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जयगाथा 2

जयगाथा


( महाभारत की कथाओं पर आधारित उपन्यास )


ॐ श्रीगणेशाय नमः ।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
आद्यन्तमङ्गलंजातसमानभाव-
मार्यं तमीशमजरामरमात्मदेवम् ।
पञ्चाननं प्रबलपञ्चविनोदशीलं
सम्भावये मनसि शङ्करमम्बिकेशम्॥
(महाशिवपुराण/विद्येश्वर संहिता १/१)

वह आदि से अंत तक नित्य तथा सदा ही मंगलमय हैं, जिनकी कोई भी समानता या तुलना अन्यत्र कहीं भी नहीं की जा सकती है, जो आत्मा के स्वरुप को प्रकाशमान करने वाले परमात्मा हैं, वह अपने पञ्चमुख से विनोद में ही पञ्च प्रबल कर्म-कृत्यों-सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव एवं अनुग्रह करने वाले हैं । ऐसे ही अनादि परमपिता परमेश्वर अम्बिकापति भगवान शिव-शंकर का मैं पुनः-पुनःमन ही मन में मनन, अर्चन, चिन्तन और पूजन करता हूँ ।

रात्रि का पूर्ण अवसान हो चुका था ।
प्रातःकाल हुआ और भगवान अंशुमाली दिग-दिगान्तर में दिग्विजय हेतु निकल पड़े थे । आकाश सिन्दूर से स्नान कर चुका था। आकाशचारी अपने कर्म हेतु निकल चुके थे। प्रमादी मेघ वायुदेव के हाथों विवश यत्र तत्र गतिमान हो रहे रहा।
इधर सूर्यदेव ने अपनी रक्तिम सप्त-रश्मियाँ बिखेरीं, वर्षों से अखण्ड समाधि में ध्यानस्थ परमपुरुष भगवान वृषकेतु ने भी आज अपने नेत्र खोले थे और जगत में ब्रह्मतेज का मार्ग प्रशस्त हो गया था ।
रजतगिरि कैलाश पर प्रकृति प्रसन्नता से झूम उठी थी । चहुँओर वातावरण जैसे जीवन्त हो गया । देवदारु और श्वेतभोज जैसे हिमवृक्ष भी सुन्दर सुगन्धित पुष्पदलोंसे लद गये; उनपर भौरें गुंजन करने लगे थे, मानो वसंत ही आ गया था।
कुमार कार्तिकेय, श्रीगणेश और नंदी महाराज ने गणों समेत कर्पूरगौर शिव के सम्मुख साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया ।
‘जय-जय हे करुणाब्धे श्री महादेव शम्भो’ के जयघोष से गणपर्वत गूँज उठा था । माता जगदम्बा देवाधिदेव को नमन कर नव पल्लवित पुष्पों तथा भस्म-चन्दन के लेप से उनका श्रृंगार करने में तल्लीन थीं । आज सम्पूर्ण जगत को तृप्ति प्रदान करने वाली माता अन्नपूर्णा ने नानाप्रकार के भोज्य पदार्थ महादेव के सम्मुख नैवेद्य हेतु समर्पित किये।
कुमार कार्तिकेय चकित थे। अपने पिता महादेव की इतनी दीर्घावधि की समाधि से उनके हृदय में उपजी उत्सुकता प्रत्यक्ष हो उठी थी । कौतूहलवश अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए कार्तिकेय पिता के सम्मुख गये तो प्रेम में भरकर महादेव ने कुमार को अपने पास बैठा लिया ।
कार्तिकेय ने पिता से प्रश्न किया—
" पिताश्री ! आप निरन्तर भगवान श्रीराम के नाम का उच्चारण करते हैं, वह सच्चिदानंद कहाँ पर निवास करते हैं ?"
