Bade babu ka pyar - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

बड़े बाबू का प्यार - भाग 3 14: गम का साथी रम...



भाग 3/14: गम का साथी रम...

कमरे में पहुँचते-पहुँचते मंदार भी अपना ग्लास खाली कर चुका था, अभी मामला बराबरी पर था, तीन –तीन|

उधर मंदार कमरे में बैठा मोबाइल पर इमोशनल मैसेज टाइप करने लगा, अभी पंद्रह सेकंड भी नहीं बीते होंगे मैसेज भेजे कि तपाक से जवाब आ गया| लगा जैसे उधर डॉली भी मैसेज का इंतज़ार में ही बैठी थी| फिर क्या मंदार मैसेज भेजता और पलटते ही जवाब आ जाता, सिलसिला खीचने लगा|

“अरे ग्लास खाली है मंदार....क्या हुआ? कहाँ खो गए?” दिवाकर कमरे में दाखिल होते हुए बोले| हाथ में एक प्लेट थी जिसमे कुछ कच्चे और कुछ फ्राई किये पनीर के टुकड़े थे| “सलाद खाओगे मंदार?...बोलो तो ले कर आता हूँ..”

“अरे बैठिए बड़े-बाबू, देखिए आप नहीं थे तो अकेलापन महसूस हुआ और बीवी की याद आ गई, डॉली को ही याद कर रहे थे और मैसेज- मैसेज खेल रहे थे”, मंदार शरारती अंदाज़ में बोला|

ग्लास में चौथा पेग गिर चुका था, मंदार ने ग्लास दिवाकर को थमाई और बोला, “बड़े-बाबू, कसम है आपको आपके प्यार की, अब बात न घुमाइएगा| अब आप कहीं नहीं हिलेंगे, पहले हमें मुखातिब तो कराइए आपकी मिस्टर इंडिया से|

“मिस” दिवाकर जोर देते हुए बोले, “मिस्टर नहीं मिस....पता नहीं प्यार बोल सकते हैं या नहीं पर थी एक लड़की हमारी भी ज़िन्दगी में.....बात जयपुर की है, जब हम ग्रेजुएशन करने टोंक से जयपुर आए थे| शहर की चमक धमक और दोस्तों के साथ मस्ती.... वो उमर ही कुछ अलग होती है दोस्त...कभी भी बिन बुलाए मेहमान बन गए और खाना खा लिया....या सारे दोस्तों ने मिल कर प्लान किया और घूमने निकल गए....क्या दिन थे|”

मंदार बेटक सुनता रहा और सोचता रहा, इतनी भी पुरानी क्या बात है जो बार -बार...क्या दिन थे बोल रहे हैं | पर बोला कुछ नहीं|

इधर दिवाकर मानों चौथे पेग के सुरूर में आने लगे थे, न जाने क्या सोचते रहे फिर बोले, “चार दोस्त थे हम, दिलीप, बंटी फ़िरोज़ और हम| फ़िरोज़ और हम टोंक से और दिलीप और बंटी जोधपुर से| शुरू-शुरू में तो हम और बंटी एक ही कमरे में रहते थे पर जब कॉलेज में दोस्ती हुई तो हमने मिल कर दो कमरे का फ्लैट ले लिया था| दिन भर कॉलेज फिर देर रात तक मस्ती यही काम था उन दिनों| पढ़ाई के समय पढ़ाई, फिर मस्ती|”

