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जो घर फूंके अपना - 19 - झूठ बोले कौवा काटे

जो घर फूंके अपना

19

झूठ बोले कौवा काटे

त्रिवेणी के ठंढे पानी में डुबकी लगाने से जैसे जैसे घबडाहट कम होती गयी पछतावा वैसे वैसे बढ़ता गया. क्या ज़रूरत थी बेकार में इतना झूठ बोलने की? मैंने अतीत में झांका तो पाया कि जब भी कभी कोई छोटा सा झूठ भी बोला था बुरा फंसा था. ऐसा ही कुछ दिन पहले लखनऊ में हुआ था जहां एक थानेदार साहेब मेरी और मेरे एक दोस्त की तलाश शायद अभी भी कर रहे हों. नहीं, कोई ह्त्या या डकैती का मामला नहीं था. बस एक छोटा सा झूठ बोला था मैंने.

लखनऊ के उन थानेदार साहेब का किस्सा भी सुना देता हूँ. यही किस्सा किसी और को सुनाया था तो उन्होंने मुझसे पूछा था “तुम स्वयं होश में तो थे या ज़्यादा पी रखी थी?” आप भी यही सवाल न उठायें इसलिये पहले एक गलतफहमी दूर करना आवश्यक है कि सभी फ़ौजी अफसर मदिरापान करते हैं. ऐसी धारणा बनाने के विषय में अंग्रेजी में कहावत है कि कुत्ते को कोई बुरा सा नाम देकर उसे सूली पर चढ़ा दो. (गिव द डॉग अ बैड नेम ऐंड हैंग हिम ). मज़े की बात ये है कि ये धारणा बनी है फौजियों की समाजसेवा की अभिलाषा के कारण. फौजियों को सी एस डी(CSD)कैंटीन से शराब सस्ती मिलती है क्यूंकि उस पर एक्साइज शुल्क माफ़ होता है. फौज के बारे में एक साधारण नागरिक को और कुछ पता हो या न हो यह बात ज़रूर मालूम होती है. अतः फौजियों को अपने सिविलियन दोस्तों, नाते रिश्तेदारों आदि से लगातार फरमाइश आती रहती है कि उन्हें भी कैंटीन से कुछ शराब दिलवा दें. बेचारे फौजी अपने नाते रिश्तेदारों की कोई मदद नहीं कर पाते हैं. न नौकरी दिलवा पाते हैं न सरकारी ज़मीन या फ्लैट. न कालेज में एडमिशन, न ही परीक्षा में नक़ल. अतः अनायास अंकुरित हुई हीन भावना और मलाल को वे बेचारे कैंटीन से सस्ती शराब इत्यादि परिचितों को दिलवा कर कम करने की कोशिश करते हैं. फौजी को सीमित मात्रा में, कोटे के अनुसार, शराब कैंटीन से मिलती है जिसे वह अपनी शान बनाए रखने के चक्कर में अपने सिविलियन परिचितों को दे देता है; ऊपर से ये धारणा बनवा लेता है कि फौज वाले बहुत पीते हैं. पर मेरी बात तो बिना पिए ही बहक गयी. अभी मैं सिर्फ इतना कहना चाहता था कि सभी फौजी शराब पियें ये ज़रूरी नहीं. ऐसे ही हैं मेरे एक दोस्त मोहन सिन्हा. बेचारे बहुत भले,सीधे सादे इंसान हैं. एयर फ़ोर्स अफसर होते हुए भी उन्होंने शराब को कभी हाथ नहीं लगाया. यहाँ तक कि शुरू शुरू में उनकी बुरी सोहबत में रहकर मैं भी कई साल टी-टोटलर रहा, वो तो कहिये बाद में सुधर गया.

