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झिरी - 2

झिरी

प्रियंका गुप्ता

भाग - २

बत्ती फिर जला तेज़ी से वो दरवाज़े की ओर लपका। कुंडी खोल दरवाज़े को खींचा तो याद आया, वो तो बाहर से बन्द था। उसे पहली बार भाभी पर दिल से गुस्सा आया...। अपना तो मज़ाक हो गया, यहाँ जान पर बन आई हो जैसे...। ऐसा लग रहा था मानो हाथ-पैर कट गए हों..। उसने एहतियात से दरवाज़े को फिर खींचा...कुछ इस तरह कि आवाज़ न के बराबर हो...। हिलाने से किसी तरह अगर दरवाज़ा खुल जाए तो वो कोई इंतज़ाम भी करे...। अब अन्दर वो करे भी तो क्या...और अगर कुछ किया नहीं तो ये रात कैसे कटेगी...? ये क्या कोई रोज-रोज आने वाली रात है...? अब अगर ये उसका अपना कमरा होता तो पचासों साधन थे वहाँ...पर बुरा हो सहारनपुर वाले चाचा का...। उन्होंने ही तो आइडिया दिया था कि इस मेहमानों वाले कमरे में ए.सी लगा है, सो नई बहुरिया को शुरुआत में तो यहीं टिका दिया जाए...। तब तक बंटी के कमरे में ए.सी लगवा दिया जाएगा...। आखिर इत्ती गर्मी में कम-से-कम उस नई बच्ची का समय तो सही से बीते...वर्ना क्या कहेंगे उसके पीहर वाले...। चार दिन भी चैन से न कटे...।

सुनयना हैरानी से उसे ताक रही थी। ये क्या हो गया...? कुछ पल पहले तक तो नहीं लग रहा था कि वो अभी तक सुबह की बात से नाराज़ हों...फिर अचानक क्यूँ उससे इतनी बेरुखी कि कमरा ही छोड़ के भाग रहे...? उसकी मोटी-मोटी आँखों में उससे भी मोटे आँसू भर गए...। क्या करे...कैसे मनाए...किस तरह माफ़ी माँगे कि वो रुक जाएँ...? उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। कहीं कुछ बोले और वो और भी ज्यादा गुस्सा हो गए तो...? अभी तो ठीक से स्वभाव भी नहीं समझ पाई उनका...।

समीर को अजीब सी छटपटाहट महसूस हो रही थी। वो तेज़ी से कमरे में एक कोने से दूसरे कोने चक्कर काट रहा था। पूरा ड्रेसिंग टेबिल खाली कर दिया था...। कुछ तो मिल जाए जिससे वो झिरी बन्द हो जाए...। कोई कील...फ़ेवीकोल...कुछ भी...। पर भला उस कमरे में इन चीज़ों का क्या काम...। इस आपाधापी में दूध का गिलास गिरते-गिरते बचा...। अरे, इसे तो बिल्कुल ही भूल गया था...। पर दिमाग़ इतना बेचैन था कि दूध पीने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी...। तो क्या करे...गिलास गिर गया और दूध फैल गया तो इस समय पोंछेगा कौन...? सो बिना सुनयना की ओर देखे उसने गिलास उसकी ओर बढ़ा दिया,"लो...पी जाओ...।"

सुनयना इस अप्रत्याशित आग्रह से हड़बड़ा गई,"पर भाभी तो ये आपके लिए रख गई थी...आपको पीना था ये...।"

"अरे भाड़ में गई भाभी...जितना कह रहा हूँ, उतना करो...।" वो न चाहते हुए भी बुरी तरह झल्ला गया...। कितना बहस करती है ये लड़की...हद है...। पति क्या कह रहा, उसकी चिन्ता नहीं...जेठानी क्या कह गई, उसकी परवाह है...।

सुनयना भी घबराहट में एक ही साँस में गटागट सारा दूध पी गई। इतना भी नहीं कह पाई कि दूध उसे बिल्कुल सूट नहीं करता...पेट खराब हो जाता है...। गिलास सुनयना से लेने के लिए उसने हाथ बढ़ाया तो उस के चेहरे पर निगाह पड़ते ही परेशान होने के बावजूद बेसाख़्ता उसकी हँसी छूट गई...दूध ने उसके होंठो के ऊपर मूँछ की-सी रेखा छोड़ दी थी...। बिल्कुल बिल्ली लग रही थी जो मानो अभी-अभी चुरा कर दूध पी आई हो...। सुनयना की आँखों की हैरानी और बढ़ गई थी...। भगवान...कैसा पति मिला है...। पल में माशा...पल में तोला...। कभी खुश...कभी नाराज़...। कैसे कटेगी ज़िन्दगी...? सुनयना की मनःस्थिति से अनजान समीर हँसी परे धकेल वापस अपने अभियान में जुट गया। कुछ-न-कुछ करके ये झिरी तो बन्द करनी ही थी...। वरना किला फ़तेह करने की कौन कहे, दरवाज़ा भी न खोल पाएगा उस किले के...।

