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जय हिन्द की सेना - 4

जय हिन्द की सेना

महेन्द्र भीष्म

चार

हिटलर के बाद संसार का दूसरा सबसे बड़ा जीवित सैनिक तानाशाह की भूमिका इस समय पाकिस्तानी राष्ट्रपति याह्‌या खॉ निभा रहा था। पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्रहमान के समर्थकों का सफाया पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिक बर्बरता के साथ कर रहे थे और इसी आड़ में मानवता को ताक पर रख हिन्दू परिवारों को चुन—चुन कर मार रहे थे।

भारत को हिन्दू राष्ट्र समझने वाले इन पाकिस्तानियों ने निःसहाय हिन्दुओं को मारने और खदेड़कर भारत भेजने का निश्चय—सा कर लिया था।

वे भूल चुके थे कि यह उनके देश की ही जनता है। मनुष्य के रूप में इन दरिंदे भेड़ियों ने हिन्दू परिवार की स्त्रियों को अपनी काम—पिपासा का शिकार बनाना प्रारम्भ कर दिया। इन दरिंदों का साथ कुछ धर्मान्ध कट्‌टरवादी मुसलमान भी दे रहे थे, जो अपनी धर्मनिरपेक्षता का खोल उतार कर पश्चिमी पाकिस्तानी सेना की भरपूर मदद इस मकसद के लिए कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर कुछ बंगाली मुसलमान व हिन्दू इनके नापाक इरादों को नाकामयाब करने पर तुले हैं।

२७ मार्च, १९७१ को पूर्वी पाकिस्तान की सेना के निर्वासित विद्रोही मेजर जियाउर्रहमान ने स्वतंत्र ‘बांग्लादेश' के गठन की घोषणा शेख मुजीबुर्रहमान की ओर से कर दी और अप्रैल १९७१ में आवामी लीग के निर्वासित नेताओं द्वारा मेहेरपुर में सरकार का गठन भी कर लिया गया। अर्द्धसैनिक बल पूर्वी पाकिस्तान राइफल्स के द्वारा गुरिल्ला युद्ध की शुरुआत पश्चिमी पाकिस्तान के विरुद्ध कर दी गई और इनकी मदद के लिए ‘मुक्तिवाहिनी' का गठन किया गया।

इसी मुक्तिवाहिनी के गुरिल्ला भारतीय सेना का साथ पग—पग पर दे रहे हैं। अब तक हजारों—लाखों हिन्दू भारत की ओर पलायन कर चुके थे। संसार में जहाँ कहीं भी हिन्दू है, तो वह आशा भरी दृष्टि से भारत की ओर देखता है, देवी—देवताओं के इस सनातनी धर्म के पालक सारे संसार में अपना सुरक्षित स्थान पाते हैं तो बस भारत में। भारत जो अनेकता में एकता की मिशाल है। विश्व का महानतम्‌ धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है और यह धर्म निरपेक्षता

यदि टिकी है तो सिर्फ इसी सनातनी धर्म संस्कार के सहारे, जिसमें वर्तमान विश्व के सभी धमोर्ं के गुण समाहित हैं, जिसका दर्शन अपने आप में अद्वितीय है।

संसार में जब—जब, जहाँ कहीं पाप का घड़ा भरा है, तब—तब उस पाप के घड़े को फोड़ने कोई न कोई आगे आया है। इसी प्रकार पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकाें के पापी घड़े को फोड़ने तीन दिन से भारतीय सेना के रूप में पूर्वी पाकिस्तानियों के लिए ईश्वरीय सहारा आ गया है। भारतीय सेना थल सीमा से पूर्वी पाकिस्तान को चारों ओर से घेर रही है। उसका लक्ष्य है पश्चिमी पाकिस्तानी आतताइयों से मानवता की रक्षा करना। भारत माँ के रणबांकुरे निरीह जनता की रक्षार्थ आ चुके थे। विभिन्न मोचोर्ं पर पश्चिमी पाकिस्तानी सेना पिट रही थी, जो कभी उन्हीं की तरह भारतीय ही कहलाते थे, पर आज अंग्रेजों की कुचाल के शिकार बन कागज पर खींच दी गई सीमा से बँट चुके थे। पश्चिमी पाकिस्तानी सेना जो २५ मार्च, १९७१ से ‘ऑपरेशन सर्चलाइट' के नाम से पूर्वी पाकिस्तान में दमन—चक्र चला रही थी और पूर्वी पाकिस्तानी सेना व अर्द्धसैनिक बलों के उच्चाधिकारियों को अपदस्थ कर सारी कमान अपने हाथों में ले चुकी थी। वह भारतीय सेना के आक्रमण से बौखला उठी थी।

