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आदमखोर - 1

आदमखोर

(1)

भूरे - काले बादलों का समूह अचानक पश्चिमी क्षितिज में उभरने लगा. सरजुआ के हाथ रुक गये. हंसिया नीचे रखकर वह ऊपर की ओर देखने लगा. हवा का बहाव तेज होता जा रहा था. भूरे बादलों के छोटे-छोटे द्वीप आसमान में तैरते हुए पूरब की ओर बढ़ने लगे. चीलों और कौओं के झुण्ड पंख फैलाए हवा के बहाव को चीरने की कोशिश करते पश्चिम की ओर बढ़ रहे थे.

"बेमौसम ई का करि रहे हौ भगवान!" आंखें फाड़कर निहारता हुआ सरजुआ बुदबुदाया और सिर पर अंगोछा लपेटकर काटी हुई पतावर समेटकर पूरे(गट्ठर) बांधने लगा.

बहुत सवेरे ही आकर वह इस काम में जुट गया था. तब से नाले के किनारे के खेतों,मेड़ों और उसके नीचे की सारी पतावर वह काट चुका था. वह अनुमान लगाने लगा कि कम-से कम पचास गट्ठर यानी कि दस बोझ पतावर वह अब तक काट चुका होगा. लेकिन काटते समय उसे क्या मालूम था कि मौसम इस तरह का रुख अख्तियार कर लेगा, नहीं तो काटने के साथ ही वह गट्ठर भी बांधता जाता. उसने फिर ऊपर की ओर देखा. बादलों के द्वीप नदारद थे. मटियायी धुन्ध तेजी से फैलती जा रही थी. हवा बेरहम-सी पेड़ों को झकझोरती सांय-सांय करती खेतों में खड़ी फसल को रौंदती लहराने लगी थी.

"यो आंधी तूफान पता नहीं का कहर ढाई!" वह बुदबुदाया और फिर पतावर समेटने लगा.

"लागत है इहौ साल झोंपड़िया मा छपरा न पड़ि पायी." वह फिर बुदबुदाया और उड़ती पतावर के पीछे दौड़ा.

तीन साल पहले इनसे-उनसे मांग-मूंगकर उसने अपनी झोंपड़ी पर छप्पर डाला था. पिछले साल की बारिस में वह कई जगह से टपकने लगा. उसने रामदीन से पुआल मांग कर उसके ऊपर डाला, लेकिन पानी का टपकना बन्द नहीं हुआ. रात-रात भर उसके बीवी-बच्चों का सोना हराम हो गया. जिस कोने में वे सिमट-सिकुड़कर लेटते, छप्पर वहीं से टपकने लगता. कोठरी पहले से ही जर्जर थी इसलिए वह पिछ्ले कई सालों से पूरी बरसात छप्पर के नीचे ही काटता आ रहा था. कितनी ही बार उसने कोठरी बनवाने की जुगत बैठाई, मजूरी-धतूरी करके कुछ पैसे भी इकट्ठे किए, लेकिन जब भी काम शुरू करवाना चाहा, रमेसर सिंह को पता नहीं कैसे भनक लग जाती और वह उसका गला आ दबोचते. सारी जमा-पूंजी हड़प ले जाते और जाते-जाते कहते, "यह तो सूद भर है --- सूद--- तेरे बाप रमजुआ ने जो करजा लिया था उसका."

वह हाथ मलकर रह जाता अवश-उदास. कितना कर्ज लिया था उसके बाप ने यह बिना बताए ही सालों सूद वसूल करते रहे थे रमेसर सिंह. लेकिन एक बार उसने दबी जुबान पूछ ही लिया, तो बही खाता उसके सामने फैलाकर शब्दों का गला मरोड़ते हुए वह बोले, "तू खुद ही देख ले न अपनी आंखों से कितना लिया था तेरे बाप ने---- एक-एक पाई-पैसा इसमें दर्ज है. अरे स्साले--- हाड़-चोर---- तू समझता है मैं झूठ ही तुझसे वसूल कर रहा हूं."

वह मटमैले कागज पर गुदे नीले-नीले लफ्जों को बिटर-बिटर ताकता भर रहा था, जिसके नीचे स्याही से एक अंगूठा निशान लगाया गया था और पास ही कुछ लिखा भी था.

"करिया अच्छर भैंस बरोबर हूं लम्बरदार---- आप जो लिखा होइहो, हम ओहका झूठ थोड़े ही कहत हन. पर----."

