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यादें - 1

यादें

प्रियंका गुप्ता

भाग - १

यादें...यादें...और यादें...। कितनी अजीब होती हैं न यादें...? कभी ब्लैक एण्ड व्हाइट, तो कभी सतरंगे इंद्रधनुष-सी रंग-बिरंगी...। वही यादें जो कभी तो जीने का संबल बन जाती हैं तो कभी वही यादें सारे मनोबल तोड़ भी देती हैं...। कभी हँसाती, कभी रुलाती, कभी सखी-सहेली सी सहलाती-गुदगुदाती, तो कभी बिल्कुल ही वर्स्ट एनिमी की तरह घाव पे घाव दे जाती यादें...। यादों का जंगल बड़ा निर्मोही होता है...। एक बार भटक जाओ इसके अंदर तो फिर निकलना...लगभग नामुमकिन...। या फिर एक रेतीले समुद्र सी यादें...हर कदम पर आधे शरीर तक धँस जाओ और फिर निकलने की जद्दोजहद में और धँसते चले जाओ...।

यादें, जो दफ़न होती हैं दिल के किसी कोने में...। ग़लत सोचते हैं वो लोग जो यादों का ताल्लुक दिमाग से जोड़ते हैं...। दिमाग तो बड़ा कैलकुलेटिव होता है, बड़ा जोड़-गुणा-भाग करता है...। हर चीज़ में नफ़ा-नुकसान देखने बैठ जाता है...। यादों का पिटारा भले दिमाग रूपी अलमारी में जतन से रखा रहता हो, पर उसकी चाभी तो सिर्फ़ दिल के पास ही होती है। जरा भी मौका लगा नहीं कि पिटारा खुल गया...। फिर बड़े सम्हाल-सम्हाल कर निकाल कर सजती हैं यादें...वहीं, दिल के ताखे पर...। मैं तो घण्टों उन्हें निहारती रह सकती हूँ...बिना थके...।

तुम्हें अक्सर मेरी इसी बात से चिढ़ होती थी न...जब मैं तुम्हें तंग करती थी, तुम्हारे भूल जाने पर...। एक दिन कैसे चिड़चिड़ा कर तुम बोल पड़े थे...क्या करूँ फिर, अगर तुम्हारी याद‍दाश्त इतनी अच्छी है तो...? एवार्ड दे दूँ कोई...गोल्डेन ग्लोब अवार्ड...फ़ॉर बेस्ट मेमोरी...। मुझे बहुत मज़ा आया था तुम्हारी बात पर...। पता है, जब तुम यूँ चिढ़ कर मुझे मुँह बिराते हो तो कितने क्यूट लगते हो...। तुम्हें इसी रूप में देखने के लिए ही तो कई बार मैं जानबूझ कर तुम्हें तंग करती थी...फ़ालतू-सी बातें कर तुम्हें छेड़ती थी...और तुम छिड़ भी जाते थे, कितनी आसानी से...।

लो देखो, फिर भटक गई न यादों के जंगल में...। तुम होते यहाँ तो...? पर तुम तो अब कभी होगे ही नहीं यहाँ...। जाने कहाँ होगे, दुनिया के किस कोने में होगे, क्या मालूम...। सच कहूँ, जब तुम गए न...दिल तो चाहता था कि पूछूँ तुमसे, कहाँ जाओगे...पर मैने एक बार फिर सख़्ती से दिल का कहा टाल दिया। अगर तुम बताना ही चाहते तो फिर ये क्यों कहते...क्या फ़र्क पड़ जाएगा, अगर जान लोगी...? इसीलिए दोबारा पूछने या जानने की कोशिश ही नहीं की...। क्या करती जान कर...क्या पहुँच पाती कभी तुम तक...? नहीं न...फिर क्यों कोशिश करती...? और फिर तुम्हारा कहा भी तो मानना था न...कभी तुम्हारी कही कोई बात टाली भी तो नहीं...।

तुम भाग्य को बहुत मानते थे न...हमेशा कहते थे, वी वर डेस्टिन्ड टू मीट...सो वी मेट...। तो बताओ तो ज़रा, क्या यूँ अलग हो जाना भी भाग्य का ही खेल था...? हमारा किया-धरा कुछ नहीं था क्या? जब तुमने कहा था, तब नहीं मानी थी तुम्हारी बात, पर अब मानती हूँ...बहुत कुछ किया-धरा हमारा ही था।

