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चिंदी चिंदी सुख थान बराबर दुःख - 2

चिंदी चिंदी सुख थान बराबर दुःख

(2)

उसने थोड़ा सा खाना भी खा लिया | मै अपने साथ घर से उसका भी खाना लाती थी, काफी देर तक मौन पसरा रहा | कोई कुछ नहीं बोला | मेड बाहर जा कर बैठ गई | आज सन्नाटा था सिर्फ रूपा और मै ही थी मैने उससे कहा -

'' अब अगर बताना चाहो तो बताओ क्या हुआ क्यों परेशान हो तुम ? रो कर आई थी न किसी ने कुछ कहा क्या ? ''

'' क्या बताऊँ कहाँ से शुरू करूँ दीदी | यह सब मेरी फूटी किस्मत ही तो है आज कोई कुछ भी कह देता है |शरम भी आती है | ये बताने में अपने ही लोग कैसा व्यवहार कर रहें है | सुबह सब काम करके ही यहाँ आते है पर एक कप चाय भी बिना जेठानी की इजाजत के नहीं पी सकते | वो चम्मच से दूध निकाल कर देती है तब बनाते है वो भी उनकी सब की चाय बनने के बाद | उसी उबली पत्ती में ही वो भी बिना चीनी की |अब क्या करूँ ! वो सब भी सहन कर ही रहे हैं महीनो से पर आज तो हद्द ही कर दिया उन्होंने कल से हमारी तबियत ठीक नहीं थी |जेठ जी ने हाल पूछ लिया | और कुछ पैसे देने लगे दवा के लिये बस वो गुस्से से बौरा गई बहुत चिल्लाई | ''

''रूपा अपना त्रियाचरित्र हिंया न देखाओ अब हमरा घर बख्स देओ | जोबन के जोर पर जेठ को फंसाते सरम नहीं आती तुझे | अरे डाईन भी एक दो घर बख्स देती है | अपना मरद खा गई दुई बरस पूरा होते ही अब छोटका देवर को तो अंचरा में गठियाई ही हो | अब बड़े को तो छोड़ दें रांड | इतनी ही आग लगी है तो जा चौराहे पर बैठ जा | बहुतेरे लौंडे मिल जइहें | उनकी भी पौबारह और तेरी देह का दरद भी मिट जइहे | छह महीना से रखे है |अपने बच्चन के मुंह का कौर खिला रही हैं हम तुम्हे | का अपने घर में आग लगावे के लिये | सुन कहे देते हैं आँख निकाल लेंगे जो इनकी तरफ देखी भी तो | ''

'' दीदी जेठ जी को हम बड़ा भाई का मान देते है |ये सुन कर तो हम शरम से मर गये |
लगा हे भगवान धरती फट जाये हम समां जायें | पर हमारी किस्मत खोटी मौत भी न आयेगी वरना अपना पति बेसहारा काहे छोड़ जाता साल भर की बच्ची गोद में दे कर | ''

उसका गला भर आया आँखे बहने लगी यह एक स्त्री के अपमान की पराकाष्ठा थी |
उसे उसके अपने ही लांछित कर रहे थे | कुछ पल के मौन के बाद मैने उससे उसके पति और बाकी घर वालों के बारे में पूछा |

उसने मुझे बताया उसके पिता बचपन में ही नहीं रहे | अब तो माँ भी नहीं रहीं दो बड़े भाई हैं |
एक भाई गाँव में किराने की दूकान करते हैं | दूसरा भाई किसी मिल में नौकरी करता है | दोनों की माली हालत ऐसी नहीं वो बहन और भांजी का बोझ उठा सकें |

माँ के रहते ही उसकी शादी सत्रह साल की उम्र में कर दी, वो बस दसवीं तक गाँव में ही पढ़ी थी,ससुराल में कोई कमी नहीं थी | खेत बाग़ चक्की सब थी पति तीन भाइयों में दूसरे नंबर पर थे | जब तक जीवित रहे सास हथेली का छाला बना कर रखती उसे पर उनकी आँख मूंदते ही कुछ दिन बाद सब बदलने लगा |

मैने उससे पूछा -

'' क्या हुआ था तुम्हारे पति को क्या शादी के समय से ही बीमार थे ? |''

