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अनुराधा - 3

अनुराधा

शरतचंन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 3

बाबुओं के मकान पर पूरा अधिकार करके बिजय जमकर बैठ गया। उसने दो कमरे अपने लिए रखे और बाकी कमरो में कहचरी की व्यवस्था कर दी। विनोद धोष किसी जमाने में जमींदार के यहां काम कर चुका थी. इसलिए उसे गुमाश्ता नियुक्त कर दिया, लेकिन झंझट नहीं मिटे। इसका कारण यह था कि गगन चटर्जी रुपये वसूल करने के बाद हाथ-से-हाथ रसीद देना अपना अपमान समझता था। क्योंकि इससे अविश्वास की गंध आती है जो कि चटर्जी वंश के लिए गौरव की बात नहीं थी, इसलिए उसके अन्तर्ध्यान होने के बाद प्रजा संकट में फंस गई है। मौखिक साक्षी और प्रमाण ले लेकर लोग रोजाना हाजिर हो रहे हैं। रोते झींकते हैं। किसने कितना दिया और किस पर कितना बाकी है इसका निर्णय करना एक कष्ट साध्य और जटिल प्रश्न बन गया है। विजय जितनी जल्दी कलकत्ता लौटने की सोचकर आया था, उतनी जल्दी नहीं जा सका। एक दिन, दो दिन करत-करते दस-बाहर दिन बीत गए।

इधर लड़के की संतोष से मित्रता हो गई। उम्र में वह दो-तीन वर्ष छोटा है। सामाजिक और पारिवारिक अंतर भी बहुत बड़ा है, लेकिन किसी अन्य साथी के अभाव में वह उसी के साथ हिल-मिल गया है। वह उसी के साथ रहता है-घर के अंदर। बाग-बगीचों और नदी किनारे घूमा-फिरा करता है। कच्चे आम और चिड़ियो के घोसलों की खोज में। संतोष की मौसी के पास ही अक्सर खा-पी लेता है। संतोष की देखा-देखी वह भी उसे मौसीजी कहा करता है। रुपये-पैसे के हिसाब के झंझट में विजय बाहर ही फंसा रहता है जिसके कारण वह रह समय लड़के की खोज-खबर नहीं रख सकता, और जब खबर लेने की फुर्सत मिलती है तो उसका पता नहीं लगता। अगर कभी किसी दिन डांट-फटकार कर अपने पास बैठा भी लेता है तो छुटकारा पाते ही वह दौड़कर मौसीजी के रसोई घर में जा घुसता है। संतोष के साथ बैठकर दोपहर को दाल-भात खाता है। शाम को रोटी और गरी के लड्डु।

उस दिन शाम को लोगबाग आए नहीं थे। विजय ने चाय पीकर चुरुट सुलगाते हुए सोचा, चलें नदी किनारे घूम आएं। अचानक याद आया, दिन भर से आज लड़का दिखाई ही नहीं दिया। पुराना नौकर खड़ा था। उससे पूछा, ‘कुमार कहां है रे?’

उसने इशारा करते हुए कहा, ‘अंदर।’

‘रोटी खाई थी आज?’

‘नहीं।’

‘पकड़कर जबर्दस्ती क्यों नहीं खिला देता?’

‘यह खाना जो नहीं चाहता मालिक! गुस्सा होकर फेंक-फांक कर चल देता है।’

‘कल से उस खाने मेरे साथ बैठाना।’ यह कहकर मन में न जाने क्या आया कि टहलने के लिए जाने के बजाए वह सीधा अंदर चला गया। लंबे-चौड़े आंगन के दूसरी ओर से लड़के की आवाज सुनाई दी, ‘मौसीजी, एक रोटी और दो गरी के लड्डु-जल्दी।’

जिसे आदेश दिया गया था, उसने कहा, ‘उत्तर आओ न बेटा, तुम लोगों पर पैर रखकर इस छोटी डाल को पकड़कर आसानी से चढ आओगी।’

विजय पास जाकर खड़ा हो गया। रसोई घर के सामने आम का एक बड़ा-सा पेड़ है। उसी की दो मोटी डालों पर कुमार और संतोष बैठे हैं। पैर लटकाकर तने से बीठ टिकाए दोनों खा रहे थे। विजय को देखते ही दोनों सिटपिटा गए। अनुराधा रसोई घर के किवाड़ के पीछे छिपकर खड़ी हो गई।

विजय ने पूछा, ‘यह क्या इन लोगों के खाने की जगह है?’

