Ek lekhak ki enetamin - 3 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

एक लेखक की ‘एनेटमी‘ - 3 - अंतिम भाग

एक लेखक की ‘एनेटमी‘

प्रियंवद

(3)

स्टूल पर बैठे आदमी ने, जो प्रेमियों के लिए जलते चिराग की तरह दिखते घर से कुद देर पहले आया था, एक झटके में गिलास की शराब खत्म कर दी। उसने अपने लिए दूसरा गिलास बनाया। स्टूल से उठ कर हरे मटर एक कप में रखे। उन्हें लेकर वापस स्टूल पर बैठ गया और फिर सुनने लगा।

‘‘नहीं, मैं जामुन का जैम नहीं खाता‘‘ एक दूसरे गुट से किसी रोमन सेनेटर की तरह तेज, दमदार आवाज सुनायी दी।

‘‘क्यों‘‘? किसी ने पूछा

‘‘क्योंकि ईसा का मुकुट इसके काँटों से बना था‘‘

लोगों ने तालियाँ बजायीं। शायद वह किसी नाटक के संवाद बोल रहा था। उसी गुट में एक स्त्री बैठी थी। शुरू में बावजूद ‘पासवर्ड‘ और ‘गेटपास‘ के, उसे आने की अनुमति नहीं दी गयी थी। पर वह दरवाजे को तब तक पीटती रही जब तक कि उसे अंदर आने नहीं दिया गया। वह अपने साथ बिना रंग की सबसे हल्की शराब लायी थी। उसने उसे अपने पास ही रखा था। उसे चुंगी वाले की सामर्थ्य और प्रबंध पर शंका थी, इसलिए अपने साथ ताजा शहद, अनानास का रस और पुदीने की पत्तियाँ भी लायी थी। सबको सही अनुपात में मिला कर उसने अपना गिलास बनाया था और इत्मीनान से पी रही थी। उसका चेहरा पतला, चौड़ा और खिंची खाल वाला था। वह अपनी उमर से कम लग रही थी। उसकी खाल का रंग, चमक और उस पर करीगरी के साथ संतुलित ढंग से चढ़ा माँस उसको मादक और आकर्षक बना रहा था। उसने फूलों वाला लम्बा कुर्ता पहना था। पाँवों में पहाड़ों पर पायी जाने वाली लोमड़ी की खाल के जूते थे। जामुन की बात खत्म होने पर वह थोड़ा आगे झुकी और बोलने लगी।

सिर्फ ‘‘कलाकार ही है जो प्रेम और घृणा, पाप और पुण्य, जीवन और मृत्यु दोनों को एक साथ एक जगह जीवित रख सकता है। दो विरोधी चीजों को एक साथ सक्रिय और प्रभावी बना सकता है। दोनों को बराबरी के साथ संतुलित करके दोनों का महत्व दिखा सकता है। यह ताकत न धर्म में होती है, न राज्य में, न समाज में। वहाँ जीवन का सिर्फ एक ही पक्ष होता है। सिर्फ एक ही सच होता है, वह भी बहुत उथला, सीमित और उबाऊ। वह सच खुद घिसटता हुआ चलता है इसलिए उसमें कभी कोई चमक, कोई ताकत नही होती। इसलिए वह हमेशा विरक्ति या घृणा पैदा करता है। सिर्फ डराता है। कला इसीलिए हमेशा इस अपाहिज सच को पराजित कर देती है, क्योंकि वहाँ मनुष्य का जीवन पूरी स्वतंत्रता, ताकत और सम्पूर्णता के साथ खिला होता है। ‘‘औरत साँस ले कर वापस सीधी हो गयी। वह थक गयी थी। उसने गिलास से घूँट के साथ शराब में तैरती पुदीने की पत्तियाँ भी खींच लीं। उन्हें चबाया और एक बड़ा घूँट ले कर आँखें बंद कर लीं।

स्टूल पर बैठे आदमी के पास कोई आ कर बैठ गया। उसने सर घुमा कर देखा। वह आदमी मुस्कराया। शायद वह इसकी उम्मीद या प्रतीक्षा कर रहा था। उसने अपना परिचय दिया। वह डाक्टर था। मानसिक बीमारियों का विशेषज्ञ। इस विषय पर तीन किताबें लिख चुका था। उसने कलाकारों की मानसिक समस्याओं का विशेष अध्ययन किया था। वह उनका विशेषज्ञ था। वह कलाकारों की बीमारी के लक्षण, रहस्य और इलाज उनकी रचनाआें को पढ़ कर, कृतियों को देख कर करता था।

