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अमर प्रेम -- 3

अमर प्रेम

प्रेम और विरह का स्वरुप

(3)

एक ही पल में इतना कुछ अचानक घटित होना--------अर्चना को अपने होशोहवास को काबू करना मुश्किल होने लगा। जैसे तैसे ख़ुद को संयत करके अर्चना ने भी अपने परिवार से अजय का परिचय कराया और फिर अजय ने भी अपने परिवार से अर्चना के परिवार को मिलवाया। दोनों परिवार इकट्ठे भोजन का और उस खास शाम का आनंद लेने लगे। मगर इस बीच अर्चना और अजय दोनों का हाल 'जल में मीन प्यासी 'वाला हो रहा था।

आज दोनों आमने- सामने थे मगर लब खामोश थे. दोनों के दिल धड़क रहे थे मगर धडकनों की आवाज़ कानों पर हथोडों की तरह पड़ रही थी। सिर्फ़ कुछ क्षण के लिए नयन चोरी से दीदार कर लेते थे। सिर्फ़ नयन ही बोल रहे थे और नयन ही समझ रहे थे नैनो की भाषा को। बिना बतियाये बात भी हो गई और कोई जान भी न पाया। अपनी- अपनी मर्यादाओं में सिमटे दोनों अपने -अपने धरातल पर उतर आए।

ये शाम दोनों के जीवन की एक अनमोल यादगार शाम बन गई । अजय अपनी सारी नाराज़गी भूल चुका था. आज अजय पर वक्त मेहरबान हुआ था. अजय के लिए तो ये एक दिवास्वप्न था। वो अब तक विश्वास नही कर पा रहा था कि उसकी कल्पना साकार रूप में उसके सामने थी आज। उस दिन के लम्हे तो जैसे सांसों के साथ जुड़ गए थे हर आती-जाती साँस के साथ अजय का दिल धड़क जाता-----वो सोचता ---वो स्वप्न था या हकीकत। अजीब हालत हो गई अजय की । कई दिन लगे अजय को पुनः अपने होश में आने के लिए। एक स्वप्न साकार हो गया था। बिना मांगे ही अजय को सब कुछ मिल गया था।अजय की खुशी का ठिकाना न था । इन्ही लम्हों की तो वो बरसों से प्रतीक्षा कर रहा था शायद उसकी चाहत,उसका प्रेम सच्चा था तभी उसे उसके प्रेमास्पद का दीदार हो गया था।

ये लम्हा दोनों की ज़िन्दगी का एक हसीन, मधुर याद बनकर यादों में क़ैद हो गया था । ज़िन्दगी एक बार फिर पटरी पर दौड़ने लगी थी । अब अजय की उत्कंठा कुछ हद तक शांत हो गई थी । अब एक बार फिर से उसकी चित्रकारी के रंग शोख होने लगे थे। अपनी भावनाओं को, अपनी कल्पनाओं को वो चित्रों में जीवंत करने लगा था। मगर ये पागल मन उसका -----अब भी कभी- कभी बेचैन कर देता था। उसकी अंखियों की, उसकी रूह की प्यास तो कुछ हद तक बुझ गई थी मगर फिर भी कहीं एक कसक अब भी बाकी थी । उसकी वो ही कसक कभी -कभी सिर उठाने लगती। बार -बार उसके मन को उद्वेलित करती । भावनाओं का ज्वार ह्रदय को आंदोलित कर जाता। इन्ही भावनाओं के अतिरेक में बहते हुए फिर एक दिन उसने अर्चना से मिलने की इच्छा जाहिर की । अर्चना भी अब चाहती थी कि अजय के इंतज़ार को विराम मिले जो उस दिन अधूरा छूट गया था वो पूरा हो जाए. उसे जो कहना है कह दे ताकि वो भी अपनी ज़िन्दगी सुकूँ से जी सके इसलिए वो अजय से वादा लेती है कि वो इस मिलन के बाद ज़िन्दगी में फिर कभी उससे मिलने की ख्वाहिश जाहिर नही करेगा और न ही कुछ और मांगेगा । अजय अर्चना की शर्त मान लेता है । अजय की तो मनचाही मुराद पूरी हो रही थी । उसके पाँव जमीन पर नही पड़ रहे थे । दिल में उमंगो का अथाह सागर हिलोरें ले रहा था।

और फिर वो दिन आ गया जब दोनों एक- दूसरे के सामने बैठे थे। एक -दूसरे का दीदार कर रहे थे। मगर दोनों में से कोई भी एक शब्द नही बोला। सिर्फ़ मौन ही मौन की भाषा सुन रहा था और मौन ही विचारों को अभिव्यक्त कर रहा था।घंटों व्यतीत हो गए । समय का दोनों को भान ही न था या यूँ कहो समय भी जैसे उस पल वहीँ ठहर गया था। वो भी इस मिलन की परिणति देखना चाहता था। वो भी तो कब से इस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था। काफी देर बाद दोनों को वक्त का बोध हुआ तो अजय ने अर्चना से कहा, “ अर्चना तुम मेरे जीवन का वो अंग बन गई हो जिसके बिना एक पल गुजारना मुश्किल हो जाता है । तुम मेरी वो कल्पना हो जो साकार हो गई है, मेरे सामने बैठी है और मैं उसे छू भी नही सकता, उसे महसूस भी नही कर सकता। तुम मेरे जीवन -रुपी महासागर की वो अतुल्य सम्पदा हो जिसे मैं खोना भी नही चाहता मगर पा भी नही सकता। बताओ अर्चना अब जीवन कैसे गुजरेगा ?”