अनादि शिव मुस्कुराए। उनकी मुस्कान से पर्वतराज कैलाश का कण-कण जैसे प्रफुल्लित हो उठा था । सुगंधित वायु का संचरण शिवगणों को आनन्दित कर रहा था । कार्तिकेय के प्रश्न को सुनकर महाशिव ने धीमे से अपने नेत्र बन्द कर लिए; एक बार पुनः अपने प्रभु का ध्यान किया और कहा--
" यह उस समय की बात है स्कन्द ! जब तीनों लोकों का पालन करने वाले मेरे प्रभु भगवान श्रीराम के नारायण स्वरूप का निवास स्थान बद्रीकाश्रम में था, नर तथा नारायण सतयुग में सभी के दर्शन हेतु वहाँ पर निवास करते थे । भगवान के दर्शन मात्र से सभी जिज्ञासुओं को धर्म का ज्ञान होता था और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती थी।
युग बदला; सतयुग के पश्चात त्रेतायुग आया। इस युग में नारायण के दर्शन मात्र देवताओं और ऋषियों को ही हो पाते थे।
इसके बाद जब अनाचार तथा पाखण्ड बढने लगा, देवताओं और ऋषियों में भी अहंकार जागृत हो गया तो नारायण बद्रिकाश्रम को छोड़कर क्षीरसागर में चले गये। पुत्र ! जैसे ही अहंकार की वृद्धि होती है भगवान जीवन से भी तत्क्षण विदा हो जाते हैं।
देवतागण और समस्त प्राणी बद्रिकाश्रम में श्रीहरि को खोजने लगे। जब भगवान कहीं भी न मिले, तब सभी व्याकुल हो गये। ऐसे में सभी देवता और ऋषिगण ब्रह्मा जी के पास गये और भगवान नारायण के बारे में पूछा ।
“ प्रभु ब्रह्मदेव ! नारायण के दर्शन नहीं हो रहे हैं। हम सब आकुल हैं।
ब्रह्माजी को भी कुछ ज्ञात न था, वह निरुत्तर हो गये और अधीर भी। खोजने लगे श्रीहरि को। बस खोजते-खोजते क्षीरसागर तक पहुँच गये। क्षीरसमुद्र में शेषशय्या पर पद्मनाभ स्वरूप भगवान योगनिद्रा में लीन थे । वहाँ भी श्रीहरि के दर्शन ब्रह्माजी के अतिरिक्त किसी और को नहीं हुए।
ब्रह्माजी ने नारायण की स्तुति की और उन्हें समस्त जगत के उद्धार करने और सब देवगणों और प्राणिमात्र को दर्शन देने की प्रार्थना की।
सच्चिदानंद भगवान ने कहा-- “ अनाचार की समाप्ति और धर्म की स्थापना के लिए मैं शीघ्र ही धरती पर अवतार लूँगा।" इतना कहकर शिव ने कार्तिकेय की तरफ देखा।
कार्तिकेय बड़े ध्यान से पिता की बातें सुन रहे थे।
“...फिर क्या हुआ पिताश्री ? क्या स्वयं नारायण अभी भी क्षीरसागर में ही विराजमान रहते हैं ?"
" हाँ पुत्र ! द्वापर के बाद क्षीरसागर ही भगवान श्रीहरि का स्थाई निवास है, जहाँ वह माता के साथ निवास कर रहे हैं । नारदतीर्थ से बद्रिकाश्रम तक की यात्रा करने वाला तथा वहाँ का प्रसाद ग्रहण करने वाला प्राणी परम मोक्ष प्राप्त करता है तथा वैकुण्ठ में उसे स्थान मिल जाता है, परन्तु अब किसी भी प्राणी को भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं मिल पाते हैं।”
कार्तिकेय के मुख पर अब सन्तुष्टि के भाव थे। उनकी जिज्ञासा शान्त हुई थी, परन्तु अब माता पार्वती का कौतूहल बढ गया था। वह महाशिव के चरणों में आ विराजीं।
