Meri Janhit Yachika - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

मेरी जनहित याचिका - 7

मेरी जनहित याचिका

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 7

यह गुडमॉर्निंग फिर जल्दी ही महीने में दो-तीन बार, फिर हफ्ते में होने लगा। मैं पूरे अधिकार के साथ उन्हें आमंत्रित करता और वह खुशी-खुशी आतीं। इस बीच वह मुझे मेरे विषय में बहुत कुछ बतातीं रहती थीं। लेकिन उस अभियान उस योजना के बारे में हर बार टाल जातीं। आखिर चार महीने बाद प्रोफेसर साहब की मेहनत, और मोटी रकम की रिश्वत ने एक कॉलेज में मेरी नौकरी पक्की कर दी।

उस दिन प्रोफ़ेसर साहब को मैंने फिर एक होटल में पार्टी दी। अगला फैसला मैंने शंपा जी को अपने ही साथ रखने का किया। उन्हें तैयार करने में ज़्यादा समय नहीं लगा। वह बस अपने लिए एक सेपरेट स्टडी स्पेस चाहती थीं। जो इस फ्लैट में नहीं था। तो उसी अपॉर्टमेंट में मैंने टू बी.एच.के. फ्लैट ले लिया। जिसमें दो लोगों के लिए बहुत स्पेस था। शंपा जी ने किराया शेयर करने की बात मुझसे मनवा ली थी।

महीना भर साथ रहने के बाद ही मुझे लगा कि इस महिला के साथ मुझे बहुत पहले ही आ जाना चाहिए था। कॉलेज में छात्रों को लेक्चर देने के लिए रोज मेरा लेक्चर तैयार करातीं। रोज मुझे वह अपनी वृहद जानकारी से चौंका देतीं। अकसर मुझे लगता जैसे मैं उनके सामने स्टूडेंट हूं। उनके सामने कुछ भी करते वक़्त मेरे मन में एक संकोच बना रहता। यहां तक कि सेक्स के मामले में भी मैं अपने आपको उनके सामने एक स्टूडेंट से ज़्यादा ना पाता। जब कि ना जाने कितनी तरह की महिलाओं के साथ यह सब किया हुआ था।

मैरिड, अनमैरिड, अपने से उम्र में बड़ी, छोटी, हाउस वाइफ से लेकर प्रोफेशनल वुमेन तक। इनमें ज़्यादातर ऐसे पेश आतीं जैसे कि ज़्यादा से ज़्यादा पैसा वसूलना है। ना जाने कितनी तरह की विचित्र हरकतें करतीं करवातीं थीं। कुछ तो सॉफ्ट ट्वाइज और ना जाने कैसे-कैसे एक्सपेरीमेंट करती थीं। कई बार इनसे मन ऊब जाता, घिन आती।

मगर एक महिला यह भी है। यह हर चीज को जीवंत कर देती है। सेक्स डिजायर निश्चित ही इनकी जबरदस्त है। लेकिन अपनी डिजायर को कितनी खूबसूरती से यह सौंदर्यमय बनाकर खुद उसमें डूबती हैं और पार्टनर को भी उसके सौंदर्य का पूरा रसपान कराती हैं। मध्य कालीन श्रृंगार रस के कवियों की श्रृंगार रस में डूबी रचनाओं की तरह। जल्दी ही साथ रहते-रहते आठ महीने बीत गए। मेरे यह दिन इतने खूबसूरत बीत रहे थे कि मारे खुशी के मेरे पैर जमीन पर नहीं थे।

मैंने एक दिन जब प्रोफे़सर को बताया कि कैसे मैं और शंपा इतने दिनों से साथ रह रहे हैं तो वह आश्चर्य में पड़ गए कि शंपा और मेरे साथ। छूटते ही प्रश्न खड़ा कर दिया कि ‘तुम दोनों कैसे सामंजस्य बैठाते हो। वह तुमसे बारह-चौदह साल बड़ी हैं।’ इस पर मैंने कहा मैं और वह सिर्फ़ इतना जानते समझते हैं कि हम दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हैं। स्थिति तो यह है कि अब हम एक दूसरे के बिना अपना अस्तित्व ही नहीं मान पाते।

यह सुन कर प्रोफे़सर बहुत खुश हुए। बोले ‘मुझे बड़ी खुशी हुई कि तुम दोनों एक साथ इतना खुश हो। बल्कि मैं तुम्हें इस बात के लिए धन्यवाद देता हूं कि भीतर ही भीतर अपने को खत्म करती बहुमुखी प्रतिभा की धनी, बेहद संभावनाशील और अंतरमुखी महिला को तुमने बचा लिया। उसको आत्मघाती खोल से बाहर निकाल लिया। अब कोशिश करो कि उसके अंदर की जो प्रतिभा है, संभावनाएं हैं, वह बाहर आएं। वह समाज को बहुत कुछ दे सकती हैं। खासतौर से दलितों को। मतलब दलित महिलाओं को।’ फिर शंपा के बारे में प्रोफे़सर ने कई ऐसी बातें बताईं जो मैं पहली बार जान रहा था। मैं आश्चर्य में था कि यह महिला इतनी गुणों से भरी है। फिर मैंने चीजों को और बेहतर समझने के लिए प्रोफ़ेसर को घर इनवाइट किया।