मोहन सिन्हा का शराब के बारे में अज्ञान विलक्षण था. उनकी छोटी बहन की शादी लखनऊ में तय हुई. परिवार खाने पीने का शौक़ीन था. शादी से पहले लड़का किसी काम से दिल्ली आया तो मोहन ने उसे और उसके एक दोस्त को दिन के खाने पर रविवार को अपने घर बुलाया. मुझसे पूछा ड्रिंक्स में क्या रखूँ. मैंने सलाह दी कि बियर रख लें गर्मी के दिनों में ठीक रहेगी. वे बोले “तुम मुझसे ज्यादा समझते हो ये सब. तुम भी आ जाना. इंतज़ाम देख लेना”

रविवार को मैं मेहमानों के आने से पहले पहुँच गया तो उन्होंने मुझे बियर की एक बोतल थमा दी और पूछा “ये लो,बियर का प्रबंध तो कर लिया है, इसके साथ सोडा मिलाते हैं या पानी?”

अपनी हंसी रोकते हुए जो कुछ मैं उन्हें समझा पाया उससे वे मेरी काबीलियत से बहुत प्रभावित हुए. तभी उन्होंने घोषणा कर दी कि बहन की शादी में, जो कुछ महीनों के बाद लखनऊ में होगी, मुझे आना होगा और वहाँ ड्रिंक्स का इंतज़ाम मुझको ही देखना होगा.

इस तरह से लखनऊ की उस शादी में जो दिसंबर की एक बहुत ठंडी शाम को हो रही थी मुझे एक बड़ी सी बारात के बहुत सारे बारातियों की खातिर में ड्रिंक्स का प्रबंध संभालना पड़ा. तीन आदमियों के लिए कितनी बियर चाहिये ये तो मैंने मोहन को उस दिन दिल्ली में बहुत सही बताया था पर उस शौक़ीन बरात के बारातियों के लिए, जिनमे लगभग पचास पीने वाले थे, दस बहुत पीने वाले थे और पांच छः पीने में विलक्षण प्रतिभा के धनी थे और इस फन में खेलरत्न अलंकरण के अधिकारी थे, कितनी शराब की ज़रुरत पड़ेगी इसका अंदाज़ लगाने में मैं गच्चा खा गया. मोहन महीनों से अपने कोटे की शराब कैंटीन से ले लेकर जमा करते आ रहे थे पर आधे से अधिक बोतलें तो बारात में आयी धुरंधर प्रतिभाओं ने विवाह स्थल पर स्वागत द्वार से सौ गज दूर अखिल भारतीय भांगड़ा प्रतियोगिता के अंतहीन समारोह जैसे अपने भयंकर भांगड़े में ही ख़तम कर दी. द्वारचार का समय सात बजे शाम का था,उस समय रात के नौ बज रहे थे और स्पष्ट था कि बारात द्वार से बची हुई सौ गज की वह दूरी पार करते करते रात के ग्यारह-बारह तो बजाएगी ही, साथ ही जितनी शराब खप चुकी थी उससे दुगुनी निपटा लेगी. पीने वालों की संख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही थी. बल्कि मुझे तो शक था कि कुछ देर में ही शांत खडी हुई वह सफ़ेद घोडी भी, जिसपर दूल्हा बैठकर ललचाई हुई निगाहों से पीते हुए बारातियों को देखकर अपनी न पी सकने की मजबूरी पर पछता रहा था, जोर से हिनहिना कर एकाध बाल्टी व्हिस्की मांगेगी और दूल्हा छलांग लगाकर नीचे उतर कर कहेगा “शादी मेरी है, आखीर मैं ही क्यों पीछे रहूँ” बहरहाल ये स्पष्ट था कि जितनी शराब बचती थी उससे दुगुनी और मंगानी पड़ेगी. सौभाग्य से रात के नौ बजे थे और दूकानें खुली हुई थीं अतः व्हिस्की और मंगा ली गयी. पर गहमागहमी में सोडा मंगाना रह गया. मैंने सोचा पानी से काम चला लूंगा. पर रात के पौने बारह बजे जब सात बजे शाम वाली द्वारचार की रसम प्रारम्भ हुई और दूल्हे के जीजाजी ने सुना कि सोडा ख़तम हो गया है तो पानी से व्हिस्की ले लेने के आग्रह को उन्होंने ऐसे मुंह बनाकर ठुकराया जैसे उन्हें चांदी के थाल में भरा वह पानी लेने को कहा जा रहा हो जिससे अभी अभी लड़की के पिता ने दूल्हे के पदप्रक्षालन की बेहूदी और शर्मनाक रसम पूरी की थी. मोहन ने मुझे बुलाकर कान में फुसफुसा कर कहा “अब इस समय सिर्फ एक जगह सोडा मिलेगा, रेलवे स्टेशन के पास चारबाग या नाकाहिंडोला में पान की दुकाने शायद खुली हों. जल्दी से कार लेकर चले जाओ और सोडा ले आओ वरना हमारी इज्ज़त महज़ सोडे के कारण, सोडे की बोतल से निकलते गैस के बुलबलों की तरह हवा मे उड़ जायेगी.