"पर क्या---- झूठ भी नहीं समझता और हिसाब भी देखने चला है", हुक्का गुड़गुड़ाकर धुंआ उसकी ओर फेंकते हुए रमेसर सिंह फिर बोले, "साल में एक बार सूद मांगता हूं वह तो तुझसे दिया नहीं जाता---- मेरे यहां काम करना तुझे रास नहीं आता---- ठेकेदार के सहलाने में ज्यादा मजा आता है न ----स्साला सराफत का जमाना नहीं रहा." उन्होंने फिर हुक्का गुड़गुड़ाया और इस बार धुंआ सरजुआ के ठीक मुंह के सामने उगल दिया. उसकी आंखों में कड़वाहट भर गई. खांसी आ गई तो अगोंछे से मुह-आंखें ढक वह दो कदम पीछे हट गया.

"तूने मुझ पर शक किया है, इसलिए अब तू भी कान खोलकर सुन ले सरजू---- एक साल के अन्दर रुपयों का इन्तजाम करना होगा तुझे---- पूरे एक हजार हैं."

अंगोछा हटाकर पनियायी आंखों से सरजुआ ने उनकी ओर देखा.

"सुन लिया न ---- अब भाग यहां से!" रमेसर सिंह बही-खाता संभाल पलंग से उठ खड़े हुए तो वह भी मुड़ पड़ा. लेकिन उनकी आवाज सुनकर रुक गया. कुछ नरम आवाज में वह कह रहे थे, "देख, तेरी भलाई के लिए ही कर रहा हूं सरजू, ठेकेदार के चक्कर में मत पड़. रेलवे का ठेका जिन्दगीभर नहीं चलेगा---- मेरे यहां आ जा. कर्ज भी उतरता रहेगा और तेरा घर भी चलता रहेगा.---- जल्दी नहीं है. अगली फसल से सही. इससे पहले जब भी तुझे कभी किसी बात की चाहत हो बेहिचक कहना----- अरे, तेरे बाप ने जो मेरी सेवा की थी, उसे मैं भूला थोड़ी ही हूं---- मुझे कभी पराया मत समझना."

वह बिना कोई उत्तर दिए चला आया और सोचता रहा था, कितना खतरनाक आदमी है यह जो मारता भी है और रोने भी नहीं देता. इसीलिए छप्पर छाने की समस्या जब इस बार भी उसके सामने आ उपस्थित हुई तब रमेसर सिंह की उस दिन की बात का सूत्र पकड़े वह उनके पास जा पहुंचा, नाले के किनारे के उनके खेतों की पतावर के लिए. सुनकर वह बोले थे, "तिहाई में काट ले---- तिहाई माने एक हिस्सा तेरा और दो हिस्से मेरे."

वह चुप रहा, क्योंकि सौदा घाटे का लग रहा था. वह तो आधे की उम्मीद लेकर आया था.

"सोच क्या रहा है, कल से ही शुरू हो जा न. इतनी पतावर है कि तिहाई में नुझे इतनी मिल जायेगी कि तेरा घर भी छा जायेगा और तू बेच भी लेगा."

"अच्छा, लम्बरदार!" वह केवल इतना कहकर उठ आया था.

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किसी तरह वह पांच गट्ठर पतावर ही इकट्ठा कर बांध पाया, शेष उस भयंकर आंधी की चपेट में आकर उड़ गयी. पांच बांधे गट्ठर भी उड़ गये होते यदि वह उन्हें इकट्ठ कर उनके ऊपर बैठ न गया होता. आंधी इतनी तेज थी कि एक बार उसे लगा जैसे गट्ठरों सहित वह भी उड़ जायेगा. दिन भर के परिश्रम की उस शेष बची पूंजी को बचाने के लिए वह उन पर पसर गया और दोनों हाथों से मजबूती से पकड़ लिया. लगभग आधा घंटे के ताण्डव के बाद आंधी धीमी हुई. उसने ऊपर देखा, आसमान में कालिख-सी पुत गयी थी. अभी शाम होने में काफी समय शेष था, लेकिन अंधेरा पूरी तरह उतर आया था. पगडंडी के पास खड़ा नीम का पेड़ दूर से उसे दैत्य के समान दिखाई दे रहा था.

"हे ईसवर, अब का करि रहे हो. हम गरीबन पर तो तनिक दया करौ भगवान! वैसेई म्हारि दिन भर की मेहनत अकारथ हुई गई---- छप्पर छाउब तो दूर, लागत है आज झोंपड़िया सही-सलामत न बची." वह बुदबुदात हुआ उठा.