जब से भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश किया है तब से ये आततायी अपने अत्याचार को चरम सीमा पर पहुँचा कर सिमटते जा रहे थे। इन दरिंदों ने अपने सहधर्मियों की अबला स्त्रियों को भी नहीं छोड़ा। ठीक ही कहा गया है जब पाप का घड़ा भरता है, तो उसके फूटने में अधिक देर नहीं लगती। इन अत्याचारियों ने खुलना शहर पर कब्जा कर रखा था। खुलना के

एक महिला छात्रावास पर इनकी अस्थाई छावनी बनी हुई थी। बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी के वालंटियर के अनुसार इस छात्रावास में एक सौ बीस छात्राएँ

हैं जिनमें से एक भी बाहर नहीं जाने दी गयी। सभी पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों की गिरफ्त में हैं, ये सभी छात्राएेँं पास पड़ोस के गाँव—कस्बाेंे से उच्च शिक्षार्जन हेतु खुलना आयी थीं। इसके अलावा खुलना व आस—पास से न जाने कितनी हिन्दू—स्त्रियाँं इनके कब्जे में थीं। पश्चिमी पाकिस्तानी फौज के इस वीभत्स रूप को देखकर मानवता रो रही थी, ईश्वर तिलमिला रहा था।

खुलना भाहर से सूचनाएँ एकत्र कर भारतीय छावनी की ओर मुक्ति वाहिनी के दो वालंटियर दौड़कर पहुँच रहे थे। उन्होंने फकीरों की वेश—भूषा उतार फेंकी थी। यद्यपि दोनों बंगाली मुसलमान हैं, पर वे धर्मान्धता के साये से दूर मानवता के पोषक थे। अपने सहधर्मी पश्चिमी पाकिस्तानी सेना के खिलाफ जेहाद छेड़ते ये वालंटियर यद्यपि अपनी सरकार के ग़द्दार माने जा रहे थे पर वास्तव में ईश्वर के दरबार में ये सबसे बड़े देशभक्त व देश—प्रेमी थे। अपने मिशन को पूरा करने के लिए दोनों पैदल भागे जा रहे थे। कभी हिरापिडीज दौड़ा था, अपने देशवासियों की रक्षा के लिए। आज दौड़ रहे हैं ये दोनों वालंटियर मानवता की रक्षा के लिए, अपने देश के स्वाभिमान के लिए ताकी इतिहास और अधिक कलुषित होने से बच जाये।

भानु ने जैसे ही टेंट की चिक हटाकर अंदर प्रवेश किया, उसे तुरन्त वापस जाना पड़ा क्योंकि मोना अन्दर बलवीर के साथ आलिंगनबद्ध थी। भानु ने पुनः कुछ देर बाद अंदर खाँसते हुए पहुँचने का उपक्रम किया, ताकि मर्यादा बनी रहे। यही होता आया है तब से, जबसे मनुष्य जाति ने सभ्यता का बाना ओढ़ा है। कुछ पल रुककर भानु ने पुनः चिक उठाकर अंदर प्रवेश किया। आशानुसार अब सब ठीक था। बलवीर शेविंग बॉक्स खोलने का नाटक करने लगा, जबकि मोना हड़बड़ाहट की स्थिति में खड़ी हुई फिर बैठ गई।