“ देव ! भगवान ने पुनः जब धर्म की स्थापना हेतु अवतार ग्रहण किया, वह कथा आपके मुख से सुनने की तीव्र उत्कंठा है। आपने त्रेता युग में अवतरित श्रीराम के गुणसमूहों की उस परम् दिव्य कथा का श्रवण मुझे कराया था जो महात्मा काकभुसंडी ने गरुड़ जी को सुनायी थी। आज मुझे द्वापरयुग में धर्म की स्थापना हेतु अवतार लेने वाले श्रीहरि के अवतार योगेश्वर श्रीकृष्ण की कोई कथा सुनाइए । मैंने सुना है कि द्वापर में श्रीकृष्ण ने मानव रूप में होते हुए भी मनुष्यों को अपने विराट रूप के दर्शन दिये और उनकी रक्षा भी की।” पार्वती ने कहा।
त्रिपुरारी कहने लगे- “अच्युत और अनन्त श्रीहरि की तरह ही उनकी कथा भी अनन्त हैं । जन्म-जन्मान्तर सुनते रहने पर भी यह कथाएँ कभी समाप्त नहीं होती । आप सौभाग्य शालिनी हैं जो इस अनुपम कथा का श्रवण करने की कामना रखती हैं । देवताओं के अतिरिक्त मात्र मनुष्य ही श्रीहरि की कथा को सुनने का अधिकारी होता है। विभिन्न योनियों में कष्ट प्राप्त करने के पश्चात प्राणिमात्र को मोक्ष प्राप्ति का एक अवसर प्राप्त होता है और ईश्वर उसे मनुष्य का जन्म प्रदान करते हैं।
“ क्या पृथ्वी लोक में मनुष्य की सहायता ईश्वर भी करते हैं देव !” माता ने प्रश्न किया।
“ अवश्य देवी ! मृत्युलोक में अपने अस्तित्व का अभिमान न करके और महामाया से भ्रमित हुए बिना निष्काम कर्म करते हुए ईश्वर के चरणों में पूर्ण समर्पण किया जाय तो ईश्वर उसकी सहायता करते ही हैं, जैसे उन्होंने पाँचों पाण्डवों, कुन्ती और द्रौपदी की सहायता की ।
द्वापर में साक्षात् परब्रह्म ने ही श्रीकृष्ण स्वरूप में देवताओं, गउओं, ब्राह्मणों, साधुओं-संतों और पाप के बोझ से दबी वसुन्धरा को बचाने के लिए पुनः अवतार लिया था । उनकी बाललीलाएँ बड़ी सुखदायक और कल्याणकारी हैं, परन्तु आज मैं श्रीकृष्ण की उन लीलाओं की कथा का श्रवण कराता हूँ जो धर्म की स्थापना और कर्मयोग के सिद्धान्त को प्रतिपादित करने के लिए उन्होंने पाण्डवों के सहायतार्थ की।
महामुनि व्यास भी उसी काल में उत्पन्न हुए और उन्होंने सब कथाएँ विस्तार से लिखीं हैं । व्यास के शिष्य हुए हैं सूतपुत्र रोमहर्षण और ऋषि वैशम्पायन। भगवान श्रीहरि के आदेशों से ब्रह्माजी द्वारा रचित सृष्टि की चरणबद्ध ये कथाएँ ऋषि रोमहर्षण के पुत्र सूतकुमार उग्रश्रवा ने महर्षि शौनक को विस्तार से सुनायी थीं और कृष्ण द्वैपायन व्यास के शिष्य वैशम्पायन ने जनमेजय को।”
“ प्रभु ऽऽ ! मुझे वह सब कथाएँ सुननी है।” उमा ने महादेव के चरण पखारे और निवेदन किया।
यह कथानक बड़ा ही कल्याणकारी है और निश्चित ही मनुष्य को परम सुख प्रदान करता है। यह परमसुख मायिक-सुख की भाँति क्षणिक नहीं है, यह जीवन में शान्ति और संतुष्टि प्रदान करता है, इससे ही जीवन में धर्म का प्रवेश होता है। जीवन में धर्म के आगमन से ही सत्य, सदाचार, करुणा, मौन और विनम्रता जैसे गुणों का समावेश होने लगता है, तब द्वेष, क्रोध, तृष्णा और वैमनस्य जीवन से शनैः-शनैः विदा लेने लगते हैं; माया में आकंठ डूबे सामान्य मनुष्य को यह ज्ञान अपने जीवन की ऐसी अवस्था में जाकर प्राप्त होता है, जब उसके पास अधिक समय शेष ही नहीं रह जाता। विरले मनुष्य माया को त्याग कर वैराग्य की ओर गमन करते हैं और भगवान का सायुज्य प्राप्त करते हैं। आइये सुनिये वह अद्भुत कथा जो महर्षि व्यास जी के शिष्यों ने जनमेजय को सुनाई थी।”
