Bhraman ki Beti - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

ब्राह्मण की बेटी - 10

ब्राह्मण की बेटी

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

प्रकरण - 10

प्रतिष्ठित एवं कुलीन जयराम मुखर्जी के धेवते वीरचन्द्र बनर्जी के साथ संध्या का विवाह होना स्थिर हो गया है। कन्यापक्ष के परिवार में वरपक्ष से लोगों के स्वागत की जोर-शोर से तैयारियां चल रही हैं। अगहन महीने का शुभ मुहूर्त निकला है। बहूत समय बाद जगदधात्री के घर में आनन्दोत्सव हो रहा है, इसलिए उसका उत्साह देखते ही बनता है। वह मिठाई बनाने में लगे हलवाइयों की देख-रेख कर रही है, तो उसकी बूढ़ी सास कालीतारा माला जप रही है। बुढ़िया ने भगवा रंग के वस्त्र पहन रखे है। बुढ़िया बहू से बोली, “क्यों जगदधात्री, संध्या के विवाह में अब दस दिन ही बचे हैं न?”

जगदधात्री बोली, “माँ आज के दिन को छोड़ दें, तो नौ ही दिन बाकी हैं। जब तक सारा काम ठीक ढंग से निबट नहीं जाता, तब कत तो मन को शान्ति मिल ही नहीं सकती।”

सास मुस्कुराकर बोली, “सभी कामों के सम्पन्न होने तक चिन्ता और विध्न-बाधा की आशंका बनी ही रहती है। क्यों बहू, क्या तुम अपनी लक्ष्मी-जैसी-रुप-गुणी-सम्पन्न बेटी को पानी में नहीं बहा रही हो?”

जगदधात्री बिना उत्तर दिये अपना काम निबटाने में जूटी रही। सास फिर बोली, “बहू, घर आकर जब मैंने संध्या को थोड़ा-सा टटोला, तो उसके दुःख से मेरी तो छाती फटी जा रही है। तुम माँ होकर भी अपनी बेटी के मन की न जान सकीं। अरुण जैसे हीरे को छोड़कर कंकर को तुमने कैसे पसंद कर लिया?”

जगदधात्री बोली, “मैं संध्या के दिल की सारी बात को ठीक से जानती-समझती हूँ, किन्तु क्या करूं, जब यग सम्भव ही नहीं, तो फिर” रूककर वह धीरे से बोली, “माँ जी, कामकाज का घर है, कहीं किसी के कान् में कुछ पड़ गया, तो अनर्थ हो जाएगा।”

सास तो एकदम चुप हो गयी, किन्तु अपने ऊपर नियन्त्रण न कर पाती जगदधात्री बोली, “माँ, यह बताओ कि यदि मैं अरुण का पक्ष लेती, तो क्या तुम्हारे लिए इस सम्बन्ध को स्वीकार करके अपने कुल को कलंकित करना सम्भव होता? क्या तुम इस सम्बन्ध को मान्यता देतीं? क्या तुम अपनी जाति की रक्षा को तत्पर न होती?”

जगदधात्री सोचती थी कि यह सुनकर सास को सांप सूंघ जायेगा, किन्तु सास बोली, “बहू, तुने मुझसे कहा तो होता। अरी, तुम उसे छोटी जाति का कहती हो, वह विद्या-बुद्धि में ही उच्च नहीं, अपितु जाति की द्दष्टिसे भी श्रेष्ठ है। तुमने जिन दो स्त्रियों को छोटी जाति की होने के कारण अपने घर से भगा दिया, उसने तो उन्हें आश्रय देकर अपनी महानता सिद्ध कर दी। ऐसे महापुरुष को भी तुम छोटी जाति का कहती हो? यह तो बड़ी विचित्र बात है।”

जगदधात्री क्रुद्ध स्वर में बोली, “क्या दूले, डोम आदि अनाथ होने के कारण ब्राह्मणों के साथ रहने के अधिकारी बन जाते है? क्या शास्त्रों का यही विधान है?”

सास ने कहा, शास्त्रों की बात तो शास्त्रकार जानते होंगे, किन्तु मैं तो अपनी व्यथा-कथा को जानती हूँ। छोटी जाति के लोगों से धृणा करनेक का भगवान क्या द्ण्ड देते हैं, यदि तुम मेरे साथ बीती घटना से परिचित होतीं, तो यह थोथा अभिमान कदापि न करतीं। तुझे यह समझ आ जाती कि जाति के आधार पर ऊंच-नीच का विचार करना ओछा और निन्दनीय है। यदि तुम्हें जाति-प्रथा के दोषों की थोड़ी सी भी जानकारी होती, तो तू अपनी बेटी को इस तरह गड्ढे में न धकेलती।”

क्रुद्ध स्वर में जगदधात्री बोली, जिस कुलीनता से सारा संसार चिपका हुआ है, वह क्या धोखा की टट्टी है?

