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जी-मेल एक्सप्रेस - 5

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

5. फैन्टेसी की दुनिया

उस रोज मासबंक किया गया था। मस्ती या मसखरी के लिए नहीं बल्कि घर पर पढ़ाई करने के लिए, जबकि प्रिंसिपल ने किसी विशेषज्ञ को ‘इग्जैम टिप्स’ देने के लिए आमंत्रित किया हुआ था। क्लास खाली पाकर प्रिंसिपल को बहुत शर्मिंदा होना पड़ा। प्रिंसिपल ने इन छात्रों के पेरेंट्स को बुलवाने का फरमान सुनाया। इस फैसले से छात्रों को बड़ी परेशानी हुई। परेशानी इसलिए कि स्कूल आने पर पेरेंट्स को न मालूम क्या-क्या और जानकारियां दी जातीं जो उनके लिए और कई तरह की मुसीबतें खड़ी कर सकती थीं। फिर सवाल यह भी था कि जिनके बोर्ड इग्जैम थे, उन्हीं को अपने लिए निर्णय लेने का अधिकार नहीं। लिहाजा, सबने मिलकर सलाह की और प्रिंसिपल के पास जा पहुंचे।

किसी ‘के’ ने आगे बढ़कर कमान संभाली, ‘‘सर, गलती हमने की है। हम जिम्मेदार हैं, फिर हमारे पेरेंट्स को बुलाने की क्या बात है? हम सजा के लिए तैयार हैं।’’

क्वीना लिखती है कि ‘के’ ने प्रिंसिपल के सवालों का पूरी दिलेरी से मुकाबला किया और अपनी दलील भी रखी। जिस तरह उसने छात्रों के मानसिक दबाव को रेखांकित किया, प्रिंसिपल साहब उससे भावुक हो गए। वे ‘के’ के तर्कों के आगे परास्त हो गए। उन्होंने माना कि छात्रों को इस वक्त अतिरिक्त दबाव में डालना ठीक नहीं बल्कि उन्होंने स्वाध्याय के लिए तय समय से एक सप्ताह पूर्व ही अवकाश घोषित कर दिया।

क्वीना लिखती है कि वह ‘के’ की तर्क शक्ति और दिलेरी पर हैरान है। वह उसके आत्मविश्वास से अभिभूत हो उठी है।

‘के’ का जिक्र बराबर आ रहा है, लिहाजा उसे कोई नाम देना जरूरी लग रहा है। क्या नाम रखूं? कपिल... कैलाश... कुणाल...? चलो कुणाल ठीक है।

कुणाल को जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हुए क्वीना ने अंगरेजी में सुंदर-सी कविता लिखी है। इसकी कवितात्मकता को बरकरार रखते हुए, मैं हिंदी में इसका तरजुमां करने की कोशिश करता हूं...

शोर-ओ-गुल के बीच भी सबसे अधिक सुनाई देती हैं तुम्हारी चुप्पियां

कहे-सुने शब्दों को पीछे छोड़ जाती हैं तुम्हारी खामोशियां

एक सरसराहट-सी होती है तुमसे नजर मिलने पर

वायलिन की धुन बजाने लगती हैं उंगलियां

भीड़ में भी हो जाती हूं एकदम तन्हा

गीत बनकर गूंजने लगती हैं

तनहाइयां...

मुझे ध्यान आता है, एक बार मेरा बहुत मन हुआ था कि नूपुर के जन्मदिन पर मैं उसे कोई तोहफा दूं। मैंने बहुत-सी चीजें सोचीं। सफेद संगमरमर से बना एक छोटा-सा ताजमहल, जिसमें नाइट बल्ब फिट हो। वह सोते वक्त इसे जलाए और मेरी यादों के साथ पूरी रात बिता दे। मद्धिम रोशनी वाला एक बल्ब देर तक मेरी निगाहों में टिमटिमाता रहा। फिर खुद ही अपने ख्याल को यह कहकर झटक दिया कि ताजमहल सच्चे प्यार की निशानी है, कहीं उसने अन्यथा ले लिया तो? हांलांकि अन्यथा लेने वाली क्या बात थी, सच तो यही था न? क्या मैं उसे यही बताना नहीं चाहता था? मगर नहीं, इतना साहस मुझमें था ही नहीं कि मैं खुद को जाहिर कर पाता।

बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी... महेन्दर जब यह गजल गाता तो लगता, वह मुझे ही सचेत कर रहा हो। मैंने अपनी चाहत कभी अपने होंठों तक नहीं आने दी जबकि महेन्दर खुद उसके प्रति अपने झुकाव को छुपा नहीं पाया और वह जल्दी ही दोस्तों के बीच जाहिर हो गया। दोस्तों ने उसे नूपुर के नाम से चिढ़ाना शुरू कर दिया।

बात नूपुर के कानों तक भी पहुंची, मगर न धरती फटी, न आसमान गिरा।

दसवीं के इम्तहान के बाद वे दोनों साइन्स सेक्शन में चले गए जबकि मैंने साइन्स छोड़ दी। घर वाले हैरान थे कि जब नंबर अच्छे आए हैं तब भी मैं साइन्स क्यों नहीं ले रहा? मैं उन्हें क्या बताता, भीतर ही भीतर घुटकर रह गया। अब मैं नूपुर के सामने ही नहीं पड़ना चाहता था। हमारे सेक्शन अलग-अलग हो गए। महेन्दर उसका अच्छा दोस्त बन गया, बल्कि उसके संसर्ग में वह बहुत सुधर भी गया, मन लगाकर पढ़ने लगा। दोनों साथ मिलकर पढ़ते, नोट्स शेयर करते... ये बातें पहले मजाक के तौर पर ली जाती रहीं मगर बाद में सब आदी हो गए उन्हें साथ देखने के।

...और मैं अपनी फैन्टेसी की दुनिया में ही संतुष्ट होकर रह गया।

पुरानी बातों का रंग आज भी पूरी ताजगी के साथ दिखाई दे रहा था। मन-ही-मन एक अवसाद-सा भर आया था।

तो क्या क्वीना कुणाल के प्रति आकर्षित है? मैंने डायरी पर फोकस किया।

फिर रोहन?

एक उपेक्षा-सी महसूस हुई। लगा जैसे रोहन के साथ-साथ मैं भी बहुत पीछे छूट गया था।

डायरी के अगले पन्ने नई दुनिया की बात कर रहे थे, बदलते समीकरणों की कहानी कह रहे थे...

कुणाल ने अपने जन्मदिन की पार्टी ब्लैक ड्रैगन रेस्तरां में दी थी।

हलकी-हलकी रोशनी और मद्धिम-मद्धिम संगीत... कुणाल ने एकदम किनारे की एक टेबल रिजर्व करा रखी है। वह क्वीना को बांहों का सहारा देते हुए इस टेबल तक लाया है। क्वीना कुछ सकुचाई नजरों से चारों तरफ देख रही है।

‘‘कैसा है?’’ कुणाल इशारे से पूछता है।

क्वीना के चेहरे पर सलोनी-सी मुस्कान है।

कॉर्नर की टेबल पर अपने ऑर्डर का इंतजार करते हुए दोनों वहां के मोहक माहौल का आनंद ले रहे हैं। रंग-बिरंगी रोशनियां दोनों के चेहरों से होकर गुजर रही हैं। कभी धूप-सी खिलती है तो कभी छाया हो जाती है। क्वीना के पैर संगीत की धुन पर धीरे-धीरे थिरक रहे हैं। कुणाल उसे लेकर हॉल के बीचोंबीच जा पहुंचा है। वे दोनों एक-दूसरे को थामे थिरक रहे हैं। चलते हुए कुणाल ने उसे उपहार में एक कीमती परफ्यूम दिया है।

‘जन्मदिन तो कुणाल का है... गिफ्ट भी थोड़ा आउट ऑफ पॉकेट...’ मेरे भीतर कोई फुसफुसाहट भरी आपत्ति दर्ज करता है।

ख्यालों की जद से बाहर निकलकर मैं खुद को डायरी पर केंद्रित करता हूं।

‘एक्सपेंसिव इंपोर्टेड परफ्यूम’, वहां यही लिखा है। और यह भी साफ तौर पर लिखा है कि यह तोहफा कुणाल ने क्वीना को दिया है, न कि क्वीना ने कुणाल को।

हो सकता है, कुणाल किसी रईस बाप का बेटा हो। आजकल के बच्चों को पॉकेट मनी भी तो अच्छी-खासी मिलती है। और क्या पता, क्वीना इसी कारण रोहन को छोड़कर कुणाल की तरफ आ झुकी हो। ये पहले का जमाना थोड़े ही रहा, जहां प्यार का मतलब सिर्फ प्यार हुआ करता था। अब तो प्यार करने से पहले पॉकेट देखी जाती है।