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भगवान नारायण की पद्मनाभ मुद्रा से विशाल कमलदल पर उत्पन्न ब्रह्माजी ने भगवान के आदेशों से सृष्टि की रचना आरंभ कर दी । उनके ऋषि रूप छह मानस पुत्र हुए; मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलत्स्य, पुलह तथा क्रतु । दाहिने अंगूठे से उत्पन्न हुए प्रजापति दक्ष तथा कालान्तर में स्तन से उत्पन्न धर्म सहित उनके अनेक पुत्र हैं।
मानस पुत्रों में से मरीचि से कश्यप ऋषि पैदा हुए तथा अंगिरा से बृहस्पति, उतथ्य और संवर्त।
पुलत्स्य से राक्षस, वानर और किन्नरों का जन्म हुआ तथा पुलह से रीछ, व्याघ्र, सिंह और शरभ आदि उत्पन्न हुए । अत्रि से ऋषियों ने संतान रूप में जन्म लिया। क्रतु के द्वारा सूर्य के आगे चलने वाले साठ हजार बालखिल्य ऋषियों का जन्म हुआ ।
ब्रह्मा के ही एक पुत्र स्थाणु ने परम तेजस्वी ग्यारह पुत्रों को उत्पन्न किया जो कि ग्यारह रुद्र हैं। इस प्रकार आठ वसु ग्यारह रुद्र बारह आदित्य, प्रजापति और वषट्कार सहित यह तैतीस मुख्य देवता माने गये हैं, जिसे आज हम तैंतीस कोटि देवता कहते हैं ।
देवर्षि नारद, महर्षि वसिष्ठ और भृगुऋषि भी उनके पुत्र हैं।
प्रजापति दक्ष से पचास कन्याएँ उत्पन्न हुई। जिनमें से दक्ष ने अपनी दस कन्याओं का विवाह धर्म के साथ कर दिया । धर्म से आठ वसु उत्पन्न हुए थे।
दक्ष की ही सत्ताईस पुत्रियों का विवाह चन्द्रमा के साथ हुआ जो सत्ताईस नक्षत्रों के रूप में विख्यात हैं। शेष तेरह कन्याएँ दक्ष ने महर्षि कश्यप को ब्याह दीं, जिनमें अदिति, दिति, विनता तथा कद्रू भी हैं। सनातन के अनुसार कश्यप जी से ही सारी प्रजा की उत्पत्ति हुई है।
ऋषि कश्यप द्वारा दीति के गर्भ से दैत्यवंश की उत्पत्ति हुई । विनता से अरुण और गरुड़ का जन्म हुआ। कद्रू से शेष जी, नागराज वासुकी, तक्षक तथा सम्पूर्ण सर्पवंश की उत्पत्ति हुई।
कपिला से गऊ, गंधर्व और अप्सराओं का जन्म हुआ। कश्यप ऋषि ने दक्ष कन्या अदिति के गर्भ से बारह आदित्य पुत्रों को उत्पन्न किया।
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एक बार की बात...भृगुवंशी जमदग्नि ऋषि के परम तेजस्वी पुत्र भगवान परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया और उसके पश्चात महेंद्र पर्वत पर तपस्या करने चले गये । इसके बाद क्षत्राणियों ने क्षत्रिय कुल की रक्षा के लिए ब्राह्मणों की शरण ले ली।
कठोर व्रत करने वाले ब्राह्मण भी बिना कामवश केवल ऋतुकाल में उनसे मिलते थे, इस प्रकार क्षत्रिय नारियों ने ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय कुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। धीरे-धीरे पृथ्वी पर पुनः क्षत्रियों का अधिकार हो गया। चारो और धर्म का पालन होने लगा था। इन्द्र भी समय पर वर्षा करते थे, कोई रोग और दोष न होने से प्रजा भी दीर्घजीवी रहने लगी थी।
चारों तरफ सतयुग आ गया था।

उन दिनों में दक्ष की पुत्री दिति और महर्षि कश्यप के असुर पुत्रों को देवताओं ने पराजित करना प्रारम्भ कर दिया था।