भानु के मुँह से हँसी फूट पड़ी।

‘‘क्यों .. क्यों हंसे तुम ?'' बलवीर शेविंग का सामान सामने मेज पर रखते हुए बोला।

‘‘कुछ .. नहीं.... यूँ ही वो ... वो अभी पाण्डेयजी ने एक चुटकुला सुनाया

उस पर हँसी आ गयी।'' भानु अपने साथ लाये नाश्ते को मेज पर लगाते हुए बोला।

‘‘चुटकुला, भानु दा हमें भी सुनाइये ना'' मोना बोली।

‘‘अभी नही पहले नाश्ता, फिर चुटकुला'' भानु ने बलवीर के कंधे पर हाथ मारते हुए कहा, ‘‘यार! शेविंग बाद में करना, पहले नाश्ता करो, नहीं तो चाय का क्रोध शांत हो जायेगा।''

मोना इस वार्तालाप पर खिलखिला उठी। बलवीर मोना की स्वच्छ खिलखिलाहट से दिख रही उसकी धवल दंत—पंक्ति को ठगा—सा देखता रह गया।

तीनों मेज के पास आ गये।

‘‘यार नाश्ते से काम नहीं चलेगा, भोजन की व्यवस्था करो, देखो मुझे तो ....... पेट की ओर इशारा कर बलवीर बोला, ''बिल्लियाँ लड़ रही हैं इसके अंदर।''

‘‘‘नाश्ता मिल गया शुक्र करो,... भोजन! यह फ्रण्ट है, हेड क्वार्टर नहीं समझे।'' भानु ने चाय का अन्तिम घूंट लेते हुए कहा।

‘‘मोना तुम भूखी होगी, तुमने कब से नहीं खाया।'' भानु पूछ बैठा।

‘‘याद नहीं, हाँ मुझे भी बहुत देर हो गयी..... पर भूख नहीं है।'' मोना कुछ उदास स्वर में बोली।

मामला गंभीर समझ भानु शांत हो गया, पर अपने हिस्से के बिस्किट

व उबले चने मोना की प्लेट में डालकर उठ खड़ा हुआ।

‘‘ये क्या भानु दा ..?'' मोना भानु का हाथ पकड़ते हुए बोली।

‘‘खा लो मोना, तुम भूखी होगी .. हाँ इंकार नहीं करते शाबाश !‘‘ कहते—कहते भानु के नेत्र सजल हो गये। मोना उसका चेहरा न देख पाये इसलिये वह टेंट से तुरंत बाहर निकल गया।

‘‘भानु दा को अचानक यह क्या हुआ ...?'' मोना ने बलवीर से पूछा।

‘‘कहानी है, मोना कहानी। तुम्हारे भानु दा की एक बहन है ‘उमा',

तुम्हारी उम्र की होगी .......बेचारा बड़ी याद करता है उसकी।'' बलवीर बोलता

गया, ‘‘चौदह वर्ष में भानु के बाबा ने उसकी शादी कर दी। पन्द्रहवें वर्ष में उमा विधवा हो गयी। उसी की चिंता खाये जाती है भानु को।''

‘‘इतनी जल्दी शादी .......पर ....... मोना आगे न बोल पाई।

‘‘पर क्या एक भी बार बेचारी ससुराल नहीं गयी, न ही जाना है कि संसार क्या है, अभी से बेचारी पर इतने अंकुश हैं, हे राम! सच मोना जब मैंने उसे पहली बार विधवा भेष में देखा था, मेरा कलेजा फटा जा रहा था।'' बलवीर तौलिये से हाथ पोंछते हुए बोला।

‘‘क्या उमा की दूसरी शादी नहीं हो सकती ?'' मोना ने जवाब मांगा।

‘‘क्यों नहीं हो सकती? भानु भी यही चाहता है, पर घर, परिवार, और समाज वाले माने तब न और फिर कोई अच्छे खानदान का लड़का शादी के लिए तैयार हो तब न।'' बलवीर ने भावुक हो कहा, ‘‘बहुत सारी समस्याएँ हैं मोना! इस संसार में... भानु ने शपथ ली है कि जब तक वह अपनी बहन का पुनर्विवाह नहीं कर देता, तब तक स्वयं अविवाहित रहेगा।'' इतना कहते हुए बलवीर टेंट से बाहर निकल गया। मोना मेज पर रखी प्लेटें उठाने लगी।