मैं तो शुरू से थोड़ी इम्पल्सिव थी, पर तुमको क्या हो गया था...? तुम तो हर बात को बहुत गहराई से नापते-तौलते थे न...हर बात का विश्लेषण करके तब कोई निर्णय लेते थे न...फिर हमारे मामले में क्यों इतनी जल्दबाज़ी कर गए...? लो देखो तो, तुम्हारे साथ ने मेरी हिन्दी कितनी सुधरवा दी न...? कैसे कठिन-कठिन शब्द इस्तेमाल कर रही...। पर सिर्फ़ यही क्यों, कितने मामलों में मैं अब ‘मैं’ रही ही कहाँ...‘तुम’ बन चुकी हूँ...।

पता है तुम्हें, तुम नहीं हो पर आज भी हमारे म्यूज़िक सिस्टम में वही गाने बजाती हूँ मैं, तुम्हारी पसन्द के...। मुझे अब याद भी नहीं आता कि मुझे कौन से गाने पसन्द थे तुमसे मिलने से पहले...। सुनती भी हूँ तो बड़े अजनबी-से लगते हैं वो...जैसे कभी-कभी खुद से मिल कर अनचीन्हा कर देती हूँ खुद को ही...। याद है, जब रोज रात को तुम्हारी बाँहों का तकिया बना कर मैं तुम्हारे साथ गुनगुनाया करती थी...? बैकग्राउण्ड में ये गाने बजते थे और इधर तुम गाते रहते थे उनके साथ...। बीच में जहाँ तुम चुप हो जाते, मैं गाना शुरू कर देती। एक दिन तुमने कहा भी तो था, देख लेना...एक दिन ऐसा आएगा कि इन गानों के अलावा तुम्हें कोई और गाने पसन्द ही नहीं रहेंगे...इतना प्यारा बना दूँगा इन्हें तुम्हारे लिए...। तुम कभी-कभी भविष्य देख लेते थे क्या...?

कह तो रही हूँ, पर काश! सच में तुम भविष्य देख पाते तो कभी वादा न करते, कभी न कहते कि चाहे कुछ भी हो जाए, कोई साथ हो न हो, मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगा...और हमेशा की तरह मैं तुम्हारी बात पर यक़ीन कर तुमसे चिपट, यूँ निश्चिन्त होकर न सो जाया करती हर रात...। जाने क्यों तुम्हारी कही हर बात पर यक़ीन होता था मुझे...। अबरार पर कभी इतना विश्वास नहीं हुआ था। शायद उनका हर बात से खुलेआम मुकर जाना ही इसकी वजह रहा हो। पर तुम तो ऐसे नहीं थे...। मुझे याद नहीं पड़ता कि तुमने कभी मुझसे कोई वादा किया हो और उसे पूरा न किया हो। हाँ, जिस बात में तुम श्योर नहीं होते थे, उसके लिए साफ़ तौर पर वादा नहीं करते थे...सिर्फ़ एक छोटा-सा ‘ओके’ बोल कर काम चला लेते थे...। पर मेरे लिए तो वो ‘ओके’ ही बहुत होता था तुम पर एतबार करने के लिए...ये मान लेने के लिए कि तुमने कहा है तो आज नहीं तो कल, ये बात पूरी होगी ही...।

मैं इस मामले में थोड़ी कच्ची थी न...? एक झटके से कह तो देती थी, हाँ...पर फिर नहीं कर पाती थी...इम्पल्सिव थी न...थोड़ी-सी जल्दबाज़-ज़िद्दी भी...। तभी तो तुम्हारा फ़ेवरेट ताना था मेरे लिए...मैं तो भई जो वादा करता हूँ, निभाता हूँ...वरना यहाँ तो यार लोगों को मालूम ही नहीं, अपनी ज़बान निभाई कैसे जाती है...। मैं अन्दर तक कट कर रह जाती...।

पर सच कहूँ, आज ये ताना मैं तुम्हें मार सकती हूँ...। तुमने बहुत सारे वादे निभाए, पर हमारी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा वादा निभाने में चूक गए...और मैं...? छोटी-छोटी बातों में भले ग़लतियाँ करती रही होऊँ, पर एक वादा तो आज भी पूरी शिद्दत से निभा रही हूँ न...? कौन सा...ये भी कहने की ज़रूरत है क्या...?