देवता तो अमृत प्राप्त कर अमर हो गये थे पर दैत्य पराजित होते तथा मारे जाते। अतः उन्होने पृथ्वी पर असुरों के रूप में जन्म लेना आरम्भ कर दिया। मनुष्यों के साथ-साथ वे सभी असुर भी घोड़ों और विभिन्न पशुओं आदि की योनियों में जन्म लेने लगे।
धीरे-धीरे इन सभी की दीर्घायु के कारण पृथ्वी का भार बढने लगा तथा एक समय ऐसा आ गया कि पृथ्वी अपने भार का वहाँ करने में भी असमर्थ होने लगी।
जब पृथ्वी पर लाखों की संख्या में असुरों की उत्पत्ति होने लगी और वे समस्त प्राणियों, ऋषियों और ब्राह्मणों को अपने बल पराक्रम और अहंकार के द्वारा डराने और पीड़ा देने लगे तो शेषनाग को भी पृथ्वी को सँभालना दुष्कर लगने लगा।
चारो ओर त्राहि-त्राहि मच गयी। भयातुर पृथ्वी पितामह भगवान ब्रह्मा जी की शरण में गयी। उसने ब्रह्माजी को प्रणाम किया और कहा--
" हे प्रभु ! आप ही जगत-पिता हैं, आप मेरे यहाँ आने का कारण उचित प्रकार समझते हैं कृपया मेरा उद्धार करें।"
भगवान ब्रह्मा जी ने कहा- " हे वसुधा ! मैं तुम्हारे उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए सभी देवताओं को निर्देश देकर नियुक्त कर रहा हूँ, निश्चिंत हो जाओ। शीघ्र ही तुम्हारा कल्याण होगा और मेरे उद्देश्य की प्राप्ति भी।" यह कर कर सृष्टिकर्ता प्रजापिता ने सभी देवताओं को आदेश दिया--
“ देवताओं ! आप सभी लोग आतताइयों से पृथ्वी का भार कम करने के लिए पृथ्वी के सभी भागों पर अपने अंशों सहित अवतार लें।”
इन्द्रादि देवताओं, अप्सराओं, गंधर्व आदि ने उनकी आज्ञा सिर झुका कर स्वीकार कर ली । इन्द्र वैकुण्ठ गये तथा त्रैलोक्य के स्वामी भगवान विष्णु के पास जाकर कहा-
“ प्रभु ! आप पृथ्वी का उद्धार करने के लिए अपना अंशावतार लें, जिससे आपके निर्देशानुसार हम सभी सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के आदेशों को पूर्ण कर सके। आपकी कृपा के बिना कुछ भी पूर्ण करना सम्भव नहीं है।”
श्री सच्चिदानंद भगवान ने मुस्कुराए।
“ तथास्तु देवराज !” भगवान ने कहा तथा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।
इन्द्र ने भगवान की मुस्कुराहट से उनकी लीला को समझ लिया। उन्हें अब लगने लगा था कि कार्य सम्पूर्ण होने का समय आ गया है ।
श्रीहरि विष्णु ने त्रेता में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तथा द्वापर में योगेश्वर श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लेकर राक्षसों का वध किया और देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों तथा धर्म की रक्षा की ।
भगवान की सहायता के लिए सभी देवतागण अपने-अपने अंशों के साथ पुण्यकर्म करने वाले मनुष्यों के यहाँ महात्माओं तथा महर्षियों के रूप में जन्म लेने लगे और यथाशक्ति असुरों, राक्षसों तथा सर्पों का संहार करने लगे । इस परस्पर युद्ध में देवताओं का भी क्षय होने लगा था । वे सब बड़े चिंतित हुए और इसका उपाय खोजने में लग गये ।
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मरू प्रदेश...
मन्दराचल पर्वत...