खुलना से भागते दोनों नौजवान उस सीमा से बाहर आ गये थे, जिसके अंदर खतरा ही खतरा था। सामने पीपल के विशाल वृक्ष के नीचे खड़ी जीप अब उन्हें दिखायी दे रही थी। जीप की बोनट पर खड़ा राइफलधारी सैनिक उन्हें दिखायी देने लगा था। दोनों नौजवानों ने अपने—अपने रूमाल निकाले। दौड़ते—दौड़ते आपस में दोनों रूमालों को बांधा और एक—एक छोर पकड़ जीप की ओर दौड़ने लगे। बोनट पर खड़े सैनिक ने अपनी पोजीशन में परिवर्तन किया। राइफल कंधे पर डाल ली और जेब से रूमाल निकाल संकेत देने लगा। कुछ ही मिनटों के बाद दोनों धावक जीप पर सवार थे। वर्दीधारी सैनिक जीप ड्राइव करने लगा और दोनों नौजवानों ने मुस्तैद हो राइफल हाथों में ले पोजीशन ले ली। अब ख़्ातरा नहीं के समान था, परन्तु सुरक्षा के नियमों का बारीकी से पालन करना उनका पहला पाठ था।

लम्बी—लम्बी तीन सीटी की आवाज़ को सुनकर बलवीर व भानु परेड

ग्राउण्ड की ओर बढ़ गये। वहाँ पहुँचने पर एक सैनिक ने उन्हें सेल्यूट किया

और मेजर साहब के केबिन में पहुँचने का संदेश दिया।

भानु व बलवीर मेजर साहब के कैम्प की ओर बढ़ लिये।

‘‘आओ बलवीर.. भानु'' मेजर पाण्डेय उनके अभिवादन का जवाब देते हुए बोले।

‘‘बैठो'', मेजर ने आदेश सुनाया, फिर केबिन के अन्दर बैठे दो सिविल डे्रस पहने नौजवानों की ओर इंगित करते बोले, ''ये दोनों नौजवान मुक्ति वाहिनी के वालंटियर व पद से सेना नायक हैं। .......ये दोनों खुलना से अभी—अभी लौटे हैं, इनके द्वारा ज्ञात हुआ है कि पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिक खुलना छोड़ने के मूड में नहीं हैं। साथ ही वह महिला छात्रावास के पास अधिक संख्या में एकत्र हैं।'' मेजर पाण्डेय बोलते गये, ‘‘हमें यह रणनीति तैयार करनी है कि खुलना कैसे हासिल किया जाये। हमारे पास ऊपर से आदेश आ चुका है कि कल रात्रि के पहले खुलना तक का क्षेत्र भारतीय सेना के नियंत्रण में होना चाहिए।''

‘‘सर हमें क्या करना होगा?'' भानु उतावला होे बोला।

‘‘वही बता रहा हूँ।'' मेजर पाण्डेय एक नक्शे को मेज पर फैलाते हुए आगे बोले, ‘‘यह खुलना शहर का नक्शा है। आज मध्य रात्रि के पहले—पहले तक इन दोनों नौजवानों के साथ तुम दोनों को किसी भी तरह इस स्थान पर पहुँंचकर शत्रु के शस्त्रागार पर कब्ज़ा करना है। यह काम रात्रि चार बजे के पहले हो जाना चाहिए। ठीक तीन बजे तक शस्त्रागार से पूरे शस्त्र, जो कहीं छिपाए जा सकें, उन्हें छिपा दो, शेष को नष्ट कर दो। यहाँ चार बजे के बाद कैप्टन सिंह के नेतृत्व में एक कम्पनी खुलना शहर को चारों ओर से घेरती हुई आक्रमण करेगी। खुलना शहर में मुख्य रूप से कुल चार स्थानों पर पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों का जमाव है, वहाँ के लिए एक—एक कम्पनी अलग से दो बजे रात्रि मार्च कर देगी। समझे ..... कोई शक! ''

