Khavabo ke pairhan - 16 books and stories free download online pdf in Hindi

ख्वाबो के पैरहन - 16

ख्वाबो के पैरहन

पार्ट - 16

अस्पताल का केजुअलिटी वार्ड| रात भर, रन्नी को साँस की तकलीफ रही| आधी रात के लगभग ऑक्सीजन लगाना पड़ा| बाहर भाईजान और नूरा बैठे रहे| भाभी को घर भेज दिया था स्वयं भाईजान ने| भाईजान ऐसे दिख रहे थे मानो उनके शरीर से किसी ने रक्त की एक-एक बूँद निचोड़ ली हो, जैसे बीमार उनकी बहन नहीं वे स्वयं हैं| रन्नी को यह पहला मेजर हार्ट अटैक था.....इतना ज़बरदस्त कि.....| शायद बर्दाश्त की अद्भुत शक्ति है रन्नी के अन्दर| अस्पताल ले जाई जाती रन्नी बस टुकुर-टुकुर भाईजान की तरफ देख रही थी| भाईजान को स्पष्ट महसूस हो गया था कि रन्नी के भीतर जीने की चाहत नहीं रही है| जब तक इन्सान के भीतर जीने की चाहत हो वह रोगों से लड़ता रहता है, और जिस दिन चाहत ख़त्म हो.....तब वह भी ख़त्म हो जाता है|

एकदम सुबह डॉक्टर ने आकर बताया था कि अब मरीज़ की हालत में सुधार है, वे अब देर तक सोयेंगी, इसलिए आप लोग घर जा सकते हैं, हम हैं ही यहाँ| भाईजान ने अपनी लाड़ली बहन को काँच के दरवाज़े से झाँक कर देखा, उन्होंने इत्मीनान की साँस ली और नूरा के पीछे स्कूटर पर बैठकर घर चले गए|

रन्नी की जब आँख खुली तब तक ऑक्सीजन सिलेन्डर उनके पास से हटा दिया गया था| कमरे में कोई नहीं था, दवाईयों की गंध और ठंडक थी| उसका दिमाग एकदम शून्य हो रहा था, साँस फिर तेज़ चलने लगी थी| कल शाम की घटना उसे कतरा-कतरा याद थी|-ब्याह के गाने रुक गए थे| ढोलक रुकी थी और उस बेहोशी के आलम में नूरा ने उसे सबके बीच से उठाया था| एक बार फिर वह अपने ही समक्ष अपराधी बनी खड़ी थी| निक़ाह का जो माहौल था वह तो बिगड़ा न! न भाईजान और न भाभी कोई भी शादी में नहीं शरीक़ हो पाए, हर घटना के बाद वह अपराधी हो उठती है| अब जीने का मक़सद भी क्या रहा.....? ‘लेकिन तुम यूँ मुझे अकेला छोड़कर नहीं जा सकते यूसुफ़’.....वह बुदबुदायी.....आँखों से आँसू ढलके और गालों पर बह चले, थोड़ी-सी आहट से वह चौंक पड़ी| इतनी भी शरीर में शक्ति नहीं थी कि आँसू भी पोंछ सके| सिस्टर अन्दर आई, ब्लड प्रेशर देखा और चार्ट भरने लगी, बोली-“रोता क्यों है, बिल्कुल ठीक हो जाएगा|” फिर कंधे पर हाथ रखकर बोली-“एकदम दुरुस्त.....गॉड को प्रेयर करने का|” वह मुश्किल से मुस्कुरा पाई और पूछा-“बाहर कोई बैठे हैं क्या?”

“नो तुम्हारा ब्रदर बैठा था, कितना तो वरी करता था तुम्हारे लिए, रात भर सोया नहीं| साथ में शायद उसका सन भी था, दोनों रात भर आईज़ क्लोज़ नहीं किया, एकदम जागता रहा| फिर अरली मॉर्निंग डॉक्टर ने दोनों को जाने बोला|” डॉक्टर भी आकर थोड़ी देर में देख गए| डॉक्टर ने कहा-“कम्पलीट बेड रेस्ट करना है आपको| सिस्टर ने उसको स्पंज किया| बेड की चादर, तकिए का गिलाफ बदला, दाँतों में ब्रश कराया और फिर पलंग का सिरहाना ऊँचा करके चली गई| जागते और सोते हुए डेढ़-दो घंटे बीत गए| कभी आँख लगती, कभी खुल जाती| जब आँख खुली तो देखा हाथ में बैग लटकाए भाभी अन्दर आ रही थीं|

“कैसी हो ननद रानी, लो, तुम्हारे लिए मुसम्मी का ताज़ा रस अभी-अभी निकलवा कर ला रही हूँ| लेकिन तुम पहले कॉफी पी लो, दो बिस्किट भी खा सकती हो| बाहर डॉक्टर मिले थे-“इंशा अल्ला, ख़तरा टल गया है, अब तुम ठीक हो|”

वह कठिनाई से मुस्कुराई, कुछ भी खाने से इन्कार में सिर हिलाया पर भाभीजान देख नहीं पाई| वह थर्मस से कॉफी उड़ेलती रहीं| कप में कॉफी डालकर बिस्कुट ज़बरदस्ती मुँह में डाल दिया| बिस्कुट चुभला भी नहीं पाई कि फिर साँस तेज़ चलने लगी|