यह बड़ा ही सुन्दर और विशाल पर्वतीय क्षेत्र था । इस मन्दराचल पर्वत पर एक तरफ जहाँ बड़ी संख्या में भयंकर सर्पों का निवास था तो दूसरी तरफ दिव्य औषधियों की भरमार थी । ऐसे दुर्गम स्थान पर साधारण मनुष्य पहुँचने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे।
उस गिरी प्रदेश पर अमूल्य रत्नों की बहुलता थी । देवराज इन्द्र ने सभा रखी थी, इस उद्देश्य के साथ कि इन आतताई असुरों के उपद्रव से कैसे छुटकारा पाया जाय।
सभी देवता इसी पर्वत पर एकत्रित हुए और बैठकर विचार किया कि यदि हमें अमृत प्राप्त हो जाय तो इन दुष्ट असुरों से हम सब अपनी रक्षा कर सकते हैं।
अच्युतानन्दन श्री भगवान नारायण ने इसकी युक्ति बताई --
“ अत्यन्त दुष्कर है यह कार्य...परन्तु असम्भव नहीं।देवताओं में इतनी शक्ति नहीं कि इस कार्य को अकेले ही पूर्ण कर सकें परन्तु यदि असुरों का साथ मिल सके तो अभीष्ट की प्राप्ति हो सकती है । यदि हम सब देव-दानव मिलकर संयुक्त शक्ति से महासागर का मन्थन करें तो अमृत की प्राप्ति सम्भव है ।”
“ नीच असुर इस कार्य में हमारा साथ क्यों देंगे प्रभु ?” वरुणदेव ने पूछा ।
“ क्यों...असुरों को अमृत नहीं चाहिए क्या?” नारायण की मुस्कान रहस्य से परिपूर्ण थी ।
“...परन्तु देव ! उन राक्षसों को भी अमृत प्राप्त हो जायगा तो...” मित्र ने चिंता व्यक्त की।
“ अमृत प्राप्त करने का यह कार्य बहुत महत्वपूर्ण, दुष्कर और आवश्यक है देवगणों ! इस कर्तव्य का पालन पूरा हो तब आगे की योजना भी बना ली जायगी, अभी आप असुरों से संगोष्ठी करें । देव बृहस्पति ! आप इस कार्य के लिए आगे आएँ । ”
गुरु बृहस्पति के नेतृत्व में देवताओं ने असुरों से इस बारे में चर्चा की तो अमृत के नाम से ही असुरों ने हामी भर दी । सम्पूर्ण देव मिलकर मथानी बनाने के लिए मंदराचल पर्वत को उखाड़ने के लिए पहुँचे जो भूमि के ऊपर और नीचे ग्यारह-ग्यारह सहस्त्र योजन तक फैला हुआ था।
सभी देवता मिलकर भी उस विशाल पर्वत को उखाड़ नहीं पा रहे थे । श्री नारायण ने शेषनाग से मंदराचल पर्वत को उठाकर समुद्र तट पर ले चलने को कहा । असीम बलशाली शेषनाग ने मन्दराचल को वन, वनवासी और जटाओं व जीव-जंतुओं सहित ही उखाड़ लिया तथा देवताओं सहित समुद्र तट पर उपस्थित हो गये ।
आज का दिन मानों परम सौभाग्य लेकर आया था । सुर और असुर अपनी शत्रुता भुला कर साथ-साथ क्रीड़ा-विलास कर रहे थे । इसके पूर्व कभी अखिल ब्रह्माण्ड नायक भगवान नारायण ने भी उनको इस प्रकार साथ-साथ देखा न था । यह कदाचित एक स्वप्न ही था । सत्य ही तो है,
‘ आवश्यकता शत्रुओं को भी एकसाथ ले आती है । जब अभीष्ट एक हो तो परम् शत्रु भी शत्रुता विस्मृत करके कैसे एक हो जाते हैं ।’
देवता अत्यन्त प्रसन्न थे, और दानव; वे तो मानो अमृत के नाम से ही आनंदातिरेक विक्षिप्त हो रहे थे । देवताओं ने समुद्र से कहा-- “ समुद्र देवता ! हम सब अमृत प्राप्त करने के लिए आपका मन्थन करेंगे ।”