'' न न दीदी वो शादी में एकदम स्वस्थ थे | नेहा के पापा बहुत सुंदर थे दीदी खूब लंबे चौड़े | सभी कहते थे बड़ी सुंदर जोड़ी है, तभी नजर लग गई उन्हें | बहुत प्यार करते थे हमको | दो बरस में दो जनम का नेह दिया और निर्मोही ने झटके से हाथ छुड़ा के आँख मूंद ली | अपनी नन्ही बच्ची का भी मोह नहीं लगा चला गया |

हम दोनों को छोड़ कर, जब नेहा पेट में थी तभी से न जाने क्या हो गया धीरे-धीरे शरीर पीला पड़ गया गाँव में बहुत झाड़फूंक भी करवाई गई सब कहते बरम बाबा का कोप है तभी बैद बाबा की दवाई भी नहीं असर की | मेडिकल कालेज लाये बस पंद्रह दिन भरती रहे | जब लगा अब ठीक हो रहे है तभी अचानक हालत बिगड़ गई |सुबह ही से बेचैनी बढ़ गई हमारा हाथ थामे रहे सारा दिन अचानक खून की उलटी हुई और हाथ की पकड़ ढीली हो गई | बस छूट गया हाथ भी और साथ भी --दीदी | उन्हें पता था वो नहीं बचेंगे इसीलिए उसी दिन दोपहर में अपने अम्मा बाबू जी तीनो भाइयों को बुलाया सब बेड के चारों ओर खड़े थे इन्होने मेरा हाथ पकड़ा हुआ था | अपने छोटे भाई कुंवर को पास बुलाया और हाथ थाम के बोले -- कुंवर पता नहीं मै बचूं या नहीं मेरे बाद रूपा और नेहा का ख्याल तुम रखना | तुम्हारे भरोसे छोड़ रहा हूँ और उसी शाम सब ख़तम हो गया हमारा सुख सौभाग्य सब सिंदूर के साथ ही धुल गया |'' मैने रूपा की बातों से अंदाज़ा लगाया शायेद उसके पति को हेपटाईटिस बी थी और गाँव में बदपरहेज़ी और सही इलाज़ न होने से रूपा का घर उजड़ गया, धीरे-धीरे रूपा ने अपने जीवन के सारे पन्ने खोल दिये जो अब तक उसने अपने सीने में दबा छुपा के रखे थे |

उसने बताया दीदी एक साल तक तो उसे होश ही नहीं था |

बस मशीन की तरह घर का काम करती और थक कर सो जाती | जब जीने की चाह ही न हो और जीना भी पड़े तो जीवन बोझ सा घसीटा ही जाता है | नन्ही बिटिया का मुंह उसे मरने नहीं देता और पति का विछोह और लोगों के ताने और तरस उसे जीने नहीं दे रहे थे | उसका रूप उसका दुश्मन बन गया था |

सास ने तो उसके भाई को बुला कर उसे ले जाने को कहा पर वो भी नहीं ले गये | एक आदमी के रहते वह जिस घर की रानी थी उसी की आँख मूंदते ही नौकरानी बन गई | ऊपर से नाते रिश्ते की औरतों का प्रपंच

उसे देखते ही मुंह बिचका कर बोल ही देती -

'' रूपमती रोवे भागमती राज करे -जवान बेटा खा गई कौन काम का रूप ''

'' दीदी तब मन करता अपना मुंह खरोंच कर बिगाड़ लें और खूब रोते उस दिन जब हम ऐसी ही किसी बात पर रो रहे थे कुंवर आ गये और अपने हाथों से आंसू पोछ दिये हमारे बोले -

'' अब नहीं रोना हम हैं न ''

हम अचकचा कर पीछे हट गये और उनका हाथ झटक दिया | पराये मर्द की छुअन अंगार की तरह लगी | पहले भी इनके रहते कुंवर हंसी मजाक करते थे | देवर का नाता था सो हमें कभी अटपटा नहीं लगा पर आज का स्पर्श कुछ और था शायेद उनकी नियत बदल गई और हमारी नियति |

