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छूटा हुआ कुछ - 3

छूटा हुआ कुछ

डा. रमाकांत शर्मा

3.

इन्हीं व्यस्तताओं में समय निकलता गया और उमा जी के पति के रिटायरमेंट का समय आ गया। उनके रिटायरमेंट के दो साल बाद ही उमा जी भी रिटायर हो गईं। अब एक बिलकुल नई ज़िंदगी खड़ी थी उनके सामने। पति महोदय ने अपना समय काटने के लिए ड्राफ्टिंग का काम करना शुरू कर दिया और उनके पास इतना काम रहता कि उन्हें कुछ सोचने की फुरसत ही नहीं मिलती थी। उमा जी ने आसपास के बच्चों को गणित का ट्यूशन देना शुरू कर दिया। पर, इसके लिए बच्चे शाम को ही आते। उमा जी के सामने एक बार फिर पहाड़ जैसा दिन बिताने की समस्या आ खड़ी हुई।

समय बिताने के लिए वे कुछ देर रेडियो सुन लेतीं। पर, उसमें ज्यादा देर उनका मन नहीं रम पाता था। प्रशांत ने कहा था कि अब तो दोनों रिटायर हो चुके हैं, उन्हें कुछ समय के लिए यूएस चले आना चाहिए। उमा जी तो चाहती भी थीं कि यूएस का एक चक्कर लगा आएं, पर पतिदेव के पास अर्जेंट कामों का न खत्म होने वाला ढ़ेर मौजूद रहता, इसलिए वे यूएस जाना टाल जाते।

प्रशांत ने सुझाव दिया था कि समय काटने के लिए उन्हें टीवी खरीद लेना चाहिए। उसके बार-बार जोर देने पर उन्होंने टीवी खरीद लिया था। पर, पतिदेव को तो टीवी देखने की फुरसत ही नहीं थी। सुबह चाय-नाश्ता करते समय और रात को सोने से पहले वे न्यूज देखते और उनका टीवी देखना पूरा हो जाता।

उमा जी को शुरू-शुरू में टीवी के प्रोग्राम बहुत अच्छे लगे और उनका समय अच्छा कटने लगा। पर, एक-दो महीने में ही उन्हें बुद्धू बॉक्स के सामने बैठना खटकने लगा। कई बार टीवी चलता रहता और वे बिना उसे देखे इधर-उधर के काम निपटाती रहतीं या फिर सो जातीं। धीरे-धीरे ऐसे भी दिन आने लगे जब पूरे दिन टीवी खुलता ही नहीं। जो एक-दो अच्छे सीरियल आते वे रात को आते, इसलिए दिन गुजारने की समस्या वैसी की वैसी बनी रही। इससे निपटने के लिए उन्होंने किताबें पढ़ना शुरू किया और कई साहित्यिक पत्रिकाएं भी घर पर मंगाने लगीं।

उन्होंने महसूस किया कि पढ़ाने के चक्कर में वे पढ़ना तो भूल ही गई थीं। पढ़ने में उन्हें आनंद आने लगा। विशेषकर, कहानियां पढ़ना उन्हें बहुत अच्छा लगता। छोटे-छोटे कथानक, उन्हें प्रस्तुत करने का तरीका और कुछ ही पृष्ठों में ज़िदगी के अलग-अलग रंगों को कहानीकार द्वारा रोचक ढंग से प्रस्तुत करना उन्हें मंत्रमुग्ध कर देता। वे वही कहानियां पढ़तीं जो उन्हें शुरू से या फिर थोड़ा पढ़ने पर बांध लेतीं। अगर ऐसा न होता तो वे अगली कहानी के लिए पृष्ठ पलटने में जरा भी देर नहीं करतीं।

कहानी पढ़ते समय वे पात्रों से इस कदर जुड़ जातीं कि उनकी तरह सोचने लगतीं और पढ़ते-पढ़ते यह अनुमान लगाती चलतीं कि इन परिस्थितियों में कहानी में आगे क्या हुआ होगा। अकसर कहानियों का अंत उनकी सोच के आसपास ही ठहरता। पर कुछ कहानियों के मोड़ उन्हें चमत्कृत कर देते। कहानियां पढ़ते समय वे उनमें इतना निमग्न हो जातीं कि पात्रों की खुशी में खुश और दु:ख में दु:खी होने लगतीं। ऐसी कहानियां कई-कई दिन उनके दिमाग में घूमती रहतीं और वे तब तक वहीं बनी रहतीं जब तक किसी अन्य कहानी का प्रभाव उसे विस्थापित नहीं कर देता।

सरिता, सतीश और किशोर की कहानी भी एक ऐसी ही कहानी थी जो कई दिन से उनके मन-मस्तिष्क पर छाई हुई थी। कितने ही तो मोड़ आए थे उस कहानी में जिनका वे पहले से अंदाजा नहीं लगा पाईं। पर, यह कहानी उन्हें इन चौंका देने वाले मोड़ों की वजह से नहीं, बल्कि सादगी भरे प्रेम की अद्भुत चुंबकीय शक्ति के प्रभाव की वजह से मथ रही थी। सरिता का वह निश्च्छल प्रेम मन पर ऐसा प्रभाव छोड़ गया जो कई दिन बीतने के बाद भी कम होने का नाम नहीं ले रहा था। उसके प्रेम में प्रदर्शन की आतुरता नहीं थी, ऐसा ठहराव था जो सिर्फ सच्चाई, समर्पण और गहराई से ही उद्भूत हो सकता है। उमा जी को उसमें प्रेम का वह सच्चा, सरल और अल्हड़ रूप दिखाई दिया था जिसकी तुलना उस शांत बहती नदी से ही की जा सकती थी जो अपने भीतर गहरे जल की स्निग्धता लिए हुए बिना शोर-शराबे के मंद-मंद प्रवाहित होती रहती है।

प्रेम के प्रदर्शन की आतुरता बुरी नहीं होती, पर उसमें वह मासूमियत नहीं होती जो प्रेम की भावना को मन के भीतर तक उतार देती है। ऐसा प्रेम उस नदी की भांति होता है जो अपने उतावलेपन में अच्छे-बुरे सबको समेटता चलता है और किनारों के बंध तोड़ देता है।