भारी मंदराचल को समुद्र में टिके रहने के लिए भगवान विष्णु ने स्वयं कच्छप अवतार धारण किया और मंदराचल पर्वत के नीचे अपनी पीठ लगा ली । देवराज ने वज्र द्वारा उसे ऊपर से दबा लिया ।
इस प्रकार मंदराचल पर्वत को मथानी और नागराज वासुकि को रस्सी बनाकर समुद्र मन्थन आरम्भ किया गया ।
नागराज के फुफकारते मुख की ओर असुर और पुच्छ की ओर चतुर देवतागण खड़े हो गये । समुद्र का भयानक मन्थन आरम्भ हो गया । इस प्रकार मथे जाने से सहस्त्रों समुद्री प्राणियों और जलचरों का संहार होने लगा । मंदराचल के ऊपर पत्थरों पर वृक्षों की रगड़ से आग निकलने लगी जिसे इन्द्र ने जल वर्षा करके शान्त किया ।
बहुत दिनों तक मन्थन चलता रहा । इतना...कि मंदराचल के ऊपर लगे वृक्षों और औषधियों से रस निकल-निकलकर समुद्र में गिरने लगा । समुद्र का जल स्वयं दूध बन गया । दूध से घी बनने लगा, किन्तु अभी तक समुद्र से अमृत नहीं निकला था ।
देवता और असुर निराश हो चले थे । भगवान श्रीविष्णु देवताओं और दानवों सभी को और अधिक श्रम करने के लिए प्रेरित करते थे । भगवान की प्रेरणादायक वाणी से उन सभी को बल प्राप्त होता था और वे सभी देव-दानव पुनः समुद्र को पूरी गति से मथना आरम्भ कर देते थे ।
...और फिर एक दिन तीव्र गड़गड़ाहट हुई और महासागर से सूर्य के समान ही तेजस्वी श्वेतवर्ण वाले प्रसन्नात्मा चन्द्रदेव प्रकट हुए । समस्त जगत उनकी शीतल और मधुर श्वेत प्रभा से अलंकृत हो गया । चन्द्रमा कालांतर में अपने किशोररूप में शिवजी के मस्तक पर सुशोभित हुए । प्रत्यक्ष देवता के रूप में सृष्टि में आज भी वह सूर्यदेव के साथ ही पृथ्वी पर विद्यमान रहते हैं ।
समुद्र मन्थन चलता रहा...चलता रहा ।
सच्चिदानन्द नारायण की लीला से जगज्जननी माता के ही रूप में विशाल सहस्र कमलदल पुष्प पर विराजमान श्वेत वस्त्रधारिणी सिंधुकन्या महालक्ष्मीजी का प्रादुर्भाव हुआ । उनके हाथ में नीलपद्म शोभायमान था। पुण्यगंधा श्रीमहालक्ष्मी के अप्रतिम सौंदर्य से दानव उन्हें पाने के लिए लालायित हो उठे । श्रीहरि ने कहा-
“ हमें स्वयं देवी की इच्छा तो पूछनी ही चाहिए, क्यों न हम उन्हें ही यह अवसर प्रदान करें ।”
देव चन्द्रमा ने शीघ्र ही लक्ष्मी जी के हाथों में सुन्दर वैजयन्ती के पुष्पों की माला दे दी ।
परम तेजस्विनी और अनन्य सुन्दरी देवी लक्ष्मीजी ने नारायण के सुन्दर साँवले रूप को देखा और उन्होंने नारायण श्रीविष्णु के कण्ठ में जयमाला डाल दी । श्री विष्णु ने लक्ष्मीजी का विधिपूर्वक वरण किया । इन्द्रादि देवताओं ने नारायण और देवी लक्ष्मी की स्तुति की-
‘सरसिजनिलये सरोजहस्ते
धवलतरांशुक गंधमाल्य शोभे
भगवती हरिवल्लभे मनोज्ञे
त्रिभुवन भूतिकरी प्रसीद मह्यं,
विष्णुपत्नी क्षमादेवी
माधवी माधव प्रियां
लक्ष्मी प्रिय सखीं देवीं
नमाभ्यच्युतवल्लभाम् ।’
लक्ष्मीनारायण ने वरदहस्त करके उनका प्रणाम स्वीकार किया ।
असुर बड़े ही क्रुद्ध थे, पर क्या हो सकता था ?