‘‘मैं आपको देख रहा था। आपके माथे की सलवटें, भौहों की सिकुड़नें, उंगलियों की बेचैनी, बैठने की असहज मुद्राएं और शराब पीने के तरीकों को भी ध्यान से देख रहा था। मुझे लगा मुझे आपसे बात करनी चाहिए या शायद आपको आने वाले खतरे से आगाह करके आपकी मदद करनी चाहिए।‘‘ डाक्टर बोला। उस आदमी ने अब ध्यान और गम्भीरता से डाक्टर को देखा।

‘‘डरिए नहीं ...कुछ खास नहीं है‘‘ डाक्टर मुस्कराया। कांउटर के पीछे खड़े लड़के से उसने कागज कलम माँगा। उसके सामने रखा।

‘‘बस कोई भी चार पंक्तियाँ लिख दीजिए‘‘। डाक्टर अब गम्भीर था। उस आदमी ने कलम लिया और कुछ क्षण रूक कर काग़ज पर लिखा।

शाश्वत परिधियाँ

शहर पर गिरती हल्की बारिश

काफी हाउस में नशे में धुत कवि

और पाँव के पास सोयी काली बिल्ली

चाँदनी और चर्च की घड़ी का बारह बजे का घंटा

ओ मेरे अनुपस्थित जीवन

इन सबकी ओर देखो।

डाक्टर ने कागज लेकर पंक्तियों को पढ़ा। एक बार..दो बार..तीन...चार बार फिर आदमी को देखा। फिर पूछा ‘‘ये पंक्तियाँ आपकी हैं?‘‘

उसने सर हिलाया।

‘‘जीवन में ऐसा कुछ है जो आपको बहुत ज्यादा महसूस होता है। बार बार .....?‘‘

‘‘हाँ‘‘...आदमी ने शराब का घूँट भरा और कुछ देर रूक कर बोला। ‘‘दो चीजों का आंतक बहुत महसूस होता है। पहला अपाहिज शरीर के साथ मौत और दूसरा लिखने की इच्छा का सूख जाना। पर छटपटाते हुए, बेबस मैं दोनों को अपनी ओर आते देख रहा हूँ और मेरे पास इनसे अपना बचाव करने के लिए कुछ भी नहीं है। मुझे लगता है मैं रूका हुआ एक बंजर जमीन पर खड़ा हूँ। इस जमीन के आगे एक ऊँची, पथरीली दीवार है जिसे मैं पीछे नहीं हटा सकता, और जहाँ तक आ चुका हूँ, वहाँ से वापस भी नहीं लौट सकता।‘‘ उस आदमी ने अपनी एक हथेली की उंगलियों को तेजी से नचाया। उसके बदन में एक कँपकँपी दौड़ी। उसने होठों पर जीभ फेरी।

‘‘माफ कीजिएगा‘‘....डाक्टर बोला ‘‘मैंने ध्यान से कविता पढ़ी। आपकी कविता के शब्दों के क्रम में गहरा असंतुलन है। बिखराव है। अनावश्यक दुरूहता है। अर्थहीनता, असम्प्रेषणीयता है। वास्तव मे यही आपका जीवन है। इसीलिए आपको हमेशा आतंक महसूस होता है, क्योंकि आपके शब्द या आपकी कविता कुछ भी सार्थक और अर्थपूर्ण नहीं रचते। इसलिए आपका जीवन भी अर्थहीन और निरर्थक हो चुका है। वास्तव में मनुष्य की विक्षिप्तता की शुरूआत शरीर की बेचैनी और शब्दों की टूटी लड़ियों से ही शुरू होती है। ये शब्द वास्तव में आपके मानसिक असंतुलन की शुरूआत के लक्षण हैं।‘‘ डाक्टर ने साँस लेकर बहुत विनम्रता और सहानुभूति सेे उसे अपने पास आने वाले कुछ कलाकारों के उदाहरण दिए जिनकी विक्षिप्तता की शुरूआत ऐसे ही, शब्दों के बिखराव से शुरू हुयी थी। डाक्टर ने उसे सलाह दी कि अब कुछ दिन वह कुछ भी न लिखे। खुली हवा में समुद्र के किनारे सन्नाटे और एकांत की धूप में घंटों लेटा रहे, तब तक, जब तक कि वह वापस प्रकृति, समाज, साहित्य और जीवन की पारम्परिक लय में वापस न लौट आए।