उमा जी सरिता के उस प्रेम को भुला नहीं पा रही थीं जिसमें भोलापन था और थी ऐसी मासूमियत जिसे नमन करने को मन चाहे। जिस प्रकार से वह किशोर के रूमाल, जेब कंघे और उसकी कॉपियों में पाठ समझाने के लिए यहां-वहां लिखी टिप्पणियों को सफाई से काट कर प्लास्टिक के डिब्बे में सहेज कर रखती जाती है, वह अद्भुत है। वह अपने प्रेम का प्रदर्शन नहीं करती, पर उसका प्रेम गमले में लगे तुलसी के पौधे सा पनपता रहता है। यदि उसके परिवार को हमेशा के लिए अचानक शहर छोड़ कर नहीं चले जाना होता तो यह पौधा जड़ पकड़ लेता, धीरे-धीरे पल्लवित होता रहता और अपनी भीनी-भीनी खुशबू बिखेरता रहता। यह खुशबू शब्दों की तरंगों का सहारा लिये बिना किशोर के मन का रास्ता ढूंढ़ लेतीं और अपनी महक से उसे सराबोर कर देती। अब जब अचानक वह कभी वापस न आने के लिए शहर छोड़कर बहुत दूर जा रही थी तब खजाने की तरह संभाल कर रखा प्लास्टिक का वह डिब्बा किशोर को देने के सिवाय उसे अन्य कोई विकल्प नहीं सूझा था। वह डिब्बा प्लास्टिक का आवरण मात्र नहीं था, बल्कि एक ऐसा पात्र था जिसमें सरिता ने अपनी कोमल भावनाएं सहेज कर रखी हुई थीं। उन्हें किशोर को सौंप देना ही उसे श्रेयस्कर लगा था क्योंकि वे उससे ही वाबस्ता थीं।

किशोर, जिस तक सरिता की भावनाओं का सैलाब अचानक आई बाढ़ की तरह आ पहुंचा था, खुद को संभाल नहीं सका और उसमें डूबने-उतराने लगता है। वह तो प्यार की उस धारा के नजदीक भी नहीं पहुंच पाता जो उसे आप्लावित करने के लिए उसके दरवाजे तक चली आई थी।

सरिता के परिवार को लेकर गाड़ी के रवाना होने पर सरिता ने जिन निगाहों से किशोर को देखा था, वे उसे अंदर तक हिला गई थीं। वह प्रसंग खुद उमा जी को भी भीतर से हिला गया था। शायद सरिता और किशोर का प्यार मंजिलों से दूर रहकर आंसुओं की धार पीने के लिए ही बना था।

उमा जी को कहानी का वह अंत भी बुरी तरह झकझोर गया था जब सरिता को विदा करके किशोर उसके सूने पड़े घर में प्रवेश करता है और जमीन पर बिछे उस अखबार पर जाकर बैठ जाता है जिस पर सरिता बैठी हुई थी। उफ, कितना रोमांटिक था उसका उस अखबार पर बैठना और बेआवाज रोना।

इस सोच के साथ ही उमा जी को एक झटका सा लगा। उनकी ज़िंदगी में तो ऐसा कोई क्षण कभी नहीं आया। उनकी किशोरावस्था से जवानी तक का समय ऐसे ही बीत गया। न तो उन्हें किसी से प्यार हुआ और न ही किसी ने उनसे प्यार किया था। वे दिखने में सुंदर थीं, उन्होंने भी किशोरावस्था में और फिर जवानी में कदम रखा था, पर उनके साथ ऐसा कुछ क्यों नहीं हुआ। उन्होंने पढ़ा था और देखा भी था कि जिस उम्र में लोगों के जीवन में कभी न भूलने वाली कहानियां जन्म ले रही होती हैं, उस उम्र में वे एक बड़ी ही सीधी-सादी और शुष्क सी जिंदगी जीती रही थीं।

उन्हें ताज्जुब हो रहा था कि कोई भी कभी उनकी तरफ आकर्षित नहीं हुआ और न ही वे किसी की तरफ सरिता की तरह झुक पाईं। क्या वे किसी का प्यार पाने के काबिल नहीं थीं या फिर उनके हृदय की मिट्टी इतनी बंजर थी कि उसमें किसी के लिए प्यार का पौधा पनप ही नहीं सकता था। क्यों, आखिर क्यों वे जिंदगी के उस अमूल्य रोमांच से वंचित रह गईं। सच, ज़िंदगी में कितना कुछ छूट गया था उनसे।

शायद वे भावनाओं के उस बहाव को समझ भी नहीं पातीं, यदि उनकी पक्की सहेली पुष्पा के साथ वह सबकुछ नहीं घटा होता। वे दोनों ही उस समय दुर्गा देवी गर्ल्स इंटर कॉलेज में ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ रही थीं। पुष्पा और उनके बीच इतनी घनिष्ठ मित्रता थी कि वे दोनों कॉलेज में और उसके बाद भी साथ नजर आतीं। उमा जी के घर में कड़ा अनुशासन था, वे कहीं भी अकेले नहीं जा सकती थीं। बस, पुष्पा का घर ही ऐसा था जहां वे जब चाहे अकेले जा सकती थीं।

उमा जी की ही गली में थोड़ा आगे चल कर पुष्पा का घर था। उसका घर दो मंजिला था। दूसरी मंजिल पर गली में खुलता एक छज्जा था जहां से गली की सारी हलचलें दिखाई देतीं। दोनों सहेलियों को उस छज्जे पर बैठना बहुत अच्छा लगता। छज्जे से गुजरती ठंडी हवा के बीच उनकी कभी खत्म न होने वाली बातें चलती रहतीं और गली की हलचल पर भी नजर बनी रहती।

यूं तो पुष्पा और उमा जी दोनों घनिष्ठ सहेलियां थीं और आपस में उनकी खूब जमती थी, पर दोनों के स्वभाव में जमीन-आसमान का अंतर था। पुष्पा बहुत मिलनसार थी और हर समय चहकती रहती, वहीं उमा जी खुद में सिमट कर रहने वाली रिजर्व सी लड़की थीं। उन्हें ना तो बिना-बात लोगों से मिलना-जुलना पसंद था और ना ही बिना-बात हंसी-ठट्ठा करना पसंद था। उनकी पीठ पीछे कॉलेज की लड़कियां उन्हें दब्बू और इकलखुड़ी कह कर बुलातीं। वे यह बात जानती थीं, पर क्या करतीं उनका स्वभाव ही वैसा था।

उन्हें याद है, उनके कॉलेज में छात्राओं ने एक बार विज्ञान प्रदर्शनी लगाई थी। छात्राओं द्वारा किए गए विज्ञान के प्रयोगों की प्रदर्शनी देखने के लिए उनके परिवारों के साथ-साथ कई अन्य स्कूलों और कॉलेजों के छात्र-छात्राओं को भी आमंत्रित किया गया था।