वह संडे को आने के लिये तैयार हो गए। मैंने खाने की ढेर सारी चीजों का सारा इंतजाम किया था। शंपा को सरप्राइज देने के लिए यह नहीं बताया कि कौन आ रहा है। बस इतना बताया कि वह बेहद ख़ास मेहमान हैं और तुम्हें मुझसे पहले से जानते हैं। वह पूरा जोर डालती रहीं दिमाग पर कि कौन हो सकता है? लेकिन अनुमान नहीं लगा सकी। प्रोफे़सर के आने के टाइम पर कॉल बेल बजी तो मैंने दरवाजा खोलने के लिए जानबूझ कर शंपा को ही भेजा। और वह वाकई मेरी उम्मीद से ज़्यादा सरप्राइज हुईं।

वह इतनी खुश हुईं कि उनकी आंखें भर आईं थीं। बड़े प्यार से उन्हें बैठाया। मैं जानबूझ कर अंदर कमरे में बैठा हुआ था तो अंदर आकर मुझे प्यार से गले लगा कर बोलीं ‘वाकई तुमने सरप्राइज दिया। मैं सोच भी नहीं पाई थी कि प्रोफ़ेसर साहब यहां आएंगे।’ इसके बाद शंपा ने उनकी खातिरदारी में कोई कसर नहीं छोड़ी। मैं साथ में लगा रहा बस। प्रोफे़सर पूरे समय शंपा की योग्यता उनकी क्षमता की बातें करते रहे। और आखिर में जाते-जाते यह कहना ना भूले ‘शंपा मैं समझता हूं कि अब तुम्हें फिर से एक्टिव होना चाहिए अपने उस मिशन के लिए जिसके बारे में पहले कभी तुम पूरे जोश के साथ बात करती थी।

मैं यह मानता हूं कि तुम्हें जैसे साथी की जरूरत थी वह मिल गया है। मेरा सहयोग तुम्हारे लिए जैसे पहले था वैसे ही आगे भी रहेगा। सदैव रहेगा।’ हम दोनों ने उन्हें बड़े आदर के साथ बिदा किया। उनके जाने के बाद मैं शंपा से उस मिशन उस अभियान के बारे में जानने के लिए बात करने लगा जिसकी चर्चा तब प्रोफे़सर साहब भी बार-बार कर रहे थे। कि तभी शाम को करीब चार बजे एक फ़ोन आया। अननोन नंबर था तो रिसीव नहीं किया। सोचा हो सकता है कोई जी वर्ल्ड की महिला हो।

उस समय ऐसी किसी महिला से बात करने की सोच कर ही मुझे पसीना आ जाता था। कॉल रिसीव ना किए हुए दो मिनट भी न बीता होगा कि मैसेज आ गया। ‘फादर इज वेरी सीरियस, कम इमीडिएटली’ सेंडर ने नाम नहीं लिखा था। अननोन नंबर था भाइयों के नंबर सेव थे। यह कौन हो सकता है यह सोचते हुए मैंने उस नंबर पर फ़ोन किया तो अनु ने रिसीव किया। बताया ‘फादर वेंटीलेटर पर हैं। सीवियर अटैक पड़ा है। तुरंत आओ।’ मैं आगे कुछ पूछ नहीं पाया। उन्होंने फ़ोन यह कह कर काट दिया कि ‘बाद में करती हूं।’

शंपा सब सुन रही थीं। तुरंत बोली समीर हिम्मत से काम लो। जो भी ट्रेन मिले उससे लखनऊ पहुंचो। तुम तैयार हो मैं देखती हूं किसी ट्रेन में शायद रिजर्वेशन मिल जाए। वह लैपटॉप खोलकर बैठ गईं। मुझे तैयार क्या होना था। एक बैग में बस कुछ कपड़े ही रखने थे। मैं तरह-तरह की आशंकाओं से घिर गया। कि वेंटीलेंटर पर हैं पता नहीं क्या होगा? इधर दस दिन से कोई बातचीत नहीं हुई थी। इन लोगों ने कुछ बताया भी नहीं। तभी शंपा ने बताया किसी ट्रेन में बर्थ नहीं है। मैंने कहा जाना तो है। चाहे जैसे भी। जनरल बोगी हो या जो भी। मैं निकलता हूं। स्टेशन पर ही देखुंगा, जो भी संभव साधन पहले मिल गया उसी से निकल जाऊंगा। मैं इंतजार नहीं कर सकता।