भाभीजान ने गहरी नज़रों से रन्नी की ओर देखा| मानो शरीर में खून ही न हो|

“कोई ख़बर आई दुबई से?” कठिनाई से तेज़ साँसों के बीच रन्नी ने पूछा|

“न, रात ही तो बीती है रन्नी, आज तो यूसुफ भाई की वालिदा दुबई जायेंगी शायद|” फिर एकदम बात पलटकर बोलीं-“आज सुबह ही फोन आया था शाहजी का, दर्द शुरू हो गए हैं, ताहिरा को अस्पताल ले गए हैं| देखना बेटा ही होगा| बेटा वक्त से पहले ही आ जाता है|”

रन्नी मुस्कुरा दी, कॉफ़ी पीकर आँखें मूँद लीं| भाभीजान की मीठी झिड़की सुनाई पड़ीं-“यूँ किसी के लिए अपने प्राण ताजे नहीं जाते रन्नी बेगम, खुदा जो करता है, सब उसके आस्माँ तले होता है| हम कौन होते हैं दुख और सुख मनाने वाले| तुम ठीक हो जाओ रन्नी, नूरा-शकूरा ताहिरा के घर जाना चाहते हैं| उन्हें भी लगा है कि कब ताहिरा के जचकी हों और कब वे जाएँ|”

“मैं कहाँ कुछ सोच रही हूँ भाभी, सब कुछ तो उस परवर-दिगार पर छोड़ ही दिया है|”

“लेकिन तुम चाहोगी, तभी तो अच्छी होओगी| तुमने तो जैसे कसम ही खा ली है कि अपनी तरफ से हिम्मत रखोगी ही नहीं|” फिर फुसफुसाकर जैसे अपने आप से बोलीं-“ये आपा भी जान की दुश्मन बनी है, न वक्त देखती हैं न तबीयत|” रन्नी ने अंतिम वाक्य सुना| आपा छुपाएँगी भी क्यों? उन्हें क्या पता है कि रन्नी यूँ पोर-पोर आज तक यूसुफ के प्यार में डूबी है| एक ऑपरेशन और.....फिर ज़िन्दगी का फैसला होगा| उधर क्या यूसुफ भी नहीं चाहते जीना,.....रह-रहकर यूसुफ का चेहरा सामने घूम जाता|

भाभी ख़ामोशी से रन्नी का माथा सहलाती रहीं| प्यार और अपनत्व भरे स्पर्श को महसूसते रन्नी रो पड़ी| फिर अटक-अटककर बोली-“भाभी.....यूसुफ का तीसरा ऑपरेशन.....फिर ज़िन्दगी का फैसला.....|”

“खुदा कारसाज़ है रन्नी बी.....इस तरह हौसला-पस्त न हो.....कोई न कोई सबील निकल ही आएगा.....| अब बरसों हो गए रन्नी, क्या तुम्हारी खोज खबर ली यूसुफ भाई ने| और इधर तुम जान देने पर तुली हो, देखो उधर शाहजी की हवेली खुशियों के इंतज़ार में सजी संवरी खड़ी है, और इधर तुम.....!”

रन्नी कैसे बताए भाभी को.....इतने वर्षों में सैंकड़ों बार आपा ने बताया होगा उसे कि यूसुफ भाई की वालिदा के ख़तों में यूसुफ भाई उसका कितना ज़िक्र करते हैं| यहाँ तक बताया यूसुफ भाई की वालिदा ने कि उन्हें नहीं मालूम था कि यूसुफ इतना ज़िद्दी निकलेगा| आपा तो अक्सर अहमद भाई की कोठी में जाती ही रही हैं| और कुछ न कुछ काम करके कमाती ही रही हैं| लेकिन उसने कभी भाभी को यह बात नहीं बताईं|

“न भाभी, ताहिरा को मेरे बारे में मत बताना, वह बर्दाश्त कैसे करेगी|” बोलते हुए हाँफने लगी रन्नी|” डॉक्टर ने कम्पलीट बेड रेस्ट बताया है, तो यह मुसम्मी का रस पी लो, और सो जाओ|”

“नहीं, अभी तो कॉफी पी है, मैं कुछ न लूँगी|”

उसने आँखें बंद कर लीं और जैसे नींद आ गई हो ऐसे सिर टिका लिया|

भाभी उठकर बाहर चली गईं, बाहर शकूरा और उसकी पत्नी सादिया आते दिखे, भाभीजान दोनों को लेकर अस्पताल के बगीचे में जाकर बैठ गईं|

रन्नी की नींद खुली तो देखा कमरे में सभी मौजूद हैं, नूरा, शकूरा, भाईजान, भाभी और सादिया| रन्नी मुस्कुराई| भाईजान ने उसके माथे पर हाथ रखा, कुछ बोले नहीं| मानो दुनिया जहान की ख़ामोशी और उदासी उनके भीतर पैबिस्त हो गई थी|

भाईजान अपने आपको गुनाहगार क्यों महसूस करते हैं? रन्नी सोचने लगी| ताहिरा सुखी तो है| फिर क़िस्मत से बड़ा कुछ नहीं होता| उसकी किस्मत में कुछ भी तो नहीं था इसलिए कुछ नहीं मिला, फिर गुनाहगार भाईजान कैसे?