किसी ने उत्तर नहीं दिया। विजय ने अंदर खड़ी अनुराधा को लक्ष्य करके कहा, ‘देखता हूं आप पर यह जोर-जूल्म किया करता है।’

अबकी बार अनुराधा ने मुक्त कंठ से उत्तर दिया, ‘हां।’

‘फिर भी आप सिर चढ़ाने में कसर नहीं रखती। क्यों सिर चढ़ा रही है?’

‘नहीं चढ़ाने से और भी ज्यादा ऊधम मचाएंगे। इस डर से।’

लेकिन घर पर तो ऐसा ऊधम करता नहीं था?

‘संभव है न करता हो। उसकी मां नहीं है। दीदी बीमार रहा करती हैं। आप कामकाज में बाहर फंसे रहेत हैं। ऊधम मचाता किसके आगे?’

विजय को यह बात मालूम न हो, सो नहीं, लेकिन फिर भी लड़के की मां नहीं है-यह बात दूसरे के मुंह से सुनकर उसे दुःख हुआ। बोला, ‘आप तो मालूम होता है बहुत कुछ जान गई हैं। किसने कहा आप से? कुमार ने?’

अनुराधा ने धीर से कहा, ‘अभी उसकी उम्र कहन लायक नहीं हुई है। फिर भी उसी के मुंह से सुना है। दोपहर को मैं ईन लोगों का बाहर निकलने नहीं देती, तो भी आंख बचाकर भाग जाते हैं। जिस दिन नहीं जा पाते, उस दिन मेरे पास लेटकर घर की बाते किया करते हैं।’

विजय उसका चेहरा न देख सका, लेकिन उस पहले दिन की तरह आज भी उसकी आवाज अत्यन्त मीठी मालूम हुई, इसलिए कहने के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ सुनने के लिए बोला, ‘अबकी बार इसे घर ले जाकर बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा।’

‘क्यों?’

‘क्योंकि ऊधम मचाना एक तरह का नशा है। न मचा पाने की तकलीफ होती है। हुड़क-सी आने लगती है। दूसरा, वहां इसके नशे खुराक कौन जुटाएगा? दो ही दिन में भागना चाहेगा।’

अनुराधा ने धीरे से कहा, ‘नहीं, नहीं, भूल जाएगा। कुमार उत्र आओ बेटा, रोटी ले जाओ।’

कुमार तश्तरी हाथ में लिए उत्तर साया और मौसी के हाथ से और बी रोटियां औक गरी के लड्डु लेकर उससे सटकर खड़ा-खड़ा खाने लगा। पेड़ पर नहीं चढ़ा। विजय ने देखा की वह चीजें धन-सम्पन्न घर की अपेक्षा पद-गौरव में कितनी ही तुच्छ क्यों न हो लेकिन वास्तविक सम्मान की दृष्टिसे कतई तुच्छ नहीं थीं। लड़का मौसी की रसोई के प्रति इजना आसक्त क्यो हो गया है, विजय इसका कारण समझ गया। सोचकर तो यह आया था कि कुमार के चटोरेपन पर इन लोगों की ओर से अकारण और अतिरिक्त खर्च की बात कहकर शिष्टता के प्रचलित वाक्यों से पुत्र के लिए संकोच प्रकट करेगा और करने भी जा रहा था, लेकिन बाधा आ गई। कुमार ने कहा, ‘मौसीजी, कल जैसी चन्द्र पूली आज भी बनाने के लिए कहा था, सो क्यों नहीं बनाई तुमने?’

मौसी ने कहा, ‘कसूर हो गया बेटा! जरा-सी आंख चूक गई, सो बिल्ली ने दूध उलय दिया। कल ऐसा नहीं होगा।’

‘कोन-सी बिल्ली ने? बताओ तो, सफेद ने?’