मेरी व्यग्रता देखकर शंपा अचानक ही बोलीं ‘सुनो समीर कितनी भी जल्दी करोगे सुबह से पहले नहीं पहुंचोगे। लखनऊ की किसी भी फ्लाइट में टिकट बुक करती हूं। मैं भी साथ चलती हूं। जितनी जल्दी पहुंचा जाए उतना अच्छा है।’ मैं एकदम शॉक्ड कि वह भी चलेंगी। मुझे उन्होंने कुछ बोलने नहीं दिया। चार घंटे बाद की एक फ्लाइट में टिकट मिल गई।। मैंने कहा तुम चल कर क्या करोगी? वहां तुम्हें जानता ही कौन है? तो उन्होंने आंखों में आंखें डालकर कहा। ‘तुम्हारे फादर हैं। मेरे भी कुछ होंगे ही ना। रही बात जानने की तो पहुंच कर बता देना। मित्र हैं। या जो उचित लगे वही बता देना।’ मैं शंपा के आग्रह को टाल ना सका। उनके साथ चल दिया।

रात दस बजे के करीब लखनऊ एयरपोर्ट पहुंचा। वहां से टैक्सी कर सीधे हॉस्पिटल। वहां बड़े भइया मिले। एक भतीजा भी साथ था। मैंने पूछताछ की कि कब क्या हुआ तो इतना ही बताया दो दिन पहले अचानक अटैक पड़ा और कल दोपहर से स्थिति ज़्यादा बिगड़ी तो वेंटीलेटर पर रखा गया है। मैं उनसे यह शिकायत ना कर सका कि दो दिन पहले तबियत खराब हुई तो फ़ोन क्यों नहीं किया। उनका रूखा सा जवाब परेशान कर रहा था। शंपा साथ थीं लेकिन किसी ने एक बार भी ना पूछा कि यह कौन हैं? जल्दी पहुंचने की मेरी हर कोशिश बेकार साबित हुई। बिना होश में आए ही पिता जी ने इस दुनिया से बिदा ले ली। मैं उन्हें होश में देख ना सका। दो शब्द आखिर में बोल भी ना सका।

करीब तीन बजे हॉस्पिटल स्टॉफ ने सूचना दी कि ही इज एक्सपायर्ड। यह शब्द सुनते ही मुझे लगा जैसे किसी ने मेरी सारी शक्ति खींच ली। मैं अपने पैरों पर खड़ा भी ना रह सका। दिवार के सहारे सटे-सटे फर्श पर बैठ गया। एकदम सन्न, संज्ञा-शून्य सा हो गया। शंपा ने मुझे संभाला। भतीजे और भइया ने घर फ़ोन कर दिया था। पिता का पार्थिव शरीर लेकर पांच बजे सुबह बड़े भइया के घर पहुंचे। शाम होने से पहले बैकुंठधाम में उनका अंतिम संस्कार किया गया।

मेरे पहुंचते ही सबका व्यवहार ऐसे हो गया था कि करने वाला आ गया है। छोड़ दो सब, यही करेगा। मुझे सब कुछ करने में संतोष मिल रहा था। लेकिन बाकी सदस्यों का यह रवैया चुभ रहा था। अस्वाभाविक रूप से अनु का व्यवहार संतोषकारी था। बड़े भाई को संस्कार के कामों को करना मानों बड़ा कष्टकारी लग रहा था इसका अहसास होते ही मैंने सारा काम शुरू से आखिर तक सब कुछ किया।

यह सोच कर कि पिता सनातन सोच, परंपरावादी, रीतिरिवाज को गहराई से जीते थे। तो उनका संस्कार भी क्यों ना पूरी श्रद्धा से सनातन रीतिरिवाजों से किया जाए। मैं यही चाहता था। लेकिन दोनों भाइयों के सख्त एतराज के आगे तीन दिन में वही सब करना पड़ा। करना क्या था? एक तरह से सब निपटाया गया। इस दौरान शंपा को मैंने अपने घर में रोका था।

बहनें भी सब आईं थीं। बड़ी बहन ने चौथे दिन शंपा का परिचय पूछा था। मैंने कहा था वह एक एजूकेशनलिस्ट हैं। मेरी फ्रेंड हैं। इन्हीं के कारण मैं पापा के जीवित रहते यहां आ गया था। मगर बहनों का भी व्यवहार अच्छा नहीं रहा। बहनोई तो खैर बहनोई। किसी ने मुझसे यह नहीं पूछा कि कहां हो? कैसे हो? क्या कर रहे हो? मेरा दिल घर के सब लोगों से इतना टूट गया कि तीसरे दिन सब काम करके चौथे दिन अपने घर आ गया।