ये तुम्हारा ‘ओके’ वाला रवैया तो तब भी रहता था जब मैं तुमसे ज़िद करती थी अपने घर वालों से मिलवाने का...। बड़ी आसानी से टाल जाते थे तुम हर बार...बस एक ही रट...क्यों परेशान होती हो जान...बहुत जल्दी मिलोगी सबसे...। सबको स्वीकार करना ही होगा तुम्हें, बस थोड़ा सब्र रखो...और मैं हर बार की तरह फिर एतबार कर लेती थी तुम्हारा...। जब तुम कह रहे, तो ऐसा ही होकर रहेगा...। निहारिका को जब पता चला था न इस बात का, तो बहुत नाराज़ हुई थी। हज़ार बातें सुना डाली थी उसने...मेरी बेवकूफ़ी पर एक लम्बा-चौड़ा लेक्चर दे डाला था उसने...। पागल लड़की, वो इस्तेमाल कर रहा तेरा...और तू इतनी पढ़ी-लिखी, इतनी इंटेलीज़ेण्ट होने के बावजूद उसके हाथ की कठपुतली बनी हुई है...। जैसा चाहता है, वैसा नचा रहा है तुझे...। पर मैंने एक नहीं सुनी थी उसकी...उल्टे उसी से लड़ बैठी थी। अबरार के धोखे मैने सहे थे और सारे मर्दों से नफ़रत वो कर रही थी...। पाँचों उँगली एक जैसी नहीं होती...तुम भी अबरार जैसे नहीं थे न...?

निहारिका की तरह तुम भी तो अबरार से कितना चिढ़ते थे...उसे मर्दों के नाम पर कलंक कहते थे न...। एक बार बहुत ज्यादा गुस्से में आने पर मैने बस इतना भर ही तो कह दिया था...तुम भी अबरार की तरह बिहेव कर रहे...और तुम कैसे दीवार पर अपना सिर मारने पर आमादा हो गए थे...। मैं घबरा गई थी बिल्कुल...सारा गुस्सा भूल बस तुमसे माफ़ी माँगे जा रही थी और तुम मुझे अपने सीने से लगा बस यही कह रहे थे...गन्दी-से-गन्दी गाली दे देना, पर कभी अब भूल कर भी उस हैवान से मेरी तुलना मत करना...। वरना सच में हमेशा के लिए चला जाऊँगा...। मैने फिर कभी तुम्हारी तुलना तो नहीं की न उससे...फिर भी तुम अपना कहा कर गए...।

तुम कई बार कहते थे न, ज़ारा...हम दोनो एक-दूसरे के साथ सिर्फ़ इस लिए हैं क्योंकि एक-दूसरे के साथ से हमें खुशी मिलती है...। अगर ये खुशी ही न रहे इस साथ से तो क्या फ़ायदा किसी रिश्ते को निभाने का...? जब कभी ऐसा लगे न, बेहतर होगा हम अलग ही हो जाएँ...। तुम जब भी यूँ जाने की बात करते थे न, चाहे गुस्से में ही सही, मैं बहुत डर जाती थी। मुझे तो नहीं पता था, पर निहारिका ने ही एक बार कहा था मुझसे...यार, कुछ बुरा कहने से पहले सोच लिया कर...। तेरे मज़हब का नहीं पता, पर हम लोग मानते हैं कि चौबीस घण्टे में एक पल के लिए सरस्वती हर किसी की ज़बान पर आती हैं...और उस पल में कही बात पर ‘तथास्तु’ कह कर चल देती हैं...। मैने जब तुमसे बताया था ये तो तुमने हँसी में बात उड़ा दी थी। वैसे भी जिन बातों से मैं घबराती थी, तुम ज्यादातर उन्हीं बातों को मज़ाक में ही उड़ाते थे...। पर तुमने जब हमेशा के लिए मुझे छोड़ कर जाने की बात कही थी, तब तुम्हारी ज़बान पर सच में सरस्वती जी ही तो नहीं विराजी थी...?