लड़कियों के कॉलेज में आने का यह स्वर्णिम मौका लड़के कहां चूकने वाले थे। लड़कों की भीड़ लग गई थी उनके कॉलेज में। वे प्रदर्शनी कम, लड़कियों को ज्यादा देख रहे थे। पुष्पा और उमा जी दोनों ने मिल कर एक स्टाल लगाया था। वे दर्शकों को अपने प्रयोग में बता रही थीं कि किस प्रकार ठोस पदार्थ गर्मी पाकर फैलते हैं। उनके पास एक छल्ला था, जिसके छेद में से वे चेन में लगे लोहे के एक गोले को डाल कर दिखातीं जो उसमें से आराम से निकल जाता। फिर वे लोहे के उस गोले को स्टोव की आंच पर गर्म करतीं और उसे फिर से छल्ले के छेद में डाल कर दिखातीं जो इस बार उस छेद में अटक कर रह जाता। वे दर्शकों को बतातीं कि इससे यह सिद्ध होता है कि ठोस पदार्थ गर्मी पाकर फैलते हैं और इसी बात को ध्यान में रखते हुए रेल की पटरियों के बीच कुछ खाली जगह रखी जाती है।

दर्शकों को सबकुछ बताने समझाने का काम पुष्पा कर रही थी, उमा जी सिर्फ लोहे के गोले को स्टोव की आंच में गर्म करने और फिर प्रयोग के बाद उसे ठंडा करने का ही काम कर रही थीं। कहना न होगा कि दर्शकों के आकर्षण का केंद्र पुष्पा बनी हुई थी। पुष्पा जिस बेफिक्री और हाजिर जवाबी के साथ लड़कों से बात कर रही थी, वह देखते ही बनता था। चुपचाप खड़ी और किसी भी बात का बड़ी कठिनाई और शर्मा कर जवाब देने वाली उमा जी के पास लड़के क्षणभर रुकते और फिर आगे बढ़ जाते।

उमा जी यही सोचती रहीं कि पता नहीं कब प्रदर्शनी का समय समाप्त होगा और वे इस जंजाल से मुक्त होंगी। वहीं पुष्पा इस सबका जम कर आनंद ले रही थी। आखिर, प्रदर्शनी का समय समाप्त हुआ और उमा जी ने चैन की सांस ली। पुष्पा ने स्टाल का सामान समेटने में उमा जी की मदद करते हुए कहा – “कितना मजा आया ना आज।“ उमा जी ने कुछ आश्चर्य से और कुछ ईर्ष्या से पुष्पा को देखा। उन्होंने सोचा था आखिर वे क्यों पुष्पा की तरह खुल कर नहीं जी पातीं। पर, उनके सवाल का कोई उत्तर उन्हें नहीं मिला।

अगले दिन जब वे कॉलेज में मिले तो पुष्पा ने उनसे कहा – “उमा, आज मैं तुझे रेस्ट में कुछ जरूरी बात बताऊंगी।“

उमा जी ने कहा – “बहुत जरूरी बात है तो अभी क्यों नहीं बता देती?”

“अभी नहीं, रेस्ट में बताऊंगी” – पुष्पा ने गंभीरता से कहा था।

उमा जी को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या जरूरी बात बताने जा रही है। क्लास में वे आधे-अधूरे मन से पढ़ाई करती रहीं। पता नहीं आज रेस्ट की घंटी बजने में इतनी देर क्यों हो रही थी।

जैसे ही रेस्ट की घंटी बजी वे अपने-अपने टिफिन बॉक्स लेकर स्कूल के बीचोंबीच खड़े बरगद के बड़े पेड़ के चारों तरफ बनी सीमेंट की बेंच की ओर चल दीं। उस पेड़ की छांव में बैठकर ही वे रोजाना अपना टिफिन खाती थीं। उमा जी ने क्लास से बाहर निकलते ही कहा – “बता, क्या बता रही थी।“

“बताती हूं यार।“

“तो फिर बताती क्यों नहीं।“

“क्या बताऊं, अभी तो मुझे ही ठीक से कुछ समझ नहीं आ रहा है।“

“तू तो कह रही थी कि कोई जरूरी बात है।“

“हां, है तो। चल पेड़ के नीचे बैठते हैं, वहीं बताती हूं।“

उमा जी की उत्सुकता चरम पर पहुंच रही थी। पेड़ के नीचे बैठते ही उन्होंने अपना टिफिन बॉक्स खोलते हुए कहा – “अब बता।“

“तुझे याद है, कल की प्रदर्शनी में अपने स्टाल पर लड़कों की कितनी भीड़ लगी थी।“

“हां, तो?”

“उनमें वह हैंडसम सा लड़का था ना...........।“

“कौन सा लड़का?”

“अरे वही, जिसने लाल शर्ट पहन रखी थी, लंबे बाल थे उसके और सबसे ज्यादा प्रश्न पूछ रहा था।“

“हां, एक था तो, पर मुझे ठीक से याद नहीं है। क्या हुआ उसको?”

“मुझे क्या पता क्या हुआ है उसको। पर, कुछ तो जरूर हुआ है। स्कूल से घर आने के बाद जब मैं अपने छज्जे पर खड़ी थी, तब मैंने देखा वह गली में सामने से चला आ रहा था।“

“तो क्या हुआ, कोई भी आ-जा सकता है गली में।“

“हां, पर यह अजीब बात नहीं है कि सुबह वह हमारे स्टाल पर था और शाम को हमारी गली में। इससे पहले मैंने उसे गली में कभी नहीं देखा।“

“हो सकता है उसे कोई काम हो गली में।“

“मुझे भी वही लगा था। पर, जैसे ही छज्जे के नीचे पहुंचा उसने मुस्करा कर मेरी तरफ देखा और हाथ हिलाते हुए आगे बढ़ गया।“

“इसमें क्या बड़ी बात है, आज स्टाल पर देखा था, पहचान गया होगा तुझे।“

“शायद, पर वह थोड़ी देर में वापस लौट आया और मुझे छज्जे पर खड़े देख कर कुछ कहने की कोशिश करने लगा।“

“हूं, फिर?”