दसवें दिन दिल्ली वापस आने के समय भी भाइयों के पास नहीं गया। फ़ोन कर बता दिया कि आज रात जा रहा हूं। किसी ने यह भी नहीं कहा कि मिल के जाओ। बेरूखी से बोला गया। ठीक है। अपने घर में जब चौथे दिन मैं आया था तो शंपा ने किराएदारों की बड़ी तारीफ की। कि सबने उसके खाने-पीने का पूरा ख्याल रखा। किराएदारों से भी मैंने वही बताया शंपा के लिए जो बहनों को बताया था। लेकिन जिस दिन वहां रुका उसके अगले दिन किराएदारों की नजरों में यह कौतुहल देखा कि आपकी यह मित्र हैं या कुछ और जो आप उसके साथ एक ही कमरे में सोए। मन ही मन सोचा मुर्खों तुम्हें क्या बताऊं कि वो मेरी मित्र हैं या क्या हैं? वो तो इन सबसे परे, इन सब से आगे एक खास रिश्ता रखती हैं मुझसे।

वह मेरी मित्र, पत्नी, परिवार, सब कुछ बन चुकी हैं। बल्कि इन सबसे पहले वह मेरी मेंटर हैं। उस दिन ही मैंने तय किया कि अब इस शहर में मेरे रहने का कोई कारण तो बचा नहीं है। एक मात्र कारण पिता जी अब रहे नहीं। भाई-बहनों ने एक तरह से दुत्कार दिया है। तो क्या रहना अब यहां। मगर तभी मन में आया कि जब तक यह मकान रहेगा तब तक आना-जाना रहेगा। अब सही यही है कि इसे बेच दूं, और दिल्ली में ही छोटा-मोटा फ्लैट ले लूं। इस योजना को शंपा नेे तुरंत जल्दबाजी में उठा क़दम बताया। मैंने कहा मेरे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है। मैंने एक प्रॉपर्टी डीलर को यह काम सौंपा और किराएदारों को मकान खाली करने को कह कर दिल्ली लौट आया।

आने के बाद मैं अजीब मनःस्थिति में फंस गया। कहीं जाने किसी से बोलने तक का मन ना करता। शंपा से भी नहीं। जहां बैठ जाता वहीं बैठा रह जाता। चाय-नाश्ता, खाना-पीना रखा रहता और मैं एकदम बुत बना बैठा रहता। शंपा ने बहुत कोशिश की मुझे इस हालत से निकालने की। हार कर मुझे एक मनोचिकित्सक के पास ले गईं। महीने भर ट्रीटमेंट के बाद मैं नॉर्मल हुआ। डॉक्टर ने कहा टाइम से आ गए। अन्यथा डीप डिप्रेशन का शिकार होकर मैं कोई गलत क़दम उठा सकता था। इसमें सुसाइड जैसे स्टेप की संभावना भी थी।

शंपा ना होतीं, मेरी इतनी देखभाल ना करतीं, डॉक्टर के पास ना ले जातीं तो मैं निश्चित ही नहीं बच पाता। यहां तक कि मेरी नौकरी उसके संपर्कों के कारण ही बची। यह बातें तब पता चलीं जब मैंने कॉलेज ज्वाइन किया। यह सब जानने के बाद शंपा के लिए मेरे दिल में सम्मान और बढ़ गया। मेरे मन में आता कि उसके लिए मैं क्या कर डालूं। ऐसा क्या कर डालूं कि वह और मैं दो शख्स ना होकर इतना मिल जाएं कि एक हो जाएं। दो व्यक्तित्व विलीन होकर एक व्यक्तित्व हो जाएं।

कई बार ऐसा होता कि उनका चेहरा देखते-देखते खो सा जाता। तो वह मेरी आंखों के सामने चुटकी बजा कर कहतीं। ‘ऐ मिस्टर समीर कम बैक।’ और मैं ..मैं हंसकर रह जाता। कभी-कभी उसे बांहों में भर लेता। बड़ी देर तक नहीं छोड़ता तो वह बोलती ‘अरे यार तुम तो कभी-कभी बिल्कुल बच्चों सी हरकत करने लगते हो।’ आखिर बड़ी माथा-पच्ची के बाद मैंने यह तय किया कि यह जिस योजना को सीने में दबाए, उसको क्रियान्वित होने का सपना लिए अंदर ही अंदर घुट रही हैं। उस सपने को इनसे जान-समझकर उसे पूरा करने में जी-जान से लग जाऊं।

