Karm Path Par - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

कर्म पथ पर - 2




Chapter 2


मुंशी दीनदयाल खाने के बाद लेटे हुए आराम कर रहे थे। किंतु मन बेचैन था। अब अक्सर स्वास्थ खराब रहता था। उन्हें लगता था कि अधिक दिन जीवित नहीं रह पाएंगे। एक वर्ष पहले ही उन्होंने मुनीमतगिरी से आवकाश ग्रहण कर लिया था। अब सेठ जी के यहाँ से थोड़ी सी पेंशन मिलती थी। उसी से काम चलता था।
उनकी चिंता का कारण धन नहीं था। थोड़ी बहुत जमा पूंजी थी जिससे जीवन आराम से कट सकता था। उन्हें फिक्र थी अपनी बेटी वृंदा की। वह छोटी उम्र में ही विधवा हो गई थी। मुंशी जी को डर था कि उन्हें कुछ हो गया तो वह अकेली किसके सहारे रहेगी।
वृंदा पढ़ी लिखी थी। मुंशी जी ने टीचर लगा कर घर पर ही उसे हिंदी की तालीम दिलवाई थी। मतलब भर की अंग्रेज़ी भी जानती थी। लेकिन इसका श्रेय मुंशी जी से अधिक उनके बड़े भाई देवीप्रसाद को जाता था। देवीप्रसाद प्रगतिशील विचार धारा के व्यक्ति थे। स्त्री शिक्षा, जात पात के निवारण तथा विधवा विवाह के हिमायती थे। उन्होंने मुंशी जी को वृंदा का दूसरा विवाह करवाने की सलाह दी थी। किंतु मुंशी जी समाज की व्यवस्था का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। एक कारण यह भी था कि वृंदा के लिए उन्हें कोई भी योग्य पात्र नज़र नहीं आया था। यदि कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाता तो शायद वह हिम्मत कर भी जाते।
देवीप्रसाद गाँधीवादी थे। 1920 के असहयोग आंदोलन से वह गांधी जी के प्रभाव में आए। नमक सत्याग्रह के समय वह भी नमक बना कर जेल गए थे। जेल से छूटने के बाद से वह पूरे देश में घूम कर लोगों में राष्ट्रवाद और स्वदेशी अपनाने का प्रचार कर रहे थे। साल छह महीने में जब भी लौट कर आते थे वृंदा से अवश्य मिलते थे। जब भी आते थे अपने साथ कोई पुस्तक लेकर आते थे। वृंदा को वह बहुत चाहते थे। उसे समझाते थे कि विधवा हो जाने का यह मतलब नहीं है कि वह जीना छोड़ दे। जीवन हर हाल में बहुमूल्य होता है। अतः किसी भी स्थिति में उसे बेकार नहीं करना चाहिए।
अपने ताऊ से मिली प्रेरणा के कारण वृंदा ने स्वयं को कभी वैधव्य के दुख में डूबने नहीं दिया था। वह देश के माहौल से भली भांति परिचित थी। देश में फैले क्रांतिकारी विचारों का उस पर भी असर हुआ था। वह एक छद्म पुरूष नाम से क्रांतिकारी लेख लिखती थी। जिन्हें वह चोरी छिपे एक स्थानीय अखबार के दफ्तर में छपने के लिए दे आती थी। वह छद्म नाम से इसलिए लिखती थी ताकि वह बिना मुसीबत में पड़े अपने विचार लोगों तक पहुँचा सके।
वह अपने कमरे में बैठी एक लेख की रूपरेखा तैयार कर रही थी। तभी महरी कम्मो की चीख सुनाई दी। वह भाग कर नीचे आई तो कम्मो ने रोते हुए कहा,
"दीदी लगत है कि भइया जी सिधार गए।"
" क्या....??"
सुनते ही वृंदा मुंशी जी के कमरे की तरफ दौड़ी। वहाँ पहुँच कर देखा कि सचमुच ही उसके पिता के प्राण पखेरू उड़ गए थे। वह अनाथ हो गई थी।

मुंशी जी को मरे एक माह से अधिक हो गया था। वृंदा बहुत अकेलापन महसूस करती थी। उसे अपने ताऊ की बहुत याद आती थी। वही थे जो उसे इस कठिन घड़ी में हिम्मत दे सकते थे। वृंदा को अपने जीवन का कोई मकसद समझ में नहीं आ रहा था।
वृंदा कमरे में बैठी पुस्तक पढ़ रही थी। तभी कम्मो ने आकर बताया कि चिठ्ठी आई है। दस्तखत करना होगा। वह समझ गई कि ताऊ जी का पत्र होगा। वह सही थी। पत्र देवीप्रसाद का ही था। उसने पत्र पढ़ना आरंभ किया।

