Roos Ke Patra - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

रूस के पत्र - 6

रूस के पत्र

रवींद्रनाथ टैगोर

अध्याय - 6

 

बर्लिन, जर्मनी

रूस घूम आया, अब अमेरिका की ओर जा रहा हूँ, इतने में तुम्हारी चिट्ठी मिली। रूस गया था, उनकी शिक्षा पद्धति देखने के लिए। देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ। आठ ही वर्ष के अंदर शिक्षा के जोर से लोगों के मन का चेहरा बदल गया है। जो मूक थे उन्हें भाषा मिल गई है, जो मूढ़ थे, उनके मन पर से पर्दा हट गया है, जो दुर्बल थे, उनमें आत्मशक्ति जाग्रत हो गई है, जो अपमान के नीचे दबे हुए थे, आज वे समाज की अंध कोठरी में से निकल कर सबके साथ समान आसन के अधिकारी हो गए हैं। इतने ज्यादा आदमियों का इतनी तेजी से ऐसा भावांतर हो जाएगा, इस बात की कल्पना करना कठिन है। जमाने से सूखी पड़ी हुई नदी में शिक्षा की बाढ़ आई है, देख कर मन पुलकित हो जाता है। देश में इस छोर से ले कर उस छोर तक सर्वत्र जाग्रति है। इनकी एक नई आशा की वीथिका मानो दिगंत पार हो गई है, जीवन का वेग सर्वत्र पूरी मात्रा में मौजूद है। ये तीन चीजों को ले कर अत्यन्त व्यस्त है -- शिक्षा, कृषि और यंत्र। इन तीन रास्तों से संपूर्ण संपूर्ण जातियों को एक-कर हृदय, अन्न और कर्मशक्ति को संपूर्णता देने के लिए ये तपस्या कर रहे हैं। हमारे देश की तरह यहाँ के लोग भी कृषिजीवी हैं। परंतु हमारे यहाँ की कृषि एक ओर से मूढ़ है और दूसरी ओर से असमर्थ -- शिक्षा और शक्ति दोनों ही से वंचित। उसका एकमात्र क्षीण आश्रय है प्रथा -- बाप-दादों के जमाने के नौकर की तरह वह काम करती है कम और कर्तव्य करती है ज्यादा। जो उसे मान कर चलेगा, वह आगे बढ़ ही नहीं सकता। और आगे-आगे बढ़ना ही है, क्योंकि सैकड़ों वर्षों से वह लँगड़ाता हुआ चल रहा है।

शायद हमारे देश में किसी समय गोवर्धनधारी कृष्ण ही थे कृषि के देवता, ग्वालों के घर उनका विहार होता था, उनके भाई थे बलराम, हलधर। वह हल अस्त्र ही मनुष्य के यंत्र बल का प्रतिनिधि है। यंत्र ने कृषि को बल दिया है। आज हमारे कृषि क्षेत्रों में कहीं भी बलराम के दर्शन नहीं होते; वे लज्जित हैं, जिस देश में उनके अस्त्र में तेज है, वे वहीं - सागर-पार -- चले गए हैं। रूस की कृषि ने बलराम को बुलाया है, देखते-देखते वहाँ केदारखंड अखंड होते जा रहे हैं, उनके नवीन हलके स्पर्श से अहल्या भूमि में प्राणों का संचार हो गया है।

एक बात हमें याद रखनी चाहिए, वह यह कि राम का ही हलयंत्र-धारी रूप है बलराम।

सन 1916 में यहाँ जो क्रांति हुई थी, उसके पहले इस देश में फी-सदी निन्नानबे किसानों ने आधुनिक हल यंत्र आँखों से देखा भी नहीं था। वे तब हिंदुस्तानी किसानों की तरह एकदम कमजोर-दुर्बल राम थे, भूखे थे, निःसहाय थे, मूक थे। आज देखते-देखते इनके खेतों में हजारों की संख्या में हलयंत्र काम कर रहे हैं। पहले ये लोग थे बेचारे गरीब, आज ये हैं बलराम।