अब मेरा शेष जीवन इनके सपने को पूरा करने में बीतेगा। मेरे जीवन का यही एक मात्र उद्देश्य होगा। फिर एक दिन मैंने अपने मन की बात उनके सामने रखकर उन्हें अपने मिशन के बारे में खुलकर बात करने, उसे कैसे पूरा करना है इसके लिए उनके पास क्या रोडमैप है उस बारे में बताने को विवश कर दिया। तो वह बोलीं ‘समीर मैं यही जोश, दृढ़ता समर्पण चाहती थी। मुझे तुम में पहले इन चीजों में कमी दिखती थी। इसलिए बात नहीं करती थी।’ इसके बाद शंपा ने विस्तार से अपने विचार अपने मिशन को समझाया यह बताते हुए कि यह सारी बातें उनके पति की हैं। यह अपने-उनके संयुक्त सपने को पूरा करने का प्रयास भर है।

वह ‘बोलीं समीर यह तो तुम जानते ही हो कि मैं एक महा दलित वर्ग के परिवार से आती हूं। मेरे पति भी ऐसे ही थे। हमने हमारे परिवार ने इसके कारण बड़ी तकलीफें, अपमान झेले। इतना कि आज भी वह सब भुलाए नहीं भूलता है। समीर हम दोनों जब मिले तो किशोरावस्था थी। हम अपने अपमान, अपनी दशा पर बहुत सोचते। और जब यहां आए तो बरसों-बरस पढ़ते, सोचते-विचारते हमने कुछ निष्कर्ष निकाले। फिर एक योजना बनाई कि हमें करना क्या है? हमने तय किया कि हमें सबसे पहले अपने अंदर से इस भाव को ही निकालना है कि हम दलित हैं।

हमें इस भाव में आना होगा कि हम भी इंसान हैं। हम किसी से कम नहीं हैं। क्योंकि हमारे भाव जैसे होते हैं हम वैसे ही बनते जाते हैं। हम अब देखते हैं कि ऐसे दलित जो बहुत आगे निकल चुके हैं। बहुत प्रोग्रेस कर ली वह अब भी दलित होने की हीन भावना से ग्रसित हैं। गैर दलितों से जब वे मिलते हैं तो उनमें अजीब सी हीनता, संकोच बना रहता है। सबसे पहले हमें इस चीज से ऊपर उठना होगा। हम दोनों ने इसे अपने व्यवहार में लाना शुरू किया। मुझे खुशी है कि मैं इसमें पूर्णतः सफल रही। क्या तुम बताओगे कि अब तक मुझमें हीन भावना का एक भी अंश पाया है।’

मैंने कहा नहीं बिल्कुल नहीं। यहां तक कि फादर के क्रिमिशन के समय जब लखनऊ में थीं तब भी नहीं। इस पर वह बोलीं ‘मैं हर दलित को ऐसे ही देखना चाहती हूं। वह दलित है यह भावना पूरी तरह निकाल फेंके मैं यही चाहती हूं। समीर मैं सिर्फ़ भारत में जो दलित हैं उन तक की ही बात नहीं कर रही। मैं बंगलादेश, पाकिस्तान की भी बात कर रही हूं।’ उनकी इस बात पर मैंने कहा अब इन देशों में हिंदू हैं ही कहां जो वहां सवर्ण-पिछड़े-दलित का प्रश्न ही उठे। मेरा यह कहना था कि शंपा मुस्कुरा दीं मैं समझ गया कि कुछ ऐसा है जो मुझसे छूट गया है। मुस्कुराने के कुछ क्षण बाद वह बोलीं ‘समीर ऐसा है कि दलितों ने अपनी दयनीय स्थिति से मुक्ति का मार्ग निकाला धर्म परिवर्तन। लेकिन मैं मानती हूं कि यह समस्या का समाधान है ही नहीं।

किसी भी समस्या का समाधान पलायनवादी सोच से नहीं निकलता। धर्म परिवर्तन पलायनवादी सोच का चरम है। धर्म को लेकर तो मैं विशेष रूप से कहूंगी कि अपना घर अपना ही होता है। मान लो किसी वजह से घर के किसी सदस्य ने घर से हमें बेदखल कर दिया है तो इसका मतलब यह नहीं कि हम दूसरे के घर जा बसें। दूसरा हमारे झगड़े का फायदा उठाने के लिए शरण तो देगा। लेकिन शोषण भी करेगा। हमें मालिक नहीं बना देगा। जबकि सही तरीका यह है कि हमें अपने अधिकार के लिए संघर्ष करना चाहिए।

