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दह--शत - 14

एपीसोड ----१४

प्रिंसीपल वी. पी .की आँखें आग उगलने लगीं “आप मेरा ऑफ़र ठुकराकर जा रही हैं शायद आप वी.पी. को जानती नहीं हैं ।” उनकी आँखों में वहशी लाल डोरे उभर आये थे ।

“कल तक मेरा ‘रेजिग्नेशन लैटर’ आप तक पहुँच जायेगा ।”

“आपने वी.पी. को समझ क्या रखा है? मुझे नाराज़ कर आप इस शहर में कहीं नौकरी न कर पायेंगी?”

“नौकरी करने के अलावा भी मेरे जीवन में बहुत काम है ।” कहते हुए वह तेज़ी से बाहर निकल आई थी। उनके बंगले का गेट घबराहट में खुला छोड़ एक ऑटो पकड़ घर चल दी थी ।

“मैडम । आप अभी घर नहीं गईं?” संस्थान का चौकीदार उसके सामने खड़ा होकर पूछने लगा ।

“ओ ऽ ऽ ऽ .....हाँ ।” वह चौंक कर उसे देखने लगी फिर बोली, “हमें किसी के घर मिलने जाना है मैं अपने पति का इंतज़ार कर रही हूँ ।”

“जी, अच्छा । आप को पानी तो नहीं चाहिए ।”

“नहीं, नहीं, थैंक्यू । ये बस आते ही होंगे ।”

ये चपरासी उसकी चिंता कर रहा है और अभय को ये चिन्ता नहीं है कि वह उसके इंतज़ार में बोर हो रही होगी । वह करे भी तो क्या अतीत के कसक भरे पृष्ठ उभर आये हैं, उन्हें पलटने के सिवाय वह कर भी क्या सकती है । बाद में उसने शहर के स्कूलों में, कॉलेजों में नौकरी के लिए प्रार्थना पत्र दिये थे । उसके व्यक्तित्व व उसकी कुशाग्र बुद्धि से प्रभावित हो मैनेजिंग बोर्ड के सदस्य या स्वयं कोई प्राचार्य उसका इंटर्व्यू लेने के बाद कहते थे, “दो तीन दिन में आपका नियुक्ति पत्र आपके पास पहुँच जायेगा ।” लेकिन फिर कभी नियुक्ति पत्र उसके हाथों में पहुँच नहीं पाया था ।

      वह बेहद हताश हो गई थी । उसका मनोबल टूटता चला जा रहा था तब नीता ने उसे समझाया था, “हर शहर में कुछ ऐसे समर्थ जौहरी होते हैं जो मध्यम वर्ग की स्त्रियों को हीरा बताकर अपनी अँगूठी में जड़ना चाहते हैं जब इस हीरे से दिल भर जाता है तो इसे फ़ेंक दूसरा जड़ लेते हैं ।”

“ऐसा?”

“स्त्री को तय करना पड़ता है कि उसे किसी रईस की अँगूठी का हीरा बनना है या नहीं । तुम अपना रास्ता चुनो ।”

वह समझ गई थी नौकरी तो अब मिलेगी नहीं । उसने घर पर प्राइवेट ट्यूशन्स पढ़ाने का मन बना लिया था । कभी-कभी किसी कोचिंग संस्थान में पढ़ाने चली जाती थी । उसे अक्सर संदेह होता था । उसके फ़ोन पर, उसकी गतिविधियों पर नज़र रखी जा रही है ।

हर वर्ष की तरह विकेश व प्रतिमा उस हादसे के वर्ष की करवाचौथ पर उनके घर आये थे । विकेश ने घर में घुसते ही अपना पुराना मज़ाक किया था, “ओहो ! प्रतिमा को देखते ही कैसे भाईसाहब के चेहरे पर चमक आ गई ।”

वे सब हँस पड़े थे । समिधा उलझ कर रह गई थी । ऐसे मज़ाक मित्रों में कभी-कभी अच्छे लगते हैं पहले वह उससे बेहूदे मज़ाक करता था । जब समिधा नाराज़ होने लगी तो विकेश अपनी पत्नी व अभय को लेकर हर बार ऐसे कैसे बेहूदे मज़ाक कर लेता है ?

पूजा के बाद खाना खाते समय समिधा ने पूछा, “तुम्हारा डेली का अप डाउन कैसा चल रहा है ?”