प्यारी पुत्री वृंदा
स्नेह व आशीर्वाद

दीनदयाल की मृत्यु का समाचार सुन कर बहुत दुख हुआ। मुझे अंग्रेज़ी सरकार ने छह महीने के लिए हिरासत में ले रखा है। अतः तुम्हारा पत्र देर से मिला। जेल से ही तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ।
अपने भाई को मैं अंतिम विदाई भी नहीं दे सका। बचपन से ही वह मुझे बहुत प्रिय था। अतः सोंच सोंच कर कलेजा फटता है।
मुझे पता है कि इस समय तुम कितनी दुखी होगी। इस समय मुझे तुम्हारे पास होना चाहिए था। तुम्हें तसल्ली देनी चाहिए थी। किंतु मैं लाचार हूँ। तुम समझदार हो मेरी मजबूरी को समझोगी। मैने खुद को देशहित के लिए समर्पित कर दिया है।
बेटी इस समय तुम्हारी क्या मनोदशा होगी उसका मुझे अनुमान है। इस समय तुम जीने के लिए कोई उद्देश्य तलाश रही होगी। समझ नहीं पा रही होगी कि क्या करूँ ? बेटी मैं तुम्हें जीने का मकसद देता हूँ। आज हमारा देश एक कठिन दौर से गुज़र रहा है। बापू के आवाहन पर लाखों नर नारी अंग्रेज़ों को देश के बाहर खदेड़ने के लिए राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी आहुति देने को तैयार हैं। यह समय व्यक्तिगत हित के लिए नहीं बल्कि राष्ट्रहित में सोंचने का है। तुम भी राष्ट्र के लिए स्वयं को समर्पित कर दो। मैंने तुम्हारे लेख पढ़े हैं। तुम्हारे भीतर क्रांति की आग है। अब तक तुम पर्दे के पीछे थी। अब सामने आओ। देशहित के लिए जीना सौभाग्य की बात है। मुझे उम्मीद है कि ईश्वर की कृपा से तुम अपनी राह पा लोगी। मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है।