और कोई चारा न था. मुझे चारबाग़ जाना पडा और फिर वहां से नाकाहिंडोला जहाँ सौभाग्य से एक पान की दूकान खुली मिल गयी जिसमे सोडा भी उपलब्ध था. मैंने एक क्रेट सोडा गाडी में रखवाया और उसका दाम छः रूपये ( तब यही दाम था उसका) देने के लिए पर्स में झांका तो उसमे केवल सौ सौ रूपये के नोट दिखे. दुकानदार एक अट्ठारह बीस साल का लड़का था. टूटे पैसे उसके पास नहीं थे पर उसने कहा कि बाकी के चौरानबे रूपये उसके पिताजी से दूकान पर अगले दिन सुबह मिल जायेगे. और कोई विकल्प न होने से मैं राज़ी हो गया. पर जैसे ही हम आगे बढे मोहन के भाई ने, जो कंपनी देने के विचार से साथ में आया था, कहा “इसका क्या ठिकाना, कल हमें बाकी के चौरानबे रूपये मिले कि न मिलें. ”बात मुझे जमी. कार थोड़ा पीछे कर के दूकान के सामने की और उस लड़के से रुआब के साथ कहा “मुझे जानते हो ?’

उसने इनकार में सर हिलाया तो मैंने ज़ोरदार आवाज़ में पूछा “नाका हिंडोला थाने के थानेदार साहेब को जानते हो?”

इस बार सर स्वीकृति में हिला तो मैंने कहा “मैं उनका जीजा जी हूँ, कल दिन में बाकी के रूपये लेने आऊँगा, ध्यान रखना“ फिर हम चल दिए. मोहन का भाई मेरी चतुराई और सूझ बूझ का कायल होगया.

अगले दिन नाश्ते के बाद मैं अकेला ही कार उठा कर अपने रूपये लेने नाकाहिंडोला गया. दूकान पर एक दूसरा आदमी था, रात वाले लड़के का पिता. मुझे देख्कर बड़े आदर के साथ बोला “अरे हुज़ूर,आप काहे तकलीफ किये. हमें तो जब सुबह लड़के ने बताया तो हमने बहुत डांटा कि साहेब को क्यों तकलीफ दिया. हमने तो हुज़ूर के पैसे सुबह नौ बजे ही थानेदार साहेब के पास पहुंचा दिये. “

मैं अवाक था. फिर संभलकर पूछा “कुछ कहा भी उनसे?” वह बोला “हाँ हुज़ूर बताया था कि रात आपके जीजाजी आये रहे. तो बोले अच्छा सुबह आयें तो साले को मेरे पास भेजना. हुज़ूर आपलोग दोनों एक दूसरे के साले बहनोई हैं क्या?“ मैं चुप ही रहा.

क्रमशः ----------