‘‘समझ गए सर.. कोई शक नहीं .... पर, सर क्या हम दोनों जाएँगे?'‘

बलबीर बोला।

‘‘हाँ तुम दोनों ....... पर ऐसा क्यों पूछ रहे हो ..... ? इससे पहले तो तुम दोनों में से किसी ने कभी भी इस प्रकार का प्रश्न नहीं किया। जहाँ एक की

जरूरत पर्याप्त रहती थी, वहाँ जबरन दूसरा भी जाता था, पर आज ......'' भानु बीच में बोला,‘‘इसका तो सर दिमाग कहीं और है, हाँ हमारे साथ

कौन—कौन जायेगा और हमें कितने बजे मार्च करना है''?

‘‘ठीक तीन बजे शाम को, एक जीप तुम चारों को एक निर्धारित स्थान पर छोड़ आयेगी। वहाँ से लगभग तीन किमी. पैदल जाना है, आगे का नक्शा व मार्ग निर्देशन ये दोनों करेंगे। अपने साथ कुछ सैनिक ले जा सकते हो।''

‘‘नो सर...... भानु बोलता कि बलवीर उसका हाथ दबाते हुए बोला,

‘‘ठीक सर हम दोनाें ढाई बजे आपको रिपोर्ट करेंगे।''

‘‘अच्छा''

‘‘जय हिन्द सर''

‘‘जय हिन्द''

दोनों मेजर साहब के कैम्प से बाहर आ गये।

‘‘हाथ क्यों दबाया था मेरा'' रास्ते में भानु ने पूछा।

‘‘यार कुछ सैनिक साथ के लिए कह रहे थे पाण्डेय सर और तुम नो सर बोल रहे थे। मैंने सोचा है, मोना अकेले यहाँ रहेगी तो दूसरों को उसकी उपस्थिति का पता लग सकता है। क्या यह अच्छा नहीं कि वह हम लोगों के साथ चले ..?''

भानु गुस्से से बीच में बोल पड़ा,‘‘मोना हम लोगों के साथ खुलना जायेगी, तुम्हारा दिमाग तो ठीक है।''

‘‘वो तो ठीक है, पर तुम कहना क्या चाहते हो ?‘' बलवीर गला साफ़

करते हुए बोला।

‘‘मैं यह कहना चाहता हूँ कि मोना हमारे साथ मरने के लिए नहीं जायेगी। मैं अभी उसे मेजर साहब के सुपुर्द कर देता हूँ। मुझे विश्वास है, वे हमारी बात मान जायेंगे।''

भानु चिक उठा टेंट के अंदर आते हुए बोला।

‘‘कौन किसकी बात मान जायेगा भानु दा! ‘‘ मोना ने पूछा।'

‘‘मैं बताता हूँ मोना!'' बलवीर ने कहा, ‘‘पहले बैठो! हाँ ठीक है.... अभी—अभी मेजर ने हमें चंद साथियों के साथ पाकिस्तानी फौज के शस्त्रागार पर कब्जा करने का आदेश दिया है..

‘‘हाँ...तो.........

‘‘......तो बात यह है कि बलवीर कह रहा है कि मोना हमारे साथ चले।'' भानु ने बीच में बलवीर की बात काटते हुए कहा।

‘‘वाह! इसमें सोचने की क्या बात है? वो कहें या न कहें मैं तो चलूँगी और अवश्य चलूँगी'' दृढ़ निश्चय सुनाती मोना खड़ी हो गयी, ‘‘भानु दा प्लीज मुझे अपने साथ ले चलो, मैं आपके साथ ..''