बहुत माथापच्ची करने के बाद भी कुछ समझ नहीं आ रहा था। सुनयना ने बहुत डरते हुए धीमे से पूछा भी...क्या हुआ...पर उसने कुछ जवाब नहीं दिया। आखिर बताता भी तो क्या...? और कैसे...? बरसों पहले छोटके चाचा की शादी में मझली चाची ने जो शरारत की थी, किसी को नहीं पता कि उस घटना का वो चोरी-छुपे ही सही, पर चश्मदीद गवाह बना था...। उस समय वो यही बीसेक साल का तो था ही...। छोटके चाचा और उन सब में भी कोई खास फ़र्क थोड़े न था...। सबसे बड़े होने के नाते तीनो छोटे भाइयों की शादी-ब्याह अम्मा बाऊजी ही तो निपटाए थे...। छोटके चाचा को तो वो और दीपू भैया कई बार ‘यार’ कह कर ही बुलाते थे, पर अकेले में...। चाचा तो रिश्ते के लिहाज में कहना पड़ता था...। और मझली चाची...वो शान्ति भाभी से कोई कम थोड़े न थी...। किसी को पता भी न चला था कि कब नए-नवेले दूल्हा-दुल्हन का कमरा सजाते समय दरवाज़े में ये झिरी छिद गई...। पता तो उसे भी न चलता अगर चाचा की शादी की रात पानी पीने वो रसोई की तरफ़ न जा रहा होता...। घर में छाए गहन सन्नाटे और अन्धेरे के बीच मझली चाची का यूँ दरवाजे से आँखें चिपका अन्दर के हर दृश्य पर सिसकारी भरना वो आज तक नहीं भूला है...। अगर वो चाची न होती तो निश्चित तौर पर पूरे घर को उनकी इस हरकत का पता चल गया होता...। पर चाची के लिहाज में उसने ज़बान पर ताला लगा लिया था...खुद मझली चाची को भी पता नहीं था कि उनकी इस हरकत का कोई गवाह भी था...। फिर छोटके चाचा के दूसरे शहर में सैटिल होने के साथ ही वो कमरा मेहमानों का कमरा हो गया और वक़्त के साथ-साथ कब वह दृश्य भी उसके मानस-पटल की गहराइयों में दफ़न हो गया, पता ही न चला...।

आज अन्धेरे में चमकी उस पतली-सी रोशनी की लकीर ने नए सिरे से सारी यादें ताज़ा कर दी...। क्या पता, किन्ही आत्मीय क्षणों में मझली चाची ने शान्ति भाभी को सब बता ही दिया हो...। वैसे भी एक स्वभाव होने के कारण उन दोनो में पटरी भी कुछ ज्यादा ही बैठती है...। अगर भाभी ने भी वही किया जो चाची ने...तो...।

वो सहसा चौंक पड़ा...। दरवाज़े के बाहर किसी की आहट तो हुई थी। तेज़ी से लपक कर वह दरवाज़े के पास उकड़ूँ बैठ गया और आँखें झिरी से कस कर चिपका ली...। कोई दिखाई तो नहीं पड़ रहा था उधर...पर उसे यक़ीन हो चला था...हो-न-हो...कोई तो था...। अच्छी तरह काफ़ी देर तक नज़रें दरवाज़े से चिपकाए रखने के बावजूद जब कोई नहीं दिखा तो वो हार कर उठने लगा...यूँ उकड़ूँ बैठे-बैठे पैर भी तो अकड़ गए थे। पर उठते ही लड़खड़ा कर गिर पड़ा...। पता नहीं कब उसे ऐसी अवस्था में देख सुनयना उठ कर उसके पीछे आकर खड़ी हो गई थी...। उससे ऐसा टकराया कि खुद तो गिरा ही, उस बेचारी को जो चोट लगी, सो अलग...।

‘उई माँ...’ कह कर उसे अपना माथा पकड़ते देख वो पल भर के लिए सब भूल गया। वापस पलंग पर बैठा वो जल्दी-जल्दी उसका माथा सहलाने लगा था। जब उसे तसल्ली हो गई कि सुनयना की चोट कम हो गई, तब कहीं जाकर उसका ध्यान वापस झिरी की ओर मुड़ा...।