अपने घर में ही अपना हिस्सा लेकर रहना चाहिए। संघर्ष करने पर अधिकार मिलता ही है। महाराष्ट्र में ही एक युवती तृप्ति देसाई का संघर्ष देखो। उसने हिंदू-मुस्लिम दो पूजा स्थानों पर महिलाओं के प्रवेश का अधिकार सभी महिलाओं को दिलाकर ही छोड़ा। साउथ की विख्यात लेखिका कमला दास भी यही कह चुकी हैं। जो किसी कमीने इंसान के धोखे में आकर जीवन के आखिर दिनों में धर्म परिवर्तन कर अंतिम सांस तक पछताती रहीं। यह वैसे ही जैसे हम कहीं चले जा रहे हैं। और अचानक बारिस होने लगे और उससे बचने के लिए हम किसी पेड़ की छांव, किसी मकान के शेड के नीचे खड़े होकर अपने को भीगने से बचाने का प्रयास करें।’

अपनी बात पर मुझे सशंकित देख उन्होंने बात और स्पष्ट कर दी। कहा ‘देखो ज़्यादातर दलित या तो ईसाई बने या मुसलमान। ईसाई बनने पर भी कहीं ना कहीं भेदभाव का शिकार बनते ही रहते हैं। एक छोटा सा उदाहरण ले लो। इनके यहां जो नन बनती हैं। चाहे वह कॉनवेंट में हों या कहीं भी, वो भी नहीं बचतीं। ऐसे कनवर्जन से निम्नवर्ग से आई जो महिलाएं नन बनती हैं उन्हें बाकायदा नाम दे दिया गया है ‘चेडुथी’, यह शब्द प्रतीक है उनके निम्न होने का।

इतना ही नहीं चाहे इनके पूजा घर हों या कॅान्वेंट ज़्य़ादातर साफ-सफाई छोटे-मोटे काम इन कंवर्टेड दलितों से ही कराए जाते हैं। तो दलित होने का अभिशाप इनके साथ यहां भी चिपका रहता है। ये जब मुस्लिम बन जाते हैं तो वहां भी यह सब है। बस प्रेयर, या इबादत एक साथ करने का मौका मिल जाता है। लेकिन क्या सिर्फ़ इसी से उनकी समस्या हल हो जाएगी? इसी से उनका मान-सम्मान स्वाभिमान उन्हें मिल जाएगा? साथ प्रेयर का अधिकार तो हम संघर्ष कर के अपने मूलधर्म में भी ले लेंगे। पाकिस्तान के ‘चूरा’ लोगों की तो हालत जानते ही होगे।’ ‘चूरा?’ ‘हां चूरा’ मेरे लिए यह सर्वथा नया शब्द था। तो चौंकना स्वाभाविक था।

मेरे चौंकने पर वह चौंकी कि ‘आश्चर्य कि तुम्हें ‘चूरा’ लोगों के बारे में नहीं मालूम। लेकिन हमें इस लिए मालूम है क्यों कि हम दलित हैं। लेकिन मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं दलित वर्ग से थी यह भी कहना उचित नहीं समझती। सिर्फ़ बात को समझाने के लिए यह प्रयोग किया कि एक घायल ही दूसरे घायल की पीड़ा जान समझ सकता है।

सारे ‘चूरा’ लोग दलित हैं। ये पाकिस्तान में ज़्यादातर लाहौर पंजाब और उनके आस-पास रहते हैं। ये वो हिंदू से ईसाई बने दलित हैं जिन्होंने यह सोचकर धर्म बदलना शुरू किया था पाकिस्तान बनने से पहले ही कि वे अपनी समस्याओं से मुक्ति पा लेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्हें ‘चूरा’ कहा गया। इस शब्द में ही कितना अपमान, घृणा नजर आ रही है। यह शब्द तो दलित शब्द का ही पर्याय हो सकता है। यह शब्द मुझे जहर बुझा शब्द लगता है।

इन ‘चूरा’ लोगों की हालत यह है कि आज भी ये वहां मैला ढोने का ही काम करते हैं। इनकी आबादी मैं समझती हूं कि सत्तर-अस्सी लाख है। ये वहां नर्क का जीवन जी रहे हैं। डर के मारे ये अपना नाम भी अपनी पसंद का नहीं रख पाते हैं। ईसाई हैं लेकिन नाम मुस्लिमों के या उन्हीं सा मिलता-जुलता रखते हैं। अपनी जी तोड़ मेहनत से इन्होंने शत-प्रतिशत साक्षरता प्राप्त कर ली है। इसके बावजूद कि वहां की सत्ता इन्हें अनपढ़ बनाए रखना चाहती थी जिससे सफाई करने वाला समूह बना रहे। उनकी यह साजिश बार-बार खुल कर सामने आती रहती है।