" वही बिज़ी लाइफ़ । ट्रेन में कोई न कोई पीछे लग जाता है, बड़ी मुश्किल से सम्भालना पड़ता है ।“

समिधा जैसे भरी बैठी थी । बी.पी. इंटर कॉलेज के अनुभव की एक-एक बात बताते बताते उसकी आँखें नम हो गईं । प्रतिमा ने उसके हाथ पर अपना हाथ पर रख दिया ।

“भाभी जी ! आप इतनी दुखी क्यों हो रही हैं ?”

“मैंने पहली बार अपने को इतना अपमानित महसूस किया है ।”

“भाभी ! बाहर नौकरी करने निकलो तो लेडीज़ को ये सुनना ही पड़ता है । इन घटनाओं को धूल की तरह झाड़कर आगे निकल जाना चाहिए ।”

उनके घर से चलते-चलते विकेश एक फ़िकरा और मार गया था, “भाभी जी ! जब बी.पी. जैसे इंडस्ट्रीयलिस्ट की दाल नहीं गली तो हमारी यहाँ क्या गलेगी ?”

“यू.....।” वह कुछ कह पाती इससे पहले वह स्कूटर दौड़ाता दूर चला गया था ।

    वह अभय पर बरस पड़ी थी. “मैं तुम्हें कितनी बार समझा चुकी हूँ ये बहुत चीप इंसान है । तुम इससे दूर क्यों नहीं रहते हो ?”

“अब तो तुम्हारे डर से प्रतिमा के बिना ये घर कहाँ आता है ?साल में एक दो बार डिनर लेते हैं । तुम क्यों डरती हो ?”

समिधा चुप रह जाती है कुछ रिश्ते कैसे होते हैं न निगलते बनते हैं, न उगलते ।

पी ऽ ऽ......

"कहाँ खोई हुई हो ?" लॉन के पास वाले रास्ते पर अभय स्कूटर का हॉर्न बजाते पूछ रहे हैं ।

“आप अब आये हैं ?” वह गुस्सा दबाती उठ खड़ी हुई । अभय के चेहरे पर हल्की कालिमा की पर्त चढ़ी हुई है । उन्होंने नज़रे चुराते हुए कहा, “ऑफ़िस से दिनेश साथ आ गया था । उसे ‘डिपार्टमेंटल एक्ज़ाम्स’ के लिए किताबें चाहिए थीं ।”

“तो कह नहीं सकते थे बीवी मेरा इंतज़ार कर रही है । किताबें देने में इतनी देर लगती है ।”

“कभी कभी ऑफ़िस से कोई घर आता है उसे चाय पिलाने में देर हो गई।”

समिधा चुपचाप स्कूटर के पीछे बैठ गई । एक विचार उसके सीने में सनसनाने लगा है इतना कि उसे लग रहा है उसका साँस लेना मुश्किल हो रहा है । दम घुट रहा है । मन में गलीज़ सा कुछ लिपटा जा रहा है । उस घिनौनी आशंका को अभय से कैसे पूछे? कविता को कल पता लग गया था कि आज वह संस्थान में पढ़ाने जायेगी ।

अग्निहोत्री परिवार को ड्राइंग रूम में उनसे हल्की-फुल्की बातचीत के बीच वह घिनौनी आशंका कतरा-कतरा होकर बह चली है । नदी के किनारों की बालू जैसे लहरों से टकराकर खिसकती जाती है ।

अग्निहोत्री की बात से वह चौंकती है, “विकेश का घर तो अभी से ही सूना हो गया ।”

“क्यों क्या हुआ?”

“आप को नहीं पता ? शिरीष दो तीन बार में भी बारहवीं कक्षा नहीं पास कर पाया है तो उसे महाराष्ट्र के किसी इंस्टीट्यूट में डोनेशन देकर डिप्लोमा करने भेज दिया है ।”

“मैं तो प्रतिमा व उन्हें समझाती भी थी कि रुपये कमाने के अलावा इकलौते बेटे पर भी ध्यान दें । विकेश हमेशा घमंड से कहते थे कि मुझसे यह नहीं होगा । तगड़ा डोनेशन देंगे, तो बेटा पढ़ ही जायेगा ।”

सिर्फ़ रुपये की परवरिश को रोली महाराष्ट्र के उस शहर में जाकर देख आई जहाँ शिरीष पढ़ रहा था । रोली उस शहर की अपनी ट्रेनिंग से लौटी थी ।

वह कुछ धीमे स्वर में बोली, “मॉम ! मुझे लग रहा है शिरीष के रंग ढंग ठीक नहीं है ।”

 “क्यों क्या हुआ ?”