सूखी हंसी हंसकर बुढ़िया बोली, बेटी यही वास्तविकता है। यह सब हम जैसे असहाय लोगों के गले मे फन्दा है। समर्थ लोग इसकी परवाह ही कहां करते हैं? मैंने धूप में बाल सफेद नहीं किये, दुनिया को खुली आँखों से देखा है। मेरी एक बात याद रखना, झूठ को सम्मान देकर ऊंचा उठाने की कितनी भी चेष्टा करो, उसे तो मुंह के बल गिरना ही है, असल में देखा जाये तो यही सब कुछ हो भी रहा है।”

“उत्तर देने जा रही जगदधात्री लड़की को आते देखकर चुप हो गयी। बगीचे में पौधों को पानी देकर लौटी संध्या ने अपने हाथ के संकेत से माँ को दिखाकर पूछा, माँ, क्या यह चन्द्रपूली नाम ही मिठाई है?” अबी माँ ने मुंह ही नहीं खोला था कि वह दादी से बोली, “दादी जी, सबके यहाँ जब इस अवसर पर लड्डु बनते हैं तो हमारे यहाँ क्यो नहीं बने?”

दादी प्यार से बोली, “यह तो अपने बाबू जी से पूछना।”

संध्या बोली, “क्या दादी, क्या तुमने इस बारे में कभी अपनी सास से नहीं पूछा था?”

अरे बेटी, ससुराल का मुंह देखना नसीब होता, तो कुछ पूछने की नौबत भा आती।

संध्या ने पूछा, “क्यों दादी, कुल मिलाकर तुम्हारी सौतिने कितनी थी? एक सो, दो सो या तीन सो?”

हंसती हुई दादी बोली, “ठीक से तो कुछ मालूम नहीं, किन्तु तुम जितनी बी हो कहो, उतनी हो सकती हैं। आठ साल की आयु में जब मेरा ब्याह हुआ था, तब उनकी पहले से छियासी स्त्रियां थी। उसके बाद भी उनके बहुत विवाह हुए, इसकी सही गिनती न उन्हे मालूम थी और न मुझे मालूम है।”

हंसती हुई संध्या बोली, “क्या दादा ने कहीं अपने विवाहों का रिकोर्ड नहीं रखा होगा? यदि कहीं वह रजिस्टर तुम्हे मिल जाता, तो अपनी सौतिनों के नाम पते से उनकी खोज खबर तो ले लेती। फिर पता चलता कि मेरे कितने ताऊं, चाचा, भाई, बहिन आदि हैं। उनमें से बहुत सारे तो अब भी होंगे। यदि कहीं उनका पता चल जाता, तो मजा आ जाता।”

थोड़ा हंसकर संध्या ने पूछा, “दादा तुम्हेर पास आ जाते, तो क्या तुम्हे मोलतोल करना पड़ता था? इस तकरार में तो तुम्हें बड़ा मजा आता होगा। फिर तुम्हें आखिर कितने रुपये देने पड़ते थे?”

जगदधात्री नाराज होकर बोली, “बेटी, यह चुलबुलापन छोड़ और ठाकुर जी की पूजा की तैयारी कर।”

दादी बोली, “लोगों को सब मालूम है, परन्तु फिर भी न जाने क्यों इस बुराई से पिण्ड नहीं छुडाते।”

जगदधात्री को यह सारी चर्चा शरू से ही नापसन्द थी, अब सास के रुख को देखकर वह बोली, “तब की बातें और थी, मालूम नहीं, कितना सच है और कितना झूठ, किन्तु आज तो न किसी के इतने विवाह होते हैं और न ही स्त्रियां अत्याचार का शिकार होती हैं। उस समय कुछ लोगों द्वारा अत्याचार किये जाने की बात सत्य भी हो, तो भी इसे गौरव कभी नहीं मिला होगा।”

संध्या ने दादी के और अधिक निकट आकर सहानुभूति और आत्मीयता से भरे मधुर स्वर में पूछा, “दादी वे लोग इस प्रकार का अत्याचार क्यों करते थे? क्या उनमें मानवता का नितान्त अभाव था?”

संध्या को अपनी छाती से चिपकाती हुई दादी गहरी और ठण्डी सांस छोड़कर बोली, “बेटी, एक रात का पति अपनी किस-किस पत्नी के प्रति ममता, आत्मीयता और स्नेह दिखाएगा? अब तुम अपने सम्बन्ध में ही सोचकर देखो, तुम्हारे साथ जो होने जा रहा है, क्या उसे एक दुर्घटना अथवा अत्याचार नहीं कहा जा सकता?”