“छुटकी का निक़ाह ठीक-ठाक निपट गया न?” रन्नी ने पूछा|

“हाँ! बहुत अच्छे से, जमीला तो बच्चों के साथ वहीँ थी|”

भाईजान कमरे में एक ओर कुर्सी पर बैठ गए| भाभी ने थर्मस से मुसम्मी का जूस निकाला, ग्लूकोज़ मिलाया और ज़बरदस्ती रन्नी को पिलाने लगीं| रन्नी की आँखें भर आईं| दोनों ने एक दूसरे को देखा, पीड़ा समझी और फिर भाभी की आँखें भी भर आईं|

घंटे भर तक सभी बैठे रहे| भाभी छुटकी की शादी की बातें बताती रहीं| जो जमीला ने बताई होंगी| फिर ताहिरा की बातें चलती रहीं| रन्नी से अधिक बोला नहीं गया| “तुम दोनों घर चले जाओ अब” रन्नी ने शकूरा और उसकी पत्नी से कहा-“नूरा, तुम भी भाईजान को लेकर जाओ, उन्हें आराम करना चाहिए, मैं अब ठीक हूँ|” भाईजान ने भर नज़र अपनी बहन को देखा मानो कह रहे हों कि ‘क्यों झूठ बोलती हो रन्नी, तुम्हें क्या मैं जानता समझता नहीं, सदैव तुमने अपने दुःख दर्द हमसे छिपाए|’

रन्नी ने नज़रें नीचे कर लीं| मानो सब कुछ समझ गई हो कि भाईजान कहना क्या चाहते हैं|

लेकिन वे गए नहीं, नूरा, शकूरा और उसकी पत्नी चले गए| भाभीजान कुर्सी पर ही सो गईं| भाईजान दूसरे पलंग पर सो गए|

रात को नूरा मुसम्मी का रस, कॉफी, एक पतली-सी रोटी और लौकी की बगैर मिर्च मसाले की सब्ज़ी फूफी के लिए और अपनी अम्मी, अब्बू के लिए टिफिन में खाना लेकर आया| उस दिन शकूरा अपने परिवार के साथ घर पर ही रुका| उधर ताहिरा फिर अस्पताल में भर्ती थी, हवेली से शाहजी फोन पर हाल-चाल बता रहे थे, और इधर फूफी की चिन्ता| वे लोग इसीलिए नूरा के पास रुके थे कि कब कौन-सी ज़रुरत आ पड़े|

रन्नी ने कुछ नहीं खाया| कॉफ़ी भी जबरदस्ती भाभी ने पिलाई| भाईजान ने भाभी को घर भेज दिया| स्वयं खाना खाकर पलंग पर लेट गए| भाभी का बिलकुल सुबह आना तय हुआ| यूँ अस्पताल में किसी का रुकना अनिवार्य नहीं था, परन्तु अकेले छोड़ने का भाईजान, भाभी किसी का भी मन गवारा नहीं कर रहा था|

“आज तीसरे ताहिरा को घर वापिस भेज दिया गया था| डॉक्टर ने कहा है कि नॉर्मल जचकी की राह देखेंगे, जब सब कुछ नॉर्मल है, और दर्द ठीक से नहीं आ रहे हैं, तो थोड़ा वक्त और इंतज़ार किया जा सकता है|” भाभी आकर बता रही थीं|

रन्नी चिन्तित हो उठी, भाभी बोलीं-“कभी-कभी ऐसा होता है, चिन्ता की कोई बात नहीं|”

रन्नी की हालत में कुछ भी सुधार नहीं हुआ| डॉक्टर कहते हैं, मरीज़ को खुद भी हिम्मत रखनी चाहिए| मरीज़ हिम्मत हारेंगे, तो हम कैसे इलाज करेंगे, लेकिन भाईजान समझते हैं कि रन्नी के अन्दर जीने की चाहत शेष नहीं है, वरना जितनी हिम्मत रन्नी के अन्दर है, उतनी किसी के अन्दर हो ही नहीं सकती| रन्नी लगातार सोचती रही, अब हवेली में उसकी ज़रुरत नहीं| भाईजान के फलते-फूलते खानदान में उसके लिए इंच भर जगह नहीं| कहीं कोई छत खुदा ने उसके लिए बनाई ही नहीं| सारे फर्ज़ ख़तम हो रहे हैं उधर यूसुफ़ ज़िन्दगी की अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं| किसके लिए जिए वह? जब भी अकेली होती.....आँखें भरी होतीं| लगता मन भर का पत्थर दिल पर रखा है| कभी उस बोझ से हाँफने लगती| कभी शाहबाज़ सामने आते, शायद हाँ! हो सकता था यदि हवेली के लोग उसके साथ ज़बरदस्ती करते तो वह निर्णय ले भी लेती.....यूसुफ की याद दिल में रखे| लेकिन वह शहनाज़ बेगम का रुख़ जान गई थी| छि:, मेहरबानी के गस्से तो उससे कभी चबाए नहीं गए.....और फिर इस उम्र में| उसने कभी किसी के रहमो-करम पर जीना सीखा नहीं, हमेशा खुद्दारी की ज़िन्दगी जी है| और अब, जब सारे मक़सद ख़तम हो चुके हैं.....ज़िन्दगी का फ़ायदा? गुनाह भी हुए उससे, लेकिन उन गुनाहों के पीछे कहीं कोई मक़सद भी रहा.....सोचते-सोचते आँख लग गई| रात फिर अचानक सीने में दर्द उठा, वह चिल्ला उठी, भाईजान, फिर उसे कुछ याद नहीं| नीम बेहोशी में देखा कि डॉक्टर, नर्स खड़े हैं, पाँवों के पास भाईजान खड़े हैं| घड़ी की टिक-टिक थी अथवा दिल के धड़कनों की टिक-टिक, वह समझ नहीं पाई| पसीने से बाल भीगे थे, डॉक्टर कह रहे थे माइल्ड अटैक है|

हाँ! उसने सुना था, डॉक्टर कह रहे थे भाईजान से कि मरीज़ को कोई गहरा सदमा लगा है| यदि कोई देश के बाहर हो तो बुलवा लें| भाईजान बाहर चले गए थे| रिसेप्शन से उन्होंने घर फोन किया और कहा कि नूरा या शकूरा अपनी अम्मी को अभी अस्पताल छोड़ जाएँ|

