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दृश्यम फ़िल्म रिव्यू

विजय सलगांवकर और उनकी फैमिली 2 और 3 अक्टूबर को पणजी में थे। वहां वे पहले स्वामी चिन्मयानंद के सत्संग में गए, फिर होटल में रुके, दूसरे दिन उन्होंने फिल्म देखी, रेस्टोरेंट में पाव भाजी खाया और वापस अपने घर बस से चले गए।

इस दृश्य की नींव पर बनी है फ़िल्म दृश्यम। सच और जूठ के बीच यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि सही क्या था। सच हर बार सही नहीं होता और कई बार जूठ के अतिरिक्त कोई मार्ग ही नहीं बचता।

फ़िल्म 2015 में रिलीज़ हुई थी और काफी तादाद में दर्शकों ने इसे बड़े परदे पर देखा था। फ़िल्म अब हॉटस्टार पर मौजूद है। फ़िल्म शानदार है। तो सोचा क्यों न इस फ़िल्म को देखकर आपसे अपना अनुभव साझा किया जाए। यह वेब सीरीज़ के ज़माने से पहले बनी हुई फ़िल्म है इसलिए सभी रहस्य और रोमांच एक साथ ढाई घण्टों में समाप्त हो जाते हैं। व्यक्तिगत तौर पर मैं फिल्में इस लिए पसंद करता हूँ क्योंकि उनमें रोमांच को ज़रूरत अनुसार और रहस्य को कहानी की गति के अनुसार संजोया जाता है। वेब्सिरिज़ में कहीं न कहीं रहस्य व रोमांच का ओवडोज़ हो रहा है। एक रहस्य को खींचा तानी से लंबा किया जा रहा है। कई हार्ट पेशंट्स को वेब सीरीज़ से परहेज़ करने को भी कहा गया है।

अब बात करते हैं दृश्यम फ़िल्म की। कहानी शुरू होती है गोवा के एक गांव में। यहाँ विजय सलगांवकर अपनी फैमिली के साथ रहता है। वह केबल ऑपरेटर का व्यवसाय करता है। अपनी फैमली की तरफ ज़िम्मेदार है पर बहुत भावुक नहीं है। कई बार घर से आने वाले फोन भी नहीं उठाता और रातको ऑफिस में फिल्में देखता है। फिल्मों से ही वह बहुत कुछ कायदे कानून की बातें सीखता है और दोस्तों को अपनी सिख से मदद भी करता है।
बड़ी बेटी उसकी गोद ली हुई सन्तान है और छोटी बेटी छठी क्लास में है। बीवी सुंदर है और हाउस वाइफ है। फ़िल्म की धीमी शुरुआत प्लॉट को स्थापित करने के लिए दी गई है। इसलिए पहले 30 मिनिट सिर्फ समझें, उलझे तो मज़ा किरकिरा हो सकता है।

अचानक इनके सुखी जीवन में एक बौचाल आता है। बड़ी बेटी अंजू जब स्कूल के नेचर केम्प में जाती है तो उसकी पहचान एक लफंगे लड़के से होती है जो इत्तिफाक से गोवा के आईजी की बिगड़ी हुई संतान है। वह लड़का नेचर कैम्प में आई लड़कियों के वीडयो व फोटो लेता है। यह लड़का बाद में अंजू से सम्पर्क बनाता है। वह उसे एक वीडयो दिखाता है जो उसने नेचर कैम्प में अंजू के नहाते वक्त रिकॉर्ड की थी। वह उस वीडयो को इंटरनेट पर डालने की धमकी देता है और ऐसा नहीं करने के एवज़ में अंजू से शरीरिक संबंध बनाने की मांग करता है। लड़का सैम अंजू के घर के पीछे वाले गेस्ट हाउस में शाम को 7 बजे मिलने को कहता है। सैम जब अंजू से मिलने उसके घर आता है तो वहां अंजू की माँ मतलब नंदिनी भी आ जाती है। माँ बेटी दोनों सैम को वीडयो डिलीट कर देने को कहतीं हैं पर वह अपनी मांग पर कायम रहता है। आखिर हाथापाई में सैम घायल हो जाता है और उसकी मौत हो जाती है।

