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दह--शत - 42

एपीसोड ---42

           बेबस समिधा क्या करे ? वर्मा परिवार के साथ है विकेश के घिनौने दिमाग़ की ताकत, वह डरकर यहाँ से नहीं जा रहा। दिल्ली प्रेसीडेन्ट साहब को शिकायत करने की हिम्मत नहीं पड़ रही, एक बार उन्हें ही समझाकर देख लो। वह वर्मा की ड्यूटी पता करके एक दोपहर उनके घर की कॉलबेल बजा देती है । ये गुंडे हैं लेकिन अभय की छाती ठोकती हालत को देखकर अब कुछ तो करना ही पड़ेगा। दरवाज़ा राजुल खोलता है, उसे देखकर चौंक जाता है वह पूछती है, “तुम्हारे पापा घर पर हैं, मैं उनसे मिलना चाहती हूँ ।”

वह बिना कुछ कहे दरवाज़ा बंद कर लेता है समिधा इंतज़ार कर रही है एक....दो मिनट...पाँच मिनट...दस मिनट बाद समझ जाती है दरवाज़ा नहीं खुलने वाला है । अपने बिल में ये  दुबके ही रहेंगे । समिधा को उसी ताकत से उन्हें झिंझोड़ना है जिस ताकत से कविता ने महीने भर पहले से योजना बनाकर अभय से दरिंदगी की है ।

दो दिन बाद वह सुबह वर्मा की ड्यूटी पता करके उनके घर के पीछे की सीढ़ियाँ चढ़ जाती हैं क्योंकि बरामदे में जाली लगी है, उसे जो कहना है वह बाहर से भी कह सकती है । उसे अब समझ आ रहा है जब अपना कोई किसी डॉन के चंगुल में फँस गया हो तो फ़िल्मी हीरो कौन सी हिम्मत से अकेले ही डॉन के आयलैंड में घुस जाता है । दाँयीं तरफ खिड़की पर कविता आ जाती है । उसे देखकर चौंकती है, “आप? आप क्यों मेरे हसबैंड को बार-बार ऑफ़िस में फ़ोन करती हैं?”

“तुम मेरे हसबैंड की जान से खेल रही हो। तुम्हारा वहशीपन नहीं रुक रहा इसलिए मैं बबलूजी से बात करने आई हूँ ।”

सोनल अंदर से चीख उठती है, “पापा ! पापा ! आज इन्हें मत छोड़िए, देखिए अपने घर तक आ गईं।”

बबलूजी झपटकर दरवाज़ा खोलकर एक हाथ से उसे धक्का मार देते हैं, “मेरे घर आने की हिम्मत कैसे हुई ?” इस धक्के से वह ज़मीन पर लुढ़क पड़ती है ।

“अपनी बीबी को इधर-उधर छोड़ने जाते हो और मुझसे हिम्मत की बात कर रहे हो ?” वह एकदम से उठकर खड़ी हो जाती है । यदि सीढ़ी की तरफ लुढ़क गई होती तो पता नहीं उसकी कितनी हड्डियाँ टूट गई होती।  क्या तभी चित्रकार हुसैन की पेंटिंग चर्चा में है, सरस्वती पर हिंस्र पशु का हमला ।

वह स्वयं दो-तीन सीढ़ियाँ उतरकर अपने को सुरक्षित समझने लगती है । वर्मा दोबारा उसको धक्का देने झपटता है लेकिन कविता अंदर से निकल कर कहती है, “ठहरो ऽ ऽ...”

वह ऐसे रुक जाता है जैसे रोबोट का बटन दबा दिया हो, “मैं आपकी पुलिस में रिपोर्ट करूँगा ।”

“मैंने एम.डी. साहब के कहने से पुलिस में ‘एप्लीकेशन’ दे रखी है ।”

“एम.डी. कौन होता है ?”

“अच्छा दिल्ली में प्रेसीडेन्ट भी कोई नहीं होते ?”