हालांकि यह तर्क अपनी जगह सही है मगर इसे क्वीना के साथ जोड़ना सही नहीं लगता। मुझे कुछ दिक्कत महसूस हो रही है, क्वीना ऐसी लड़की नहीं है।

तुम क्वीना को जानते ही कितना हो? दरअसल तुम इसे नूपुर से जोड़कर देख रहे हो, इसीलिए परेशानी हो रही है। मन का चोर पकड़ा गया।

बात सही है, मैं क्यों खामखा इसे नूपुर के साथ जोड़कर देख रहा हूं। मैंने अपने सोच के दायरे को बड़ा किया, पूर्वाग्रहों से मुक्त किया।

वैसे यह तो स्वाभाविक ही है कि क्लास का कोई ऐसा दिलेर लड़का जो प्रिंसिपल से भिड़ जाए, वह हीरो तो बन ही जाता है। तो हो सकता है कि क्वीना भी उसकी दिलेरी से इतनी प्रभावित हुई कि उसका झुकाव उस ओर होने लगा हो।

पूर्णिमा के आने से दफ्तर के माहौल में बड़ा सकारात्मक बदलाव दिखाई देने लगा है। वह संवाद को बहुत अहमियत देती है और हर किसी से व्यक्तिगत तौर पर जुड़ी रहती है। ऑफिस की ही नहीं, हमारी परिवारगत परेशानियों में भी वह साझा करती है। सोनिया को किसी कंप्यूटर प्रोग्राम के बारे में जानकारी देते हुए उसने उसे सलाह दी है कि वह इस कोर्स को जरूर कर ले, उसके लिए फायदेमंद रहेगा।

पूर्णिमा के आने का जो सबसे बड़ा फायदा मुझे मिला, वह यह कि मजूमदार वगैरह की जांच फाइलें मुझ से ले ली गईं और अब मुझे पूरे तौर पर ट्रेनिंग सेल में पूर्णिमा को रिपोर्ट करना था। चांस की बात है कि इससे पहले मैंने किसी महिला बॉस के अधीन काम नहीं किया था। फिर भी, कई खासियतें हैं पूर्णिमा में। सबसे पहली तो यही कि वह बॉस की तरह बर्ताव नहीं करती।

आते ही उसने ट्रेनिंग सेल के सदस्यों को अपना बना लिया। बड़ी नरमी और दिलेरी के साथ उसने धमेजा के कमरे में बीच से पार्टीशन करवाकर अपने लिए स्वतंत्र कमरा बनवा लिया। हो सकता है, संयुक्त कमरे से धमेजा की आजादी में भी खलल पड़ता हो। फिर भी, आश्चर्य की बात यह थी कि यह पहल धमेजा की ओर से नहीं, पूर्णिमा की ओर से की गई थी। देखते-ही-देखते परिदृश्य बदलने लगा था।

आज पूर्णिमा मुझसे भी पहले आ गई। वह अंदर वाले हॉल की साफ-सफाई करवा रही थी। मैंने समझा, कोई लेक्चर वगैरह की व्यवस्था कर रही होगी। नया बॉस आता है तो कुछ नया करता ही है। प्लास्टिक के गमलों में लगे दो-तीन ऊंचे खड़े पेड़ भी मंगाए थे उसने, जिन्हें वह सही लोकेशनों पर फिट करा रही थी। एकाध पेंटिंग भी दीवार पर टांगी गई थी। कमरे का नक्शा ही बदल गया था। पता चला, लगभग ग्यारह बजे जीएम यानी महाप्रबंधक महोदया यहां आने वाली हैं।

बाप रे! यह तो बड़ी बात थी। अटकलबाजियों का सिलसिला फिर चल पड़ा था। जीएम को बुला रही है यानी धमेजा को बता देना चाहती है कि उसकी जीएम से कितनी सेटिंग है। बाकी सबको भी इशारा हो गया, सहयोग करो, वरना...।

ठीक ग्यारह बजे वह जीएम को लाने चली गई। हमें हिदायत दे गई कि सभी की उपस्थिति हो, कोई सीट से गायब न मिले, जीएम पर हमारा अच्छा प्रभाव पड़ना चाहिए, वगैरह-वगैरह...। सब हैरत से देख रहे थे। ऐसा अब तक कभी नहीं हुआ था कि इस स्तर का कोई अधिकारी यहां झांकने भी आया हो। यह तो बड़ा सुप्त विभाग था। यहां का रौनक मेला तो आते-जाते ट्रेनीज से ही सजा रहता था, बस।

(अगले अंक में जारी....)