जानते हो इनकी सुंदर लड़कियों को जबरन उठा लिया जाता है। उनकी इज़्जत तार-तार कर फेंक देते हैं। मार देते हैं। या ऐसी लड़की से जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कर शादी कर लेते हैं। फिर तीन चार बच्चे पैदा कर जहां मन भर गया तीन सेकेण्ड में तलाक देकर उसे दर-दर भीख मांगने, सेक्स वर्कर बनने के लिए ठोकर मार कर भगा देते हैं। वह फिर तिल-तिल कर मर जाती है। यह सब धर्म परिवर्तन के बाद भी हो रहा है। वह अपना त्यौहार, शादी ब्याह भी खुल कर नहीं मना पाते। अभी ईस्टर में तुमने देखा ही त्यौहार मनाते करीब अस्सी लोगों को बम विस्फोट कर मार दिया। विस्फोट इतना भीषण था कि लोगों के चीथड़े उड़ गए। सैकड़ों घायल हो गए।

मगर पूरी दुनिया मातम पुरसी भी ठीक से ना कर सकी। पोप तक कड़ा विरोध ना दर्ज कर सके। तो क्या है यह सब? इसी लिए मेरा मानना है कि धर्म परिवर्तन कोई समाधान नहीं है। मैं बौद्ध, जैन, सिख की बात नहीं करती। इन्हें मैं हिंदू धर्म से अलग नहीं पाती। यह मेरी नजर में हिंदू धर्म के परिष्कृत रूप हैं। जहां मैं पाती हूं कि सच में भेद-भाव नहीं है।

मेरा मानना है कि हमें यहूदियों से सीखना चाहिए। हमें उन्हीं की तरह एक होकर, सुदृढ़ बन कर, सशक्त बनकर अपनी गुलामी के जीवन को उतार फेंकना होगा। मैं आरक्षण व्यवस्था में भी संशोधन चाहती हूं। क्योंकि इतने दशकों तक आरक्षण का परिणाम यह हुआ है कि दलित समुदाय के जो लोग आरक्षण पाकर आगे निकल गए हैं। उसका लाभ उनके परिवार को ही मिल रहा है। इस कारण नब्बे प्रतिशत दलित अब भी दयनीय स्थिति में बने हुए हैं।

उनकी यथा स्थिति तभी बदलेगी। तभी सारे दलित अपनी गुलामी तोड़कर सक्षम, सुदृढ़ बन पाएंगे जब यह व्यवस्था सख्ती से लागू हो कि जो परिवार दो बार आरक्षण का लाभ उठा चुके हैं। उसे आगे नहीं दिया जाएगा जिससे जिस दलित को अभी तक अवसर नहीं मिल पाया है उसे अवसर मिल सके। उसके लिए जगह खाली हो सके।

अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो दस-बीस नहीं शदियों-आरक्षण देते रहेंगे लेकिन सभी दलित कभी इसके दायरे में नहीं आएंगे। इनकी हालत ऐसी ही बनी रहेगी। दलित यहां की स्वार्थी, गंदी राजनीति का ऐसे ही एक टूल बने रहेंगे। आपस में भी लड़ते रहेंगे। इस बार एक-बार पुनः राष्ट्रपति चुनाव में यह राजनीति सामने आई। डॉ. अंबेडकर को इन सारी चीजों का अनुमान था। इसीलिए वह दस वर्ष के भीतर ही सारे दलितों को आरक्षण के लाभ के दायरे में ला देना चाहते थे। मगर ओक्षी राजनीति ने ऐसा होने नहीं दिया।

समीर मेरा दृढ़ मत है कि जब तक दलित अपनी भावना, आरक्षण की व्यवस्था को सही नहीं करेंगे तब तक उन्हें गुलामी से मुक्ति मिलने वाली नहीं। आरक्षण में संशोधन के लिए स्वयं दलितों को ही आगे आना पड़ेगा। जिस दिन वो आगे आ जाएंगे उस दिन ये सारी राजनीतिक पार्टियां एक सुर में गाने लगेंगी कि हां यह होना चाहिए। बदलाव होते देर नहीं लगेगी। बस जरूरत है स्वयं दलितों के खड़े होने की ही। इसीलिए मैं कहती हूं कि धर्म परिवर्तन से दलितों का कुछ भी भला होने वाला नहीं है। धर्म परिवर्तन कोई समाधान नहीं है। जिस धर्म में हैं उसी में बराबरी का हक लें। धर्म परिवर्तन समाधान होता तो जो परिवर्तित हुए उनकी क्या स्थिति है?

