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हिम स्पर्श - 64

64

वफ़ाई के मन में कई योजनाएँ आकार ले रही थी।

रोग तथा मृत्यु से अधिक मृत्यु का भय और दिलशाद के द्वारा किया गया विश्वासघात जीत की समस्या है। जीत में जीवन अभी भी बाकी है। जीत अब जीना चाहता है। पहाड़ों पर जाना चाहता है। हीम से लड़ना चाहता है। उससे ही रोग की दवा भी चाहता है।

तो तुम कुछ करो ना?

मैं क्यूँ करूँ कुछ?

इस क्यूँ का जवाब तो तुम भली भांति जानती ही हो। मुझ से क्यूँ पूछती हो?

नहीं। बिलकुल नहीं जानती। तुम ही बताओ ना?

देखो बता तो दूँ, किन्तु स्वीकार भी करना पड़ेगा। बोलो स्वीकार्य है?

यदि सत्य होगा तो मैं स्वीकार कर लूँगी। चलो अब बता दो कि मैं जीत के लिए क्यूँ कुछ करूँ।

क्यूँ कि तुम उस को पसंद करने लगी हो। उसको प्रेम करने लगी हो। तुम उसे अपना ह्रदय दे चुकी हो।

अरे, अरेरे। नहीं, नहीं।

अब संकोच क्यूँ कर रही हो?

क्यूँ कि ऐसी कोई बात ही नहीं है। मैंने अपना ह्रदय किसी को नहीं दिया। देखो वह अभी भी मेरे पास ही है।

वफ़ाई ने दोनों हाथ बायीं छाती पर रख दीए। ह्रदय के स्पंदनों को सुनने की चेष्टा करने लगी। वह शांत हो गई। एकदम शांत। स्पंदन धीरे धीरे स्पष्ट होने लगे। वह उस स्पंदनों को सुनने लगी जो अब पूर्णत: स्पष्ट थे।

वह चौंक गई।

यह क्या? यह कैसी ध्वनि है? ड़ीक, ड़ीक, ड़ीक। जीक, जीक, जीत, जीत, जीत...।

यह जीत जीत क्यूँ बोल रही है?

तुम्हारे सभी प्रश्न का उत्तर यह ध्वनि ही है। क्या अब भी कोई संशय बाकी है?

नहीं भी, हाँ भी।

ह्रदय की ध्वनि हंमेशा सुना करो। उस के पास प्रत्येक प्रश्न का उत्तर होता है।

किन्तु उत्तर ही अनेकों प्रश्न ले कर आए तो?

कौन से प्रश्न? कैसे प्रश्न?

मैं जीत के लिए क्या कर सकती हूँ? कैसे कर सकती हूँ?

उस की इच्छाओं को समझो। तुम उस के साथ पहाड़ों पर जाओ। नदियों को मिलो। झरनों के प्रवाहों की ध्वनि सुनो। पंखियों की भांति उड़ो। बादलों की भांति बरसो। गगन की भांति सदैव जीत के साथ रहो। प्रत्येक क्षण उसे प्रसन्नता दो। प्रत्येक क्षण उस के अंदर जीवन की इच्छा एवं अभिलाषा जगाओ। जब तक उस के अंदर जीने की उत्कट भावना जीवित है तब तक वह जिजीविषा उसे मरने नहीं देगी। तुम्हें उस जिजीविषा को जीवित रखना है, अंत तक। यह केवल तुम ही कर सकती हो।

यह सब मैं कर तो लूँ किन्तु मैं जो काम हेतु आई थी वह तो अभी भी अधूरा है। उस काम को अधूरा छोड़ कर मैं कैसे भाग जाऊं? मेरा काम पूरा होते ही मैं उस के साथ... ।

अर्थात तुम उसे जीवन की आशा नहीं देना चाहती।

ऐसा नहीं है। मैं तो केवल कुछ दिनों का समय मांग रही हूँ। ततपश्चात मैं... ।

मृत्यु कभी किसी की प्रतीक्षा करता है क्या? तब तक जीत जीवन से ही हार गया तो?

तो?

वफ़ाई चौंक गई, विचलित हो गई। वह पूरी रात्रि सोचती रही कि यह कैसी दुविधा है? काम भी आवश्यक है तथा जीत भी।

रात्रि बीत गई। वफ़ाई जब जागी तो नया प्रभात आ चुका था। जीत भी जाग चुका था और दोनों के लिए नींबू सूप बना चुका था।

“कुछ जल्दी जाग गए तुम?” वफ़ाई ने कल रात से दोनों के बीच आ बसे मौन को तोड़ते हुए पूछा।

“जरा अपनी घड़ी तो देखो। मैं जल्दी से नहीं किन्तु तुम विलंब से जागी हो।“ जीत ने कहा।