श्रीहरि ने उन्हें अमृत का स्मरण कराया, अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए वे अपने क्रोध को विस्मृत कर मन्थन हेतु पुनः उद्यत हो गये ।
इसके बाद सुरा-सोमरस निकला । लक्ष्मी जी ने भगवान विष्णु को वरण कर लिया था तब से ही दानव बड़े क्रुद्ध हो रहे थे अतः सुरा देकर दानवों को प्रसन्न किया गया । राक्षस तभी से सुरापान कर प्रसन्न रहते हैं ।
इसके पश्चात अद्भुत श्वेत उच्चैश्रवा अश्व प्रकट हुआ, और फिर अनन्त किरणों से सुशोभित दिव्य कौस्तुभ मणि निकली जो श्रीनारायण के हृदय पर विराजमान हुई ।
अनन्तर कल्पवृक्ष और कामधेनु सुरभि गौ माता की उत्पत्ति हुई । तत्पश्चात ऐरावतनाम का श्वेत हाथी उत्पन्न हुआ जो देवराज इन्द्र का वाहन बना ।
...और फिर निकला कालकूट महाविष, चारो ओर अन्धकार छा गया । ऐसा लगा अब कुछ न बचेगा, बस महाप्रलय होने को है । धरती और आकाश चीत्कार कर उठे । किसी को कोई भी मार्ग सूझता न था ।
भगवान विष्णु ने कहा—
अब भगवान शिव ही कुछ कर सकते हैं । महाप्रलय से बचना है तो भोलेनाथ की शरण में जाकर उनकी स्तुति की जाय, संभवतः कोई उपाय निकल आये ।
सभी देवता और असुरगण त्रिपुरारी के समीप पहुँचे । उन्होंने शिवशम्भू के चरण पकड़ लिए ।
“ प्रभु ! बड़ा संकट उत्पन्न हो गया है । अब आप ही बचा सकते हैं ।”
शिवजी ने सोचा, इस विष को जहाँ भी रखा जायगा वह विनाश ही करेगा अतः पृथ्वी को महाविनाश से बचाने के लिए उन्होंने उस *हलाहल को अपने कण्ठ में धारण कर लिया । तब से ही शिवजी का नाम नीलकण्ठ हो गया ।”
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* दधार भगवान् कण्ठे मन्त्र मूर्तिर्महेश्वरः ।
तदा प्रभृति देवस्तु नीलकण्ठ इति श्रुतिः । ।
महाभारत १/अध्याय १८/ श्लोक सं.४३
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संभावित विनाश होते होते बच गया था । देव और दानव पुनः समुद्र मन्थन में जुट गये । यह उनके धैर्य की परीक्षा ही थी क्योंकि इस बार मन्थन के पश्चात उन्होंने देखा--
एक दिव्य देहधारी श्री धन्वन्तरी अपने हाथ में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए ।
अहा ! अमृत... ।
अभीष्ट की प्राप्ति सम्मुख ही थी । अमृत के घट को देखते ही वे सब दुरात्मा असुर धन्वन्तरी से अमृतघट छीनकर भाग निकले ।
भगवान विष्णु ने असुरों से देवताओं की रक्षा के लिए ही तो समुद्र मन्थन करके अमृत प्राप्ति की सारी योजना बनाई थी । असुर उस योजना को बिगाड़ने में लगे थे ।
नारायण ने अपनी लीला रची । उन्होंने अपूर्व सुन्दरी का रूप रचा । अद्भुत मोहिनी रूप धरकर असुरों को मोहित कर दिया तथा “ लाओ ! मैं अपने हाथों से आप सबको यह मधुरता प्रदान करती हूँ ।” कहते हुए मोहिनी ने अपने कोमलांगों से कटि पर अमृतघट को सम्भाल लिया तथा देवताओं और दानवों को कतार बनाकर बैठने का आग्रह किया ।
अपने हाथों में अमृत कलश लेकर मोहिनी ने पंगत में बैठे देवताओं को अमृत परोसना आरम्भ कर दिया । असुर प्रेमचक्षुओं से उसे देखते हुए अपनी-अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगे ।
जिस समय देवता अमृत पान कर रहे थे उसी समय राहू नामक दानव देवताओं के रूप में उनके साथ बैठ गया और वह भी अमृत पान करने लगा ।
सूर्यदेव व चन्द्रदेव ने उसे देख लिया और चिल्लाकर उसका भेद खोल दिया -
“ प्रभु ! यह तो दानव राहू है जो हमारी पंगत में बैठ कर अमृत पान कर रहा है ।”
श्रीहरि ने शीघ्रता की और अपने सुदर्शन चक्र द्वारा उसका मस्तक विच्छिन्न कर दिया, परन्तु देर हो चुकी थी, उस असुर राहू के कण्ठ में अमृत पहुँच चुका था तथा अमृत ने अपना कार्य कर दिया था । वह राक्षस राहू सदा के लिए अमर हो गया । राहू के सिर रूप व धड़ रूप केतू ने चन्द्रदेव और सूर्यदेव से स्थाई वैर अपना लिया ।
असुरों को समझ आ चुका था कि उनके साथ छल हुआ है । उसी क्षीरसागर के समीप त्रैलोक्य के समस्त ऐश्वर्य सत्ता की प्राप्ति के लिए दीर्घकाल तक चलने वाला देवासुर संग्राम आरम्भ हो गया ।
अमृतपान कर चुके देवताओं की इस बार विजय हुई और मन्दराचल पर्वत को अभिनन्दन करके पूर्व स्थान पर पहुँचा दिया गया ।
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क्रमशः