आंधी का प्रभाव काफी कम हो गया था, लेकिन हवा फिर भी चल रही थी और उसमें ठंड का असर बढ़ गया था. हालांकि उसने जगह-जगह से पैबन्द लगा कोट अपने शरीर पर लटका रखा था, जिसे आठ साल पहले धन्नू पंडित ने तब दिया था, जब उसने पन्द्रह दिनों तक उनके यहां इस उम्मीद से काम किया था कि जो मजूरी मिलेगी, उससे वह अपनी बीमार बेटी का इलाज करवायेगा. बिटिया लगभग एक महीने से बीमार चल रही थी. पैसों के लिए उसने पूरे गांव में चक्कर लगाए थे. सबने जब टका-सा जवाब दे दिया और रमेसर सिंह ने दुत्कार कर भगा दिया तब हारकर वह दूसरे सूदखोर धन्नू पंडित की शरण में गया था. और धन्नू पंडित ने उसकी मजबूरी का भरपूर फायदा उठाया था. बोले थे, "पैसे तो अभी हैं नहीं---- तू कुछ दिन काम कर, तब तक मैं जुगाड़ बना दूंगा."

वह पन्द्रह दिनों तक दिन-रात उनके यहां खटता रहा और बिटिया घर में बिना इलाज तड़पती रही थी. हर रोज धन्नू पंडित उसे आश्वासन देते कि कल पैसे जरूर दे देंगे, लेकिन कल अगले कल पर टल जाता. आखिर पन्द्रह दिन बीतते-बीतते उसका धैर्य टूट गया तो दबी जुबान वह बोला, "पंडित जू, बिटेवा बिना इलाज मर रही है---- अगर आप पैसन का इन्तिजाम करि देते तो----."

उसकी बात पूरी होने से पहले ही धन्नू पंडित चीखे थे, "स्साले मैं कोई बेईमान हूं---- भाग जा यहां से---- नहीं दूंगा पैसे-वैसे----."

वह भौंचक उन्हें देखता रह गया था. पैरों के नीचे से जमीन खिसकती लगी थी. वह गिड़गिड़ा उठा था, "पंडित जू, किरिपा करि कै----."

कुछ क्षण तक खा जाने वाली आंखों से उसे घूरते रहे थे धन्नू पंडित फिर घर के अन्दर लपकते हुए गये थे और वह पुराना कोट उसके ऊपर फेंक दिया था, "ले, ले जा इसे----चल फुट मादर----."

"लेकिन पंडित जू, हम इहका का करिब---- हमै तो बिटेवा के इलाज खातिर----."

"इसे बेच दे किसी को, पैसे मिल जायेंगे."

"पंडित जू------." वह फिर गिड़गिड़ा उठा.

"तेरी मां ---- की ----स्साला बकवास करता है."

वह कोट थामे भाग खड़ा हुआ था विवश - उदास. कोट खरीदने के लिए उसने कई लोगों से कहा, लेकिन सबने यही कहा, "किसी मुरदे से उतारा ई कोट कौन खरीदे."

सारे गांव में वह भटका, लेकिन किसी ने कोट नहीं खरीदा और एक दिन बिटिया बिना इलाज के चल बसी. उसने चाहा कि वह उस कोट को फेंक दे, लेकिन फेंक न सका. बिटेवा को तो न बचा सका, लेकिन सर्दी से अपने शरीर की बचत वह उस कोट से करने लगा था.

"सब गरीबन का खून चूसैं वाले रकत पायी गुण्डे -बदमाश हैं---- चाहे रमेसर सिंह हों, धन्नू पंडित या कि ठेकेदार-----" उसने पांच गट्ठरों को पतावर का लंबा जूना बनाकर एक साथ बांधकर बोझ तैयार कर लिया और बैठकर दाएं पैर से धक्का मारकर उसे सिर पर रखना चाहा, लेकिन संतुलन बिगड़ गया. बोझ एक ओर और वह दूसरी ओर लुढ़क गये. तभी आसमान में बादलों की चीत्कार सुनाई पड़ी. वह सहम गया. जल्दी से उठकर बोझ को संभालने लगा. इस बार किसी तरह बोझ सिर पर आ गया. वह सरपट पगडंडी की ओर भागा, लेकिन नीम के पेड़ के पास पहुंचते-पहुंचते आसमान की कालिख झरने लगी. मोटे-मोटे बूंद पड़पड़ाने लगे. बारिस इतनी तेज थी कि एक कदम भी आगे बढ़ना कठिन था. नीम के पेड़ के नीचे बोझ पटक वह तने से सटकर बैठ गया. तभी उसे किसी के कंपकंपाने और दांत कटकटाते हुए 'हू-हू' करने की आवाज सुनाई पड़ी. उसने घूमकर देखा, तो दंग रह गया. रमेसर सिंह उकड़ूं बैठे कांप रहे थे.

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