‘वही होगी शायद’, कहकर अनुराधा उसके माथे पर बिखरे हुए बालों को संभालने लगी।

विजय ने कहा ‘ऊधम तो देखता हूं, धीरे-धीरे अत्याचार में बदल रहा है।’

कुमार ने कहा, ‘पीने का पानी कहां है?’

‘अरे, याद नहीं रहा बेटा, लाए देती हूं।’

‘तुम सब भूल जाती हो मौसी, तुम्हें कुछ भी याद नहीं रहता?’

विजय ने कहा, ‘आप पर डांट पड़नी चाहिए। कदम-कदम पर गलती करती है?’

‘हां’, कहकर अनुराधा हंस दी। असावधानी के कारण यह हंसी विजय ने देख ली। पुत्र के अवैध आचरण के लिए क्षमा-याचना न कर सका। इस ड़र से कि कहीं उसके भद्र वाक्य अभद्र व्यंग्य से न सुनाई दें। कहीं वह ऐसा न समझ बैठे कि उसकी गरीबी और बुरे दिनों पर यह कटाक्ष कर रहा है।

दूसरे दिन दोपहर को अनुराधा कुमार और संतोष को भात परोस कर साग, तरकारी परोस रही थी। सिर खुला था। बदन का कपड़ा कहीं-का-कहीं जा गिरा था। इतने में अचानक दरवाजे के पास किसी आदमी की परछाई दिखाई दी। अनुराधा ने मुंह उठाकर देखा तो छोटे बाहू थे। एकदम सकुचाकर उसने सिर पर कपड़ा खींच लिया और उठाकर खड़ी हो गई।

विजय ने कहा, एक जरूरी सलाह के लिए आपके पास आया हूं। विनोद घोष इस गांव का आदमी ठहरा। आप तो उसे जानती ही होंगी। कैसा आदमी है, बता सकती हो? गणेशपुरा का नया गुमाश्ता नियुक्त किया है। पूरी तरह उसे पर विश्वास किया जा सकता है या नहीं, आपका क्या ख्याल है?’

एक सप्ताह से अधिक हो गया, विनोद यथाशक्ति काम तो अच्छा ही कर रहा है। किसी की गड़बड़ी नहीं थी। आज सहसा उसके चाल-चलन के बारे में खोज-खबर लेने की ऐसी क्या जरूरत आ पडी? -अनुराधा को कुछ समझ में नहीं आया। उसने बड़ी मीठी आवाज में पूछा,‘विनोद भैया कुछ कर बैठे है क्या?’

‘मैं तो उन्हें अच्छा ही आदमी समझती आई हूं।’

‘हैं क्यों नहीं । वह तो आप को ही प्रामाणिक साक्षी मानता है।’

अनुराधा ने कुछ सोच-विचार कर कहा, ‘हैं तो अच्छे ही आदमी। फिर भी जरा निगाह रखिएगा। अपनी लापरवाही से अच्छे आदमी का बूरा आदमी बन जना कोई असम्भव बात नहीं है।’

विजय ने कहा, ‘सच बात तो यह है कि अगर अपराध का कारण खोजा जाए तो अधिकांश मामलों में दंग रह जाना पड़ता हा।’

फिर लड़के को लक्ष्य करके विजय ने कहा, ‘तरा भाग्य अच्छा है जो अचानक मौसी मिल गई तुझे। वरना इस जंगल मे आधे दिन तो तुझे बिना खाए ही बिताने पड़ते।’

अनुराधा न धीरे से पूछा ‘क्या वहां आपको खाने-पीने की तकलीफ हो रही है?’

विजय ने हंसकर कहा, ‘नहीं तो, ऐसे ही कहा है। हमेशा से परदेश में ही दिन बिताएं है। खाने-पीने की तकलीफ की कोई खास परवाह नहीं करता।’

यह कहकर वह चला गया। अनुराधा ने खिड़की की सेंध में से देखा, अभी तक नहाया-निबटा भी नहीं गया था।

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