वह चुपचाप डाक्टर की बात सुन रहा था। जब डाक्टर चुप हो गया तब गिलास में बची शराब से कुल्ला करके उसने एक झटके में उसे निगला और स्टूल से उठ गया। उसने डाक्टर के कंधे पर हाथ रखा।

‘‘इन पंक्तियों में एक नयी प्रतिभा का भ्रूण पल रहा है डाक्टर, उस भ्रूण का जिसने गर्भ में आने से पहले, मुँह ढके हुए ईश्वर से कह दिया था कि इस बार तो जी रहा हूँ पर अगली बार तुम्हारा दिया जीवन नहीं जिऊँगा‘‘। उसने डाक्टर का कंधा थपथपाया, ‘‘यह जीवन अभी जन्मा ही नहीं....तुम इसके बारे में क्या बताओगे‘‘? वह बाहर दरवाजे की ओर चला गया।

दरवाजे पर ताला बंद था। वह घूमा और पियानो के बगल के कमरे से होता हुआ पिछले दरवाजे से बाहर निकल आया। बाहर कुछ छोटे और पक्के मकानों के बीच एक पतली गली थी। बिना प्लास्टर की दीवारों पर चांद की हल्की सफेदी थी। पूरी गली में सिर्फ एक कुत्ता था। वह एक टूटे पाइप के नीचे कूड़े के ड्रम से खींच कर किसी राजस्वला स्त्री का फेंका हुआ कपड़ा नोच रहा था। कुछ घरों की दीवारों पर पेड़ों की छायाएं गिर रहीं थी। लम्बी गली के आखरी तक किनारे किनारे फेंकी रोटियाँ थीं। कहीं ईटों के बनाए बुझे चूल्हे थे, कहीं सूखने के लिए लटकते रंगीन कपड़े। गली की कच्ची मिट्‌टी में रोड़ियाँ पड़ी थीं जिन पर उसका पाँव पड़ता तो घुटने मुड़ जाते। अंधेरे, सन्नाटे, तेज हवाओं, धूल और पत्तों के बीच हल्के लड़खड़ाते कदमों से वह गली के बाहर निकला। इस लड़खड़ाहट में नशा कम गुस्सा, अपमान, बेचैनी और उत्तेजना ज्यादा थी। वह थोड़ी दूर और चला। खच्चर दौड़ाते कुछ लोग सामने से चिल्लाते हुए निकले। धूल का एक गोल नाचता हुआ ऊपर उठा। वह धूल में सन गया। उसने हथेलियों से चेहरा पोछा और एक टूटी दीवार की आड़ में रूक गया। उसने रूक रूक कर निकलने वाला लम्बा पेशाब किया फिर सीधा हो गया और पलटा। आँखे सिकोड़ कर उसने देखा। कुछ धुँधली आकृतियाँ दिखीं। कुछ लोग धीरे धीरे उसे घेर रहे थे।