और अर्चना अजय के भावों को जानकर विस्मित सी, ठगी सी बैठी रह गई । उसे समझ नही आ रहा था कि वो क्या बोले । मगर फिर भी किसी तरह ख़ुद को संयत करके अर्चना ने अजय से कहा, “ अजय हम दोनों का जीवन धरती और आकाश सा है । दोनों एक दूसरे को निहार तो सकते हैं मगर मिलना दोनों की किस्मत में नही है । देखो मेरे जीवन का हर रंग, हर मौसम, हर खुशी, हर गम, मेरा हँसना, मेरा रोना, मेरा प्यार, मेरी खुशबू सब मेरे पति की है । मैं तुम्हें कुछ नही दे सकती। क्यूँ इस मृगतृष्णा के पीछे भागकर अपना जीवन बरबाद कर रहे हो । मैं शरीर से और आत्मा से पूर्ण रूप से अपने पति की हूँ।“

इस पर अजय ने कहा,” तुम्हारे जीवन में मेरा क्या मुकाम है सिर्फ़ इतना बता दो.”

“ वो एक ऐसा सुखद अहसास है जिसके साथ पूरी ज़िन्दगी इत्मिनान से गुजर सकती है और मुझे इससे ज्यादा किसी चीज़ की चाह भी नही है।“

मगर अजय तो जैसे आज प्रण करके आया था कि एक बार अर्चना से हाँ कहलवा कर ही रहेगा कि वो भी उसे प्रेम करती है ।

उसने अर्चना से कहा,” तुम प्रेम को अहसास का नाम दे रही हो । वास्तव में तुम भी प्रेम करती हो मगर मानना नही चाहती । अगर तुम भी प्रेम करती हो तो एक बार स्वीकार कर लो, मेरा जीवन तुम्हारे इंतज़ार में, अगले जनम में मिलन की आस में आराम से गुजर जाएगा। इस जनम तुम किसी और की हो मुझे कोई गिला नही बस एक वादा दे दो कि अगले जन्म में तुम मेरी बनोगी.”

मगर अर्चना न जाने किस मिटटी की बनी थी या कहो किस पत्थर की बनी थी किसी भी दर्द का शायद उस पर असर ही नही होता था ।

उसने कहा, “ मैं जन्म -जन्मान्तरों तक सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने पति की ही हूँ । मैं तुमसे किसी भी प्रकार का कोई वादा नही कर सकती।“

“ अच्छा चलो, सिर्फ़ एक वादा दे दो कि इस कायनात के आखिरी जन्म में तुम सिर्फ़ एक बार मुझे मिलोगी सिर्फ़ एक बार, मैं तब तक तुम्हारा इंतज़ार करूँगा। बस यही मेरे प्रेम का प्रतिफल होगा।“

“ इसका मतलब तुम्हारा प्रेम वास्तविक प्रेम नही उसमें भी सभी की तरह वासना है तभी तुम मुझे पाने की चाह रखते हो, तुम्हारा प्रेम भी वास्तव में दैहिक ही है ।“

अर्चना के ये शब्द अजय के दिल पर हथोडे की तरह लगे। उसके दिल के टुकड़े टुकड़े हो गए ।

“ अगर मेरे प्रेम में वासना होती तो अगले जन्मों या आखिरी जन्म तक की बात न कहता और अपनी वासनामयी प्रवृति इसी जन्म में किसी भी बहाने पूर्ण करना चाहता। मगर मुझे तुम्हारा शरीर किसी भी जन्म में नही चाहिए। मैं तुम्हें छूना भी नही चाहता। बस सिर्फ़ इतना चाहता हूँ कि किसी एक जन्म में तुम मुझे रूह से चाहो। तुम्हारी रूह और मेरी रूह एक हो जायें। जहाँ तुम कुछ सोचो और पूरा मैं करुँ बिना तुम्हारे कहे। जहाँ मैं फूल की खुशबू की तरह तुमसे कभी अलग न हो सकूँ। दो जिस्म बेशक हों मगर आत्मा एक हो । जहाँ वेदना की लकीर भी गर तुम्हारे चेहरे पर उभरे तो दर्द से बेहाल मैं हो जाऊँ। मुझे तुमसे कुछ नही चाहिए। अर्चना सिर्फ़ एक जन्म के लिए तुम मेरे जीवन का वो पल बन जाओ जिसके बाद कोई चाहना ही बाकी न रहे। क्या तुम इतना सा वादा भी नही कर सकती मुझसे। मैं तुमसे कुछ नही चाहता--------कुछ भी नही और न ही कभी ज़िन्दगी में चाहूँगा। बस सिर्फ़ इतना अहसान कर दो मेरी ज़िन्दगी पर।“ बड़ी बेचारगी से अजय ने खुद को संयत करते हुए हाल –ए- दिल बयां कर ही दिया.