तुम्हारा ताऊ
देवीप्रसाद
दिनांक 10 सितंबर 1942

वृंदा बहुत देर तक पत्र को लिए मन में विचार करती रही। उसके मन को ताऊ जी ने बहुत अच्छी तरह समझा था। वह पिछले दो सालों से अपने लिए एक मकसद ढूंढ़ रही थी। वह देश के लिए कुछ करना चाहती थी। लेकिन दूसरे के नाम से लेख लिखने के सिवा कुछ नहीं कर पा रही थी। जब भी वह कुछ सोंचती तो पिता का खयाल आ जाता था। वह पीछे हट जाती थी। पर अब पिता भी नहीं रहे थे। ताऊ जी का पत्र पढ़ कर मन की दुविधा दूर हो गई थी। अब उसके जीवन का लक्ष्य साफ दिखाई दे रहा था। उसने देशहित की राह पर चलने का निश्चय कर लिया।
अगले दिन सुबह वह हिंद प्रभात के दफ्तर जाने के लिए घर से निकली। वह पत्र के संपादक उमाकांत से मिल कर उन्हें बताना चाहती थी कि वह अपने आप को राष्ट्रहित में समर्पित करना चाहती है। वह चाहती थी कि उमाकांत उसे भी अपने दल में सम्मिलित कर लें।
लेकिन जैसे ही उसने हिंद प्रभात की गली में कदम रखा तो वह चौंक गई। हिंद प्रभात के दफ्तर में पुलिस का छापा पड़ा था। उसने देखा कि पुलिस उमाकांत को गिरफ्तार कर ले जा रही थी। वृंदा फौरन दूसरी गली में मुड़ गई।
वह घर वापस लौट रही थी कि पीछे से किसी ने पुकारा। उसने पलट कर देखा तो मदन सामने खड़ा था। वह उमाकांत के दल का सक्रिय सदस्य था।
"आज भाईजी को पुलिस ने पकड़ लिया। हम इसके विरोध में पुलिस थाने के सामने धरना देने वाले हैं। तुम चलोगी हमारे साथ।"
वृंदा कुछ देर सोंचती रही।
"यदि समस्या हो तो रहने दो।"
मदन ने उसके असमंजस को देख कर कहा।
"नहीं कोई समस्या नहीं। कितने बजे पहुँचना है?" वृंदा ने पूँछा।
"दस बजे तुम मुझे अपनी गली के बाहर मिलना।"
घर लौट कर वृंदा दस बजने की प्रतीक्षा करने लगी। पहली बार वह सक्रिय तौर पर अंग्रेज़ी हुकूमत की नाइंसाफी का विरोध करने वाली थी। अब तक केवल उसने शब्दों के ज़रिए ही बगावत की थी। वह भी एक छद्म नाम से। आज वह वृंदा के तौर पर अंग्रेज़ी सरकार के जुल्मों का विरोध कर, इसका जो भी परिणाम हो भुगतने को तैयार थी।
मदन की अगुवाई में करीब पच्चीस लोगों का जत्था थाने के सामने धरने पर बैठा था। वृंदा मदन के साथ आगे की पंक्ति में थी। सभी पुलिस के विरुद्ध नारे लगा रहे थे। दारोगा जगतपाल ने बाहर आकर चेतावनी दी।
"चुपचाप यहाँ से चले जाओ नहीं तो अंजाम अच्छा नहीं होगा।"
"हमें अंजाम की परवाह नहीं। उमाकांत जी को छोड़ दो। नहीं तो हम यहीं बैठे रहेंगे।"
मदन ने ललकारा। उसके साथियों ने भी उसका समर्थन किया। दारोगा ने एक बार फिर अपनी चेतावनी दोहराई। लेकिन सभी अपनी अपनी जगह पर अटल बैठे रहे।
अपनी चेतावनी का असर ना होते देख कर दारोगा ने भीड़ को तितर बितर करने का आदेश दिया। कुछ ही देर में पुलिस वालों ने लाठीचार्ज कर सबको खदेड़ना शुरू किया। मदन का सर फट गया। वृंदा के हाथ में चोट लगी। अन्य लोग भी घायल हुए। अफरा तफरी मच गई। सभी इधर उधर भागने लगे।
वृंदा अपना हाथ पकड़े हुए सड़क पर भाग रही थी। उसे बहुत पीड़ा हो रही थी। सामने एक मोटर खड़ी देख कर वह उसके सहारे टिक कर सुस्ताने लगी।
"ऐ लड़की हटो। यह मेरी कार है।"
वृंदा ने घूम कर देखा। तेइस चौबीस साल का कोई अमीरज़ादा था। वृंदा ने उसे घूर कर देखा और आगे बढ़ गई।
तब तक युवक का एक साथी भी आ गया। दोनों कार में बैठ गए। मोटर वह युवक ही चला रहा था। बगल में बैठे उसके दोस्त ने पूँछा,
"कौन थी?"
"हाथ जख्मी था। होगी कोई क्रांतिकारी। सुना है कि पास के थाने पर कुछ लोग धरना देने गए थे। उन्हीं में से एक होगी। पुलिस की लाठी पड़ी होगी तो भाग खड़ी हुई।"
युवक ने कार चलाते हुए व्यंग भरे स्वर में कहा। उसके मित्र ने भी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा,
"जाने क्या फितूर सवार है इन लोगों पर। क्या होगा अंग्रेज़ों को निकाल कर।"
"इन्हें लगता है कि अंग्रेज़ों के जाते ही ये लोग भी मोटरों में घूमेंगे।"
दोनों ने मिल कर एक ज़ोरदार ठहाका लगाया।
कुछ देर में कार एक आलीशान बंगले के पोर्टिको में जाकर रुकी। यह बंगला मशहूर वकील श्यामलाल टंडन का था। वह युवक उनकी इकलौती संतान जयदेव था। दोस्त उसे जय कह कर बुलाते थे। जय मुंह में सोने का चम्मच लेकर पैदा हुआ था। श्यामलाल के पास पुश्तैनी जायदाद तो थी ही। उन्होंने अपनी वकालत से उसे और बढ़ा दिया था। इसलिए जय ने कमाने की जगह सिर्फ खर्च करने का मन बना लिया था। पूरी ईमानदारी से उस पर अमल भी कर रहा था। वह थिएटर व फिल्मों का शौकीन था। शौकिया तौर पर एक दो नाटकों में काम भी किया था।
कुछ दिनों पहले ही उसने अपना एक थिएटर ग्रुप बनाया था। उसका साथी इंदजीत ग्रुप का लेखक व निर्देशक था। अपने पहले नाटक की कहानी पर चर्चा करने के लिए ही जय इंद्र को अपने बंगले पर लेकर आया था।
श्यामलाल टंडन ने मान लिया था कि उनका बेटा कुछ नहीं करेगा। इसलिए उसकी जगह पर वह स्वयं पहले से अधिक काम करने लगे थे। वह एक माहिर वकील थे। उनके तर्कों के आगे बड़े बड़े वकील निरुत्तर हो जाते थे। अतः शहर में उनकी तूती बोलती थी।