रात को तकरीबन तीन-साढ़े तीन बजे का वक्त था, रन्नी ने आँखें खोलीं, देखा, भाभी कुर्सी पर बैठी थीं| भाईजान को नज़रों ने ढूँढा परन्तु वे दिखे नहीं| होंठ पपड़ा गए थे, प्यास लगी थी| उसे महसूस हुआ बाहर तेज़ आँधी उर बारिश है| बिजली रह-रहकर चमक रही है| अम्मी को खाँसी का दौरा पड़ा है| कहाँ हो भाईजान तुम.....इतनी बारिश में दवा कैसे लाऊँ.....रन्नी चीखी.....भाईऽऽऽ जान.....अम्मी.....उसी समय पेड़ की शाख टूटी, चरमराकर नीचे गिरी और अम्मी ने दम तोड़ा.....वह बिलख रही थी.....भाई जान.....अम्मी| भाईजान ने ममत्व भरा हाथ उन पर रखा.....बूढ़ी थकी आँखों ने जान लिया कि रन्नी उनकी बहन.....अब बस.....वह फिर आँखें बंद कर लेती हैं|

भाभी धीमे से एक चम्मच मुसम्मी का रस मुँह में डालती हैं| वह इंकार में सिर हिलाती है और आँखें मूँदे करवट बदल लेती है| भाभी, भाईजान थके-हारे से कमरे से बाहर हो लेते हैं| काली चट्टानें उसके पास से सरक रही हैं.....वह सूरज का गोला पकड़ने दौड़ रही है| गुलमोहर के पेड़ के नीचे वह खड़ी है, और उसके लाल फूल टपक रहे हैं| हालाँकि छाया अच्छी है और धूप ने पत्तियों और टहनियों से चू कर सड़क के इस किनारे अच्छी जाली काढ़ दी है| भाईजान, इस साल गर्मी बला की पड़ेगी देखना, वह बुदबुदा उठती है| सामने आमों की अमराई है| उसकी चुनरी अटक गई है और एक दिव्य पुरुष ने उसकी चुनरी शाख से उतारकर दे दी है| कौन है वह दिव्य पुरुष, यूसुफ, आम में बौर आ गई है| उसने गहरी साँस ली| धौंकनी जितनी तेज़ चलेगी भट्टी उतनी ही धधकेगी.....वह वह हाँफने लगी| भाई जान भागकर अंदर आए.....”क्या हुआ रन्नी?”

“भाई जान.....देखो, आँधी में कितने आम गिरे हैं, बटोर लाऊँ” वह कहती है|

भाभी की ऑंखें डबडबा आईं| उन्होंने माथे पर हाथ रखा और निरुपाय-सी खड़ी हो गईं| डॉक्टर कहते हैं.....अक्सर ऐसा होता है.....कोई पुरानी घटना बहुत हांट करती है|.....भाभी अपने शौहर से लाख छुपाएँ लेकिन क्या भाईजान नहीं जानते कि यूसुफ की बीमारी और उसका मौत की तरफ बढ़ना रन्नी नहीं जानती.....क्या उसके हार्ट अटैक की वजह यूसुफ नहीं है? वे अपनी पत्नी के कंधों पर हाथ रखे उन्हें बाहर ले आए| बाहर नूरा चाय का थर्मस लिए खड़ा था.....भाईजान कुछ नहीं कहते.....लेकिन मन में लगातार संशय है|

“भाभी, जानती हो शाहबाज़ खान मुझसे निक़ाह करना चाहते थे|” अपनी टूटती आवाज़ में रन्नी ने कहा, भाभी चौंक पड़ीं.....हाथ का दबाव सिर पर बढ़ गया, “लेकिन मैं यूसुफ को कभी भुला नहीं पाई.....भाभी, सिर्फ़ मेरे ‘हाँ’ की देर थी और सुख मेरे आँचल में भर जाते| लेकिन यूसुफ, मैंने तो उन्हें हर वक़्त, हर क्षण चाहा है, उनसे अलग तो मैंने कभी कुछ सोचा नहीं| और भाभी मैं तो ताहिरा का घर-संसार बसाने गई थी.....अपना भविष्य सँवारने नहीं|” भाभी ने अपनी ननद को हैरत से निहारा| यूँ तो शाहबाज़ की बातें कई बार ताहिरा और रन्नी ने बताई थीं परन्तु यह तो एकदम नई बात थी| कितना दुःख सहेगी यह औरत.....भाभी जान ने सोचा| किसी को कभी शायद इल्म भी नहीं होगा कि इसके सीने में कितने समुद्र हाहाकार कर रहे हैं| सदा दूसरों के लिए जीने वाली इस औरत को कोई जान सकेगा कि इसे भी कभी घर बसाने की इच्छा हुई होगी, कि इसके सीने में भी अरमान होंगे| कि इसने भी यूसुफ़ के रूप में एक ऐसे पुरुष की कल्पना की थी जो उसका सम्पूर्ण होगा, उसके सुख-दुःख का साथी| कैसे इसके अरमान कुचले| स्वयं यूसुफ ही गुनाहगार है? और अहमद भाई? उन्हें क्या मिला.....क्या वे यूसुफ का दुबारा घर बसा पाए?