सोनल हिस्टीरिया के मरीज़ की तरह एक डंडा उठाकर चीखती है, “पापा ! इससे मारिए।”

वह अपनी कमर पर हाथ रखकर अकड़कर खड़ी हो जाती है, “ज़रा हाथ लगाकर तो देखो ।”

“मैं तेरी बेटी की शादी तुड़वाऊंगी...मैं रोली की शादी तुड़वाऊँगी।” वह डंडा लेकर उछल रही है ।

समिधा व्यंग से कहती है, “इस जैसी माँ की बेटी और कर भी क्या सकती है ? तो तुम प्रोफ़ेशनली शादी तुड़वाने वाले लोग हो। मैं समझती थी टी.वी. सीरियल वाले कैसे बेहूदे सीरियल लिखते हैं।” फिर वो बबलू जी से कहती है, “वो ‘प्लेस’ पहचान लिया गया है। शराफ़त से यहाँ से चले जाओ, नहीं तो सोनल की शादी नहीं कर पाओगे ।”

वर्मा का चेहरा एकदम सपाट है आँखों मे कोई भाव नहीं है जैसे चलती-फिरती कोई कठपुतली हो । वह जगह पहचान लिये जाने से डर क्यों नहीं रहा ? तो उसका शक सही है कविता इसे भी नशे में रखकर ऊँगलियों पर नचाती है ।

अचानक कविता चीखने लगती है, “इनका दिमाग़ खराब हो गया था, इनका इलाज करवाया गया है । इन्होंने संजना के पति पर भी डोरे डाले थे। उन्हें साइकिक कर दिया था.... वो इसी के कारण मर गये थे।”

“वॉट?” समिधा अचकचा जाती है तो दुश्मनों की पूरी फ़ौज तैयार हो गई है। वे भी ऐसे दुश्मन जिनकी सहायता वह दोनों  हाथों से करती रही है। संजना को अभय ने दुकान के पास देखा था, समिधा का शक सही था उसे कविता के पास विकेश ने भेजा था। सोनल भी कुछ चीखे जा रही थी । उनके वहशीपन से चीखने से समिधा का ध्यान आस-पास की बिल्डिंग से झाँकते सिरों की तरफ़ जाता है । इस गला फाड़ती चीखती नीच औरत से क्या कहें ? इस सुंदर कॉलोनी में जाने कैसे आ बसी है । वह इतना कहकर सीढ़ी उतर लेती है, “तू तो कोई भयंकर महापिशाचिनी है । अपने पति को भी ड्रग देकर काबू में रखती है।”

घर आकर उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा है, हाथ-पैर शिथिल हो रहे हैं । जो तमाशा हो गया है उसे सोचकर समिधा को शर्म आ रही है । लेकिन कविता अभय के लिए कुछ दिन कोई जाल बुनने की कोशिश नहीं करेगी ।

पंद्रह बीस मिनट बाद साँस की थरथरी काबू में आई है तभी फ़ोन की घंटी बज उठती है । अक्षत है, “मॉम !क्या चल रहा है ?”

“बेटे ! मुझे तेरी बहुत याद आ रही थी । आज इस समय कैसे फ़ोन किया ?”

“बस ऐसे ही आपकी याद आ रही थी ।”

“समिधा का सब्र बाँध तोड़ आँखों के रास्ते बह निकलता है, वह सारी घटना उसे बताने लगती है।”

वह चिल्लाता है, “वे गुंडे है । उनके घर जाने की आपको ज़रूरत क्या थी?”

“तेरे पापा को पागल बनाये दे रहे हैं । रुपया खींच नहीं पा रहे तो कुछ न कुछ हमारा नुकसान तो उन्हें करना ही है । वर्मा को दो रजिस्टर्ड ए.डी. पत्र डालकर समझाया था तब भी नहीं मानता ।”

“वॉट ? मैंने आपको कितना समझाया था आप लिखकर उन्हें कुछ नहीं देंगी ।”

“बेटे ! मैं तो एक-एक बात के लिए ‘फ़र्म’ हूँ । एम.डी. को दी गई कॉपी इनके पास है । मैं  अगर ग़लत होती तो ये अब तक मानहानि का मुकदमा कर देते ।”

शाम को साढ़े पाँच बजे कॉलबेल बजती है । वह सोचती है अभय आये होंगे । दरवाज़ा खोलकर देखती है अक्षत खड़ा है।

“तुम ?” उसके आँसू छलछला आते हैं ।

वह उसके गले से लिपट जाता है, “आपने इतना बड़ा कदम उठाया। कम से कम पूछ तो लेतीं ?”