केवल यंत्रों से ही काम नहीं चल सकता, यंत्री (संचालक) यदि मनुष्य न हुए। इनके खेत की कृषि मन की कृषि के साथ ही साथ बढ़ती जा रही है। यहाँ शिक्षा का काम और उसकी पद्धति सजीव है। मैं बराबर कहता आया हूँ कि शिक्षा को जीवन यात्रा के साथ ही साथ चलाना चाहिए। उससे अलग कर लेने से वह भंडार की चीज बनी रहती है, खा कर पेट भरने की चीज नहीं बनती।

यहाँ आ कर देखा कि इन लोगों ने शिक्षा में प्राण भर दिए हैं। इसका कारण यह है कि इन्होंने घर-गिरस्ती की सीमा से स्कूल की सीमा को अलग नहीं रखा है। ये जो कुछ सिखाते हैं, वह पास करने या पंडित बनाने के लिए नहीं, बल्कि सर्वतोभाव से मनुष्य बनाने के लिए ही सिखाते हैं। हमारे देश में विद्यालय हैं - परंतु विद्या से बुद्धि बड़ी होती है, संवाद से शक्ति बड़ी होती है -- पुस्तकों की पंक्तियों का बोझ हम पर ऐसा लद जाता है कि फिर हममें मन को ठीक रास्ते पर चलाने की शक्ति ही नहीं रह जाती। कितनी ही बार कोशिश की है अपने यहाँ के छात्रों से बातचीत करने की, पर देखा कि उनके मन में किसी तरह का जिज्ञासु भाव ही नहीं है। जानने की इच्छा के साथ जानने का जो योग है, वह योग उनका टूट गया है। उन्होंने कभी जानना सीखा ही नहीं -- शुरू से ही उन्हें पुराने नियमों के अनुसार शिक्षा दी जाती है, इसके बाद उस सीखी हुई विद्या को दुहरा कर वे परीक्षा के मार्क इकट्ठा करने में लग जाते हैं।

मुझे याद है, जब दक्षिण अफ्रीका से लौट कर महात्मा जी के छात्र शांति निकेतन आए थे, तब एक दिन उनमें से एक से मैंने पूछा था, 'हमारे छात्रों के साथ पारुल-वन देखने जाना चाहते हो?' उसने कहा, 'मालूम नहीं।' इस बारे में उसने अपने दल-पति से पूछना चाहा। मैंने कहा, 'पूछना पीछे, पहले यह बताओ कि तुम्हारी जाने की इच्छा है या नहीं?' उसने कहा, 'मैं नहीं जानता।' कहने का मतलब यह कि वह छात्र स्वयं किसी विषय की कुछ इच्छा नहीं रखता -- उसे चलाया जाता है, वह चलता है, अपने आप वह कुछ सोचता ही नहीं।

इस तरह के मामूली विषयों में मन की इतनी जड़ता यद्यपि साधारणतः हमारे छात्रों में नहीं पाई जाती, किंतु यह निश्चित है कि और भी जरा कठिन और विचारणीय विषय अगर छेड़ा जाए, तो उसके लिए इनका मन जरा भी तैयार न होगा। वे सिर्फ इसी बात की बाट देखा करते हैं कि हम उनके ऊपर रह कर क्या कहते हैं, उसी को सुनें। संसार में ऐसे निश्चेष्ट मन के समान निरुपाय मन और क्या हो सकता है।

यहाँ शिक्षा पद्धति के संबंध में अनेक तरह के परीक्षण हो रहे हैं, उसका विस्तृत विवरण फिर कभी लिखूँगा। शिक्षा विधि के संबंध में रिपोर्ट और पुस्तकों से बहुत कुछ जाना जा सकता है, किंतु शिक्षा का चेहरा, जो मनुष्य के भीतर प्रत्यक्ष दिखाई देता है, सबसे बढ़ कर काम की चीज है। उस दिन इसे मैंने अपनी आँखों से देखा है। 'पायोनियर्स' कम्यून' नाम से इस देश में जो आश्रम स्थापित हुए हैं, उन्हीं में से एक को देखने गया था। हमारे शांति निकेतन में जैसे व्रती बालक और व्रती बालिकाएँ हैं, इनकी पायोनियर्स संस्थाएँ लगभग उसी ढंग की हैं।