“मैं घबरा कर अंदर चली गई। थोड़ी देर बाद जब यह सोचकर लौटी कि वह अब तक चला गया होगा तो देखा वह तभी भी गली के चक्कर लगा रहा था। मुझे देखकर रुक गया तो मैं बहुत डर गई और अंदर भाग गई। फिर दोबारा छज्जे पर आने की हिम्मत नहीं हुई।“

“हे भगवान, यह तो सचमुच परेशान करने वाली बात है। तुझे तुरंत ही आंटी-अंकल को बता देना चाहिए था।“

“सोचा तो था, पर उसने मेरे साथ कोई बदतमीजी तो की नहीं। देखने में तो लड़का शरीफ लगता है।“

“सब ऐसे ही शरीफ होते हैं, मैं तो कहती हूं, घर में बता दे। सारी अकल ठिकाने आ जाएगी उसकी।“

“देखती हूं, अगर उसने फिर ऐसी कोई हरकत की तो घर में बताना ही पड़ेगा। पर, उमा पता नहीं क्यों मैं कल शाम से उसी के बारे में सोचे जा रही हूं।“

“सोचना बंद कर, अपना दिमाग खराब मत कर समझी। क्या पता वह गली में से निकल रहा हो और किसी का पता पूछने के लिए रुका हो।“

“हो सकता है यार। चलो, क्लास का समय हो रहा है।“

बात आई-गई हो गई। पुष्पा ने अपने मन में कल से घुमड़ रही बात अपनी पक्की सहेली को बताकर अपना मन हल्का कर लिया था। उमा जी को भी इस वाकये में कोई खास बात नजर नहीं आई। उन्हें लगा था कि पुष्पा बिना किसी वजह के ही उस लड़के को लेकर परेशान हो रही थी।

दूसरे दिन स्कूल की छुट्टी थी। शाम को उमा जी पुष्पा के घर चली गईं। दोनों छज्जे में बैठी हमेशा की तरह बातें कर रही थीं कि तभी पुष्पा ने उन्हें इशारा किया और फुसफुसा कर बताया – “देख, वही लड़का।“

उमा जी ने तिरछी नजरों से गली में झांक कर देखा – लड़का ठीक छज्जे के नीचे आ चुका था। वे उसे पहचान गईं। यह लड़का काफी देर तक उनके स्टाल पर रुका था और पुष्पा से उनके प्रयोग के बारे में जवाब-सवाल करता रहा था। उमा जी ने नोट किया कि उसने सिर उठाकर छज्जे की तरफ देखा था और पुष्पा की ओर देख कर मुस्कराता हुआ आगे चला गया था।

उसके जाने के बाद पुष्पा ने उमा जी से कहा – “देख लिया, मैंने कहा था ना कि वह गली के चक्कर यूं ही नहीं लगा रहा है।“

“तुझे क्या लगता है?”

“अभी ज्यादा कुछ समझ में नहीं आ रहा है। पर, उसका यहां के चक्कर लगाना और मुझसे बात करने की कोशिश करना और मुस्कान फेंक कर चले जाना कुछ तो इशारा कर ही रहा है।“

“बेहतर यही रहेगा कि अब हम छज्जे पर बैठना बंद ही कर दें।“

“क्यों कर दें?”- पुष्पा ने तुनक कर कहा था। “ना तो गली हमारी है कि किसी का आना-जाना बंद कर दें और ना ही इसलिए अपने घर के छज्जे पर बैठना बंद कर दें कि यह लड़का इस गली के चक्कर लगाने लगा है।“

“पर, उसके इरादे............?”

“बदतमीजी करके देखे वो जरा, उसे ऐसा मजा चखाऊंगी जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की होगी।“

“ठीक है बाबा, जैसा तू चाहे वैसा कर।“ उमा जी ने हथियार डाल दिए थे।

पुष्पा ने उमा जी को बताया था कि वह लड़का अब रोजाना ही गली के चक्कर काटने लगा है। वह उसे जरा भी परेशान नहीं करता, बस उसे देखता है और मुस्करा कर या हाथ हिला कर चला जाता है। उसे देखते ही वे अंदर चली जाती है। पुष्पा ने कुछ हिचकते हुए कहा - “उमा पता नहीं मुझे क्या होता जा रहा है।“

“क्या होता जा रहा है?”

“मैं शाम होते ही गली में उसके आने का इंतजार करने लगती हूं। उसे आते देखकर अच्छा लगता है। मैं तुरंत अंदर चली आती हूं, पर उसे छुप-छुप कर देखती हूं।“

“पागलपन कर रही है तू।“

“हां, यार लगता तो ऐसा ही है, पर तू तो मेरी अच्छी दोस्त है, इसलिए झूठ नहीं बोलूंगी तुझसे। मुझे हर समय, हर कहीं वही दिखाई देने लगा है। उसके चक्कर लगाने के वक्त का अंदाजा लगाकर मैं न चाहते हुए भी छज्जे पर निकल आती हूं।“

उमा जी को यह सब अजीब लगा था। उन्होंने तो कभी भी किसी के लिए ऐसा महसूस नहीं किया था। उन्हें लगता पुष्पा बेकार में ही कुछ भी सोच-सोच कर खुद को ही परेशान कर रही थी।

कुछ दिनों बाद पुष्पा ने उन्हें बताया कि उन दोनों में इशारों-इशारों में बातें होने लगी थीं। एक दिन तो वह उसके आने के समय का अंदाजा लगा कर गली में ही उतर गई। पहली बार दोनों ने एक-दूसरे से बात की । पुष्पा को उसका नाम पता चला था – ‘गोविंद’ और यह भी कि वह श्रीयश इंटरमीडिएट कॉलेज में बारहवीं क्लास में पढ़ता है। उसके पिता शॉप इंस्पेक्टर थे और दो गली छोड़कर ही उनका घर था। घर में से या जान-पहचान का कोई आता-जाता व्यक्ति उन्हें साथ देख न ले, इस डर से वह उससे ज्यादा बात नहीं कर पाई थी।

प्रेम परवान चढ़ने लगा। गोविंद की भावनाओं की खुशबुओं की पतंगें पुष्पा तक पहुंचने लगीं। उसे इन पतंगों के रंग और उड़ान इस कदर लुभावने लगने लगे थे कि उसका मन करता वह उचक कर वह डोर थाम ले और पतंग को बादलों के पार ले जाने का रोमांच महसूस करे।

वह अपनी अंतरंग सहेली उमा से कुछ नहीं छुपाती थी। उमा जी ने नोट किया कि अब पुष्पा पहले जैसी खिलंदड़ नहीं रह गई थी, वह अपने-आप में गुमसुम रहने लगी थी। उसकी बातें घूम-फिर कर गोविंद पर आकर ही टिक जातीं। पुष्पा और उनके बीच सहेली के तौर पर घंटों जो बेसिर पैर की बातें होती रहती थीं, वे कब की बंद हो चुकी थीं और उनका बिना बात जोर-जोर से हंसना-खिलखिलाना भी न जाने कहां खो गया था।

