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बड़े बाबू का प्यार - भाग 7 14: तब भी था...आज भी..



भाग 7/14: तब भी था...आज भी..

बातों –बातों में कब नींद लग गई पता ही न चला....छह –सात ग्लास का सुरूर कम होता है क्या? कंडक्टर ने जब पाली उतरने की आवाज़ लगाई तब जा कर कहीं नींद खुली|

ठंडक का दिन और भोर के पांच बजे का समय, दिवाकर का मन तो किया कि एक सिगरेट और चाय पी ली जाए पर मंदार के पैरों में तो मानों मोटर फिट हो गई हो, चाह रहा था बस कैसे भी कर के ससुराल पहुँच जाए और अपनी बीवी से मिल ले|

पिछली रात इतने नशे में भी मंदार का दिमाग अच्छा चला था, रात न जाने कब पत्नी को मैसेज कर दिया कि मिलने आ रहा है|

जब बस स्टॉप पर उतरा तो उसका साला इंतजार में खड़ा था|

“आइए बड़े- बाबू, ये है योगेश, हमारे साले साहब| और योगेश ये हैं बड़े- बाबू....पाली के मेहमान|”

दोनों ने एक दूसरे का अभिनन्दन किया और बाइक पर बैठ तीनों घर को चल दिए|

जाड़े का दिन था अँधेरा अभी छंटा नहीं था, मंदार दिवाकर को गेस्ट रूम में ले गया और बोला, “बड़े- बाबू, अब थोड़ा कमर सीधी कर लीजिए, भोर में आपको सबसे मिलवाते हैं| पानी का ग्लास यहीं टेबल पर रखा है और लाइट का बटन तखत के सिरहाने ही है, तीसरे नंबर का|”

इतना बोल कर मंदार कमरे से निकल गया, दिवाकर ने हैण्ड बैग साइड में रखा और तखत पर लेट गए| थकान तो थी पर नींद गायब थी , लगा सपना न हो,...सो कर उठें और सब गायब....बस लेटे- लेटे पुराने दिनों को याद करते रहे|

“बड़े-बाबू.....ओ बड़े- बाबू”, मंदार ने दिवाकर को धीरे से हिलाया| “उठिए बड़े- बाबू नाश्ता तैयार है....चलिए उठ कर मुंह हाथ धो लीजिए |”

दिवाकर रात के थके थे सो सोचते –सोचते कब सो गए थे उन्हें होश ही न था, जब मंदार ने हिलाया तो नींद टूटी, बस संतोष इस बात का था कि कुछ भी सपना नहीं था| दिवाकर बाकायदा पाली में थे और अपने प्यार से मिलने वाले थे|

“अरे मंदार, ब्रश और पेस्ट तो रखना ही भूल गए कल...ज़रा मंजन तो देना”

“हाँ –हाँ आप आँगन में तो चलिए सब मिल जाएगा”, मंदार आश्वासन देते हुए बोला| “डॉली! टूथपेस्ट तो लाना, बड़े- बाबू जाग गए हैं|”

डॉली टूथपेस्ट ले कर आई, दिवाकर ने टूथपेस्ट पकड़ने के लिए नज़र उठाई, तो दोनों की आखें चौड़ी हो गई|

इधर डॉली के मुंह से निकला “तुम” उधर मंदार के मुहं से निकला “डॉली इनसे मिलो ये हैं बड़े- बाबू”

दोनों के शब्द लगभग एक समय पर छूटे होंगे|

मंदार ने चौंकते हुए पूछा, “तुम जानती हो बड़े बाबू को?”

“हाँ....जानते हैं,....दिवाकर हमारे कॉलेज में था .....बड़े बाबू.... कॉलेज में थे” डॉली शब्दों को बांधते हुए बोली|

संयोग देखिये, जाड़े का दिन तब भी था आज भी, सुबह का समय तब भी था आज भी, निगाहें मिलीं थी टूथपेस्ट पर तब भी आज भी.....

मंदार भी अब चुप –चुप सा था, तीनों जानते सब थे पर बोल कोई कुछ न पा रहा था, दिन बड़ा लम्बा कटा था मानो|

शाम तीनों बस स्टैंड पर खड़े बस का इंतज़ार कर रहे थे, ऐसा लगा जानते हुए भी अजनबी हों सारे|

स्वरचित कहानी
स्वप्निल श्रीवास्तव(ईशू)
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