“हाँ! भाभी, कुछ सेकेन्डों को यह अहसास मेरे ज़ेहन में आया था कि मुझे भी एक छत मिलती..... जिसके नीचे मैं रहती.....जो निहायत अपनी होती| लेकिन यह अहसास उसी क्षण का था फिर यूसुफ का चेहरा सामने था, बस इतना ही भाभी.....इतना ही” कहते हुए रन्नी हाँफने लगी| “दो बिस्किट खा लो रन्नी और कॉफी पी लो, फिर आराम से सोना| बस कुछ सोचो मत|”

रन्नी ने ‘नहीं’ में सिर हिलाया और आँखें मूँद लीं| दस मिनिट बाद वह फिर हाँफने लगी| भाभीजान समझ रही थीं उस अहसास को जो रन्नी को भीतर-भीतर से खोखला कर रहा था|.....शायद ज़िन्दगी में पहली बार रन्नी ने इस ढंग से कहा होगा.....”निहायत अपनी छत.....” ज़बरदस्ती उठाकर भाभी ने रन्नी को कॉफ़ी पिलाई और दो बिस्किट खिलाए, थोड़ी देर वह पलंग से टिकी सोती रही फिर नीचे खिसक कर गहरी नींद में सो गई|

गुलमोहर के मुरझाए लाल फूल पड़े हैं| उसकी आँखों में नीली, सुनहली आकृतियाँ नाच रही हैं| कोई उसे.....माँ कहकर पुकार रहा है| उसके सामने काली चट्टानें हैं, और ढेर सारे झाड़| झाड़ों के परे दूर पहाड़ों की रेखा उसे बहुत भली लग रही है| कहाँ है उसका चेहरा? वह उसका चेहरा क्यों नहीं देख पा रही है, शायद देख भी नहीं पाएगी.....| बस उसे लग रहा है कि अट्ठारह वर्ष का खूबसूरत नौजवान लड़का उसके पास स्टूल पर बैठा है.....| वह उसके साथ खड़ी होकर सूर्यास्त देख रही है| विशाल झील के किनारे का सूर्यास्त.....‘गड़प’ से सूरज झील में डूबता है और अंधकार छा जाता है.....| काली चट्टानें हाथ बढ़ाती हैं और उस खूबसूरत लड़के को पकड़कर निगलना चाहती हैं.....| एक काली भयानक औरत, काले तसले में उसके बेटे के टुकड़े का अंश लिए खड़ी है.....और हँस रही है| उसके पीले दाँत उसे डरा रहे हैं| वह चीख उठी “भाईजान, देखो तो.....|” भाभी भागकर अन्दर आईं| क्या हुआ रन्नी? क्या कोई खौफ़नाक ख्वाब देखा?”

वह आँखें खोल देती है.....”खौफ़नाक भी था भाभी, खूबसूरत भी.....| बेटा देखा मैंने अपना.....और फिर उन काली चट्टानों ने मेरे बेटे को ऐसा निगला कि.....| क्या तुमने देखा था भाभी?”

“कुछ न सोचो मेरी प्यारी ननद रानी, वह सचमुच एक खौफ़नाक ख्वाब था जिसे बीते बरसों गुज़र गए|”

“कल रात ही ख़बर आई है, अब ताहिरा को दर्द आ रहे हैं|”

पीड़ा में भी मुस्कुरा उठी रन्नी.....“देखना बेटा होगा.....मैं रहूँ न रहूँ.....तुम अच्छी-अच्छी सौगातें भिजवाना उन्हें| और हाँ, भाभी, यह मेरी ऊँगली की हीरे की अँगूठी ताहिरा के बेटे को दे देना, मेरी तरफ से.....”

“तुम खुद दे देना रन्नी बी, अपने हाथों से, जब ताहिरा अपनी औलाद को यहाँ लेकर आएगी| तब.....हम बड़ा जश्न मनाएँगे.....”

वह मुस्कुरा उठी-“भाभीजान, मेरे पास वक्त कहाँ है? बस ये चंद घंटे|”

भाभी ने उसे उठाकर पलंग से टिकाकर बिठा दिया| वह घूँट-घूँट कॉफी पीने लगी|

“मैंने तुम्हारे भाईजान को घर भेज दिया है, सोने के लिए.....सारी रात वे जागे हैं|”

रन्नी उनकी तरफ चुपचाप देखती रही| कुछ कहना चाहा पर चुप रही|

“ऊटपटांग मत सोचा करो रन्नी| चाहत जगाओ अपने में| अच्छी होकर घर चलो, देखती नहीं अपने भाईजान की हालत, उनके प्राण तुम्हीं में अटके हैं| वे टूट रहे हैं रन्नी|” भाभीजान फफककर रो पड़ीं| रन्नी ने उनका हाथ दबाया, कुछ कहा नहीं पीड़ा से मुँह मलिन हो गया|

दोपहर को नूरा अपनी पत्नी के साथ टिफिन लेकर आया, फूफी को उठाकर उसकी पत्नी ने दाल में डुबोकर रोटी का ऊपर का पतला हिस्सा खिलाया| फिर मुसम्मी का जूस पिलाकर लिटा दिया, रन्नी सोई नहीं.....लगातार ताहिरा सामने आती रही|

“फोन किया था, ताहिरा का क्या हाल है?” उसने नूरा से पूछा|

“हाँ! शाहजी ने बताया था कि ग्लूकोज चढ़ाया जा रहा है| शायद, ऑपरेशन से डिलीवरी होगी, ऐसा डॉक्टर ने कहा है|”

“शाम को फिर फोन करना|” रन्नी ने कहा|

“फूफी दोनों तरफ से लगातार फोन किए जा रहे हैं, आप फिकर न करें|”