परीक्षा के दिनों में गोविंद और पुष्पा का छुप-छुप कर मिलना कम तो बहुत हो गया था, पर वे कैसे भी समय निकाल कर मिल ही लेते। उमा जी ने एक बार उसे टोका भी था – “पुष्पा किस राह पर चल पड़ी है तू। कभी तेरे घर में किसी को पता चल गया तो क्या करेगी तू।“

प्रेम के अनोखे संसार में घूमती पुष्पा ने बेफिक्र जवाब दिया था – “तब की तब देखेंगे।“

परीक्षाएं खत्म होते ही गर्मियों की छुट्टियां शुरू हो गईं। गोविंद की मां ने अपने मायके जाने का अचानक ही प्रोग्राम बना लिया। गोविंद की छुट्टियां चल रही थीं, इसलिए वे उसे भी साथ चलने के लिए कह रही थीं। गोविंद ने हर चंद कोशिश की थी कि वह उनके साथ न जाए, पर उसकी एक न चली। पिताजी ने न जाने कब उन दोनों का रिजर्वेशन करा दिया था। उस दिन रात को उसे पता चला कि सुबह पांच बजे की ट्रेन से उसे मां के साथ जाना है। वह बहुत कसमसाया क्योंकि इसकी जानकारी पुष्पा को देने का ना तो उसके पास समय था और ना ही मौका।

यह प्रेम कहानी उस समय पनप रही थी जब पूरे शहर में गिनती के फोन हुआ करते थे। ना तो आम आदमी के घर में यह सुविधा थी और ना ही बाजारों में कुकरमुत्ते की तरह उगे पीसीओ बूथ थे। मोबाइल का तो तब किसी ने नाम भी नहीं सुना था। संपर्क का सिर्फ एकमात्र साधन था – पत्राचार।

गोविंद को अंदाजा था कि पुष्पा बुरी तरह नाराज हो रही होगी, पर वह बेबस होकर रह गया था। सोचता काश, उसके पंख होते और वह उड़कर अपने शहर पहुंच जाता।

उधर उमा जी देख रही थीं कि गोविंद के यूं अचानक बिना बताए चले जाने से पुष्पा जहां नाराज थी, वहीं चिंतित और व्यथित भी.। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अचानक कहां चला गया है। पुष्पा की इंतजार करती आंखें, उसकी बेचैनी और व्यग्रता को उमा जी ने बहुत पास से देखा था। वह बहुत कम बोलने लगी थी और उसे चुपचाप अपने कमरे में पड़े रहना अच्छा लगने लगा था। शुरू-शुरू में तो वह किसी न किसी बहाने छज्जे पर जाकर खड़ी हो जाती, पर जब इंतजार की हदें पार होने लगीं तो उसने वहां जाना ही बंद कर दिया।

उसकी सूजी आंखें उमा जी को उसकी हालत का एहसास कराती रहतीं। उन्हें उस पर गुस्सा भी आता और उसकी दशा पर रहम भी। वे कोशिश करती रहतीं कि उनकी बेस्ट फ्रेंड पुष्पा फिर से पहले जैसी हो जाए और वे अपनी गर्मियों की छुट्टियों का पहले जैसे हंस-खेल कर आनंद उठा सकें।

बड़ी मुश्किल से गर्मियों की छुट्टियों के वे दिन कटे। शहर पहुंचते ही गोविंद पुष्पा की गली में इस आशा से जा पहुंचा कि वह हमेशा की तरह वहां मिल जाएगी, पर कई दिन तक चक्कर काटने के बाद भी सूना छज्जा उसका मुंह चिढ़ाता रहा। वह दिन में हैरान-परेशान रहता और रात में सपने में देखता कि वह पुष्पा के घर जा पहुंचा है और हर कमरे में उसे ढूंढ़ता फिर रहा है। आंख खुलती तो फिर नींद नहीं आती। उसकी बेकरारी बढ़ती जा रही थी, उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह पुष्पा से कैसे मिले।

कहते हैं ईश्वर के घर में देर है, अंधेर नहीं। उस दिन वह जब गली का चक्कर लगा रहा था तो संयोग से पुष्पा उसे गली में नीचे ही मिल गई। गोविंद को देख कर उसकी सांसें थम गई थीं, पर वह अपनी नाराजगी दिखाते हुए उसके पास से तेजी से निकल गई। गोविंद उसके पीछे भागा और बोला – “मुझे मौका ही नहीं मिला कि मैं तुम्हें बता कर जाता, प्लीज मुझसे नाराज मत होओ। वहां मैंने एक-एक दिन गिन कर काटा है। अब तुम ऐसे नाराज रहोगी तो मैं तो मर ही जाऊंगा।“

पुष्पा ने चलते-चलते कहा – “तुमने मुझे समझ क्या रखा है, छज्जे पर इंतजार करने वाली गुड़िया? अगर तुम्हें मेरी जरा भी परवाह होती तो तुम मुझे बताए बिना नहीं जाते। मैं इतने दिनों से सुबह से शाम तक छज्जे पर खड़ी-खड़ी परेशान होती रही। कान खोल खुल कर सुन लो, तुम्हें अब इस छज्जे पर कोई खड़ा नहीं मिलेगा।“

पुष्पा का घर आ गया था। गोविन्द अपनी सफाई में और कुछ नहीं कह सका और पुष्पा घर के अंदर चली गई।

उमा जी को जब पुष्पा ने यह सब बताया तो उन्होंने कहा – “उसे अपनी बात तो कहने देती।“

पर, लगता था बिना बताए चले जाने और छज्जे पर न बीतने वाले इंतजार ने पुष्पा को कुछ ज्यादा ही आहत कर दिया था। उसने कहा था – “उमा तू नहीं समझेगी, तूने किसी से प्यार नहीं किया। अगर किया होता तो मेरी मन:स्थिति को समझ सकती थी। उसे मेरी परवाह होती तो वह मुझे इस तरह नहीं तड़पाता। अब तड़पने दो उसे।“ उमा जी को लगता, वह गोविंद को सजा देने के साथ-साथ खुद भी सजा भुगत रही थी। बेवकूफ खुद भी परेशान हो रही थी और गोविंद को भी परेशान कर रही थी। पता नहीं, प्यार का एक रंग यह भी होता हो, शायद पुष्पा सही कह रही थी, उन्होंने किसी से प्यार किया होता तो शायद पुष्पा के इस व्यवहार को समझ पातीं।