“जब वह यूनीवर्सिटी हॉस्टल से चाची का मेरे हाथ भेजा अपना सामान लेने आया था उसकी आँखें लाल हो रही थीं ।”

वह काम में लगी थीं; लापरवाही से बोली, “कोई इन्फ़ेक्शन होगा ।”

“नहीं, मॉम ! वह कह रहा था मैं देर रात तक पढ़ता हूँ , इसलिए जगने के लिए टेबलेट खाता हूँ ।”

“गुड, चलो उसे पढ़ाई का मोल तो पता लगा ।”

“लेकिन......।” रोली कुछ कहते-कहते चुप हो गयी थी । ‘ड्रग्स’ का संशय तो समिधा को भी हुआ था लेकिन बिना प्रमाण वह रोली से इस बात पर चर्चा नहीं करना चाहती थी ।

दूसरे दिन अभय लंच के लिए मेज़ पर बैठे ही थे कि फ़ोन घनघना उठा । समिधा ने ही हाथ का बेलन छोड़ गैस धीमी करके फ़ोन उठाया, “हलो ! नमश्का ऽ ऽ रजी ।” कविता की नशीली-सी आवाज़ उभरी ।

“नमस्ते !कहो कैसे फ़ोन किया ?”

“आज आप शाम को प्रेक्टिस के लिए नीता के घर आ रही हैं ?” कविता की खुमार भरी आवाज़ का नशा जैसे एक-एक शब्द से लिपटा उसे नशीला बनाये दे रहा था । समिधा का मन एक लिजलिजेपन से भर उठा । उस अजीब सी नशीली आवाज़ से उद्दाम वासना के घ़िनौनेपन का ज़हर उसके कान में टपक रहा है....टप्.....टप्.....टप्।

एक क्षण के लिए उसने रिसीवर कान से हटा दिया, उत्तर तो देना ही है, “ये बात तो शनिवार को तय हो चुकी थी फिर फ़ोन कैसे किया?”

“वैसे ही...ओ ऽ ऽ.. भाईसाहब खाना खाने आ गये होंगे ।”

“तो ?”

“तो फ़ोन रखती हूँ । सॉरी ऽ ऽ ऽ.....।” वह हल्के से हँस दी ।

उसकी हल्की-सी हँसी में भी उसे क्यों कुत्सित वासना की खन-खन सुनाई दे रही है उसकी अभय पर नज़र गई । वह कुछ अधिक ही झुके हुए चम्मच से खेल रहे थे ।

रसोई में आकर देखा तो तवे पर रोटी जल रही थी जल्दी में उसे तवे पर से उतारना भूल गई थी । क्यों उसे हर स्थान पर काला-काला ही दिखाई देता है ?

वह जब शाम को नीता के घर पहुँती तो देखा अनुभा व कविता आ चुकी हैं । कविता ने इठलाकर कहा “आइए जी !”

“नमस्ते ! बबलू जी के पिताजी की तबियत कैसी है ?”

“उनकी हालत ठीक नहीं है । ये तीन बार उन्हें देखने जा चुके हैं । मैं तो एक महीने से घर के बाहर नहीं निकली । आप तो भाई साहब के साथ घूम लेती हैं ।”

“मैं मेहनत भी कितना करती हूँ, वह नहीं दिखाई देता ।” उसे बार-बार में उलाहना सुनकर बुरा लगता है ।

“ओ! मुझे गुस्सा इसलिए आता है सोनल की बर्थ डे भी हम लोग ‘सेलिब्रेट’ नहीं कर पाये और इन्होंने पिताजी की बर्थ डे पर अजमेर में रिश्तेदारों और दोस्तों को बुलाकर सौ लोगों को पार्टी दी । वह भी होटल से खाना मँगवाया ।”

समिधा मन ही मन भुनभुनाई । चीप लेडी ! तेरे पति अपने बच्चों की बर्थ डे घर में मनाते हैं क्या इतना अजमेर में खर्च करेंगे ?

कविता कहे जा रही थी, “आप इन्हें समझाइए अपने माँ-बाप की चिन्ता छोड़कर हमारी भी चिन्ता करें। आपकी बात मान लेंगे ।”

“भई ! मैं उन्हें क्या समझा सकती हूँ ‘पेरेन्ट्स’ की देखभाल तो सबको करनी चाहिए । हमने भी की थी।”

कविता मुँह बनाती रिहर्सल के लिए उठ खड़ी हुई.

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नीलम कुलश्रेष्ठ

ई –मेल---kneeli@rediffamil.com