बस यहीं से शुरू होता है रहस्य और रोमांच का सफर। एक ऐसी कहानी जिस में आप एक पिता की हिम्मत और अक्ल की दाद देते थकेंगे नहीं। एक ऐसा दृश्य जिसे इस प्रकार से बनाया गया जिसको देखकर व सुनकर कोई नहीं कह सकता कि यह सच है या जूठ। पर कानूनी तौर पर किस प्रकार सच को जूठ और जूठ को सच बताया जा सकता है उसका बेमिसाल उदाहरण आपको इस फ़िल्म में मिलेगा।

अजय देवगण बने हैं विजय सलगांवकर, एक चौथी फैल आदमी जिसने फिल्में देखकर इतना कुछ सिख लिया है कि उन्हें कानूनी दाव पेच में हराना असम्भव बन जाता है। यहां एक बड़ा सवाल उठ खड़ा होता है कि जिन फिल्मों को मनोरंजन का माध्यम माना जाता है क्या उनसे इतना कुछ सीख सकते हैं कि आप पढ़े लिखे तजुर्बेकार पुलिसवालों के दांत खट्टे कर सकें? फ़िल्म में मनोविज्ञान का बहुत उम्दा प्रयोग किया गया है। कैसे आप अपनी परेशानी और डर को अपने अंदर दबाकर सामने वाले व्यक्ति को अपने डर की भनक भी पड़ने नहीं देते।

इस रिव्यू के पहले पेरेग्राफ को अब फिर पढ़ें। उसमें जिस जनकारी का प्रयोग आपको दिख रहा है कि विजय सलगांवकर की फैमिली किस दिन गोआ में पणजी गई थी और किस दिन वह फैमिली वापस लौटी, उस जानकारी की सच्चाई जानने के लिए आईजी ऑफ पुलिस मतलब मीरा देशमुख अपनी एड़ी चोटी का ज़ोर लगा देती है क्योंकि उस जानकारी का संबंध है उसके बेटे सैम की गुमशुदगी व मौत से। मीरा का किरदार निभाया है तब्बू ने। फ़िल्म में साथी कलाकर रजत कपूर ने साहिल के पिता और तब्बू के पति का रोल किया है और नंदिनी मतलब विजय सलगांवकर की पत्नी का रोल किया है श्रिया सरन ने।

एक बहुत ही क्रुअल किरदार है सब इंस्पेक्टर गायतूंडे। फ़िल्म में शुरू से ही गायतूंडे एक रिश्वतखोर पुलिसवाला दिखाया गया है जिससे विजय हमेंशा भिड़ता रहता है। कई बार गायतूंडे की रिश्वतखोरी की योजनाओं को विजय ने विफल कर दिया , इसलिए विजय उसे बिल्कुल पसंद नहीं। कमलेश सावंत ने इस किरदार को दिलोजान से न्याय दिया है।

विजय सलगांवकर जुर्म करने वालों और जुर्म की तफ्तीश करने वालों की साइकोलॉजी को बहुत गहराई से समझता है और वह सुजभूज उसे अपनी फैमिली को सुरक्षित रखने में कामयाब बनाती है। एक ऐसा जुर्म जिसके नहीं होने के गवाह इतने ज़्यादा स्पष्ट गवाही दे रहे हैं जैसे वे विजय सलगांवकर को बहुत करीब से जानते हों। कई बार फ़िल्म के अंदर एक फ़िल्म चल रही हो ऐसा प्रतीत होता है।

जब स्क्रीन पर दो दमदार एक्टर एक्ट्रेस अजय देवगण और तब्बू हों और एक जबरदस्त थ्रिलर वाली कहानी हो, साथ हो बैकग्रांड में भारत का लोकप्रिय पर्यटन स्थल गोआ तो फ़िल्म तो बढ़िया बननी ही थी।

यह फ़िल्म पहले मलयालम भाषा में 2013 में बन चुकी थी जिसमें मशहूर मलयाली एक्टर मोहन बाबू ने मुख्य भूमिका निभाई है। उसकी सफलता को देखकर उसे फिर से हिंदी में बनाने का निर्णय किया गया।

डाइरेक्टर व एक्टर निशांत कामत ने बहुत सटीक और उम्दा निर्देशन दिया है, चर्चित फिल्में फोर्स और रोकी हैंडसम को भी निशांत ने डायरेक्ट किया था पर इतनी बड़ी सफलता केवल दृश्यम को ही मिली है।

फ़िल्म का संदेश बहुत ही स्पष्ट है कि फैमिली के लिए इंसान कुछ भी करे तो उसे सही या गलत के तराजू में तोला जाना सम्भव नहीं है। परिवार की सुरक्षा ही परिवार के मुखिया का प्रथम कर्तव्य है।