उमा जी ने नोट किया था कि गोविंद हमेशा की तरह गली के चक्कर लगाता रहता, पर छज्जे पर पुष्पा को न पाकर निराश लौट जाता। एक-दो बार वह गोविंद को गली में नजर आई भी, पर कोई ना कोई उसके साथ होता। पुष्पा चोर नजरों से गोविंद को देखती, पर उससे नजरें मिलते ही अपनी नजरें हटा लेती।

उमा जी के साथ-साथ पुष्पा ने भी नहीं सोचा था कि उसकी इस दिखावटी बेरुखी का यह परिणाम भी हो सकता है। शायद पुष्पा के अहम् को संतुष्ट करने के लिए ही गोविंद ने यह कदम उठाया होगा। उसने एक बहुत भावुक पत्र लिख डाला और उसे पुष्पा तक पहुंचाने की कोशिश करने लगा। कई दिनों की उसकी कोशिशें सफल नहीं हुईं तो उसने पुष्पा के घर में रहने वाले उस बच्चे से बात की जो बाहर गली में खड़ा था। उसे पता चला कि पुष्पा रिश्ते में उसकी बहन लगती थी। वह उस बच्चे को चाकलेट का लालच देकर पटाने में सफल हो गया। उसने उसे इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वह पत्र वाला लिफाफा सिर्फ पुष्पा को ही देगा और इस बारे में किसी को भी कुछ नहीं बताएगा। बच्चा उस पत्र को अपनी कमीज में छुपा कर तुरंत ही चल दिया।

गोविंद उस पत्र के उत्तर का इंतजार उसी पल से करने लगा होगा। पर उसे नहीं पता था कि मामला इतना तूल पकड़ लेगा।

उमा जी उस दिन जब पुष्पा के घर पहुंची तो उन्होंने देखा पुष्पा अपने कमरे में पलंग पर औंधे मुंह पड़ी रो रही थी। उमा जी ने उसे कई आवाजें लगाई पर उसने कोई जवाब नहीं दिया। वे अभी कुछ समझने की कोशिश कर ही रही थीं कि पुष्पा की मां वहां आ गईं और बोलीं – “उमा, उसे वैसे ही पड़े रहने दे और अपना भला चाहती है तो इसका साथ हमेशा के लिए छोड़ दे।“

उमा जी ने कुछ विस्मय से और कुछ भय से उनकी ओर देखते हुए पूछा था – “आंटी, हुआ क्या है, कुछ बताओ तो सही।“

वे मुंह पर पल्ला रख कर सुबक पड़ीं – “क्या बताऊं बेटी, यह तो हमारी नाक कटाने पर तुली है। इसने हमें कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा है। पता नहीं, हमारी परवरिश में ऐसी कौन सी कमी रह गई थी जो आज इसने ये दिन दिखाया है।“

उमा जी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था, उधर मां बोले जा रही थीं – “तू हमेशा इसके साथ रहती है, तुझे नहीं पता कि इसने क्या गुल खिलाया है। गोविंद नाम के एक लड़के ने प्रेमपत्र भेजा है इसे।“

उमा जी सन्न रह गईं, उन्हें अंदाजा लग गया था कि क्या कुछ हुआ होगा। उन्होंने संभलते हुए कहा – “कोई पुष्पा को पत्र भेजे तो यह क्या करे बेचारी?”

“तू ठीक कह रही है बेटी। पर, पत्र से साफ-साफ पता चल रहा है कि इनकी यह प्रेम लीला तो कई महीनों से चल रही है। पुष्पा भी इस बात से इनकार नहीं कर रही है। आज से इसका घर से निकलना बंद, जा बेटी तू भी अपने घर जा।“

बाद में उमा जी को पता चला कि बच्चे ने वह पत्र पुष्पा की मां के हाथ में थमा दिया था। पुष्पा की अच्छी तरह खबर लेने के बाद उसके मां-बाप गोविंद के घर का पता लगा कर वहां भी जा पहुंचे थे। जब गोविंद के मां-बाप को उन्होंने गोविंद का लिखा पत्र दिखाया तो वे बहुत शर्मिंदा हुए। उनके सामने ही उन्होंने डंडे से गोविंद की जमकर धुलाई की थी और उसे कमरे में बंद करके ताला लगा दिया।

गोविंद को यह पता नहीं था कि वह पत्र बच्चे ने पुष्पा को नहीं उसकी मां को दे दिया था। वह अपनी जबरदस्त हुई पिटाई और तमाम तरह के बंधनों से इतना परेशान नहीं था जितना यह सोचकर परेशान था कि पुष्पा ने क्यों किया उसके साथ ऐसा। उसे अगर उस पर इतनी ही नाराजगी थी तो उसे कोसती और वह पत्र उसे लौटा देती। उसने सोचा भी नहीं था कि उसकी जरा सी गलती के लिए वह उसे इतनी बड़ी सजा देगी और पत्र अपनी मां को दे देगी। गोविंद के शरीर पर ही नहीं, मन पर भी शायद बहुत गहरी चोट लगी थी, उसके बाद उसने उस छज्जे वाली गली में जाना बिलकुल ही बंद कर दिया।

पुष्पा की मां के मना करने पर भी उमा जी ने उसके घर जाना नहीं छोड़ा। वे यह देखकर परेशान हो उठीं कि हमेशा मस्त रहने वाली और नॉन-स्टॉप बोलने वाली पुष्पा अब बहुत जरूरी होने पर ही बोलती या फिर चुपचाप पड़ी रहती। उमा जी को थोड़ा अजीब तो लगता, पर वे पुष्पा की हालत को समझने की कोशिश में लगी रहतीं। उनके लिए यह समझना बहुत मुश्किल था कि इतनी बड़ी बात हो जाने के बाद भी पुष्पा गोविंद को मन में लेकर क्यों बैठी है। क्यों उसने तन्हाई और दर्द को अपना साथी बना लिया है। क्यों गुजर रही है वह उस टूटन की स्थिति से।

उमा जी जब भी पुष्पा को समझाने के लिए कहतीं कि ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ है जिसके लिए वह जीना ही छोड़ दे तो पुष्पा बस रो देती। वह बार-बार यही दोहराती –“उमा तूने भी किसी से प्यार किया होता तो आज तू मुझसे यह सब नहीं कहती। तू नहीं समझ सकती, मुझ पर क्या बीत रही है। गोविंद से अब कभी नहीं मिल सकूंगी, यह ख्याल ही मुझे तोड़ने लगता है।“ उमा जी चुप होकर रह जातीं।