अच्छी आफ़त हो गई थी। वो नहीं चाहता था कि वो कल सबके मज़ाक का पात्र बने...। मझली चाची तो सबके डर से चुप रह भी गई थी, पर ये शान्ति भाभी...। वो तो पूरी गब्बर सिंह थी...जो डर गया, साला समझो...वो मर गया...। वो तो पक्का पूरे घर भर को इकठ्ठा करके उसकी जो बैण्ड बजाने वाली हैं कि फिर...तौबा...।

उसकी निगाह सहसा कोने में रखी तौलिया पर गई...। अगर ये किसी तरह दरवाज़े पर टिक जाए तो पर्दा हो जाएगा...। जब काम निपट ही जाएगा...फिर चिन्ता काहे की...। कल कुछ भी करके कमरा तो बदल ही लेगा...। नहीं तो झिरी ही बन्द कर देगा...पर असल बात तो आज रात की थी...। उसने तौलिया उठा कर ऊपर अटकाने की कोशिश की तो न तो वो वहाँ टिकी, न ही उसकी लम्बाई-चौड़ाई ही इतनी लगी कि अगर टिक भी जाए तो झिरी को ढाँक सके...। झल्ला कर उसने तौलिया दूर फेंक दिया...। पल-पल उसका फ़्रस्ट्रेशन बढ़ता जा रहा था। काश! एक बार याद आ जाता दिन में तो इस समय इतनी परेशानी न उठा रहा होता। अब तो मन कर रहा था, उसी दरवाज़े से सिर फोड़ ले...।

थक-हार कर वो वापस पलंग के पायताने बैठ गया...। कुछ न होने का आज...। वो और सुनयना...दोनो आज पलंग के दो सिरों पर बैठ कर सत्संग करेंगे...और कुछ नहीं...। उसने बेबस निगाहों से सुनयना की ओर देखा। वो हैरानी से उसे ताक रही थी। उसे अपनी ओर देखते पा घबरा कर उसने फिर नज़रें नीचे कर ली।

सहसा समीर की निगाह सुनयना के हाथों की ओर गई...।

"ओ लो...मार दिया पापड़ वाले को...।" भावातिरेक से समीर उछल पड़ा और बिना सोचे-समझे उसकी इस अप्रत्याशित खुशी से अवाक हो गई सुनयना को गले लगा लिया।

"जानू...अब तक क्यों नहीं सूझा ये...।"

सुनयना समझ ही नहीं पा रही थी कि समीर उससे क्या सूझने-बूझने की बात कर रहा था। पर पूछती भी तो कैसे...? समीर तो कोने में रखे अख़बार से कागज़ की एक पट्टी सी फाड़ रहा था। उस कागज़ के टुकड़े को हाथ में ले उसने उसी तरह मरोड़ना शुरू कर दिया, जैसा अभी कुछ देर पहले वह अपनी साड़ी के आँचल के साथ कर रही थी...। कागज़ नुकीली सलाई का रूप ले चुका था। समीर ने बड़े इत्मिनान और एहतियात से दरवाज़े के पास बैठ कर उस सलाई को झिरी में डालना शुरू कर दिया। पाँच मिनट बाद अपने काम से संतुष्ट हो जब वो खड़ा हुआ, तो बिन देखे भी सुनयना इतना समझ गई थी कि उसके चेहरे पर तृप्ति का भाव था।

आत्ममुग्ध-सा खड़ा समीर कुछ देर दरवाज़े के उसी हिस्से को बड़े गौर से देखता रहा, फिर उसने मुड़ कर बत्ती बुझा दी...।

"लो जानू...आ गया तुम्हारे पास..." समीर ने उसके पास आकर अभी उसे बाँहों में लेने की पहल की ही थी कि सहसा ही चिहुँक पड़ा।

बाहर से दरवाज़े की कुण्डी खुलने के साथ ही उस पर ज़ोर-ज़ोर से थाप पड़ने लगी थी...। कई दबी हुई खिलखिलाहटों के बीच भी शान्ति भाभी की आवाज़ साफ़ थी,"लल्ला जी...अब किले से नीचे भी उतरोगे कि फ़ायर-ब्रिगेड मँगवानी पड़ेगी...?"

समीर ने बेचारगी से एक बार सुनयना की ओर देखा और पलंग से उतर दरवाज़ा खोलने बढ़ गया...।

(प्रियंका गुप्ता)