deshee daaroo kee bhaththee books and stories free download online pdf in Hindi

देशी दारू की भठ्ठी

ये कहानी वास्तविक घटनाओं पर आधारित है जो गांव, शहर, कस्बा, समाज, देश को सत्य का शीशा साफतौर दिखाती है, बिना शंक गुजाइश किये बगैर... क्योंकि गुजरात और राजस्थान जैसे कई राज्यों में दारूबंदी की आड़ में हकीकत की कुछ और ही तसवीर नज़र आती है । जिसकी वजह से आम इंसान की जिंदगी नशे के लत में डूबकर दिन-प्रतिदिन तबाह होने लगीं है ।।

' देशी दारू की भठ्ठी ' एक सामाजिक स्टोरी है जो गुजरात और राजस्थान की सरहदी इलाकों में हजारों तादाद में जहर उगलती देशी दारू की भठ्ठीयों के विषय में अक्सर किस्से बयाँ करतीं है, जहाँ आज भी कानून के एहसास फरामोश में रात-दिन दारू बनता है, बिकता है, लोंग पीते है, मरते है बिना रोकटोक किये बगैर.. बेखौ़फ होकर ग्रामीण से लेकर शहर तक खुलेआम देशी दारू का व्यापक प्रमाण में व्यपार होता है । जिसकी वजह से कई हंसते-खेलते परिवार बर्बाद हो गये, कई घरों में उम्मीद का या जिम्मेदारी का चिराग बुझ गये, कुछ अशक्त होकर हड्डियों का ढांचा बन गए, अब युवा पेढी़ भी इस राह का अनुचरण करके चल पड़ी है । वहाँ अनगिनत स्त्रियों का सुहाग उजड़ गया और कुछ स्त्रियाँ पर रोजमराॅ जिंदगी में असहनीय, अकल्पनीय जुल्म की शिकार बनती रही फिर भी सरकारें कोई ठोस कदम नही उठाती, बस झूठे वादे और वचन देकर लोंगो को अक्सर भटकती है । इसलिए हकीकत तथ्यों को उजागर करती संपूर्ण कहानी आपके समक्ष नीचे प्रस्तुत है ।

नदी के छिछलें पानी में लालजी की देशी दारू की दो भठ्ठीयां पूरजोर से चल रही थी । साथ में दारू पीने आनेवाले लोंगो का काफी जमावडा़ अक्सर लगा रहता था । इसलिए लालजीने दारू बनाने के लिए दो व्यक्ति को डिलर के पद नियुक्त किया था, तथा तीन व्यक्ति को डिलवरी पद पर रखा था, जो तैयार दारू को बड़े-बड़े अड्डों पर बाईक पर पहुंचाया करते थे । और एक व्यक्ति को दारू बनाने के लिए कच्चा माल-सामान लाने के लिए रखा था । जिसकी बदौलत लालजी का अड्डा ज्यादा दारू बेचने के मामले में मशहूर था । इसलिए उसका बोलबाला होना स्वाभाविक था, जो छोटे से साहब से लेकर बड़े अफसरो़ तक उसकी अच्छी पहचान थी । जिसके बलबूते पर वो जहर की फैक्टरी बिंदास चला रहा था । क्योंकि यहाँ रूपयों के जोर पर कानून का इमाम भी साफ-साफ बिक जाता था ।

(धनाने रमेश से पूछा .. ) " भाया कितनी मटकी दारू निकाला ?"

" बीच, पच्चीस मटकी का प्योर दारू निकाला है । "

" शायद सर्दियों के दिन की वजह से दारू लम्बे समय तक पीने के लिए टिक पाता है, वर्ना गर्मियों के दिनों में तुरन्त खट्टा हो जाता है । "

" उस वक़्त दारू की माँग में काफि गिरावट आता होगी ? "

" आप गलत सोच रहे हैं इसा हरगिज़ नही होता क्योंकि लोग सुबह से लेकर शाम तक देशी दारू के नशे में हद से ज्यादा डूबे रहते है ।"

इतने में आग बबूला होकर बाबू की पत्नी आकर कहती हैं " तुम सभी अड्डे वालों को मेरी हाय लग जाये, क्योंकि मेरे पति को लगातर दारू पीलाकर खाट में मरने के लिए छोड़ दिया ? "

" बहनजी.. इस में हमारा क्या कसूर तुम्हारा पति खुद पीने के लिए चला आता है । "

" कसूर तो तुम्हारा ही है जहर का नशा बना बनाकर लोंगो को मारने का क्या खूब गोरखधंधा खोलकर बैंठ गये है ? "

" बहनजी.. हमें इस तरह कसूरवार मत ठहराए... क्योंकि हम तो लालजी सेंठ के नोकर है, कुछ चंद रूपयों के लिए दारू बनाने का कार्य करते है । "

" क्या तुम्हें पता है एक दिन तुम्हारा संपूर्ण परिवार दारू के जहर में तबाह हो जाएगा ?"

तभी ऐसा तीखा प्रश्न सूनकर रमेशने क्रोध में कहा - " जब होगा तब देखा जाएगा, तुम्हें क्यूँ हमारी इतनी फिक्र होती है, पहले तुम अपने पति को पल्लू से बांधकर रख.. फिर दूसरों के मामलो में टाग अडाना ?

" लगता है दारू का नशा कुछ अधिक दिल-दिमाग पर चढ़ कर बोलता है ? "

" औरत हैं इसलिए तेरा लिहाज किया वर्ना डंडे के फटके पडेगे तो तुम कहीं मुँह दिखाने को भी लायक नही रहोग

"वाह.. क्या खूब मर्दानगी की बात करते हो, अकेली औरत को अबला समझकर उसे डराने का यथार्थ प्रयत्न करते हो, फिर कहां गया तुम्हारा भीतर का वो स्वाभिमान ??? "

ऐसा प्रत्युत्तर सूनकर उनके चेहरे पर सन्नाटा सा गया । जैसे वो हकीकत में कसूरवार या शर्मिंदा हो ऐसा भाव साफतौर मालूम पड़ने लगा था ।।


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------ शेखर खराडीं ईडरिया