अब कुंवर हम माँ बेटी का ध्यान रखने लगे थे | नेहा को बाजार हाट भी ले जाते और उसकी जरूरत का सामान भी बिन कहे ला कर रख देते | हमें अपनी नहीं बस बेटी की फिकर थी दीदी, बस ये अपने चाचा ताऊ के आसरे पल जाये | हमारा क्या हम तो इसी घर में खट के जिंदगी पार कर लेंगे पर बिधिना ने भाग्य में अभी और कुछ भी लिखा था | धीरे-धीरे कुंवर नजदीक आते गये हम उनसे कितनी भी दूरी बना कर रखते फिर भी वह बहाने बहाने से नजदीक आने की जुगत करते रहते अब पत्थर पर भी लगतार पानी गिरे तो निशान पड़ ही जाता है हम तो मनुष्य ही हैं मन नरम होता गया हम भी सुख दुःख कुंवर जी से बांटने लगे,उस रात रसोई समेटने में देर हो गई बिटिया दादी के पास सो गई थी हम अम्मा को दवा दूध देते और उनका पाँव दबा कर आते आते आधी रात हो गई थी बस चारपाई पर पीठ टिकाई ही थी की सामने कुंवर आ कर खड़े हो गये |''

'' इस समय यहाँ काहे आये ? कुछ चाहिये क्या हमको आवाज़ दे देते |''

'' हां चाहिये तो पर उसके लिये आवाज़ नहीं दे सकते थे हमें तुम्हारे पास ही आना पड़ता सो आ गये | ''

इतना कह कर हमारा हाथ थाम कर हमें कलेजे से लगा लिया हमने कहा -

'' ये पाप है कुंवर ये क्या कर रहे हो हाथ छोड़ो हमारा | ''

'' हाथ तो भईया पकड़ा कर गये हैं, तुम अब हमारी ज़िम्मेदारी हो हम ब्याह करेंगे तुम से भाई को वचन दिया है तो निभायेंगे | जल्दी ही अम्मा से बात करते हैं जब तुम हमारी ही हो क्या तो आज क्या कल भरोसा रखो हम पर | ''

और उस रात कुंवर ने अपने भाई की जगह ले ली हमारी जिंदगी में हम भी कोई देवी नहीं हैं, हाड़ माँस के ही बने है,जब मन की सख्त माटी नरम हुई तो तन की भूख भी जाग गई -पहले तो दबे पाँव छुप कर कुंवर कमरे में आते रहे लेकिन बाद में घर वालों के सामने भी सारे परदे उतर गये अब रात हो या दिन वह हमारे कमरे में ही सो जाते अम्मा भी कुछ नहीं बोलती बड़ी जेठानी भी मौन सहमति दें दी |

समय गुजरता जा रहा था | हमारे दिन रात ख़ुशी से तो बीत रहे थे पर एक कचोट सी उठती दिल में इस रिश्ते से, हम बार-बार कुंवर से ब्याह के लिये कहते और हर बार उसका यही जवाब होता अरे कर लेंगे अम्मा से बात की है | हमने यह भी कहा मंदिर में ही मांग भर कर माला बदल लें हम लोग | पर वह कभी प्यार से तो कभी नाराज़ हो कर बात टाल देता, और रात को हमारे पांव पर लोटता आँख में आंसू भर लेता और हम पिघल जाते उसे समेट लेते अपने में और वह इस शरीर के पोर-पोर को अपने प्रेम से सरोबोर कर देता | कहता परेशान न हो जल्दी ही हम शादी कर लेंगे |

ऐसे ही बहलाते-फुसलाते दो तीन साल बीत गये | अब हमें लगने लगा यह लोग हमको बेवकूफ बना रहें हैं | अम्मा को घर की नौकरानी मिली है, और कुंवर को तो हमारा शरीर अय्याशी के लिये रोज़ ही मिल जाता है | इधर घर में होती सुनगुन से हमने अंदाज़ा लगा लिया अब अम्मा ही हमारी शादी के पक्ष में नहीं है | उनका मन बदल गया है, कुंवर तो अगर वह दबाव डालती तो कर भी लेते पहले तो वह तैयार ही थे अब कुछ दिनों से भाभियों और माँ के बरगलाने में आ रहे थे | उन्हें भी अब कुंवारी कन्या से ब्याह करने की लालसा हो गई थी, कुछ लोग लड़का देखने भी आये और आनन-फानन में रिश्ता तय भी कर दिया गया |