वह उसके गले से लिपट जाता है, “आपने इतना बड़ा कदम उठाया। कम से कम पूछ तो लेतीं ?”

“तुम से क्या पूछती ? तुम कैसे आ गये ?”

“वर्मा अंकल की मोबाइल पर कॉल आयी थी अपनी माँ को समझा लो वर्ना किसी एक का ख़ून हो जायेगा।”

“बीवी से धंधा करवाने वालों की इतनी हिम्मत? वह गुंडी इनसे हर तरह की धमकियाँ दिलवा रही है- तुम विधवा हो जाओगी, यदि नहीं मानी तो अपना सब कुछ खो दोगी। इस औरत की हिम्मत तोड़कर मुझे रखनी है, ये मेरा अपने आपसे वायदा है। पहले ये गुंडे कह रहे थे अकेली औरत क्या कर लेगी और अब एक बच्चे यानि तेरा सहारा ले रहे हैं।”

अभय घर आकर अक्षत को देखकर चौंकते हैं, “तुम आज कैसे आ गये?”

“एक इंटर्व्यू देने आया था।”

अभय सहज है, उन्हें सुबह की घटना की ख़बर नहीं लगी है। अक्षत को दूसरे दिन वह ज़बरदस्ती उसके शहर भेज देती है।

दूसरे दिन ही शाम को अभय का मुँह फूला हुआ है, “तुम में और बाइयों में कुछ अंतर है या नहीं? तुम वहाँ लड़ने पहुँच गईं?”

“अभय ! एक औरत कोठेवालियों से भी अधिक हिम्मत रखती है। तुम्हें नहीं लगता जैसे भगवान हमें बार-बार संकेत देकर बात बढ़ने से रोक रहा है? उस दिन नीता रास्ते में नहीं मिलती तो मैं समझ ही नहीं पाती कि क्या हुआ था? तुम्हें इसी तरह ड्रग देने का सिलसिला शुरू हो जाता।”

“ये क्या ड्रग-ड्रग लगाती रहती हो? तो तुम बाइयों की तरह लड़ने जाओगी?”

“मुझे पता थोड़े ही था वे सीन क्रिएट कर देंगे? वे हमारे घर आये थे तो उन्हें बिठाकर बात की थी या नहीं ? मालूम है वह गुंडी क्या चिल्ला रही थी इनका दिमाग़ ख़राब हो गया है, इनका इलाज करवाया गया है जैसे मुझे यहाँ कोई नहीं जानता। वह कह रही थी संजना के पति पर मैंने डोरे डाले हैं इसलिए वह साइकिक हुआ था इसलिए मरा है।”

“सच ही तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो रहा है। चलो दिखा देते हैं।” वे तेज़ आवाज़ में कहते हैं, “संजना से तुम्हारी लड़ाई हुई थी तो उसका ये भी कारण हो सकता है जो कविता कह रही थी।” फटी-फटी आँखों से रटाई हुई बात दोहरा रहे हैं।

“अभय ! ये तुम कह रहे हो? अब तक मुझे बेहद शर्म आ रही थी कि ‘सीन क्रिएट’ हो गया है लेकिन मैं अब खुश हूँ। उस दरवाज़ा बंद किये, पर्दे पड़े घर में कौन सोच सकता है कि एक ज़हरीली नागिन रहती है। उसे मैं बाहर खींचकर ले आई उसका असली रूप सबने देख लिया। मैं तो बरसों से यहाँ रह रही हूँ।”

अभय दहाड़ते हैं,“तुम उसकी पुलिस में रिपोर्ट नहीं कर रही तो मेरी रिपोर्ट कर दो।” वे फटी फटी आँखों से आज भी छाती पीटते हैं, “मैं सालों जेल में काट सकता हूँ।”

उनकी हालत देखकर वह अब समझ गई है अभय को फिर कुछ खिलाकर नशे में शहीद होने का पाठ पढ़ाया गया है, “अभय ! ये तुम नहीं गुंडे तुम्हारे मुँह से बोल रहे हैं।” कहते हुए वहाँ से हट जाती है।

-नीलम कुलश्रेष्ठ

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