मकान में प्रवेश करते ही देखा कि मेरे स्वागत के लिए द्वार की सीढ़ियों पर दोनों किनारे बालक-बालिकाएँ पंक्तिवार खड़े हैं। भीतर घुसते ही वे मेरे चारों ओर सट कर बैठ गए, जैसे मैं उनका अपना ही कोई हूँ। एक बात याद रखना, ये सभी बिना माता-पिता के, अनाथ हैं। ये जिस श्रेणी से आए हैं, एक दिन ऐसा था जब उस श्रेणी के लोग किसी भी तरह के सम्मान का दावा नहीं कर सकते थे, दरिद्रों की तरह बहुत नीच वृत्ति से अपनी गुजर किया करते थे। इनके मुँह की ओर निहार कर देखा तो मालूम हुआ कि ये अनादर और असम्मान के कुहरे से ढके हुए चेहरे नहीं हैं। न संकोच है, न जड़ता। इसके सिवा मालूम हुआ, मानो सभी के हृदय में एक प्रकार का प्रण है, सामने एक तरह का कार्यक्षेत्र है, मानो वे हमेशा तैयार रहते हैं, किसी तरफ से असावधानी या शिथिलता है ही नहीं।

स्वागत के उत्तर में मैंने कुछ कहा। उसी के प्रसंग में उनमें से एक लड़के ने कहा, 'पर-श्रमजीवी अपना मुनाफा चाहते हैं, पर हम चाहते हैं देश के ऐश्वर्य में सब आदमियों का समान स्वत्व रहे। इस विद्यालय में हम लोग उसी नीति पर चलते हैं।'

एक लड़की ने कहा, 'हम अपने को स्वयं चलाती हैं। हम सब मिल कर सलाह करके काम करती हैं। जो सबके लिए अच्छा है, वही हमारे लिए ठीक है।'

एक दूसरे लड़के ने कहा, 'हम गलती कर सकते हैं। चाहें तो, जो हमसे बड़े हैं, उनकी सलाह लिया करते हैं। जरूरत पड़ने पर छोटे लड़के-लड़कियाँ बड़े लड़के-लड़कियों से सलाह लेते हैं, और उन्हें सलाह की जरूरत हो तो वे शिक्षकों के पास जाते हैं। हमारे देश के शासन तंत्र का यही विधान है, हम यहाँ उसी विधान की चर्चा और अनुशीलन किया करते हैं।'

इससे समझ सकते हो कि इनकी शिक्षा सिर्फ किताबों तक ही सीमित नहीं है। अपने व्यवहार को, अपने चरित्र को इन्होंने एक बड़ी लोक यात्रा के अनुकूल बना डाला है। यह विषय इनका एक प्रण बन गया है, और उस प्रण की रक्षा करने में ही ये अपना गौरव समझते हैं।

अपने यहाँ के लड़के-लड़कियों और शिक्षकों से मैंने बहुत बार कहा है कि लोक हित और स्वायत्त शासन के जिस दायित्व बोध की आशा हम संपूर्ण देश से रखते हैं, शांति निकेतन की छोटी-सी सीमा के भीतर हम उसी का एक संपूर्ण रूप देखना चाहते हैं। वर्तमान व्यवस्था छात्रों और शिक्षकों के सम्मिलित स्वायत्त शासन की व्यवस्था होनी चाहिए। उस व्यवस्था से जब यहाँ के समस्त कार्य सुसंपूर्ण होने लगेंगे, तब उतनी ही सीमा में हमारे संपूर्ण देश की समस्या हल हो सकती है। व्यक्तिगत इच्छा को सर्वसाधारण के हित के अनुकूल बना डालने की चर्चा राष्ट्रीय व्याख्यान मंच पर खड़े हो कर नहीं की जा सकती, उसके लिए खेत बनाए जाने चाहिए। वह खेत ही हमारा आश्रम होगा।