मोना आगे कुछ कहे इसके पहले भानु ने उसके मुँह पर अपना हाथ रख दिया।

काफी मनाने पर जब मोना साथ चलने के सिवा अन्य किसी पर राज़ी नहीं हुई, तो निश्चय किया गया कि मोना भारतीय सैनिक के भेष में चलेगी।

मोना पहचानी न जाये इसलिए भानु सिख वेष का पूरा सामान स्टोर से ले आया।

पूरे चार घंटे बाद टेंट के अंदर तीन प्राणी थे, दो लेफ्टिनेंट बलवीर व

भानु तीसरा सिख सैनिक के भेष में स्वयं मोना।

दिन के एक बज रहे थे। मोना अपने सिख भेष में भोजन करने के बाद आराम से सो रही थी, जबकि बलवीर व भानु तैयारी पर लगे थे।

तीन रिवाल्वर, पर्याप्त कारतूस, कुछ हथगोले, दो स्टेनगन ये शस्त्र उनके साथ थे। कुछ अन्य उपयोगी सामान जैसे ट्रांसमीटर, टॉर्च, रस्सी, चाकू आदि भी उन्होंने रख लिया। गहरी हरी सी वर्दी वे तीनों पहन चुके थे। वर्दी में किसी भी प्रकार के चिह्न नहीं थे। तैयारी करते एक घंटा और बीत गया। दो बजकर तीस मिनट पर भानु रिपोर्ट करनेे मेजर पाण्डेय के पास चला गया।

यहाँ बलवीर सिख वेषधारी मोना की बंद पलकों को निहारने में लगा था। अचानक उसे ख्याल आया। वह सोते से जागा। दो बजकर चालीस मिनट हो रहे थे। मोना के दाएँ पैर के तलुवे पर उसने गुदगुदी की, अगले पल

मोना अंगड़ाई लेकर जाग गयी। स्वयं को संभालते हुए वह खड़ी हो गयी। खड़े होते ही उसने एक तेज सैल्यूट बलवीर को ठोका।

‘ओ०के०' सेल्यूट के प्रति उत्तर में बलवीर ने मोना को आलिंगन में भींचा फिर छोड़ दिया।

ठीक तीन बजे पाँच सदस्यीय यह लघु दस्ता खुली जीप में सवार रवानगी पर था। कैप्टन सिंह व मेजर पाण्डेय से हाथ मिलाकर रवानगी ले रहे थे, जांबाज दस्ते के जांबाज सदस्य।

‘‘अच्छा जयहिंद मेरे शॉक ट्रूपर्स'' (शत्रु पर आक्रमण कर क्षति पहुँचाने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित सैनिक) मेजर पाण्डेय ने कहा।

‘‘खुलना में मिलेंगे! जय हिंद'' कैप्टन सिंह इस बार बोले।

ड्राइविंग सीट पर बैठी मोना सिख कैप्टन को देखने के बाद अपने चेहरे को साइड मिरर में देख मुस्करा दी।

उसके बारे में कोई पूछताछ नहीं हुई।

वह स्टार्ट जीप पर इसीलिए बैठायी गयी थी कि उसे ड्राइवर समझ

कोई प्रश्न न हो और न ही उतरने—चढ़ने की झंझट रहे।

‘‘अच्छा सर ओ०के०'' भानु ड्राइविंग सीट के पास आकर बोला, ‘‘ओ सरदारजी लाओ मैं ड्राइव करता हूँ'' और उसने स्टेयरिंग सम्भाल स्टार्ट जीप का एक्सीलेटर दबा दिया।

‘‘सरदारजी आओ पीछे आ जाओ, कुछ गल पंजाब दी हो जाये।'' बलवीर ने मोना को आवाज़ दी,'' हाँ भाई आप दोनों भाइयों के शुभ नाम क्या हैं वैसे इसके पहले मैं बता दूं मैं हूँ, लेफ़्िटनेंट बलवीर और ड्राइवर साहब हैं, लेफ़्िटनेंट भानु प्रताप।''

मोना जीप के पीछे आ गयी।

‘‘‘मैं हम्माद हूँ और ये हैं तौसीफ अहमद।'' उन दो वालंटियर में से एक

करेंगे ..... उन्हें पंजाब घूमने दो।'' भानु ने जीप ड्राइव करतेे पीछे बलवीर को देख अपनी बाईं आँख दबाते हुए कहा।

वक्त दूसरा था फिर भी बलवीर रोमांटिक मूड में था। जीप ढलान पर आ जाने से धीमी आवाज के साथ लुढ़कने लगी।

बोला।

‘‘हम्माद भाई आप आगे आ जायें, अपन आपके सोनार बांग्ला की बात

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