उसने फिर आँखें बंद कर लीं| नींद का नामोनिशान नहीं था| शायद सारी रात और दूसरे दिन देर तक सो ली थी इसीलिए वह ताहिरा की सेहत के लिए दुआ करने लगी| सुबह, बिलकुल सुबह, यूसुफ उसके सामने आकर खड़े हो गए थे| नहीं, वह ग़लत हो ही नहीं सकती, जानती है कि यूसुफ उसे लगातार याद कर रहे हैं| आँखें खोलकर देखा था उसने.....और फिर वह रो भी नहीं सकी.....फटी आँखों से देखती रही.....यूसुफ ही थे, भ्रम नहीं था उसका| और वह थी अंतिम बिदाई.....आँखें बंद की थीं उसने और फिर साँस तेज़ चलने लगी थी| कितना रो सकती है आखिर वह.....यही तो देखना चाहती थीं न आँखें| सिस्टर ने आकर शायद उसे फिर नींद का ही इंजेक्शन दिया था, वह देर तक सोती रही थी|

शाम को आपा सज्जो के साथ आईं| रन्नी ने आँखें बंद कीं और फिर खोली तो आँसुओं से भरी थीं, यही देखने आईं हैं न आपा.....कि रन्नी जीवित है?

भाभी ने कहा-“अच्छी आई तुम, अब थोड़ा बैठो रन्नी बी के पास, मैं घर देख सुन आऊँ, तुम्हारे भाईजान के साथ वापिस आऊँगी, नहा भी लेती तो अच्छा लगता|” कहते हुए भाभी जाने लगीं, नूरा और जमीला अपनी अम्मी के साथ घर चले गए|

रन्नी ने आपा की ओर देखा| आँखें लाल थीं उसकी.....फिर भी चेहरे पर एक दुःखभरी मुस्कान| मानो बुझते दिये की लौ कुछ हवा पा जाए यूँ.....|

“यूसुफ नहीं रहे न आपा?”

आपा आश्चर्य से उसकी ओर ताकने लगीं, .....”आज सुबह, पाँच बजे के लगभग.....है न.....” आपा उसे ताकती ही रह गईं, मानो तुम्हें कैसे पता चला ऐसे ताकती रह गईं.....क्या कहें.....रेहाना बेगम जो अपने आप सब कुछ जान चुकी हैं, उनसे कैसा छिपाना?

आपा ने स्वीकृति में सिर हिलाया, “ख़बर आ गई है.....सुबह का ही समय बताया था, वही समय रहा होगा|”

रन्नी बिलख उठी.....| इतनी तेज़ रुलाई कि सज्जो भाग कर आ गई.....| वह पसीने से तरबतर..... “वे मुझसे मिलने आए थे आपा.....एकदम सुबह|” .....रन्नी चीख उठी, आपा फिर हैरत से रेहाना को देखती रहीं| हृदय की भट्टी तेज़ धधक उठी.....सारे कोयले चुक गए थे.....| डॉक्टर भागे.....दूसरा मेजर हार्ट अटैक आ गया| .....रन्नी बुदबुदाई.....| “पॉट..... पॉट.....” सिस्टर पॉट लेकर दौड़ी.....सज्जो भागी फोन करने..... सामने शकूरा और सादिया आते दिखे| सज्जो रोने लगी....भाईजान फूफी की हालत गम्भीर है, घर फोन करो| शकूरा फोन करने दौड़ा और उसकी पत्नी फूफी की ओर| डॉक्टर ने दरवाजा बंद कर लिया, बाहर आपा, सज्जो और शकूरा तथा सादिया खड़े थे, आधे घंटे में भाईजान और भाभी आ पहुँचे, आपा भाभी के कंधों पर सिर रखकर रो पड़ीं|

“खुदा गवाह है नूरा की अम्मी.....मैंने कुछ नहीं बताया, वे खुद बोलीं कि यूसुफ नहीं रहे.....वे अल-सुबह उनसे मिलने आए थे.....और मैं सब कुछ सुनते हुए भुच्च बनी बैठी रह गई|” भाभी ने आपा के कंधे थपथपा दिए, कोई भी दिलासा व्यर्थ था| रन्नी जीना ही नहीं चाहती थीं| ये उनसे छुपा नहीं रह गया था|

करीब दो घंटे के अथक प्रयास और हार्ट को बिजली के करंट से पुनः वर्किंग में वापिस लाकर वे रेहाना बेगम को मौत से बचा पाए|

डॉक्टर बाहर आए| कहा-“मरीज़ को की ज़बरदस्त सदमा लगा है, यदि तीसरा हार्ट अटैक इतनी जल्दी आ गया जैसे अटैक आ रहे हैं, उसको देखते हुए तो हमारे लिए मुश्किल होगा.....| कोई एक दो जने रुक जाएँ, बाकी घर चले जाएँ|.....वे अब काफी देर सोएँगी|”

भाईजान जाने के लिए तैयार नहीं हुए, भाभी भी रुकीं| बाकी सभी चले गए| रात दस बजे वह जागी| भाईजान ने आकर उसके बालों में हाथ फेरा, उसने भर नज़र भाईजान को देखा फिर आँखें मूँद लीं| भाभी ने कॉफी देने का डॉक्टर से पूछ लिया था लेकिन उसने मना कर दिया, भाभी का हाथ कसकर थामे रही फिर छोड़ दिया|

वह जाग रही थी| कमरे में आरामकुर्सी पर टिके भाईजान बैठे थे| भाभी भी वहीँ थकी-सी बैठी थीं| रन्नी को हलका-हलका दर्द फिर महसूस हो रहा था| बाँया हाथ भी दुख रहा था.....सिर भी भारी था| लेकिन वह कुछ बोली नहीं, आँखें बंद किए लेटी रही.....