एक छोटा-सा दृष्टांत तुम्हारे सामने रखता हूँ। खाने-पीने की रुचि और अभ्यास के संबंध में बंगाल में जैसा कदाचार है, वैसा और कहीं भी नहीं। पाकशाला और पाकयंत्र को हमने बहुत ही भारग्रस्त बना डाला है। इस विषय में संस्कार या सुधार करना बड़ा कठिन है। अपने समाज के चिरंतन हित के प्रति लक्ष्य रख कर हमारे छात्र और शिक्षक पथ्य के विषय में अपनी रुचि को यथोचित रूप से नियंत्रित करने का प्रण कर सकते तो मैं जिसे शिक्षा कहता हूँ, वह शिक्षा सार्थक हो सकती। 'सात तियाँ इक्कीस' कंठस्थ करने को हम शिक्षा ही समझते हैं, और इस बात पर लक्ष्य न रखने को कि इस विषय में भूल न करें, हम बड़ा भारी अपराध समझते हैं, परंतु वास्तव में देखा जाए तो जिस चीज को पेट में भरते हैं, उस विषय की शिक्षा की कम कीमत समझना मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं। अपने दैनिक भोजन के संबंध में देश के सामने हमारा एक दायित्व है और वह बहुत बड़ा दायित्व है -- अन्य समस्त उपलब्धियों के साथ-साथ इसकी याद रखना इम्तहान के अंकों से कहीं बड़ा है।

मैंने उनसे पूछा, 'कोई कुछ अपराध करे, तो उसके लिए क्या विधान है?'

एक लड़की ने कहा, 'हमारे यहाँ किसी तरह का शासन नहीं है, क्योंकि हम अपनी सजा आप ही लिया करते हैं।'

मैंने कहा, 'और जरा विस्तार से कहो। अगर कोई अपराध करे, तो क्या तुम लोग उसके लिए कोई खास सभा करते हो? या अपने में किसी को पंच चुन लेते हो? और सजा देने के नियम हैं तो कैसे हैं?'

एक लड़की ने जवाब दिया, 'उसे विचार सभा नहीं कहा जा सकता, हम लोग आपस में बातचीत करते हैं। किसी को अपराधी सिद्ध कर देना ही सजा है, इससे बढ़ कर और सजा क्या होगी।'

एक लड़के ने कहा, 'वह भी दुखित होता है, हम भी दुखित होते हैं, बस झगड़ा तय हुआ।'

मैंने कहा, 'मान लो, कोई लड़का अगर सोचे कि उस पर झूठा दोषारोपण हो रहा है तो तुम लोगों के ऊपर और भी कहीं वह अपील कर सकता है?'

लड़के ने कहा, 'तब हम लोग वोट लेते हैं - बहुमत से अगर निर्णय हो कि वह अपराधी है, तो उस पर फिर अपील नहीं चल सकती।'

मैंने कहा, 'अपील न चले, यह दूसरी बात है, फिर भी अगर वह समझे कि बहुमत ने उसके प्रति अन्याय किया है, तो इसका कोई प्रतिकार हो सकता है या नहीं?'

एक लड़की ने उठ कर कहा, 'तब संभव है हम लोग अपने शिक्षकों के पास जाएँ और इस विषय में उनकी सलाह लें, पर ऐसी घटना कभी हुई नहीं।'

मैंने कहा, 'जिस तपस्या में सभी कोई शामिल है, वह स्वयं ही अपराधों से तुम्हारी रक्षा करेगी।'

यह पूछने पर कि तुम्हारा कर्तव्य क्या है, उन्होंने कहा, 'अन्य देश के लोग अपने काम के लिए धन चाहते हैं, सम्मान चाहते हैं, हम ऐसा कुछ भी नहीं चाहते, हम सर्वसाधारण का हित चाहते हैं। हम गाँववालों को शिक्षा देने के लिए देहातों में जाते हैं, और उन्हें समझाते हैं कि किस तरह सफाई से रहा जाता है, सब काम बुद्धिपूर्वक किस तरह सरलता से किए जाते हैं, इत्यादि। अनेक अवसर ऐसे आते हैं, जब हमें स्वयं वहाँ रहना पड़ता है। तब हम वहाँ नाटक खेलते हैं और देश के हालात उन्हें समझाते हैं।'