पुष्पा के माता-पिता किसी जरूरी काम से दो दिन के लिए अचानक आगरा चले गए थे। पुष्पा को वे घर में अकेला नहीं छोड़ना चाहते थे। इसलिए उन्होंने उसे उमा के घर उसकी मां की देखरेख में छोड़ दिया था। वे पुष्पा से साफ-साफ शब्दों में कह गए थे कि वह ऐसी कोई हरकत न करे जिसके लिए उसे पछताना पड़े।

उमा जी की मां को गोविंद के बारे में कुछ भी पता नहीं था। लेकिन, पुष्पा को उसकी मां उनकी जिम्मेदारी पर छोड़कर गईं थीं, इसलिए वे उसका पूरा ध्यान रख रही थीं। उस दिन शाम को उमा जी ने अपनी मां से कहा – “मां, घर में बैठे-बैठे बोर हो रहे हैं, अगर तू कहे तो हम दोनों आसपास का एक चक्कर लगा आएं। तुझे कुछ मंगाना हो तो वो भी लेते आएंगे।“

“कहां तक जाओगे तुम दोनों?”

“यही थोड़ा मार्केट तक का चक्कर लगा आते हैं, बस।“

“ठीक है, पर ज्यादा देर मत लगाना।“

सच तो यह था कि उदास बैठी पुष्पा का मन बदलने के लिए ही उमा जी उसे बाजार ले जाना चाहती थीं। मां की इजाज़त मिलने पर पुष्पा और वे बाजार का चक्कर लगाने के लिए निकल गए।

रास्ते में पुष्पा ने उमा जी को बताया था – “पता है, मां-बाबूजी इतनी जल्दी में आगरा क्यों गए हैं।“

“नहीं तो, कोई खास बात है क्या?”

“मानो तो खास ही है, बुआ जी ने एक लड़का बताया है उन्हें, पापा पहले ही जाकर बात पक्की कर आए हैं। अब मां भी साथ गई हैं, वे चाहते हैं कि दस-पन्द्रह दिन के भीतर मेरी शादी करके अपनी जिम्मेदारी से छुट्टी पा लें।“

“क्या बात कर रही है तू?”

“सच कह रही हूं मैं। गोविंद ने तो मुझे भुला ही दिया है। इतने दिनों से उसने संपर्क करने की कोई कोशिश नहीं की है। मैंने मां-बाबूजी के आगे हाथ जोड़कर माफी मांग ली है और उनसे रो-रो कर विनती की है कि वे अभी इतनी जल्दी मेरी शादी न करें, पर उन्होंने मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया है। मां कहती हैं तू काला मुंह करके उसके साथ भाग न जाए, इसलिए शादी तो फटाफट करनी ही होगी। मैंने भी खुद को ईश्वर की मर्जी पर छोड़ दिया है।“

उमा जी अवाक हो उसकी बात सुनती रहीं। पुष्पा की शादी की खबर उनके लिए सचमुच चौंकाने वाली थी।

बाजार से उमा जी के घर जाने वाली गली में वे दोनों मुड़ गई। दोनों ही चुपचाप चली जा रही थीं कि सामने से आते गोविंद पर नजर पड़ते ही बुरी तरह चौंक पड़ीं। गोविंद शायद उन्हें नहीं देख पाया था। वह उन्हीं की तरफ बढ़ा चला आ रहा था। अचानक उसकी नजर भी उन दोनों पर पड़ी तो वह भी चौंक गया और उनसे नजरें बचा कर वापस मुड़कर जाने लगा।

तभी पुष्पा ने उसे आवाज लगाई थी - “रुको गोविंद।“

गोविंद रुक कर वहीं खड़ा हो गया और प्रश्नभरी नजरों से पुष्पा को देखने लगा। सकते से उबरते हुए उसने कहा – “कुछ बाकी रह गया है, कहने –सुनने को?”

“हां, बहुत कुछ।“

“क्या?”

पुष्पा ने सीधा सवाल किया – “तुमने गली में आना क्यों बंद कर दिया?”

गोविंद ने सकपकाते हुए कहा – “तुमने मेरी चिट्ठी अपनी मां को दे दी। उसके बाद मेरे और मेरे परिवार के साथ क्या घटा, इसका अंदाजा नहीं है तुम्हें। तुम्हारी मां ने गुस्से में सारी मर्यादाएं तोड़ दीं और मेरे पिताजी ने मेरी हड्डियां। मेरे मन में यह सवाल हमेशा तीर की तरह चुभता रहता है कि तुमने वह पत्र अपनी मां को क्यों दिया? मेरी न की गई गलती पर इतना नाराज थीं और बुरा लगा था तो पत्र मुझे लौटा देतीं।“

उमा जी ने देखा पुष्पा बिफर गई थी – “तुमने कभी सच्चाई जानने की कोशिश की? उस नासमझ बच्चे के हाथ पत्र भेज दिया। उसे कमीज में छुपाकर कुछ लाते देख मां ने जब उस बच्चे से पूछा तो घबराकर उसने वह पत्र उसके हाथों में दे दिया। मैंने तो तुम्हें प्यार किया था, मैं क्यों करती ऐसा, कभी सोचा तुमने? सिर्फ अपने बारे में सोचा तुमने गोविंद, उसके बारे में नहीं जिसके लिए गली के अनगिनत चक्कर लगाते थे और जिससे प्यार का दम भरते थे। मुझ पर क्या बीती कभी सोचा? मेरी भी जम कर पिटाई हुई, मेरा भी घर से निकलना बंद हुआ, पर तुम्हें इस से क्या? एक तो ये कड़ी बंदिशें और फिर तुम्हारा मुझसे पूरी तरह संपर्क तोड़ देने से मुझे कभी सफाई देने का मौका भी नहीं मिला। जब भी मौका मिलता मैं उस छज्जे पर खड़ी तुम्हारे आने का इंतजार करती रहती और आंसू पीती रहती।“

उमा जी ने देखा गोविंद जड़वत खड़ा यह सब सुन रहा था। बड़ी मुश्किल से उसकी जुबान से निकला था – “मैंने ऐसे तो कभी सोचा ही नहीं, मुझे माफ कर दो पुष्पा।“