वफ़ाई जीत को निहारती रही। जीत जीवन की आशाओं से भरपूर था। वफ़ाई को अच्छा लगा। वफ़ाई के अधरों पर स्मित था। रात भर के संघर्ष का जैसे हल मिल गया हो।

इस चेहरे पर से यह भाव मैं लुप्त नहीं होने दूँगी। वफ़ाई ने मन ही मन निश्चय कर लिया।

“ठीक है श्रीमान, मुझे ही विलंब हो गया जागने में।“ वफ़ाई ने जीत की तरफ स्मित भेजा,“किन्तु तुम्हें मुझे समय पर जगा देना चाहिए था। तुम यदि जगा देते तो ...।“ वफ़ाई ने बात आधी ही छोड़ दी।

जीत कुछ ना बोला, नींबू सूप वफ़ाई के सामने धर दिया। वफ़ाई ने एक अंगडाइ ली और जीत के हाथ से सुप ले लिया।

वफ़ाई की उस अंगड़ाई में भी जीत को जीवन की आश दिखाई दी। जीत की आँखों की उस आश को वफ़ाई ने पढ़ लिया।

वफ़ाई केनवास के समीप गई। चित्राधार पर केनवास चढ़ाया, रंगों को डिश के अंदर रखा, इधर उधर पड़ी विभिन्न तूलिका को समेटा और केनवास के पास रख दिया।

वफ़ाई जीत की तरफ मुड़ी,“श्रीमान चित्रकार, यह केनवास, यह रंग, यह तूलिका बड़े समय से निश्चल से पड़े है, उन्हें कुछ जीवन दे दो।“

“मैं कौन होता हूँ किसी को जीवन देने वाला?”

“मैं कुछ नहीं जानती, बस आज फिर से इस केनवास पर कोई आकृति बना दो। सब कुछ छोड़ कर, सब कुछ भूल कर तुम अपनी चित्रकारी करो। चलो आओ इधर।“ वफ़ाई ने जीत को आमंत्रित किया।

जीत आगे बढ़ा, तूलिका हाथ में पकडी, रंगों को देखा, रंगों को खोला और उसे डिश में उलटने लगा। तूलिका को रंगों में डुबोने लगा।

वफ़ाई जीत को देखती रही। उसे जीत की भाव भंगिमा सकारात्मक लगी। वह मन ही मन प्रसन्न हो उठी।

कुछ समय तक रंगों से खेलने के बाद जीत तूलिका ले कर केनवास की तरफ मुडा। जीत ने केनवास पर पहली लकीर खींची और वफ़ाई की तरफ देखा। वफ़ाई वहाँ नहीं थी। वह कमरे की तरफ जा रही थी। जीत को वफ़ाई की पीठ दिखी।

“वफ़ाई, तुम कहाँ चली? यहाँ बैठो ना मेरे पास। देखो मैं कैसा चित्र बनाता हूँ।“

वफ़ाई मुड़ी, स्मित दिया तथा बोली, “चित्रकार जी, आप चित्र बनाइये। मुझे कई काम निपटाने हैं। मेरे पास समय नहीं है। फिर कभी बैठूँगी तुम्हारे पास, अभी मुझे जाने दो।“

“ऐसे कौन से अबिवार्य काम आ पड़े हैं कि तुम अभी इतनी व्यस्त हो गई? कल तक तो तुम्हारे पास समय ही समय था। आज सहसा यह क्या हो गया?”

“वोह तुम नहीं समझोगे श्रीमान चित्रकार।“

“अरे ओ बर्फ सुंदरी, सुनो तो...।” वफ़ाई बिना सुने ही आँखों से ओझल हो गई, कक्ष में चली गई।

“लड़कियां जब सुनना नहीं चाहती तब किसी की भी बात नहीं सुनती, चाहे कुछ भी कर लो।“ जीत अकेले अकेले बड़बड़ाया और तूलिका की तरफ देखकर बोला,”अरे ओ तूलिका, तुम भी तो लड़की ही हो। क्या तुम मेरी बात सुनोगी? मैं जो चित्रित करना चाहता हूँ उसे चित्रित करोगी? अथवा तुम भी इस वफ़ाई की भांति अपनी ही मनमानी करोगी?”