इसके बाद उन लोगों ने मुझे दिखाना चाहा कि वे सजीव समाचारपत्र किसे कहते हैं। एक लड़की ने कहा, 'देश के संबंध में हमें बहुत-से समाचार जानने पड़ते हैं। हमें जो मालूम हो जाते हैं, उन्हें दूसरों को बता देना हमारा कर्तव्य है, क्योंकि तथ्य को ठीक तौर पर जानने और उस विषय में विचार करने से ही हमारा कार्य ठोस हो सकता है।'

एक लड़के ने कहा, 'पहले हम किताबों से और शिक्षकों से सीखते हैं, फिर उसी विषय पर आपस में विचार करते हैं, उसके बाद हमें सर्वसाधारण को समझाने की आज्ञा मिलती है।'

सजीव समाचारपत्र का अभिनय करके मुझे दिखाया गया। विषय था - 'रूस का पंचवार्षिक संकल्प'। अर्थात इन लोगों ने दृढ़ प्रण किया है कि पाँच वर्ष के अंदर ये सारे देश को यंत्र शक्ति में सुदक्ष कर डालेंगे, बिजली और भाप की शक्ति को ये देश के इस छोर से उस छोर तक सर्वत्र काम में लाएँगे। 'इनका देश' से मतलब सिर्फ यूरोप और रूस नहीं है, बल्कि एशिया के बहुत दूर तक उसका विस्तार है, वहाँ भी ये अपनी शक्ति के वाहन को ले जाएँगे। धनी को अधिक धनी बनाने के लिए नहीं, बल्कि जन-समाज को शक्ति-संपन्न करने के लिए -- उस जन-समाज में एशिया के काली चमड़े के मनुष्य भी शामिल हैं। वे भी शक्ति के अधिकारी होंगे, इसके लिए कोई डर नहीं, चिंता नहीं।

इस काम के लिए इन्हें बहुत ज्यादा रुपयों की जरूरत है। यूरोप के बड़े बाजारों में इनकी हुंडी नहीं चलती। नकद दाम दे कर सौदा लेने के सिवा और कोई चारा ही नहीं। इसीलिए मुँह का कौर दे कर ये जरूरी चीजें खरीदते हैं, यहाँ का पैदा हुआ अनाज, पशु-मांस, अंडे, मक्खन -- सब कुछ विदेश के बाजारों में बिकने जाता है। देश भर के लोग उपवास के किनारे तक आ पहुँचे हैं,--अब भी डेढ़ वर्ष बाकी हैं। दूसरे देशों के महाजन इनसे खुश नहीं है। विदेशी इंजीनियरों ने इनके बहुत-से कल-कारखाने नष्ट भी कर दिए हैं। यहाँ का काम बहुत बड़ा और जटिल है। समय बहुत थोड़ा है। समय बढ़ाने का साहस नहीं होता, क्योंकि ये धनी समाज की प्रतिकूलता के सामने खड़े हैं; जितनी जल्दी हो सके, अपने बूते पर धन कमाना इनके लिए बहुत ही जरूरी है। तीन वर्ष बीत चुके, अब भी दो वर्ष बाकी हैं।

सजीव अखबार अभिनय के समान है -- नृत्य-गीत और झंडा उठा कर ये जता देना चाहते हैं कि देश की धन-शक्ति को यंत्रवाहिनी करके धीरे-धीरे इन्होंने कितनी सफलता पाई है। देखने की जरूरत बहुत ज्यादा है। जो जीवन यात्रा के लिए अत्यंत आवश्यक सामग्री से वंचित रह कर कष्ट से दिन बिता रहे हैं, उन्हें समझाने की जरूरत है कि शीघ्र ही इस कष्ट का अंत होगा और उसके बदले जो कुछ मिलेगा, उसका स्मरण कर उन्हें आनंद के साथ, गौरव के साथ कष्टों को गले लगाना चाहिए।