अर्चना स्तब्ध - सी आँखें फाड़े अजय को एकटक देखे जा रही थी। आज उसे समझ आया कि वास्तव में प्रेम क्या है उसका स्वरुप क्या है।

“क्या अजय सच कह रहा है? क्या वाकई एक जन्म के वादे पर कोई कायनात के आखिरी जन्म तक किसी का इंतज़ार कर सकता है?क्या प्रेम ऐसा भी होता है ? क्या इसे ही सच्चा प्रेम कहा गया है?” इसी ऊहापोह में डूबी अर्चना न जाने कब तक बैठी रहती कि अजय ने उसे वास्तविकता का बोध न कराया होता। वक्त अपनी गति से चल रहा था मगर अर्चना के दिल में तो जैसे ज्वार उठ रहे थे। आज अजय उसे यूँ लग रहा था जैसे साक्षात् प्रेम ही अजय के रूप में इंसानी रूप धारण करके बैठा हो। अर्चना के मुख से बोल नही फूट रहे थे । जिसे वो इंसानी प्रेम समझ रही थी वो तो खुदाई प्रेम था।

और वक्त वहीँ ठहर गया। बिना एक शब्द बोले मौन की चादर ओढ़कर दोनों ने एक -दूसरे से विदा ली । अजय सीधा चलता चला गया। बिना मुडे,बिना अर्चना की ओर दोबारा देखे. बस चलता चला गया। शायद आज अजय की वेदना जो वो बरसों से महसूस कर रहा था उसे करार मिल गया था या शायद अब कहने को कुछ बचा ही नही था या जो कुछ वो कहना चाहता था वो सब आज वो कह चुका था। मगर अर्चना उसके लिए तो वक्त जैसे वहीँ रुका था उस एक लम्हे पर ही. वो अजय को जाता हुआ देखती रही.

महीनो बीत गए, कोई प्रतिक्रिया नही दोनों ओर से । मगर अर्चना --- उसके तो जीवन की धुरी शायद उसी एक पल पर रुक गई थी । उसके अंतस में हलचल मच गई थी जिसके बारे में वो किसी से कह भी नही सकती थी। अजय के शब्द एक घुन की तरह उसके ह्रदय को कचोटते थे। उसके सारे आदर्श, सारी मर्यादाएं अजय के कुछ ही शब्दों ने चकनाचूर कर के रख दिए थे। शायद अब उसे अहसास हुआ था प्रेम के वास्तविक स्वरुप का।

बिना चाह के भी किसी को चाहा जा सकता है। किसी को चाहने के लिए शरीर की नही आत्मा की जरूरत होती है । शरीर तो वहां नगण्य होते हैं । सिर्फ़ आत्माओं का ही मिलन होता है । कविताओं में प्रेम का वर्णन कागज़ी या लफ़्फ़ाज़ी भर होता है ये आज अहसास हुआ, मैं जो प्रेम कविताओं की प्रतिमूर्ति कहलाती थी, अपनी कविताओं में प्रेम को प्रस्तुत करने में जो महारत हासिल थी आज वो सब महज मेरी कलम की कारीगरी भर ही तो हैं ।

ये अहसास अर्चना को बहुत देर से हुआ इसलिए अब अर्चना अन्दर ही अन्दर घुटने लगी ।ये घुटन उसके पूरे वजूद पर हावी होने लगी । उसे लगने लगा, “मैंने अजय के प्रेम को स्वीकार न कर बहुत बड़ा अपराध कर दिया है ।“ और ये अहसास उसे अन्दर ही अन्दर खाने लगा । अब जीवन का हर रंग उसे फीका लगने लगा। धीरे धीरे अर्चना का जीवन से मोहभंग होने लगा। वो अपनी दिनचर्या एक मशीन की भांति पूरी करती । अब उसमें पहले जैसी उमंगें ख़त्म होने लगीं । अपराधबोध से ग्रस्त अर्चना को जीवन नीरस दिखाई देने लगा। अब उसकी कविताओं में प्रेम के भव्य स्वरुप का दर्शन होता था मगर अजय की कोई प्रतिक्रिया अब नही मिलती थी । इससे अर्चना और आह़त हो जाती और मायूस रहने लगी । अर्चना का जीवन, उसका हर रंग सब बदरंग हो चुके थे ।

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