को वापस लाने की कोशिश करती जो मेधावी थी जो पढ़ाकू थी और शोमा के साथ वो एक नई दुनिया को जान रही थी । शोमा के साथ अब नंदिनी को बहुत सुकून मिलता कभी -कभी वो भी कहती मुस्कुरा कर 'बैठिये बोउ दी आज आप को सुधा और चन्दर की प्रेम कहानी सुनाऊं मैं ,इसे रज़ाई के अंदर टॉर्च जला के पढ़ा था न तो आज भी याद ये मुझे'... और अपने ही धुन में पुछ बैठी 'बोउ दी क्या प्रेम सिर्फ़ किताबो में लिखनें और पढ़ने को ही होता है! शोमा ने उसके गाल पे प्यार से थपकी देते हुए कहा ' ना शोना प्रेम जीने के लिये होता '।

नंदिनी ने शोमा से पूछा , " बोउ दी आप क्या शुरू से ऐसी बहादुर हो इतनी ही विश्वास से भरी हुई ? मैं क्या कभी आप सी बन पाऊँगी ?" शोमा ने एक भरपूर नज़र नंदिनी पर डाली और अपने फ़ोटो एल्बम को निकालने लगी।

एक पल को नंदिनी को उनका यूँ चुप होजाना बहुत अजीब लगा। तभी शोमा ने अपनी एक तस्वीर दिखा कर कहा, " देखो, ऐसी थी मैं ! सीधी सरल पढ़ाकू टाईप शादी के कुछ साल बाद ही समझ आ गया मुझको कि सिर्फ़ पढ़ाई नहीं बहुत कुछ चाहिये होता है घर संसार को चलाने के लिए !जैसे सिर्फ माछ -भात से खाना नहीं होता न साथ में तोरकारी ,चाटनी पापड़ सब वैसे ही पति को बीवी में सब चाहिए माँ,दोस्त और हाँ प्रेमिका भी ! "

यह कहते हुए शोमा जैसे अतीत में खो गई।

जब वह दुल्हन बन कर आई थी और अविजित ने उसे पहली रात ही कह दिया था , "ये सत्यजीत रे की फ़िल्म ओपूर सोनसारे हीरोइन मार्का होने से वो बर्द्धमान के बाहर लेकर ही नहीं जायेगा उसेकलकत्ता तक नहीं, देश भर का तो सवाल ही नहीं "पहली ही रात सपने ताश के पत्तों की तरह बिखर गए। अविजीत के दिल और घर में शोमा ने कितनी मेहनत के बाद जगह बनाई। याद कर होठो में मुस्कान और आँखों में पानी एक साथ चमक उठे शोमा के। उसने नंदिनी का हाथ पकड़ के कहा ,"जानती हो नंदिनी हम औरतें शादी के लिए ही पैदा होती हैं जैसे , इस संसार को संभालना भी हमें ही होता है और मज़ेदार यह भी है कि हम बदलते भी खुद को उनकी ख़ुशी के लिए ,उनके हिसाब से और तब जाकर बसते हैं इस नई दुनिया में,अगर मेरी बेटी हुई न नंदिनी तो मैं उसको कहूंगी कि खुद को बदलना मत कभी भी। जो जैसा हो वैसे ही कोई अपनाये तो वो प्यार है वरना तो हमारे तरह सिर्फ़ व्यापार ही !"

आज शोमा बोउ दी के इस रूप को देख नंदिनी अचम्भे में थी और सोच रही थी कि " काश शोमा जैसी बात उसकी माँ ने भी सोची होती अपनी बेटी के लिए तो !"

शोमा जैसे बिन कहे ही समझ गई उसकी मन की बात और मुस्कुरा कर कहा, " कहना तो हर माँ चाहती है यही पर सिर्फ़ सोच कर रह जाती है। लेकिन अब धीरे धीरे वक़्त बदलेगा और हम-तुम अपनी बेटिओं को शादी के लिए नहीं ,स्वाभिमान से जीने के लिए पढ़ाएंगे और तब बेटियाँ होंठो से नहीं आँखों से भी मुस्कुरायेगी।

अब नंदिनी, शोमा बोउ दी के पास रोज़ नई -नई बातें सीखने लगी। झिझक कुछ कम होने लगी और खोया हुआ आत्मविश्वास जैसे तिनका -तिनका जुड़ने लगा। रीमा ने उसे बताया कि वह बात करे घर पर और पहले दीपक से कि उसे अपनी पढ़ाई पूरी करनी है ,अमृता प्रीतम को छुप कर नहीं खुल कर पढ़ना है ,उसे ज़िन्दगी को महज़ काटना नहीं जीना है ।

रात को पढ़ाई की बात सुनकर दीपक ने कहा ," ये सारी बातें तुम्हें रात को ही करनी होती क्या !अभी तो मुझे पढ़ लो। सुबह घर को लाइब्रेरी बना दूंगा। जी भर के पढ़ती रहना !" उनके दिन ऐसे ही कुछ खट्टे से तो मीठे से भी, गुज़र रहे थे।

नंदनी की सास का फोन आ गया कि बहुत दिन हुए अब कुछ दिन उनके साथ भी नन्दिनी को रहना चाहिए और उसे अपने मायके भी तो जाना है उस वक़्त दीपक घर पर नहीं था | सास माँ ने बड़े प्यार से उसका हाल चाल पुछा दीपक और उसकी बलाए उतारी और ढेरो आशीर्वाद दिए माँ ने दीपक से बता करा देने को भी संदेश दिया ,नंदिनी को लगा दीपक कोई बहाना बना लेगा और उसे अपने से दूर नहीं जाने देगा। शाम कोदीपक से जब माँ के कॉल की बात की तो दीपक ने तुरन्त फ़ोन मिलाया और अचनक मुड़ कर बोला 'चाय नाश्ता कुछ दोगी या मेरे सर पे खड़ी रहोगी '।रसोई में अपने आसूं पोछती नंदिनी ने दीपक की तेज़ आवाज़ सुनी 'मैं ने तो कहा ही था कि मेरे साथ मत भेजो, वहीँ रखना था न अपने पास'।

रहना तो उसने तुम्हारे साथ ही हैं , वैसे भी यह मेरे टाइप की हैं भी नही जैसे ही छुट्टी मिलती हैं छोड़ जाऊंगा आपके पास “

एक पल के लिये आंखे चमक उठी नंदिनी की ये उसके जुदाई के डर से दीपक का गुस्सा है जो वो यूँ चिल्ला रहा है ,पर ये भ्रम अगले ही पल टूट गया जब दीपक ने कहा यह मेरे टाइप की नही हैं जैसे ही छुट्टी मिलती है वो उसे छोड़ आयेगा। ये शब्द “ मेरे टाइप की नही “और "छोड़ आऊंगा " बहुत तेज़ चुभा नंदिनी को पर वो चुपचाप चाय बनाती रही और मन ही मन खुद को समेटती वापस जाने के लिए ...उस घर ....न किसके घर

आशा पाण्डेय

(नीलिमा शर्मा निविया )