इसमें संदेह की बात यह है कि इस कार्य में कोई दल-विशेष नहीं, बल्कि सभी लोग एक साथ तपस्या में लगे हुए हैं। ये सजीव संवादपत्र अन्य देशों के समाचार भी इसी ढंग से देश भर में फैलाया करते हैं। पतिशर में देह तत्व और मुक्ति तत्व पर एक नाटक देखा था, उसकी याद उठ आई। ढंग एक ही है, लक्ष्य भिन्न है। सोच रहा हूँ, देश लौट कर शांति निकेतन और सुरुल (श्रीनिकेतन) में इसी तरह के सजीव संवादपत्र चलाने की कोशिश करूँगा।

इनका दैनिक कार्यक्रम इस प्रकार है -- सवेरे सात बजे उठते हैं, उसके बाद पंद्रह मिनट व्यायाम करते हैं, फिर नित्यक्रिया और कलेवा। आठ बजे से क्लास बैठती है। एक बजे थोड़ी देर के लिए खाने और विश्राम करने की छुट्टी होती है। तीन बजे तक क्लास होती रहती है। सीखने के विषय हैं -- इतिहास, भूगोल, गणित, प्राथमिक प्रकृति विज्ञान, प्राथमिक रसायन विज्ञान, प्राथमिक जीव विज्ञान, यंत्र विज्ञान, राष्ट्र विज्ञान, समाज विज्ञान, साहित्य, हाथ की कारीगरी, बढ़ई का काम, जिल्दसाजी का काम, नए ढंग की खेती की मशीन आदि का व्यवहार इत्यादि। रविवार नहीं है। हर पाँचवें दिन छुट्टी रहती है। तीन बजे के बाद खास दिन की कार्य सूची के अनुसार पायनियर लोग (अग्रगामियों का दल) कारखाने, अस्पताल, गाँव आदि देखने जाया करते हैं।

देहातों में भ्रमण कराने की व्यवस्था की जाती है। कभी-कभी ये स्वयं अभिनय करते हैं और कभी-कभी थियेटर देखने भी जाते हैं। शाम का कार्यक्रम है -- कहानियाँ पढ़ना, कहानियाँ सुनाना, तर्क करना, साहित्यिक और वैज्ञानिक सभाएँ करना। छुट्टी के दिन पायोनियर लोग अपने कपड़े धोते हैं, घर साफ करते हैं, मकान की और मकान के चारों तरफ सफाई करते हैं, क्लास के पाठ के अलावा अतिरिक्त पाठ पढ़ते हैं, घूमने जाते हैं। विद्यालय में भर्ती होने की उमर है सात-आठ साल और विद्यालय छोड़ने की उमर सोलह। इनका अध्ययन काल हमारे देश की तरह लंबी-लंबी छुट्टियों से पोला नहीं किया गया, इसलिए थोड़े ही दिनों में ये बहुत ज्यादा पढ़ सकते हैं।

यहाँ के विद्यालयों का एक बड़ा भारी गुण यह है कि ये जो कुछ पढ़ते हैं, साथ- साथ उसकी तसवीर भी खींचते जाते हैं। इससे पाठ का विषय मन पर चित्रित हो जाता है, चित्रांकन में हाथ सध जाता है और पढ़ने के साथ रूप चित्रण का आनंद भी मिल जाता है। एकाएक ऐसा मालूम होने लगता है कि इन लोगों का ध्यान सिर्फ काम की ओर ही है, गँवारों की तरह ये ललित कला की अवज्ञा करते हैं। परंतु यह बात बिल्कुल नहीं है। सम्राटों के जमाने में बने हुए बड़े-बड़े नाट्य मंदिरों में उच्च श्रेणी के नाटक और ऑपेराओं के अभिनय के दिन देर से टिकट मिलना मुश्किल हो जाता है। नाट्याभिनय कला में इनके समान उस्ताद संसार में बहुत थोड़े ही हैं। प्राचीन काल में अमीर-उमराव ही इनका आनंद ले सकते थे -- उस जमाने में जिनके पैरों में जूते न थे, कपड़े थे फटे-पुराने-मैले, जिन्हें भरपेट खाने को न मिलता था, अहोरात्र जो मनुष्य और देवता, सभी से डरा करते थे, परित्राण के लिए जो पुरोहित-पंडों को घूस दिया करते थे और मालिक के पैरों तले धूल में सिर रख कर जो अपनी अवज्ञा आप करते थे, आज उन्हीं की भीड़ से थियेटरों में जगह नहीं मिलती।