ऊबी गयी जगदधात्री उठकर खड़ी हो गयी और तीखी आवाज में बोली, “तू बातें ही करती रहेगी, तो ठाकूर जी की पूजा का काम मुझे ही निपटाना पड़ेगा।”

संध्या ने माँ के तमतमाते चेहरे को देखकर भी उठने की कोई चेष्टा नहीं की। वह बोली, “दादी, इतने अधिक समय से प्रचलित और समाज द्वारा मान्यता प्राप्त किसी प्रथा को सहसा नष्ट होते देखकर क्या किसी के दुःख नहीं होता।”

दादी बोली, “किसी प्रथा का प्रचलन तथा समाज द्वारा स्वीकृति उस प्रथा के उत्तम होने का आधार कदापि नहीं। किसी भी प्रथा के गुण-दोष की समय-समय पर जांच-परख करते रहेना चाहिए। सत्य से आंख चुराने बाला ही अपनी मृत्यु को निमन्त्रण देता है। बेटी, मैं अपने पापों का वर्णन अपने मुंह से नहीं कर सकती , किन्तु जिस दारुण ज्वाला में मुझे जलना पड़ा है, उस केवल मैं ही जानती हूँ।”

संध्या को अपने समीप बिठाकर कालीतारा बोली, “किसी समय समाज के ठेकेदारों ने ब्राह्मणों के गुणों के आधार पर उन्हें आदर्श एवं कुलीन मान लिया था, किन्तु समय बीतने पर ब्राह्मणों के वंशघर सभी दोषों से लिप्त होते गये और उनका आचरण शुद्रों के आचरण से भी निकृष्ट हो गया, किन्तु समाज-व्यवस्था नहीं बदली। यही सारे अनर्थो की जड़ है। बेटी, जिस जाति-प्रथा पर तुम इतना गर्व करती हो, यदि तुम उसके भीतर की गन्दगी को देख पातीं, तो तुम्हें अपने को ब्राह्मण कहलाने मे लज्जा होने लगती। जिन अनाथ दूलो को तुमने् केवल छोटी जाति का होने के कारण अपने मुहल्ले से निकाल दिया है, अपने इस आचरण पर तुम्हें लज्जित होना पड़ता।”

जगदधात्री को यह चर्चा इतनी अधिक अप्रिय और अरुचिकर लगी कि उसे और अधिक सुनना सहन नहीं हुआ, इसलिए वह वहाँ से उठकर चुपचाप दूसरे कमरे में चली गयी। उसे लगा, मानो उसकी सास अपने साथ हुइ किसी अत्यन्त निन्दनीय आचरण को दिल में छुपाते-छुपाते तंग आ चुकी है और कोई अत्यन्त कटु प्रसंग बाहर आने के लिए उसकी छाती को विदीर्ण करने की चेष्टा कर रहा है। अचानक यह सोचकर वह व्यथित और चिन्तित हो उठी कि उसके ससुर के बहु-विवाहों के साथ उसका तो कोई गहरा सम्बन्ध नहीं है?

कुछ देर की चुप्पी के बाद संध्या ने पूछा, “क्यों दादी, क्या हमारे हिन्दु समाज में अनाचार बहुत गहरे घुस गया है और क्या इस समाज को छल-कपट, ढ़ोंग और दिखावे ने एकदम खोखला कर दिया है?”

यह समाज बाहर से कैसा और भीतर से कैसा है, इसके दोहरे रूप को मेरे सिवाय और कौन इतनी अच्छी तरह से जानता होगा?” कहती हई दादी की आँखों से झरते आँसू शाम के धुंधल में भी छिप नहीं सके। आँचल से अपनी आँखें पोछती दादी बोली, “बेटी, अब आजकल मेरी सोच के बारे में क्या तुम कुछ अनुमान लगा सकती हो? जाति-भेद के नाम पर मनुष्य-मनुष्य में अन्तर करने की प्रवृत्ति स्वार्थो और धूर्त मनुष्यों की देने है। इसमें भगवान को घसीटना मनुष्य की दूसरी बड़ी चालाकी और धूर्तता है। स्वार्थी मनुष्य एक-दूसरे में भेदभाव की खाई को जितनी गहरी करता जाता है, लड़ाई-झगडे और ईर्ष्या-द्देष की प्रवृत्तियां भी उसी स्तर पर गहरी जड़ जमाती जा रही है, इसीलिए समाज अनेक बुराइयों का अड्डा बनता जा रहा है।”

इसके बाद दादी और पोती चुप हो गयी। संध्या को यह तो स्पष्ट हो गया कि उसके दादा के बहु-विवाहों के कारम दादी द्वारा भोगी किसी विषम वेदना की स्मृति आज भी उसे काफी व्यथित किये हुए है। इसलिए दादी को और अधिक कुरेदना संध्या को अच्छा नहीं लगा।

दादी बोली, “बेटी, माँ को व्यर्थ में क्यों खिजाती हो? जाकर ठाकुरद्वारे का काम क्यो नहीं निबटा देती हौ?”

संध्या बोली, “दादी चिन्ती मत करो, माँ अपने-आप सब कर लेगी।” कहकर वह दादी का हाथ पकड़कर उसे खींचती हुई बोली, “दादी, तुम्हारे जमाने की बातों को सुनना बड़ा अच्छा लगता है। मेरे कमरे में चलकर कुछ और सुनाओ न।” कहती हुई दादी को अपने साथ करमेर में ले गयी।

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