तुम तो हम दोनो के नाम को लेकर भी कितना मज़ाक करते थे, ये तो याद है न...या ये भी भूल गए होगे...। मुझे तो अच्छी तरह याद है हमारी पहली मुलाकात में मेरा विज़िटिंग कार्ड हाथ में पकड़े तुम कैसे मुस्कराए जा रहे थे। मुझे पहले कुछ समझ नहीं आया था कि मेरे इतने खूबसूरत नाम में तुम्हें हँसने लायक क्या लग रहा। थोड़ी कोफ़्त भी हुई थी, पर मैं वहाँ बिज़नेस डील के लिए गई थी और तुम ठहरे एक इम्पोर्टेण्ट क्लाइण्ट...। पर जब मिस्टर सिंह का पूरा नाम पढ़ा तो एकदम से बिजली कौंधी...। मिस्टर वीर प्रताप सिंह...और मैं...ज़ारा ख़ान...। तो जो तुम सोच कर मुस्कराहट दबा रहे थे, उसी बात पर मुझे एक तेज़ हँसी आ गई और फिर सारी औपचारिकता भूल पहली ही मुलाक़ात में हम दोनो खिलखिला कर हँस रहे थे...।

तुम्हारे ऑफ़िस के इंटीरियर डेकोरेशन के साथ-साथ तुमने अपने नए घर के डेकोरेशन का काम भी मुझे ही सौंप दिया था। निहारिका ने जब सारी बात सुनी थी तो खुशी से नाच उठी थी। पहली बार इतना बड़ा प्रोजेक्ट जो मिला था हमें...। बार-बार बस एक ही बात कहे जा रही थी...थैंक गॉड जो मेरे बीमार पड़ने के कारण तू गई इस डील के लिए...। वो वीर तो लगता है सच में इस ज़ारा पर मर मिटा...। मैने उस समय तो हँसी में उसकी बात उड़ा दी थी, पर मुझे सपने में भी गुमान नहीं था कि भाग्य एक अलग ही फ़िल्मी कहानी लिख रहा हम दोनो को लेकर...।

मेरी फोटोग्राफिक मेमोरी में हमारी हर मुलाकात...हमारे साथ बिताए हर लम्हे की सारी डिटेल्स मिल जाएँगी तुम्हें...। अब फिर से ये न कह देना...प्लीज़...भूल जाओ सब...। भूलना इतना आसान होता है क्या...? कैसे भूल जाऊँ मैं कि जब तक तुम्हारा घर डिज़ाइन करने का वक़्त आया था, रोज-ब-रोज की मुलाक़ातों ने हमें बहुत करीब ला दिया था। अबरार के सैडिस्ट स्वभाव के कारण मैने उससे तलाक़ लेकर अपनी ज़िन्दगी अपने ढंग से जीने का फ़ैसला लिया था, मेरी इस आज़ाद-ख्याली से तुम बहुत प्रभावित हुए थे। हाँलाकि मैं ही जानती हूँ मुझे कितनी मुश्किलात का सामना करना पड़ा था इस तलाक़ को हासिल करने में...। अबरार कभी तलाक़ न देता मुझे...उसे मज़ा आता था, मुझे एक पंख-कटे परिन्दे सा तड़पता-फड़फड़ाता देख कर, पर भला हो उसकी गर्लफ़्रेण्ड का, जिसने शादी की पहली शर्त ही रखी थी...मुझसे छुटकारा...। उस लड़की को मैं कभी बद्‍दुआ नहीं देती...फ़रिश्ता मानती हूँ उसे अपने लिए...जिसने एक दरिन्दे से आज़ाद किया मुझे...। जब तक हमारी शादी बरकरार रही, बताने के बावजूद अब्बू-अम्मी कभी नहीं समझ पाए मेरा दर्द...। अब्बू को तो यही मलाल रहा कि उन्होंने मुझे इतनी तालीम दी ही क्यों...? इसी तालीम ने मेरा दिमाग़ खराब कर दिया था...। उनके हिसाब से तो इतनी तालीमयाफ़्ता होकर मुझे अपने शौहर को खुश रखने का तरीका आना चाहिए था...। अबरार के ख़िलाफ़ कही गई एक भी बात पर उन्हें कभी भरोसा नहीं हुआ...इस लिए मैने भी कहना बन्द कर दिया था...। मैने अपना शहर भी तो इसी लिए छोड़ा था न...जहाँ अपने ही मेरा भरोसा करके मेरा साथ न दे सकें, उस शहर में रहने का फ़ायदा...?