कौन है? क्या है? सामने क्षितिज का विस्तार है| उसने तय कर लिया है कि अभी अगर सूरज कहीं नज़र आ गया तो इतनी सारी सुनहली रोशनी अपनी आँखों में भर लेगी कि बाक़ी के सफ़र में अँधेरों का सामना न करना पड़े|.....तो तुम चल दिए यूसुफ, अपनी रेहाना को यूँ रोता बिलखता छोड़कर.....

बाहर चिलबिल के पेड़ के नीचे खटिया पड़ी है जिस पर वह लेटी है.....दूर आकाश में एक अकेली चील- अपने पंख पसारे तैर रही है| वह सूरज को ढूँढकर अपनी आँखों में सुनहली आभा भर लेना चाहती है.....उसे चील का इस तरह तैरते देखना बड़ा अच्छा लगता था.....अम्मी उसे यूँ देखते देखकर कहती थीं-‘तुझे उड़ने की बड़ी तमन्ना है न रन्नी, देखना तू खूब ऊँची उठेगी| तू.....स्कूल की प्रिन्सिपल बनेगी|’ लेकिन वह पढ़ नहीं पाई.....| समय के आगे छली जाती रही.....| अम्मी असहाय हो उठीं.....| अम्मी मैं उड़ना चाहती हूँ.....| लेकिन वह चील भी नहीं है अब कहीं.....आकाश बिल्कुल वीरान पड़ा है.....तारे चाँद कुछ भी तो नहीं.....सूरज को पकड़ने की तमन्ना कब की दफ़न हो चुकी| कितनी निर्दय रात है यह.....अम्मी ने कितना चाहा कि उसका घर पुनः बसे.....उनमें अंतिम साँस तक कितनी हसरत बाकी थीं|

एक अनंत शून्य में वह कैद होती जा रही थी| हाथों की उँगलियों के पोर-पोर जलने लगे, इच्छा हुई कि ठंडे पानी में हाथ डुबो दे, और फिर देखे कि क्या मन ठंडक और जलन दोनों का एक साथ अहसास कर सकेगा.....| डर भी लगा कि अगर उँगलियाँ डुबोते ही सारा पानी भाफ बनकर उड़ गया तो? अचानक ढेर-सी आम के बौर की ख़ुशबू आ रही है| मिट्ठन डंडा लेकर तोते उड़ा रहा है| यूसुफ ने उसके रेशमी बालों में मोगरे के फूल टाँक दिए हैं और उसने शरमाकर अपनी काली-कजरारी आँखें धीमे-धीमे युसूफ के सीने पर टिका दी हैं| आम के बौर की सारी खुशबू उसके मन-प्राणों में भर गई है| यूसुफ ने उसे लिपटा लिया है| डूबते सूरज की सुनहली आभा से उसके रेशम से बाल और सुनहले चमक रहे हैं|

कितना खुशगवार लगता है यदि सफर में मनचाहा साथी साथ हो| महज चलते भर जाना और मंज़िल की आशा रखना.....| आशा भी कितनी प्यारी चीज़ है.....| अब्बू कहते थे कि पेंडोरा ने जब अपने महबूब के ज़िद करने पर देवदूत की चेतावनी भुलाकर वह काला रहस्यमय संदूक खोल डाला था और दुनिया के तमाम दुःख दर्द उसमें से बाहर रेंग आए थे तब एकाएक बूढ़ी हो आई पेंडोरा और उसके महबूब ने उस संदूक में निराश निगाहों से झाँका था, दुनिया के सारे दुःखदर्द के नीचे संदूक के तल पर एक बेहद खूबसूरत चीज़ भी थी वह ‘आशा’ थी| पेंडोरा और उसका महबूब अपने-अपने नए बुढ़ापे के दर्दनाक अनुभव के बावजूद भी आशा का सौम्य मुस्कुराता चेहरा देखकर आनन्द से विभोर हो उठे थे| भूल गए थे कि दुःख दर्द कैसे रेंगे थे|