मैं जिस दिन अभिनय देखने गया था, उस दिन खेल था टॉलस्टॉय का उपन्यास 'रिसरेक्शन'। मेरी समझ से यह नाटक सर्वसाधारण के लिए सहज उपभोग्य नहीं हो सकता, परंतु श्रोतागण गंभीर हो कर बड़े ध्यान से चुपचाप सुन रहे थे। एंग्लो-सैक्सन किसान-मजूर-श्रेणी के लोगों ने इस नाटक को रात एक बजे तक ऐसी दिलचस्पी के साथ शांत भाव से देखा होगा, यह बात कल्पना में नहीं आती, हमारे देश की तो बात ही छोड़ दो।

एक और उदाहरण देता हूँ। मॉस्को शहर में मेरी तस्वीरों की प्रदर्शनी हुई थी। यह तो कहना ही न होगा कि मेरी तस्वीरें विचित्र और दुनिया से न्यारी ही थीं। सिर्फ विदेशी हों सो नहीं, कहा जा सकता है कि वे किसी भी देश की नहीं हैं, मगर लोगों का भीड़-भंभड़ काफी था। इन थोड़े-से दिनों में पाँच हजार आदमी तस्वीरें देखने आए थे। और कोई चाहे कुछ कहे, कम से कम मैं तो इनकी रुचि की प्रशंसा बिना किए नहीं रह सकता।

रुचि की बात छोड़ दो, मान लो कि वह एक खोखला कौतूहल ही था, परंतु यह कौतूहल ही जाग्रत चित्त का परिचय है। मुझे याद है, एक दिन अपने कुएँ के लिए मैंने अमेरिका से एक वायुचल-चक्रयंत्र मँगाया था, जिससे कुएँ के गहरे तल से पानी उठ आता था, परंतु जब देखा कि लड़कों के मन में गहराई से जरा-भी कौतूहल नहीं उठ रहा, तो मन में बड़ा ही धिक्कार आने लगा। हमारे यहाँ भी तो बिजली के कारखाने हैं, कितने लड़के जाते हैं वहाँ उत्सुकता मिटाने? कहने को तो वे भद्र श्रेणी के लड़के हैं। बुद्धि की जड़ता जहाँ है, वहीं कौतूहल दुर्बल है।

यहाँ स्कूल के लड़कों की बनाई हुई तस्वीरें हमें बहुत-सी मिली हैं -- देख कर आश्चर्य होता है -- बेशक वे चित्र हैं, किसी की नकल नहीं, उनकी अपनी उपज है। यहाँ निर्माण और सृष्टि, दोनों की तरफ लक्ष्य देख कर बहुत संतुष्ट और निश्चिंत हुआ हूँ। जब से यहाँ आया हूँ, अपने देश की शिक्षा के बारे में मुझे बहुत सोचना पड़ा है। अपनी निःसहाय सामान्य शक्ति से इसमें से कुछ लेने और प्रयोग करने की कोशिश करूँगा। पर अब समय कहाँ हैं? संभव है, मेरे लिए पंचवार्षिक संकल्प भी पूरा न हो। लगभग तीस वर्ष से अकेला ही प्रतिकूलता के विरुद्ध लग्गी से नाव ठेलता रहा हूँ -- और भी दो-चार वर्ष उसी तरह ठेलना पड़े, पर बहुत आगे न बढ़ सकूँगा, मैं जानता हूँ -- फिर भी किसी से फरियाद न करूँगा। आज अब समय नहीं रहा। आज ही रात की गाड़ी से जहाज के घाट की ओर रवाना होना है, कल समुद्र से पार होऊँगा।

2 अक्टूबर, 1930

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