उन पर उसने मुँदती आँखों से उन्हें देखा। उसे घेर कर पत्थर जैसे चेहरों के साथ वे एकटक, उसे घूर रहे थे। उसने खतरा भाँप लिया। हमला करने के लिए उसने जानवर की तरह कच्ची मिट्‌टी पर अपने पंजे घिसे। वे निर्लिप्तता और उपेक्षा से उसे उसी तरह देखते रहे। उसने अपने पंजे और तेजी से घिसे फिर उन्हें जमीन पर पटकने लगा। उसे हैरानी हो रही थी, यह जमीन उसकी ठोकरों से टूटती क्यों नहीं? इसमें दरार क्यों नहीं पड़ती? उसने उसी हैरानी से घेरा बनाए लोगों को फिर देखा और सोचा ये कौन हैं, किसकी तरफ हैं? यकीनन वे उसकी तरफ नहीं थे। यकीनन वे उनकी तरफ थे जिनके हाथों में लहराते चाबुक थे और जो उनकी ही उधड़ी हुयी पीठों पर बरसने वाले थे। वह इस पर भी हैरान था कि क्या काल की निरन्तरता से अलग होकर समय का ऐसा निरर्थक टुकड़ा पहली बार आया है? पर ऐसा नहीं था। समय के बहुत से निरर्थक टुकड़ों में अक्सर ही ऐसे लोग गिनती में बहुत ज्यादा रहे हैं जिन्होंने अपने हत्यारों की उपासना की है। उनकी सुख समृद्धि के लिए अपनी बलि दी है। उनके वचनों का आचमन किया है। जो ऐसे नहीं थे, वे भी चुप रहे थे। यह चुप्पी उनके डर की नहीं, उनकी उदासीनता की, उनकी बेनियाजी की थी। आग इन चुप रहने वालों के दरवाजों की चौखटों को पार कर चुकी थी, पर वे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी मे खुद को मशगूल रखे हुए थे। अपने स्वार्थों, अपनी ईष्याओं और लालच की चौहदि्‌दयों में बंद थे। इस इत्मीनान में कि मुँह ढका ईश्वर उनके लिए धरती पर जरूर एक दिन जन्म लेगा और उन्हें बचा लेगा। वह हैरान था यह जहालत, यह कायरता, यह बेनियाजी, स्वार्थ या मूर्खता या धूर्तता या मक्कारी कहाँ से जन्मती है? निश्चित ही सोने के पानी से लिखे उस इतिहास से जो उनकी रगों में लहू के साथ दौड़ाया गया है। ‘मरो कम्बख्तों‘ वह बुदबुदाया। लगातार घिसने और पटकने से उसके खुरों में दर्द होने लगा। खुर पटकते पटकते वह अब हांफने लगा था। उसने अपनी लार पोछी, पसीना पोछा, बदन का गीला मैल पोछा। तय तरीके से अब उनका घेरा छोटा हो रहा था। उनके चेहरे अब उसके बहुत पास थे। उसने बंद होती आँखों से उनकी धुँधली और बहुत पास आ चुकी आकृतियाँ देखीं। वह पहचान गया। ये वही देवता थे, उनके वही उपासक थे, वही नयी बलि वेदियाँ सजाने वाले थे। उन्होंने अब हथियार निकाल लिए थे। वे अब इतने पास थे कि उनकी छायाएं उस पर गिर रहीं थीं। ‘‘कुचलो...कुचलो हमें हरामजादों‘‘ उसने दांत पीसे। ‘‘हम जैतून की तरह हैं। हमें जितना ज्यादा कुचलोगे, हम उतना ज्यादा अपना सर्वश्रेष्ठ निकाल कर देंगेे‘‘। वे अब हँस रहे थे। नहीं, ज्यादा समय नहीं है...वह बुदबुदाया फिर मुँह उठाकर पूरी घृणा और ताकत से चीखा, ‘‘ओ अनिर्णय के देवताओं, ओ कायरता के देवदूतों, अस्पष्टताओं और धुँधलके के जन्मदाताओ, माया के फरिश्तो, ईष्याओ के पालनहारो, मृत्यु के उदगाताओं....तुम सब जिसे ढूँढ रहे हो, तुम्हारा वह लापता ईश्वर मेरे शब्दों में है। मेरी शरण में है। जब तक मैं लिख रहा हूँ मैं सबसे बड़ा सृष्टा हूँ। मैं कुछ भी रच सकता हूँ। शब्दों की लयबद्धता से जगत रच सकता हूँ। इनके क्रम से प्रार्थनाओं को जन्म दे सकता हूँ। नए ईश्वर और नए स्वर्ग गढ़ सकता हूँ। लो...तुम्हारा दिया अर्थहीन जीवन तुम्हें लौटा रहा हूँ...उसी तरह, जिस तरह रात भर थकी हारी वेश्याएं अपने घरों को लौटती हैं, गोधिूल मे गाएं लौटती हैं, जीवन में दुख, पश्चाताप और प्रायश्चित लौटते हैं। मैं भी एक दिन लौटूँगा पर इनसे अलग लौटूँगा। अपने एक नए जीवन के साथ, बस उतनी ही देर में लौटूँगा जितनी देर में हरा कदम्ब पीला होगा, गेहूँ की बाली में दाना पड़ेगा, परिंदों के बच्चे पँख फड़फड़ाएंगे, समुद्रोें के तट सीपियों से भर जाएंगे, बस उतनी ही देर में लौटूँगा जितनी देर में एक शब्द से अर्थ मुक्त होगा, एक ईश्वर विहीन प्रार्थना से करूणा का झरना बहेगा, एक चुम्बन से आकाश फूटेगा और एक घास का तिनका मिट्‌टी को फोड़ कर जन्म लेगा।

उस पर एक वार हुआ। वह थोड़ा लड़खड़ाया। उस पर अब वार के बाद वार होने लगे। थूक से सने होठों से वह आखरी बार बुदबुदाया ‘ ओ अमरता...अब तुम पूरी तरह मेरी हो‘ और फिर जमीन पर लुढ़क गया।

प्रियंवद

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