दिवाकर ने एक और लम्बा घूँट लगाया और सुरूर में बोले, “जाड़े का दिन होगा.... बंटी के मामा के घर शादी थी, मामा जी शापिंग करने जयपुर आए थे तो सभी को बोल गए थे| सेमेस्टर एग्जाम हो चुके थे तो सभी थोड़ा आराम से थे, प्लान बना कि जोधपुर जाएंगे और खूब धमाल करेंगे| चारों ने एक ही बैग पैक किया और ट्रेन पकड़ कर सीधे जोधपुर|” फिर आगे बोले, “सुबह- सुबह का समय होगा, स्टेशन पर उतरे ही थे कि एक सज्जन कुली से बहस रहे थे| प्लेटफॉर्म पर आठ –दस सूटकेस और साथ में दो महिलाऐं, एक अधेड़ जो उनकी माँ लग रही थीं और दूसरी उनकी पत्नी| साथ में था एक बारह- तेरह साल का लड़का और एक ख़ूबसूरत सी लड़की....एक पल तो लगा, देखते ही रहें पर जब देखा वो हमें देखते देख रही है तो नज़रें हटा ली| बात बढ़ गई थी और तीन चार कुली और आ गए थे| सब जानते थे मजबूर है, सामान ज्यादा है, और हाथ लगाने वाला कोई नहीं। अंकल जी बेचारे बहस तो रहे थे पर असहाय जान पड़ रहे थे|”

मंदार ने ग्लास उठाई और इशारा किया कि दिवाकर भी ग्लास ख़तम करें पर दिवाकर तो जैसे अपनी पुरानी यादों में रम से गए थे मानो, बोले, “दूर खड़ी वो चुइंगम चबा रही थी, सारे टंटे से बेफिक्र, जैसे लगा रोज़ की बात हो| हमसे रहा न गया, बीच बचाव करने पहुँच गए, पूछा क्या बात है? तो पता चला अंकल जी तो रेटलिस्ट वाले दाम पर अड़े थे, ऊपर से दो- चार ताने पूरी कुली जात पर और देश में फैलते भ्रस्टाचार पर पहले ही झाड़ चुके थे|”

दिवाकर ने ग्लास होंठों से लगाया, एक लम्बी चुस्की ली और पनीर का एक टुकड़ा चबाते हुए बोले, “हमने जैसे ही बीच-बचाव का प्रस्ताव रखा, अंकल जी को लगा मानों समर्थन मिल गया और वो और ताव में आ गए| बड़ी मुश्किल से दोनों को समझाया और मामला शांत किया| बातों- बातों में पता चला की वो भी शादी में ही आए थे| बंटी ने तो इशारा किया कि खिसक लेते हैं पर हमसे न रहा गया, बोल पड़े परेशान न होइए अंकल जी हम भी आपके साथ ही हैं, चलिए गाड़ी तक सामान पहुँचा देंगे| सामान उठा कर जैसे स्टेशन से बहार निकले, एक टेम्पो ट्रैक्स इंतज़ार कर रही थी| सारा सामान लाद दिया और जैसे ही आगे बढे, अंकल जी ने बोल दिया की जब एक ही घर जा रहे हो तो साथ ही चलो...सुबह सुबह कहाँ परेशान होगे| मामा जी का घर शहर से करीब पचास किलोमीटर दूर था सो साथ जाने में ही समझदारी थी| चारों ने पीछे की सीट पकड़ ली, करीब बीस –बाईस किलोमीटर गए होंगे की अंकल जी ने गाड़ी रुकवा दी, बोले सुबह हो गई है, ब्रश कर के चाय-वाय पी लेते हैं|”

दिवाकर ने बात जारी रखी, बोले “अब हम ठहरे लौंडे-लपाड़ी, न ब्रश का ध्यान था, न पेस्ट का| जब देखा उसे ब्रश करते हुए तो बेबाक पहुँच गए और बोल दिया, ब्रश –वश तो है नहीं, ऊँगली पर थोड़ा टूथपेस्ट दे दीजिए तो दांत साफ़ कर चाय पिए| यह शायद पहला मौका था जब हमने उसे इतनी करीब से देखा था और बात भी की होगी|”

दिवाकर न जाने किस दुनिया में खो गए|

“बड़े-बाबू,.....ओ बड़े-बाबू, ख़तम कीजिए भाई....अभी चौथे पर ही अटके हैं”, मंदार जोर देता, अपनी ग्लास दिखाते हुए बोला|

दिवाकर ने एक लम्बी चुस्की ली और फिर बोले, “सिगरेट है?”

स्वरचित कहानी
स्वप्निल श्रीवास्तव (ईशू)
कॉपी राईट

भाग 4/14 : तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई..... शिकवा, तो नहीं....