यह दूसरा वज्रपात था हम पर, कलेजा दरक गया हमारा इस विश्वासघात से -बस कलप के रह गये | हम बहुत रोये पर कौन सुनता वहां कोई नही था जो हमारे आंसू पोंछता अम्मा जी मगन थी ब्याह की तैयारी में और कुंवर तो मुंह चुरा के काम के बहाने उसी दिन शहर चले गये जिस दिन रिश्ता तय हुआ शायेद हम से आँख मिलाने की ताब न थी, अम्मा से कुछ कहना ही बेकार था |
उनके तो तेवर ही बदल गये थे फिर भी हमने उनसे कहा अम्मा ये क्या कर रही हैं आप ? हमारी जिंदगी खराब हो जायेगी उनका पैर पकड़ कर हिलक-हिलक कर रोये पर अम्मा न टसकी |
काठ का करेजा हो गया उनका | उन्हें न अपने मरे हुये बेटे की बात याद रही न ही उसकी बच्ची और बीवी की तनिक भी चिंता | कुछ देर हमें रोता बिलखता देखती रही फिर बोली -

'' सुनो दुल्हिन अब मरे हुये के साथ जिंदन का तो नहीं झोक दिया जात,हमहूँ महतारी हैं हमरा करेजा भी धधकता है अपने बेटा की सुध करके | छाती पै जांत का पाथर रखे हैं जो तुमको रखे हैं| तुम्हरी किस्मत में सुहाग होता तो हमार बेटा ही काहे जाता भरी जवानी मा अब का चाहत हो एक को तो खा ली तुम अब दुसरे वाले को भी तुम्ही से बियाह दें उसको भी लील लो तुम काहे रात दिन बेला कु बेला टसुये बहा के असगुन फैला रही हो,रह तो रही हो कौन कमी है तुमको अब तक जैसे चलत रहा आगे भी चलत रही कुंवर दूनो का रख लेइहंय अब जाओ जा कर सोई जाओ बेकार का वितण्डा न खड़ा करो |''

इतना कह कर वह चादर ओढ़ कर सो गई हम उनकी बात सुन कर सन्न रह गये सर फट रहा था अब तो रोया भी नहीं जा रहा था आँसू सूख गये और दिमाग में आंधियां चल रही थी आँख मूंदते तो अम्मा की कर्कश आवाज़ सुनाई पड़ती एक को तो खा गई अब दूसरे को भी लील लो | अगले दिन कुंवर लौट आये दिन भर हम कुछ नहीं बोले पर रात को जैसे ही कमरे में घुसे हम कहा क्यूँ आये हो अब यहाँ निकल जाओ यहाँ से तुम्हे अपने भाई की आखिरी बात का भी लिहाज़ नहीं था तो काहे हमे बेवकूफ बनाते रहे झूठा प्रेम और ज़िम्मेदारी निभाने की बात कह कह कर खाली हमारी देह के लिये न ?

अब क्या रह गया है जो लेने आये हो | जो तुम्हे चाहिये था वो तो तुमने हासिल कर ही लिया | अब क्या देखने आये हो हम मर गये या जिंदा है ? अरे मर तो हम उसी दिन गये थे जब पति ने आँख मूंदी थी | सूख गया था मन के सुख का बिरवा फिर तुम आये हमारे जीवन में और ज्यों ही फिर से कोंपलें फूटने लगी तो पता चला ये धोखा था | नेह छोह सब झूठ पर गलती हमारी भी थी जो तुम पर आसानी से भरोसा कर लिया | काहे किया यह सोचते हैं तो लगता है पति की अंतिम इच्छा,अकेलेपन का भय,किसी के सहारे की चाह या फिर देह की दबी हुई भूख जो तुमने उभार दी कोई न कोई कमजोरी ही तो थी जो हम तुम पर निर्भर होते गये, और तुमने नई देह की लालसा और दहेज़ के लालच में सब कुछ बिसार दिया | भाई को दिया वचन और इन तीन बरसों का नेह सब कुछ एक झटके में झटक दिया और हमें पत्नी बनाते बनाते रखैल बना दिया, पर अब नहीं अब बख्श दो हमें | सुनो कुंवर तुम्हारी जिस देह की गंध में हमारे रात -दिन गमकते थे अब वाही गंध हमें दुर्गन्ध लगती है | जाओ अब यहाँ से,कभी मत आना | दूर रहो हमसे | जल्दी ही अपनी बेटी को लेकर हम यहाँ से चले जायेंगे | ''

***