उसकी आशा भी आशा की तरह सौम्य और खूबसूरत थी| अक्सर भ्रम होता था कि चाँदनी में घुलकर वह खुद चाँदनी बन जाए| नहीं वह चाँदनी कहाँ बनी? वह तो अमावस्या का अँधेरा बन गई| यूसुफ की बाँहों में भरकर जब ज़िन्दगी जीना चाहती तो उन्हें मिला बियाबान काला अँधेरा.....काले अँधेरे के पार डूबता सूरज.....सूरज ‘गड़प’ से डूब गया| यह पहली बार हुआ कि उन्होंने सूरज को झील में पूरा डूबते देखा| चारों तरफ स्याह अंधकार फैल चुका था| सारी झील अपनी विशाल लहरों समेत फैल गई थी| वह झील के किनारे खड़ी थी और लहरों ने उसे कमर तक घेर लिया था| झील में समुद्र जैसी लहरें उठ रही थीं| वह झील की दूरी आँखों से नाप रही थी और रह-रहकर किनारे पर देख रही थी, जहाँ उन्होंने बहुत बड़ा रेत का एक किला बनाया था.....| किला नहीं, घर.....| और जो अधूरा था| वह साँस रोके उन इठलाती लहरों के झील में वापिस मिल जाने की राह देख रही थी, ताकि किनारे पर बह आए उस खजाने को बटोरकर अपना बालू का गहर सजा सके| अम्मी भी वहाँ खड़ी थीं.....| फिर अम्मी गायब हो गईं.....सिर्फ़ यूसुफ खड़े थे और उसे ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ दे रहे थे| उसने उस अधबने घर की ओर देखा जहाँ एक लड़की घुटने के बल बैठी उसे देख रही थी| वह लड़की को पहचानने की कोशिश करने लगी| लड़की के हाथ में थे रेत से निकाली शंख, सीपियाँ और चमकीले पत्थर.....| उसकी आँखें सफेद सीप-सी थीं और भूरे रेशमी बाल.....| छींट की फ्रॉक पर भूरे बाल बिखरे हुए थे| बारिश तेज़ आई थी और बालू का घर ढह गया था.....| लड़की बिलख पड़ी थी.....| झील का पानी बढ़ता जा रहा था और उसके कमरे की दीवार से टकराकर सिर धुन रहा था| ऐसा लगा उसे कि झील की लहरें अपना सारा खज़ाना उससे वापिस माँग रही हैं| वे बारीक शंख, सीपियाँ..... जो उस लड़की ने रेत से बटोरे थे| वह सब शंख, सीपियाँ और रंगीन चमकीले पत्थर, वह सब वापिस लेने आया था.....| लड़की सब कुछ छिन जाने के दुःख से बिलखने लगी| बारिश थम गई थी, झील का पानी वापिस लौट गया और जब उसने सुबह उस जगह जाकर अपना घर तलाशा तो वहाँ रेत के निशां भी बाक़ी नहीं थे.....| वह छींट की फ्रॉक वाली लड़की भी नहीं थी, .....कोई नहीं था.....| दर्द की टीस से उसने करवट बदली|

“भाभी क्या बाहर बारिश हो रही है?”

“नहीं तो, आसमान साफ है, बारिश के तो दिन भी नहीं हैं, कैसा धुला आसमान दिख रहा है.....बस तारे चमक रहे हैं|”

“लेकिन मैंने तो अभी काला स्याह आसमान देखा|”

“सो जाओ रन्नी बी.....तुम्हें आराम की ज़रुरत है|”

एक-डेढ़ घंटे वह सोई, रात फिर बेचैनी ने घेरा.....तेज़ दर्द हुआ सीने में और फिर डॉक्टर्स की भागम भाग.....|

शकूरा दौड़ता हुआ आया था| उसके चेहरे से ख़ुशी टपक रही थी|

“अम्मी फोन आया है| ताहिरा को बेटा हुआ है| सिज़ेरियन डिलीवरी करनी पड़ी, दोनों एकदम ठीक हैं| शाहजी ने बताया कि हवेली दुल्हन की तरह सजायी है.....शैम्पेन खुली है.....वह और नूरा भी आ जाएँ|”

भाभी ने दोनों हाथ इबादत में उठाए| हृदय से बच्चे को आशीर्वाद दिया.....उधर डॉक्टर ने आकर कहा कि मरीज़ की हालत सीरियस होती जा रही है|

शकूरा का चेहरा उतर गया| उसने तो सोचा था कि यदि फूफी अच्छी होंगी तो वह और नूरा ताहिरा के पास जायेंगे.....लेकिन फूफी तो और सीरियस हो गईं|

रात डेढ़ बजे तक रन्नी सोती रही| बीच-बीच में जागी भी तो लगा जैसे सारा शरीर शून्य हो चुका है| कहीं कुछ बाकी नहीं बचा है| छींट की फ्रॉक वाली लड़की फिर नज़रों के सामने तैर गई| मासूम बच्ची..... जिसने एक घर चाहा था.....अपना घर.....फिर बच्चा और तुम्हें यूसुफ.....| अजीब-सा लग रहा था उसे.....फिर लगा वह तो अपनी उमर भी नहीं जी पाई.....| वह तो बस कर्त्तव्य पालन ही करती रही| सबको सुखी देखना चाहा.....| मौत के ख़्याल ने उसके अन्दर ऐसी चाहत जगाई कि उसने मुस्कुराकर आँखें खोल दीं.....| अब उसे अंधकार से कोई डर नहीं लग रहा था.....| अट्ठारह बरसों में पहली बार सूरज डूबा था.....और उसके चारों तरफ अंधकार फैला था| नहीं अब कहीं कुछ नहीं रह गया है.....कहीं भी, किसी भी अधिकार से उसके जीने का मतलब क्या है? अपनी चवालीस मील लम्बी ज़िन्दगी की वह समीक्षा कर रही थी| उसे जागते देख सिस्टर ने भाभी को अन्दर भेजा|

भाभी अन्दर आईं और मुस्कुरा पड़ीं-“अब तुम ठीक हो जाओगी ननद रानी.....गोद में खिलाओगी..... नाती को.....ताहिरा के बेटा हुआ है| हवेली में जश्न हो रहा है.....|” वह मुस्कुरा पड़ी, दोनों हाथ उठाए इबादत में.....मेरे खुदा| मानो वे इसी ख़बर को सुनने के लिए रुकी हुई थी| मेरे परवरदिगार, मेरी रुखसत की घड़ी है, यदि ये गुनाह था तो इसकी सज़ा मुझे ही देना, मेरी लाड़ली बच्ची ताहिरा को नहीं| मुझे मुआफ़ करना, मैंने तो महज़ अपना फर्ज़ निभाया है.....| उसे ज़ोरों की ठसकी लगी| मानो साँस की नली में कुछ अटका हो.....आँखें फटी रह गईं और भाभीजान की गोदी में उनकी लाड़ली ननद का सफेद हीरे की अँगूठी वाला बेजान हाथ आ गिरा.....|