तूलिका ने कोई प्रतिभाव नहीं दिया। जीत भी मौन हो गया। केनवास, रंग, तूलिका तथा चित्र में खो गया।

तीन चार घंटे बीत गए। वफ़ाई कक्ष से बाहर आई। जीत अभी भी अपने चित्र में व्यस्त था। वफ़ाई चुपचाप झूले पर बैठ गई। अनायास ही झूले को चलाने लगी। झूला धीरे धीरे झूलने लगा, वफ़ाई को झूलाने लगा।

वफ़ाई ने आस पास द्रष्टि घुमाई। प्रत्येक वस्तु को ध्यान से देखने लगी, जैसे उन सभी वस्तुओं को मन भर देख कर मन के किसी कोने में छुपाकर रखना चाहती हो, हंमेशा के लिए।

“अरे, तुम कब यहाँ आकर बैठ गई?” झूले की आवाज सुन कर जीत ने झूले की तरफ देखा। वफ़ाई मंद मंद झूल रही थी।

“यूं समझ लो कि जब तुम्हारी मुझ पर द्रष्टि पड़ी बस तब ही।” वफ़ाई ने झूले को रोका और खड़ी हो गई। जीत के पास जा पहोंची।

“बातें वातें सब बाद में। सब से पहले भोजन लिया जाय। चलो आ जाओ अंदर।“

जीत ने तूलिका को डिश में रखा और वफ़ाई के पीछे पीछे भोजन के लिए अंदर प्रवेश कर गया। कक्ष को देखकर वह चौंक गया।

“यह सामान, तुम कहीं जा रही हो क्या?” जीत के सामने बंधा हुआ वफ़ाई का कुछ सामान था।

“हाँ।“

“कहाँ? कब? क्यूँ?”

वफ़ाई ने अपने होठों पर उंगली रखकर संकेत में ही कहा कि वह भोजन के बाद सब बताएगी।

दोनों ने मौन ही भोजन समाप्त किया।

“मैं झूले पर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ।“ जीत बाहर आ गया।

वफ़ाई जब आई तो जीत ने फिर वही प्रश्न किया। अनेकों बार पूछने पर भी वफ़ाई ने कोई उत्तर नहीं दिये।

“तुम मेरे प्रश्नों के उत्तर क्यूँ नहीं दे रही हो?” जीत चिढ़ गया।

“धैर्य रखो, समय आने पर मैं सब कुछ बता दूँगी।“ वफ़ाई ने बात टाल दी।

वफ़ाई, जब तक तुम स्वयं नहीं बताती, मैं तुमसे कुछ नहीं पूछूंगा। बस मौन रहकर ही सब देखता रहूँगा। जीत ने भी निश्चय कर लिया।

दो दिन बीत गए। क्वचित ही दोनों में से कोई कुछ बोला होगा इन दो दिनों में। जीत चित्रों को बनाता रहा, वफ़ाई सामान बांधती रही। वफ़ाई ने लगभग पूरा सामान बांध लिया। उसने सभी चित्रों को भी बांध लिया।

तीसरे दिन वफ़ाई सूरज निकलने से पहले ही जाग गई। बंधा हुआ सब सामान जीप में डाल दिया। जीत के जागने से पहले वह यात्रा के लिए तैयार हो गई।

“मैं कहीं जा रही हूँ। मैं आज रात को नहीं लौट पाऊँगी। कल दोपहर तक लौट आऊँगी। तुम अपना ध्यान रखना।“ वफ़ाई ने जीप की तरफ जाते जाते जीत को सूचित किया।

जीत वफ़ाई को देखने लगा। नारंगी टीशर्ट, नीचे काली जींस की पेंट, खेल के जूते, आँखों पर एनक, खुले केश तथा उँगलियों पर जीप की चाभी घुमाती हुई वह बड़ी ही सुंदर चाल चलती हुई जीप तक जा पहुंची। उसने जीप का दरवाजा खोला, गले में लटक रहे केमरे को बाजू वाली सीट पर रखा और स्वयं चालक स्थान पर बैठ गई।

“अरे ओ बर्फ सुंदरी, यह आग सी चाल ले कर कहाँ चल दी? किसको जलाने का इरादा है?” जीत ने मन की बात छुपाकर वफ़ाई को छेड़ा। किन्तु उन शब्दों में वह उत्साह नहीं थी जो एक लड़का एक लड़की को जब छेड़ता है तब होता है। वफ़ाई ने केवल स्मित किया।

“तुम लौट कर तो आओगी ना?“ जीत ने संदेह व्यक्त किया।

“तुम मेरा विश्वास कर सकते हो।“ वफ़ाई ने चाभी घुमाई, जीप चालू हो गई।

“यदि तुम लौटकर नहीं आई तो?”

“प्रतीक्षा करो। समय सभी प्रश्न का उत्तर देता है। मेरी प्रतीक्षा करना। अपना ध्यान रखना।“

वफ़ाई ने जीप दौड़ा दी। जीप के मार्ग की रेत, जो कई दिनों से आलसी होकर रास्ते पर पड़ी रही थी, जाग उठी और जीप के चलते ही जमीन से उठकर हवा में उड़ने लगी। रेत के बादलों में जीप धूमिल हो गई, खो गई। जब रेत शांत हो कर पुन: मार्ग पर लेट गई तब तक जीप दूर जा चुकी थी।

जीत अंदर लौट गया। पुन: अकेला हो गया। झूले पर जा बैठा। मन में विचारों का प्रवाह चलने लगा, झूला भी।