अपनों का भरोसा खो कर मैने खुद भी किसी का भरोसा करना छोड़ दिया था...एक निहारिका के सिवा... पर तुम जाने कैसे मेरे इतने विश्वासी हो गए थे, आज भी नहीं समझ पाती हूँ। वरना जब अबरार से अलग हुई थी तो इतना टूटी थी कि लगा ही नहीं था, इस ज़िन्दगी में फिर कभी किसी मर्द का भरोसा भी कर पाऊँगी। पर तुमने जाने कब, कैसे मेरी ये पूरी सोच ही बदल डाली थी। मैने तो अपनी पूरी ज़िन्दगी ही खोल कर रख दी थी तुम्हारे सामने...वो बातें भी, जिन्हें सिर्फ़ मैं ही जानती थी या फिर कुछ हद तक निहारिका...मेरी बचपन की सहेली...मेरी राज़दार, मेरी हमदर्द...मेरी बिज़नेस पार्टनर...कहूँ तो मेरी फ़्रेण्ड, फ़िलॉस्फर, गाइड...बहुत सारे रोल निभाए थे उसने भी मेरी लाइफ़ में...। इसी लिए जब तुम्हारे साथ रहने का फ़ैसला लिया तो उसने विरोध तो बिल्कुल नहीं किया था, बस इतना भर कहा था, आगे तक का सब सोच लेना, तब इतना बड़ा फ़ैसला लेना...। तुम दोबारा टूटी तो सम्भल नहीं पाओगी, ये मैं जानती हूँ...और मैने तुम पर एतबार जताते हुए कह दिया था...ऐसा कभी नहीं होगा, मेरा दिल कहता है ये...। पर दिल भी कम्बख़्त झूठा निकला इस बार...।

तुमने यूँ दूर जाते समय एक बार भी पलट कर देखने का नहीं सोचा...? तुम तो भुलक्कड़ हो न, इसी लिए ये भी भूल गए कि जो ज़ारा तुम्हारे कुछ दिनों की जुदाई नहीं सह पाती थी, वो पूरी ज़िन्दगी कैसे काटेगी तुम्हारे बिन...। जब भी मैने तुम्हें इस बात का यक़ीन दिलाने की कोशिश की, जाने क्यों लगा, तुम कह तो रहे, पर कर नहीं रहे मेरा यक़ीन...। आज मुझे शक़ होता है कि शायद तुम्हारे मन के किसी कोने में ये बात भी थी कि जो अपने शौहर को छोड़ सकती है, वो महबूब को छोड़ने में क्या दुःखी होगी भला...? बोलो तो, क्या यही था तुम्हारे मन में...? सच कहना, मैने तो तुम्हें अपनी ज़िन्दगी ही मान लिया था, पर क्या तुम मुझे पूरी तरह से अपना भी सके थे...?

तुम्हें वो रात याद है न...? तुम टूर पर थे और हर बार की तरह मैं नींद न आने तक तुमसे बात करते रहना चाहती थी। अचानक तुमने कहा था, जान...जाने क्यों शाम से पेट में दर्द हो रहा था, अब तेज़ होता जा रहा...। लग रहा और बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा...। कुछ देर में तो बिल्कुल फट जाएगा...। सुन कर ही मैं तड़प उठी थी...। नाराज़ भी हुई थी कि जब देर से तक़लीफ़ थी तो बातें क्यों किए जा रहे थे...बताया क्यों नहीं पहले...। तुम कराह उठे थे एकदम...जान...अब सच में बात नहीं कर पाऊँगा...। फ़ौरन किसी डॉक्टर की ज़रुरत लग रही...। अगर जागती रहना तो ठीक, वरना सुबह बता दूँगा कि क्या कहा डॉक्टर ने...। बिल्कुल साधारण तौर पर कही गई तुम्हारी ये बात जैसे नश्तर की तरह लगी थी...। तुमने सोच भी कैसे लिया था कि तुम दर्द से तड़प रहे होगे और मैं यहाँ चैन से करवट बदल कर सो रहूँगी...? कोई और वक़्त होता तो शायद मैं लड़ भी जाती, पर उस समय सिर्फ़ इतना ही सहेजा था...जागी रहूँगी जान...तुम डॉक्टर को दिखा कर तुरन्त बताना मुझे...चाहे कितनी भी रात हो जाए...। भूलना मत...और न ही लापरवाही करना कि इधर फोन रखो और सुबह तक के लिए डॉक्टर को दिखाना टाल दो...मैं जो नहीं हूँ वहाँ तुम्हारी नकेल कसने को...। पर मेरी बात पूरी होने से पहले ही फोन कट चुका था।

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