पुष्पा और बिफर गई – “तुम्हें, तुम्हें माफ कर दूं, जिसने मुझसे प्यार के वादे किए। तुम्हें तो प्यार का मतलब भी नहीं पता। बहुत स्वार्थी हो तुम। तुमने छज्जे पर खड़े होकर कभी अंतहीन इंतजार नहीं किया। तुमने वह दर्द महसूस नहीं किया जो मैंने हर पल महसूस किया है। तुमने एकबार भी मेरे बारे में नहीं सोचा, मुझे मिलने का एक मौका भी नहीं दिया। मैंने कई बार तुमसे मिलने की कोशिश की पर मां की सतर्क नजरों को कभी हरा नहीं पाई। आज भी तुम तो मुंह फेरे निकले जा रहे थे।“

गोविंद ने नजरें झुका ली थीं और कहा था – “तुम सच कह रही हो। मुझे सच्चाई जानने के लिए तुमसे मिलने की कोशिश करनी चाहिए थी। गलती हुई है मुझसे। मुझे माफ कर दो पुष्पा, अब ऐसी गलती मैं कभी नहीं करूंगा।“

पुष्पा की आंखों से आंसू निकल आए । उसने रोते-रोते कहा – “अब गलती दोहराने का मौका ही नहीं है तुम्हारे पास। इस घटना से घबरा कर घरवालों ने मेरी शादी तय कर दी है। मां-बाबूजी आगरा गए हुए हैं। एक-दो दिन में लौट आएंगे। उनके आते ही हम आगरा चले जाएंगे और शायद अगले हफ्ते ही मेरी शादी उस इंसान से हो जाएगी जिसे मैंने देखा भी नहीं है।“

शाम गहरा गई थी। गली में बहुत कम आवाजाही थी। पुष्पा गोविंद के और पास खिसक आई थी और उसकी कमीज का कॉलर पकड़कर उसे झकझोरते हुए धीमी लेकिन कठोर आवाज में बोली थी – “अगर तुममें हिम्मत नहीं थी तो क्यों मेरी तरफ हाथ बढ़ाया था? क्यों मुझे भरोसा दिया था कि तुम मुझसे सचमुच प्यार करते हो?”

वह गोविंद को इतनी जोर से झकझोर रही थी कि वह अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पा रहा था। अचानक पुष्पा ने उसे छोड़ दिया। वह कुछ कह पाता या संभल पाता उससे पहले ही वह तेज-तेज कदम उठाते हुए वापस चल दी। अभी वह कुछ ही कदम चली होगी कि वापस मुड़ी और सकते की हालत में खड़े गोविंद के पास जा पहुंची। अब वह कुछ संयत नजर आ रही थी और उसने कहा था – “इस अंधेरे की वजह से मैं तुम्हारा चेहरा ठीक से नहीं देख पा रही हूं।“ उसने गोविंद के पूरे चेहरे पर अपनी उंगलियां फिरानी शुरू कर दी थीं। गोविंद ने कुछ कहना शुरू किया, पर वह शायद सुन नहीं पा रही थी। फिर वह मुड़ी और उमा जी से कहा – “चलो उमा, तुम्हारी मां ने जल्दी घर आने के लिए कहा था।“

गोविंद ने उसे आवाज लगा कर रोकने की कोशिश की थी, पर उसके गले से कोई आवाज नहीं निकल पा रही थी।

उमा जी और पुष्पा घर की तरफ चल पड़े । पुष्पा ने एक बार भी फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। घर पहुंचने तक दोनों ने आपस में कोई बात नहीं की।

उमा जी रास्ते भर सोचती रहीं कि जिस गोविंद को पुष्पा इतनी बुरी तरह लताड़ रही थी, उसके चेहरे पर ही उसने उंगलियां फिरा कर उसे महसूस किया था। आखिर, क्या था यह सब? उसका रोष या उसका प्रेम?

दूसरे दिन ही पुष्पा के मां-बाप लौट आए थे और उसे अपने घर ले गए। उन्हीं से पता चला कि अगले हफ्ते पुष्पा की शादी थी और शादी के इंतजाम के लिए वे परसों आगरा जाने वाले थे। पुष्पा की मां ने बताया – “लड़का यूएस में इंजीनियर है, पन्द्रह दिन के लिए ही यहां है, इसलिए शादी जल्दी में हो रही है।“ उन्होंने उमा के मां-बाबूजी से औपचारिकता के लिए भी नहीं कहा कि वे शादी में आएं या कम से कम उमा को ही भेज दें। उमा जी को बुरा तो लगा था, पर उन्हें पता था कि लड़के का यूएस तुरंत लौटना पुष्पा की तुरत-फुरत शादी का सिर्फ एक कारण ही हो सकता था, एकमात्र कारण नहीं।

जिस दिन वे लोग आगरा के लिए रवाना हो रहे थे, उमा जी पुष्पा से मिलने के लिए उसके घर गईं। जाते समय पुष्पा उनसे लिपट कर फूट-फूट कर रोई। यह रुलाई आगरा से ही यूएस चले जाने और फिर यहां लौटकर न आ पाने के दु:ख की वजह से थी या फिर गोविंद से मिले बिना चले जाने की विवशता की वजह से थी, उमा जी ठीक-ठीक समझ नहीं पाईं।

उन लोगों के चले जाने के बाद उमा जी की भी रुलाई फूट पड़ी। उनकी बेस्ट फ्रेंड आगरा से ही सीधे यूएस चली जाने वाली थी, पता नहीं उससे अब कब मिलना होगा। शायद कभी होगा भी या नहीं, यह सोचकर उनकी हिचकियां बंध गईं।

उन्हें विदा करके उमा जी जब अपने घर लौट रही थीं तब उन्होंने देखा था पुष्पा के घर के पास के मंदिर की सीढ़ियों पर गोविंद बैठा था। शायद उसने पुष्पा और उसके मां-बाप को सामान के साथ रिक्शे में बैठकर जाते हुए देख लिया था। उसे पता था कि उसकी प्रेम-कहानी का अंत हो गया है। उसके चेहरे पर उदासी और बदहवासी साफ-साफ दिखाई दे रही थी और वह रूमाल से बार-बार अपनी आंखें पौंछ रहा था।

उमा जी सोच रही थीं कि पुष्पा तो गोविंद की तरह उसे बिना बताए नहीं चली गई थी, उसने तो गोविंद को साफ-साफ बता दिया था कि उसकी शादी होने वाली है और वह जल्दी ही आगरा चली जाएगी, फिर गोविंद रो क्यों रहा था।

उसके पास से गुजरते समय उमा जी ने उसकी तरफ से मुंह फेर लिया था और घर चली आई थीं। घर आने के बाद भी उनके ज़हन में रोती हुई पुष्पा और आंखें पौंछते हुए गोविंद की तस्वीर उभरती रही थी और वे चाह कर भी उन्हें मिटा नहीं पा रही थीं।