Badi baqi saab - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

बड़ी बाई साब - 2

नीलू कब मुस्कुराने लगी, कब करवट लेने लगी, कब पलटने लगी, गौरी को पता ही नहीं. उसकी सहेलियां पूछतीं-”बिटिया अब तो पलटने लगी होगी न गौरी? खूब ध्यान रखना अब वरना बिस्तर से नीचे गिर जायेगी.’ गौरी क्या बताती? हंस के हां-हां कह देती. जब भी उसने सास से कहा कि वे अपना काम करें, बच्ची को दे दें सम्भालने के लिये’ तब-तब सास ने उसे झिड़क दिया-’ मुझे क्या काम करने हैं भला? अब काम करने की उमर है मेरी? तुम सम्भाल तो रही कामकाज. मुझे बच्ची सम्भालने दो. काम-वाम न होता मुझसे.’ गौरी का मन तो होता कि पलट के कहे- “उमर तो बच्ची सम्भालने की भी न रही….’ लेकिन चुप लगा जाती. नीलू भी पूरी तरह दादी से लगी थी. दिन रात उन्हीं के पास रहना, सो मां से ज़्यादा वो दादी को पहचानती थी. गौरी जब भी उसे गोद में ले, वो दादी की तरफ़ दोनों बांहें फ़ैला के रोने लगती. ऐसे में जब दादी कहतीं- ’देखा, मां से ज़्यादा प्यार करती है मुझे.’ तो गौरी के तन-बदन में आग लग जाती. मन ही मन कहती- ’जब हर घड़ी दादी ही उसे अपने पास रखेगी तो बच्चा आखिर किसे पहचानेगा? मैं तो बस उसकी भूख मिटाने का साधन हूं सो उसकी भी अब ज़रूरत न रहेगी. दाल का पानी, सब्जियों का सूप , केला तो अभी ही दिया जाने लगा है उसे. ऐसा लगता था जैसे अघोषित रूप से बड़ी बाईसाब ने बच्ची को गोद ले लिया था. धीरे-धीरे गौरी ने भी परिस्थितियों से समझौता कर लिया. करना ही पड़ा. आखिर रहना तो यहीं था. जब पति आपत्ति नहीं कर रहे बल्कि इसे दादी का अतिरिक्त लाड़-प्यार मान रहे और उसे भी कह रहे कि अपनी क़िस्मत को सराहो वरना कितनों को इतना प्यार करने वाली दादी मिलती है जो पूरा ज़िम्मा खुद ले ले? गौरी पति के इस तर्क के आगे कट के रह जाती. एक मां के दिल की हालत ये लोग क्यों नहीं समझते?
कैसा तो सामंती माहौल था गौरी की ससुराल में. यहां सामंत उसके ससुर नहीं, सास थी. पूरे परिवार नहीं, बल्कि पूरे खानदान की बागडोर उनके हाथ में थी. कहीं कोई काम होना हो, सलाह बड़ी बाईसाब से ली जाती. उन्होंने जो कह दिया, वो पत्थर की लकीर! व्यक्तित्व भी तो कैसा रौबदार था उनका. पांच फीट छह इंच ऊंची, सुगठित देहयष्टि, खूब गोरा रंग, पैंसठ की उमर में भी कमर से नीचे लहराते लम्बे-घने बाल, जो हमेशा एक जूड़े में सिमटे रहते. माथे पर खूब बड़ी लाल सिंदूर की बिन्दी कलाइयों में दो-दो सोने के कंगन और हमेशा चौड़े बॉर्डर वाली प्लेन साड़ियां. चेहरे पर ऐसी चमक कि नई उमर की लड़कियां फीकी पड़ जायें. आवाज़ में ऐसा रुआब कि हर साधारण बात भी आदेश मालूम पड़े. देवी के जगराते में अगर कभी हारमोनियम अपनी तरफ़ खिसका, तान छेड़तीं, तो सधे हुए गले के सुर देर तक गूंजते रहते. एक से बढ़ कर एक शास्त्रीय धुनों पर आधारित भजनों की झड़ी लगा देतीं. तबलची रोने-रोने को हो आता, इतनी डांट खाता. उस ज़माने की इतिहास में स्नातकोत्तर, जब लड़कियों को केवल रामायण बांचने तक का अक्षर ज्ञान कराया जाता था. अब ऐसे अद्भुत व्यक्तित्व के धनी बहुत कम होते हैं।