Gulabo Sitabo review books and stories free download online pdf in Hindi

गुलाबो सिताबो रिव्यू

गुलाबो सिताबो रिव्यू
यह ऊंची दुकान का फीका पकवान नहीं
बेस्वाद पकवान है भैया।

नाम स्त्रिओं के, पोस्टर पुरुष का, कहानी निर्जीव हवेली की।

एक बुड्ढा मिर्ज़ा मतलब अमिताभ बच्च्न अपनी बहुत ही बूढ़ी बेगम के साथ एक अति जर्जित हवेली में रह रहा है। हवेली में हैं कई किरायदार और उनमें से एक हैं आयुष्मान खुराना मतलब बांके ।

हवेली को हड़पने में कई ताकतें लगीं हैं। उसमें मिर्ज़ा खुद भी है, कुछ किरायदार , सरकारी अफसर व मंत्री और बिल्डर।
पर हवेली पर पूर्ण अधिकार है मिर्ज़ा की बेगम का।

फ़िल्म के नाम और किरदार जानकर लग रहा था कॉमेडी भरपेट परोसी जाएगी।

वैसे आर्ट प्रिय एक्सपर्ट फ़िल्म रिव्यूअर रेडियो जोकि वगैरह के रिव्यू रेडियो पर सुने थे तो फ़िल्म के लिए बहुत सम्मान उत्तपन्न हो गया था। लग रहा था फिल्म देखकर किसी महान कार्य में हम भी सहयोग देंगे। पर मन के अंदर का प्रेक्षक मनोरंजन जैसे ऑक्सीजन की कमी से बहुत बेचैनी महसूस कर रहा था। लग रहा था बस यह प्रेक्षक अभी दम तोड़ देगा और इंकलाब की अंधी में टेलीविज़न सेट को अभी बंध किया जाएगा। पर संयम रखना हमारी आदत नहीं संस्कार हैं।

करीब 1 घण्टे तक कॉमेडी के लिए रेगिस्तान में भटक रहे प्यासे मुसाफिर की तरह यहां वहां कहानी को घूमते देखा पर यह तय करना मुश्किल हो रहा था की फ़िल्म कॉमेडी है या आर्ट फ़िल्म है। छोटी मोटे व्यंग और स्क्रीन प्ले को आप कॉमेडी नहीं कह सकते भाई। इतनी अक्ल तो बॉलीवुड वालों ने खुद हमेँ भेंट में दी है।

की बार लगा अब कुछ होगा, आखिर अमिताभ हैं, अपने मूल स्वरूप मतलब एक्शन वगैरह में हमारे सामने डायलॉग मारते हुए अभी स्क्रीन पर अपना दबदबा बनाएंगे। पर यह सब उम्मीदें अगले 70 मिनिट तक व्यर्थ हो चुकीं थीं।

अब उम्मीदें बंधीं थीं आयुष्मान से, इस बन्दे ने पिछ्ली कई फिल्मों में उम्मीद से ज़्यादा दिया है। युवा कलाकार है, करामात तो दिखाएंगे। पर इनकी दाल भी गलने वाली नहीं थी। फ़िल्म की हीरोइन मतलब उनकी गर्लफ्रेंड और फिर उन्की स्क्रीन बहन के सामने बेइज़्ज़त होने के सिवाय कुछ खास मनोरंजन देने में वे भी इतने असफल रहे जितने बोर्ड की परीक्षा में गणित की जगह हिंदी से स्कोर करने की उम्मीद रखना।

जो थोड़ा बहुत मनोरंजन दे पाए वे थे वकील और सरकारी इंस्पेक्टर। दोनों का कॉमेडी टाइमिंग अच्छा रहा। आयुष्यमान की गर्कफ्रेंड और बहन का रोल भी अच्छा रहा। बेगम ने भी अच्छा अभिनय किया है।

पर कहाँ बहुत चोट पहुंची?
अमिताभ जी का अभिनय श्रेष्ठ है पर क्या दर्शक उनसे इतने कमज़ोर पात्र की उम्मीद करते हैं जिसमे उनकी बस हार होती रहे? एक महान कलाकार को आप सिर्फ बेस्ट एक्ट का किरदार देकर काम करवा लो पर दर्शक उन्हें फ़िल्म के विजेता किरदार के तौर पर देखना चाहेंगे।
आप रजनीकांत को देख लो, श्रेष्ठ अभिनय की मिसाल पर क्या उन्हें मिर्ज़ा जैसे रोल साउथ के डिरेक्टर करवाएंगे? क्या वे खुद को एक अलयदा किरदार में देखने की लालसा में मिर्ज़ा जैसे कमज़ोर पात्र करेंगे? हमें शंका है।

लखनवी भाषा, मोहल्लों का रहनसहन सब बढ़िया है पर बिना मनोरंजन दिखाना एक डॉक्यूमेंट्री जैसा हो जाता है। कहानी की सरलता ठीक है पर कहानी न तो रुला रही है न हंसा रही है, तो फिर करती क्या है, बस एक पुरानी बस की तरह हिलती डुलती आगे जा रही है। वैसे अंत अच्छा है, लालची लोगों के लिए अच्छा संदेश है।

वैसे स्क्रीन रिलीज़ में बड़ा नुकसान करने की जगह ऐमेज़ॉन पर रिलीज़ करना अच्छा व्यवसायिक निर्णय है। क्यूंकि यहां मेम्बर्स को एक फ़िल्म के पॉपकॉर्न के खर्चे के निवेश पर साल भर दर्जनों फिल्मे बिना पॉपकॉर्न के मिलतीं हैं।

पर अगर इस फ़िल्म को देखने के लिए किसी प्राइम मेम्बर को एक कप चाय की घूंस देनी पड़े तो उसे बचाकर रखें, फिर काम आएगी।