अरे जब यहां से पाकिस्तान गए मुस्लिमों को मोहाजिर कह कर नेस्तनाबूद किया जा रहा है, उन्हें मुस्लिम ही नहीं माना जा रहा, मोहाजिर नाम की एक नई कौम ही बन गई तो दलितों की क्या बिसात।’ शंपा ने ऐसी-ऐसी बातें, तर्क योजना सामने रखीं कि मैं आश्चर्य में पड़ गया कि इस लेडी में इतना तुफान भरा है। यह तुफान यदि पूरी रफ्तार से बाहर आ गया तो निश्चित तौर पर क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है। इसके भीतर भरे तुफान को अनुकूल स्थिति मिल जाने भर की देरी है।

यह जिस तरह मुझ पर यकीन कर रही है उससे लगता है यह मुझसे बड़ी अपेक्षा कर रही है। उसकी बातों ने मेरे हृदय में भी एक चिंगारी भड़का दी कि देश के हालात के लिए मुझे भी अपना बेस्ट एफ़र्ट करना चाहिए। मैंने फट से उसके सामने प्रस्ताव रखा कि तुम्हारे आंदोलन को खड़ा करने के लिए जितना संभव होगा मैं वह सब करने के लिए तुरंत अपना प्रयास शुरू करना चाहता हूं। तुम बताओ कैसे आगे बढ़ना है। मेरी इस बात पर वह मेरे चेहरे को बड़े ग़ौर से देखती रहीं। जैसे कि वहां कुछ लिखा है और वह उसे ध्यान से पढ़ रही हैं, फिर बोलीं। ‘सिर्फ़ मैं नहीं हम दोनों।’

इसके बाद हम दोनों ने एक संगठन बनाने, सोशल मीडिया का भर पूर उपयोग करने का निर्णय लिया। इस काम के लिए जो बहुत सा लिटरेचर शंपा ने तैयार किया था उनको रात दिन एक करके अंतिम रूप दिया। सोशल मीडिया पर तो शुरुआत जल्दी कर दी गई। जिन बातों को पोस्ट किया जाता उनका रिस्पॉंन्स भी ठीक मिलने लगा तो उत्साह और बढ़ गया। लेकिन संगठन खड़ा करना मुझे सागर में सूई ढूंढ़ने जैसा लगने लगा। मगर जोश में कहीं कमी नहीं थी।

काम जब आगे बढ़ना शुरू हुआ तो आर्थिक समस्या सामने आने लगी। लिटरेचर छपवाने के लिए मोटी रकम चाहिए थी। फिर सदस्य बनाने, चंदा एकत्रित करने पर ज़्यादा ध्यान देना शुरू किया। शंपा दिन रात एक करने लगीं। इस बीच मेरे दोस्तों में यह बात फैली तो सबने हंसी उड़ानी शुरू कर दी। लीडर ऑफ रिवोल्यूशन कह कर मजाक बनाना शुरू कर दिया। मगर मैं शंपा के साथ अडिग था। एकदम चिकना घड़ा बन गया। देखते-देखते कई महीने बीत गए। संगठन का कार्यालय बनाने की समस्या आ गई। पहले सोचा जहां रहते हैं वहीं से काम चलाएं। लेकिन लैंडलॉर्ड को सख्त ऐतराज था। यह बहुत बड़ी समस्या थी।

बड़ा कहने, सुनने पर प्रोफेसर साहब तैयार हुए। उन्होंने अपने मकान में एक छोटा सा कमरा इस शर्त पर दिया कि जल्दी से जल्दी हम कहीं और व्यवस्था कर लेंगे। इसी बीच लखनऊ वाला मेरा मकान बिक गया। उसके पैसे से मैं दिल्ली में मकान ही लेना चाहता था। लेकिन जितना स्पेस मैं चाहता था, जिस एरिया में चाहता था उतने पैसे में उसका चौथाई भी नहीं मिल पा रहा था। आखिर शंपा ने भी अपनी जमा-पूंजी मिला दी। लेकिन बात नहीं बनी। तो थक हार कर एंटीरियर में लिया। वहां से मेरा कॉलेज, शंपा के काम, संगठन के काम में बहुत बाधा आने लगी तो एक सेकेंड हैंड कार भी ले ली। कुछ महीने ही बीते होंगे कि अचानक ही एक दिन दो लोगों ने घर आकर शंपा और मुझसे मुलाकात की।

वह पूरी तैयारी के साथ आए थे। संगठन के बारे में जितनी बातें हम अलग-अलग माध्यम से प्रकाशित प्रसारित कर चुके थे वह उनके आधार पर सारी बातें समझ कर, आए थे। बड़ी तारीफ आदि करके उन लोगों ने आर्थिक मदद की पेशकश कर दी। हमारे लिए यह एक आश्चर्यजनक खुशी थी। लेकिन हम दोनों उन लोगों को ठीक से जान लेना चाहते थे। आखिर वह चंदे में हर महीने क्यों इतनी रकम देना चाहते थे कि हम अपना संगठन तेज़ी से खड़ा कर एक बड़ा आंदोलन शुरू कर दें। हमारे इन प्रश्नों का उन लोगों के पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं था। तो हमने सोच कर बताने को कहा।

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